चीनी

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 15:14
चीनी (शर्करा) कार्बनिक यौगिकों का एक वर्ग 'कार्बोहाइड्रेट' है। कार्बोहाइड्रेटों के एक समूह के यौगिकों को शर्करा कहते हैं। कुछ शर्कराएँ प्रकृति में पाई जाती हैं और कुछ संश्लेषण से प्रयोगशालाओं में तैयार हुई हैं। शर्कराएँ उदासीन यौगिक हैं। पानी में जल्द घुल जातीं, एलकोहल में कठिनता से घुलतीं और ईथर में बिल्कुल घुलती नहीं हैं। गरम करने से ये भूरी होकर झुलस जाती हैं। जलने पर विशेष प्रकार की गंध देती हैं, जिसे 'जली शर्करा की गंध' कहते हैं। शर्कराएँ प्रकाशसक्रिय होती हैं। प्रत्येक शर्करा का अपना विशिष्ट घूर्णन होता है।

कुछ शर्कराएँ फेलिंग विलयन का अवकरण करतीं, कुछ फेनिल हाइड्रेजिन से अविलेय मणिभीय ओसोज़ीन बनती और कुछ किण्वन क्रिया देती हैं जिनसे शर्कराओं को पहचानने में सहायता मिलती है।

वैज्ञानिकों ने शर्कराओं को तीन वर्गो में विभक्त किया है। एक वर्ग की शर्कराओं को 'मोनो-सैकराइड', दूसरे वर्ग की शर्कराओं को 'डाइ-सैक्राइड' और तीसरे वर्ग की शर्कराओं को 'ट्राइ-सैकराइड' कहते हैं। इनमें 'डाइ-सैकराइड' अधिक महतव के हैं। प्रथम वर्ग की शर्कराओं में द्राक्षशर्करा (glucose) और फलशर्करा (fructose), दूसरे वर्ग की शर्कराओं में ईक्षुशर्करा (चीनी; sucrose), दुग्धशर्करा (lactose) और माल्ट शर्करा हैं। तीसरे वर्ग की शर्कराओं में स्टार्च और सैलूलोज हैं। (देखें कार्बोहाइड्रेट)

ईक्षुशर्करा 


ईक्षुशर्करा को साधारणतया 'चीनी' और कहीं कहीं 'शक्कर' भी कहते हैं। उद्भिद् जगत्‌ के पेड़ पौधों की जड़ों, डंठलों, वृक्षरसों और अधिकांश फलों के रसों में विस्तृत रूप से फैली हुई, चीनी पाई जाती है। ईख, चुकंदर, शकरकंद, गाजर, शलजम, गाठगोभी, ताड़रस मक्का के डंठलों और मैपल पेड़ के रस में चीनी विशेष रूप से पाई जाती है। ईख और चुकंदर से बड़ी मात्रा में चीनी तैयार होती है। ईख उष्ण देशों में और चुकंदर समशीतोष्ण देशों में उपजता है। समस्त संसार के उत्पदन की दो तिहाई चीनी ईख से और एक तिहाई चुकंदर से प्राप्त होती है। चुकंदर से चीनी प्राप्त करने की मात्रा धीरे धीरे बढ़ रही है। भारत में ताड़ के रस से गुड़ तैयार होता है और उससे चीनी तैयार करने का भी प्रयास हो रहा है।

चीनी एकनत मणिभ बनाती है। यह पानी में शीघ्र घुल जाती है और ऐलकोहल में कठिनता से घुलती है। 20 सें. पर संतृप्त विलयन में 67.1 प्रतिशत चीनी रहती है। इसका विलयन प्रकाशत: 'दक्षिणावर्ती' (dextrorotatory) होता है। इसका विशिष्ट घूर्णन  66.53 है। यह गरम करने से विघटित हो झुलस जाती है और जली शर्करा को गंध देती है।

भारत, हवाई, फिलिपाइन, जावा, क्यूबा, पोर्टोरिको, बरबेडोज, नेटाल, मॉरिशस, साउथ क्विन्सलैंड तथा नयू साउथ वेल्स में ईख के डंठलों से और यूरोप, कैनाडा और अमरीका के कुछ राज्यों  मिशिगैन, ऊटा, कोलारैडो और तटवर्ती कैलिफोर्निया में चुकंदर से बड़े पैमाने पर चीनी प्राप्त होती है। दोनों स्त्रोतों से प्राप्त शुद्ध चीनी में कोई अंतर नहीं होता।

चुकंदर से चीनी 


चुकंदर की जड़ में पहले केवल पाँच प्रतिशत चीनी पाई गई थी पर उन्नत कर्षण और उपयुक्त खाद के उपयोग से चीनी की मात्रा 20 प्रति शत तक बढ़ाई गई है। औसत मात्रा 17 प्रतिशत रहती है। चुकंदर से चीनी प्राप्त करने की विधि को 'विसार विधि' (Diffusion process) कहते हैं। विसार विधि से प्राप्त चीनी के रस में अपद्रव्यों की मात्रा अपेक्षया कम रहती है।

चीनी तैयार करने के लिये चुकंदर की जड़ की सफाई होती है। जड़ में चिपकी मिट्टी, कंकड़, छोटे छोटे तंतु आदि निकाल दिए जाते हैं, फिर उसे यंत्रों से पतले कतलों में काटते हैं ताकि चीनी वाली कोशिकाएँ निकल आएँ। अब कतलों को एक पंक्ति में रखे गहरे बेलनाकार पात्रों में रखते हैं। ये पात्र एक के बाद दूसरे ऐसे रखे होते हैं कि एक का पानी दूसरे में सरलता से पेंदी की नली द्वारा बहकर निकल सके। पहले के कुछ पात्रों में ऐसे कतले रखे जाते हैं जिनसे चीनी एक बार निकाल ली गई है। बाद के पात्रों में ताजे कतले रहते हैं। पहले पात्र में ताजा गरम पानी डालते हैं जो क्रमश: विभिन्न पात्रों द्वारा बहता हुआ अंत में उन पात्रों में पहुँचता है जिनमें चुकंदर के बिल्कुल ताले कतले रखे होते हैं। जब प्रथम पात्र के कतलां की समस्त चीनी निकल जाती है तब उसे निकालकर उसके संनिकट के दूसरे पात्र को प्रथम स्थान देते और अंत में ताजे कतलेवाला एक पात्र जोड़ देते हैं। यह क्रम बराबर चलता रहता है। अंतिम पात्र तक पहुँचते पहुँचते रस मेघाभ हो जाता है और चीनी की मात्रा 12-15 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। घनत्व 14 -17 ब्रिक्स हो जाता है। ऐसे रस में चीनी के अतिरिक्त कुछ अशर्कराएँ, फॉस्फोरिक, सलफ्यूरिक, हाइड्रोक्लोरिक, आक्सैलिक और टार्टरिक अम्लों के पोटाश लवण, प्रोटीन, ऐमिनो-अम्ल, नाइट्रोजन समाक्षार, पेक्टिन और अल्प अपवृत-शर्करा रहती है।

दो से तीन प्रति शत चूना डालकर प्राय: दो घंटे तक गरम करने से रस का विमलीकरण होता है। उसके बाद कार्बन डाइ-ऑक्साइड पारित कर 'कारबोनेटीकरण' द्वारा चूने के आधिक्य को निकाल लेते हैं। कैलसिमय कार्बोनेट का अवक्षेप बनता है। अवक्षेप के साथ साथ अधिकांश अपद्रव्य भी निकल जाते हैं। कुछ कारखानों में केवल एक कार्बोनिटीकरण पर्याप्त होता है और कहीं कहीं यह दोहराया भी जाता है। अब रस को निस्यंदन दाबक में छानकर बहुप्रभाव (साधारण दो या तीन प्रकार) उद्वाष्पक में रखकर गाढ़ा करते हैं। जब मणिभ निकल आते हैं तब निर्वात कड़ह में रखकर ठंढा करते हैं। गरम करने में सावधानी रखते हैं ताकि ताप इतना ऊँचा न हो जाए कि चीनी विच्छिन्न होन लगे और उसमें रगं आ जाए। निर्वात कड़ाह के इस उत्पाद को मासक्विट (masscuite) या 'रवा' कहते हैं। इसमें चीनी के मणिभ और छोआ दोनों रहते हैं। ठंढा करने से धीरे धीरे और मणिभ निकलते हैं। मासक्विट को अपकेंद्रित्र में रख्कर मणिभ और छोआ कोअलग अलग करते हैं। मणिभ को फिर पानी से धो लेते हैं। ऐसा मणिभ बिल्कुल सफेद नहीं होता। इसमें कुछ रंग रह जाता है। ऐसी रंगीन चीनी की सफाई वैसे ही होती है जैसे ईख की चीनी की। तब इस चीनी और ईख की चीनी में कोई अंतर नहीं रह जाता है। दोनों बिलकुल एक सी होती हैं। छोआ का सांद्रण कर उससे और मणिभ प्राप्त कर सकते हैं। अवशिष्ट छोए में कुल चीनी अब भी रह जाती है किंतु उससे और चीनी निकलना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं होता। इस छोए के उपयोग वे ही हैं, जो ईख के छोए के हैं। इसका किण्वन कदाचित्‌ ही होता है।

ईख से चीनी 


ईख एक प्रकार की घास है जिसमें एक डंठल होता है। डंठल के शिखर पर पत्तों का एक गुच्छा लगा रहता है। ईख और चुकंदर से चीनी निकालने के सिद्धांत एक से ही हैं यद्यपि विस्तार में कुछ अंतर हो सकता है। ईख को खेतों से काटकर, पत्तों को छील कर शिखर के गुच्छे को तोड़ कर जल्द से जल्द कारखाने में लाते हैं नहीं तो अपवर्तन से कुछ चीनी के नष्ट हो जाने की आशंका रहती है। कारखानों में ईख को छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर कुचलते हैं ताकि कोशिकाएँ खुल जाएँ। फिर उसे बेलन कोल्हू में पेरते हैं। कोल्हू नलीदार होती है और धीरे धीरे चलता है। कोल्हू में तीन बेलन होते हैं, दो नीचे और एक ऊपर जिनके बीच ईखें दबाई जाती हैं। यदि पानी न डाला जाय तो ऐसे दलन को 'शुष्क दलन' कहते हैं। पर साधारणतया कुछ रस निकल जाने पर गरम पानी छिड़ककर दोबारा या तिबारा फिर बेलन कोल्हू में पेरते हैं। ऐस दलन को 'गीला दलन' कहते हैं। रस चूकर द्रोणी में इकट्ठा होता है। गीजे दलन से रस कुछ हल्का अवश्य हो जाता है, पर ईख से अधिकतम चीनी निकल आती हैं। हल्के और गाढ़े दोनों रसों को मिला देते हैं। ईख में रस की मात्रा विभिन्न स्थलों में विभिन्न होती है। ईख की परिपक्वता पर भी रस में चीनी की मात्रा निर्भर करती है। ईख का प्राय: 60 से 80 प्रतिशत रस निकल जाता है। कोल्हू जितना ही दक्ष होगा उतना ही अधिक रस निकलेगा। ऐसे रस का संघटन एक सा नहीं होता। इसका औसत विश्लेषण निम्नलिखित है:

 

प्रतिशत

जल

77-88

चीनी

8-21

अपवृत्त शर्करा

0.3-3.0

राख

0.2-0.6

कार्बनिक अशर्कराएँ

0.5-1.0



ऐसा रस गँदला ओर अम्लीय पी एच. 4.8 से 5.6, होता है। इसकी शर्करा का अपवर्तन बहुत शीघ्र होता है। अपवर्तन रोकने के लिये इसको मिश्रक टंकी में रखकर पर्याप्त चूना डालकर क्षारीय बना लेते हैं। इतना चूना डालते हैं कि पी एच. 7.0-7.2 हो जाय। चूना डालकर रस को प्राय: एक घंटे तक गरम करते हैं। गरम करने से रस के कुल कोलायडल अपद्रव्य अवक्षिप्त होकर अलग हो जाते हैं। रस के अम्ल चूने के साथ मिलकर अम्लता को दूर कर कैलसियम लवणों को अवक्षिप्त करते हैं। इसको कुछ समय तक रख देने से अवक्षिप्त अपद्रव्य तल में बैठ जाते और ऊपर का स्वच्छ द्रव बहाकर निकाल लिया जाता है। आजकल अपद्रव्यों को निकालने के लिये छनने बने हैं जिनमें छानने से रस के अपद्रव्य और अवक्षेप निकल जाते हैं। छनने के पट्टों में अपद्रव्य टिकियों के रूप में प्राप्त होते हैं। इनका उपयोग खाद के लिये होता है।

स्वच्छ रस में प्राय: 14 प्रति शत तक चीनी रहती है। रस के उद्वाष्पकों में गाढ़ा करते हैं ताकि चीनी की मात्रा लगभग 50 प्रतिशत हो जय, ऐसा गाढ़ा विलयन स्वच्छ, पर अधिक श्यान होता है। उद्वाष्पन बंद पात्र में न्यून दबाव पर किया जाता है। न्यून दबाव से उद्वाष्पन का ताप ऊँचा नहीं उठता। खुले पात्र में सामान्य दबाव पर उद्वाष्पन से शीरे का रंग गाढ़ा हो जाता है और कुछ चीनी विच्छिन्न भी हो जाती है। शीरे को इतना गाढ़ा करना चाहिए कि महत्तम चीनी निकल सके। अनुभव से ही यह पता लगता है कि शीरा कितना गाढ़ा होना चाहिए। इस काम पर नियुक्त अनुभवी होते हैं, जो आँखों से देखकर ही बता देते हैं कि उद्वाष्पन कब बंद कर देना चाहिए। इस काम के लिये अब यंत्र भी बने हैं।

जब शीरा यथोचित गाढ़ा हो जाता है तब उसे निर्वात कड़ाह में ठंढा होने और मणिभ बनने के लिये छोड़ देते हैं। मणिभ और छोए के इस मिश्रण को 'मासक्विट' या 'रवा' कहते हैं। मासक्विट में प्राय: 82 प्रतिशत चीनी और 8 प्रतिशत जल रहता है। मासक्विट की समस्त चीनी का 56 प्रतिश मणिभ के रूप में ओर शेष 44 प्रतिशत तक हो जाती है। आवश्यक मणिभ पृथक्‌ हो जाने पर अपकेंद्रित्र में मणिभ को छोए से अलग करते हैं। जब सारा छोआ निकल जाता है, तब मणिभ को एक बार फिर पानी से धोकर सुखा लेते हैं। इस प्रकार कच्ची चीनी या अपरिष्कृत चीनी प्राप्त होती है। इसका रंग बिल्कुल सफेद नहीं होता। अनेक कारखानों में इसी रूप में चीनी बेच दी जाती है।

चीनी का परिष्कार 


कच्ची चीनी में प्राय: 95 प्रतिशत चीनी, 1.0 प्रतिशत ग्लूकोज, 0.55 प्रतिशत राख और शेष जल रहता है। इसमें कुछ रंग और अल्प गंध भी रहती है। सफाई करने से इसके रंग और गंध दूर हो जाते तथा समस्त अपद्रव्य भी निकल जाते हैं। सफाई के लिये कच्ची चीनी को पूर्व के घान के विलयन से प्राप्त अवशेष विलयन के साथ मिलाते हैं जिससे कुछ रंग निकल जाता और अविलेय मणिभ रह जाते हैं। उसका अपकेंद्रण कर टोकरियों में धोते और बहुत थोड़े जल में घुलाकर शीरा बनाते हैं। शीरे में थोड़ा चूना डालकर भाप पारित करते हैं। उसे फिर हड्डी के चूरे पर 20 फुट ऊँचे और तीन फुट चौड़े सिलिंडरों में छानते हैं। छने हुए विलयन को पूर्व की भाँति मासक्विट बनाकर फिर दानेदार चीनी को अपकेंद्रित्र में अलग कर घूर्णाक शोषक में सुखाकर साफ चीनी प्राप्त करते हैं।

कुछ समय के बाद हड्डी का चूरा निष्क्रिय हो जाता है, उसे धोकर वायु की अनुपस्थिति में रक्त तप्त (red hot) कर फिर सक्रिय बना लेते हैं। कई उपचार के बाद हड्डी का रंग दूर करने का गुण बिल्कुल नष्ट हो जाता है। तब उसे फास्फेट के कारण उर्वरक के काम में लाते हैं।

हड्डी के चूरे के स्थान पर आज कल अन्य पदार्थो का उपयोग बढ़ रहा है। एक ऐसा ही पदार्थ 'सचार' (Suchar) है जो नारियल के कोयले से तैयार हुआ है। 'संचार' को एक बार उपयोग कर फेंक देते हैं। इसी तरह के अन्य पदार्थो में 'नौरिट' (Norit), डारको (Darco) तथा सुक्रोब्लॉक हैं। 'सुक्रोब्लॉक' (Sucroblanc) की सर्वप्रियता दिनों दिन बढ़ रही है। सुक्रोब्लॉक में कैलसियम परक्लोराइट, कैलसियम सुपर फास्फेट, चूना और 'फिल्टरसेल' (Filtercell) रहते हैं। इसके उपचार से अल्प ऑक्सीजन उन्मुक्त होता है जो कोलायडल अपद्रव्यों को ऊपर तल पर उठा देता है। पेंदे से वर्णरहित स्वच्छ विलयन निकाल लिया जाता है। चूने के आधिक्य को कार्बन डाइ-ऑक्साइड से न निकालकर यदि सल्फर डाइऑक्साइड से निकालें तो उससे भी रस का विलयन वर्णरहित हो जाता और साफ चीनी प्राप्त होती है। इसको 'सल्फीटेशन' (Sulphitation) विधि कहते हैं। किसी कारखाने में केवल कारबोनेशन विधि, किसी में केवल सल्फीटेशन विधि और किसी किसी में कारबोनेशन और सल्फीटेशन दोनों विधियाँ साथ साथ प्रयुक्त होती है।

चीनी के स्वच्छ विलयन को उद्वाष्पकों में पूर्व की भाँति गाढ़ाकर घूर्णक शोषकों में गरम वायु से सुखाकर चलनी में चालकर भिन्न भिन्न आकार के मणिभों को अलग अलग बोरों में भरकर बाजारों में भेजते हैं।

चीनी के निर्माण की सफलता के लिये ईख का चुनाव, चूने की मात्रा, विमलीकरण क्रिया का संपादन ओर मणिभों का पृथक्करण उचित ढंग से होना चाहिए।

चीनी के निर्मांण में निम्नलिखित उपजात प्राप्त होते हैं :

1. रस की तलछट, (2) छोआ, (3) निकाटिनिक अम्ल, (4) मोम और (5) सीठा या खोई।

रस की तलछट में पर्याप्त नाइट्रोजन रहता है। खाद के लिये इसका उपयोग होता है। जलाने से कार्बोनेट और फॉस्फेट प्राप्त होते हैं जो सीमेंट बनाने में प्रयुक्त हो सकते हैं।

जितनी चीनी बनती है उसके प्राय: आधे परिमाण में छोआ प्राप्त होता है। छोआ के एक बार फिर सांद्रण से चीनी के मणिभ प्राप्त हो सकते हैं। बेरियम सैकेरेट विधि से भी चीनी प्राप्त हो सकती है। इस विधि में छोआ को बेरियम हाइड्रॉक्साइड के साथ उपचारित करते हैं। इससे बेरियम सैकेरेट का अवक्षेप प्राप्त होता है। इस अवक्षेप को कार्बन डाइ-ऑक्साइड के साथ उपचारित करने से बेरियम कार्बोनेट अवक्षिप्त हो जाता है और चीनी विलयन में रह जाती है। पूर्व की भाँति विलयन के उपचार से चीनी के मणिभ प्राप्त हो सकते हैं। पर साधारणतया ऐसा नहीं होता क्योंकि आर्थिक दृष्टि से यह लाभप्रद नहीं है। बेरियम कार्बोनेट फिर बेरियम हाइड्रॉक्साइड में परिणत किया जा सकता है, छोए के किण्वन से एथिल ऐलकोहल (स्पिरिट), ऐसीटोन, ब्युटिल, ऐलकोहल, सिट्रिक अम्ल आदि अनेक उपयोगी उत्पाद प्राप्त हो सकते हैं जो रबर, प्लास्टिक और औषधियों के निर्माण में काम आते हैं। छोआ पशुओं को सिखाया भी जाता है। पीने की तंबाकू बनाने में छोआ काम आता है।

छोए में निकोटिनिक अम्ल पाया गया है। यह सरलता से निकाला जा सकता है। प्लास्टिक और इमलशन के निर्माण तथा सूक्ष्म कीटाणुओं का नाश करने में इसका व्यवहार होता है।

ईख के रस में कुछ मोम भी रहता है, मोम कठोर और कोमल दोनों किस्म का होता है। यह मोम निकाला गया है।

ईख का रस निकाल लेने पर जो अवशिष्ट अंश बच जाता है उसे सीठा या खोई कहते हैं। पहले यह केवल पशुओं को खिलाने और जलावन में प्रयुक्त होता था। पर अब इसके उपयोग दिन दिन बढ़ रहे हैं। खोई की लुगदी से कागज तैयार किया गया है। छप्पर बनाने के काम में आनेवाला सेलोटेक्स (Celotex) नामक गृहनिर्माण का एक प्रकार का मजबूत तख्ता या चादर, जो प्राय: एक चौथाई इंच मोटी बनती है, इसी से बनती है। यह लकड़ी से अधिक मजबूत होती है और इसका विद्युदवरोधक गुण भी उत्कृष्ट होता है। इसके सैलूलोज से रेयन भी बन सकता है।

चीनी के उपयोग 


मनुष्य के आहार में चीनी अत्यावश्यक नहीं पर मीठे स्वाद और सरलता से प्राप्ति के कारण मनुष्य का यह एक प्रमुख आहार बन गया है। चीनी बलवर्धक है, शरीर में शक्ति उत्पन्न करती और थकावट दूर करती है। अधिकांश चीनी खाने में ही खर्च होती है। आहार के बाद चीन का व्यापक उपयोग औषधियों में होता है। अनेक औषधियों के कडुए स्वाद को छिपाने में चीनी के शीरे का उपयोग होता है। चीनी के सहयोग से कुछ औषधियों का प्रभाव मानव शरीर पर जल्द पड़ता है। ऐसा अनुमान है कि प्रति वर्ष छह करोड़ पाउंड चीनी एलोपैथिक औषधियों में खपती है। च्यवनप्राश सदृश अनेक आयुर्वेदिक औषधियों में भी चीन का उपयोग होता है। फलों के संरक्षण में चीनी खर्च होती है। मांस भी चीनी से सुरक्षित रखा जाता है। शर्बत और फेनिल पेय तैयार करन में पर्याप्त चीन खपती है। कुछ सुरापेय भी चीनी से बनते हैं। अनेक खाद्य सामग्रियों, रंगों, अभिघटकों और विटामिनों के निर्माण में चीनी लगती है।

चीनी का विश्लेषण 

चीनी का विश्लेषण महत्व का है। चीनी की मात्रा निर्धारित करने में साधारणतया दो विधियाँ, एक भौतिक और दूसरी रासायनिक, प्रयुक्त होती हैं। भौतिक विधि में जो उपकरण प्रयुक्त होता है उसे शर्करामापी (Saccharimeter) कहते हैं। इससे चीनी का विशिष्ट घूर्णन मापा जाता है जिससे चीनी की मात्रा निकाली जाती है। रासायनिक विधि में फेलिंग का विलयन प्रयुक्त होता है।

फेलिंग के विलयन में घुला हुआ कॉपर ऑक्साइड रहता है। चीनी के जलविश्लेषण से जो द्राक्षशक्ररा और फलशर्करा दो यौगिक बनते हैं वे कॉपर ऑक्साइड का अवकरण करते हैं जिससे कॉपर ऑक्साइड के विलयन का नीला रंग निकल जाता है अथवा ताँबे का निम्नतर ऑक्साइड बनता है जो जल में अविलेय होने के कारण अवक्षिप्त होकर पृथक्‌ हो जाता है। अवक्षेप को धो और सुखाकर तौलते हैं और इस भार से चीनी की मात्रा निर्धारित करते हैं। (फूलदेवसहाय वर्मा)

Hindi Title

चीनी


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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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