चकबंदी

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 15:23
चकबंदी वह विधि है जिसके द्वारा व्यक्तिगत खेती को टुकड़ों में विभक्त हाने से रोका एवं संचयित किया जाता है तथा किसी ग्राम की समस्त भूमि को और कृषकों के बिखरे हुए भूमिखंडों को एक पृथक्‌ क्षेत्र में पुनर्नियोजित किया जाता है। भारत में जहाँ प्रत्येक व्यक्तिगत भूमि (खेती) वैसे ही न्यूनतम है, वहाँ कभी कभी खेत इतने छोटे हो जाते हैं कि कार्यक्षम खेती करने में भी बाधा पड़ती है। चकबंदी द्वारा चकों का विस्तार होता है, जिससे कृषक के लिये कृषिविधियाँ सरल हो जाती हैं और पारिश्रमिक तथा समय की बचत के साथ साथ चक की निगरानी करने में भी सरलता हो जाती है। इसके द्वारा उस भूमि की भी बचत हो जाती है जो बिखरे हुए खेतों की मेड़ों से घिर जाती है। अंततोगत्वा, यह अवसर भी प्राप्त होता है कि गाँव के वासस्थानों, सड़कों एवं मार्गों की योजना बनाकर सुधार किया जा सके।

चकबंदी का कार्य सर्वप्रथम प्रयोगिक रूप से सन्‌ 1920 में पंजाब में प्रारंभ किया गया था। सरकारी संरक्षण में सहकारी समितियों का निर्माण हुआ, ताकि चकबंदी का कार्य ऐच्छिक आधार पर किया जा सके। प्रयोग सामान्य: सफल रहा, किंतु यह आवश्यक समझा गया कि पंजाब चकबंदी कानून 1936 में पास किया जाय, जिसके द्वारा अधिकारियों को योजना तथा काश्तकारों के मतभेदों का निर्णय करने का अधिकार प्राप्त हो जाय। 1928 में 'रायल कमीशन ऑन ऐग्रीकल्चर इन इंडिया' ने, जिसे इसका अधिकार नहीं था कि वह जमीन की मिल्कियत में कोई परिवर्तन करे, यह संस्तुति की कि अन्य प्रांतों में भी चकबंदी ग्रहण कर ली जाय। परंतु केंद्रीय प्रांतों और पंजाब के अतिरिक्त, जहाँ कुछ सीमित सफलता के साथ चकबंदी कार्य हुआ, अन्य प्रांतों में बहुत कम सफलता प्राप्त हुई। यह पाया गया कि थोड़े से ही एसे खंड थे जहाँ पंजाब की भूमि की अदला बदली या चकबंदी द्वारा होनेवाली क्षति की जोखम उठाने को अनिच्छुक थे।

स्वतंत्रता के पश्चात्‌ चकबंदी पद्धति में व्यावहारिक रूप से ऐच्छिक स्वीकृति के सिद्धांत का समाप्त कर एक नवीन प्रेरणा प्रदान की गई। बंबई में प्रथम बार 1947 में पारित एक विधान द्वारा सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि वह जहाँ उचित समझे, चकबंदी कार्य लागू करे। जिन प्रांतों ने इस प्रथा का पालन किया उसमें पंजाब (1948), उत्तर प्रदेश (1953 और 1958), पं. बंगाल (1955), बिहार तथा हैदराबाद (1956) शामिल हैं। प्रांतीय सरकारों को केंद्रीय सरकार द्वारा बहुत प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। तीनों पंचवर्षीय योजनाओं में चकबंदी के विस्तार का आयोजन किया गया और मई, 1957 में भारतीय सरकार ने यह घोषणा की कि वह राज्यों का चकबंदी कार्य लागू करने के लिये बहुत सीमा तक आर्थिक सहायता देने के लिये सहमत है। चकबंदी कार्यक्रम के विकसित आवेश को इस तथ्य से जाँचा जा सकता है कि जहाँ मार्च, 1956 में अंत तक भारत का कुल चकबंदी क्षेत्र 110.09 लाख एकड़ था वहाँ मार्च, 1960 के अंत तक बढ़कर 230.19 लाख एकड़ हो गया तथा उसी समय 131.87 लाख एकड़ क्षेत्र पर चकबंदी कार्य चल रहा था। किंतु विभिन्न प्रांतों में ये काम असंतुलित ढंग से हो रहा था। मार्च, 1960 में चकबंदी किए हुए क्षेत्र का आधे से भी अधिक भाग पंजाब प्रांत में (121.08 लाख एकड़) स्थित था, जबकि बड़े प्रांतों जैसे आध्र, मद्रास, बंगाल और बिहार में चकबंदी क्षेत्र या तो बिलकुल शून्य था या नगण्य।

स्पष्टतया उस क्षेत्र में चकबंदी करना सरल कार्य नहीं है जहाँ भूमि में मुख्यत: सजातिता का गुण नहीं है। इसके लिये सदैव बहुत संख्या में प्रशिक्षित (और ईमानदार) अधिकारी चाहिए। दुर्भाग्यवश अनिवार्य बाध्यता ने इसे काश्तकारों में अधिक लोकप्रिय नहीं होने दिया और जितने अच्छे परिणामों की आशा थी उतने अभी तक प्राप्त नहीं हुए, बल्कि आशंका इस बात की रहती है कि चकबंदी के बाद तक फिर से विभाजित न हो जायें। इसलिये कुछ प्रांतों में, उदाहरणार्थ उत्तर प्रदेश में, चकबंदी किए हुए क्षेत्र को उपभोग, विक्रय एवं हस्तांतरण करने से रोकने के लिये विशेष नियम बनाए गए हैं। किंतु अन्य प्रांतों जैसे पंजाब में अभी यह नियम नहीं लागू किए गए हैं तथा कुछ प्रांतां ने अभी तक इसपर विधिवत्‌ विचार भी नहीं किया है (1962)। (इरफान हबीब.)

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