चूने का भट्ठा

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 15:33
चूने का भट्ठा भट्ठे या ढेरों में चूना पत्थर का जलाकर चूना बनाया जाता है। ढेरों में जलाने से बहुत सा ईधंन व्यर्थ नष्ट हो जाता है। आवश्यकता से अधिक, या आवश्यकता से कम, जला हुआ चूना भी बड़ी मात्रा में इससे प्राप्त होता है। जहाँ ईधंन सस्ता और प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो वहाँ के लिये ही यह विधि उपयुक्त हो सकती है। चूने के भट्ठे साधारणतया नदीतटों या जलाशयों के आस पास बैठाए जाते हैं, जिसमें चूने को सरलता से बुझाया जा सके।

भट्ठे बेलनाकार होते हैं और उनकी चिमनी खंडित शंक्वाकार होती है। स्थानीय आवश्यकता के अनुसार उसका आकार व्यवस्थित किया जा सकता है। ये ईटों या पत्थरों के बने होते हैं। इनका भीतरी अस्तर 14  से लेकर 18  तक मोटा होता है और अग्निसह ईटों से अग्निसह मिट्टी द्वारा जोड़ा रहता है।

भट्ठे की भराई 


भट्ठे की भराई दो प्रकार से होती है। एक विधि में कंकंड़, या चूनापत्थर, के लगभग 9  के स्तर एवं ईधंन (कोयला, कोक या काठकोयला) के 2  के स्तर बारी बारी से रखे जाते हैं। पेंदे में सूखी या हरी लकड़ी रखी जाती है। दूसरी विधि में कंकड़, कोयला और काठकोयला मिलाकर रखे जाते हैं।

क. निवापी, जिसमें चूने का पत्थर तथा कोयले का मिश्रण रहता है और भट्ठे में डाला जाता है। नीचे का शंकु मिश्रण के गिरने पर उसे समान रूप से वितरित कर देता है; ख. कार्बन डाइ-आक्साइड के निकलने का स्थान तथा ग. से वायु का प्रवेश होता है और चूना निकाला जाता है। भट्ठे 70 फुट तक ऊंचे तथा 14 फुट तक आंतरिक व्यास के होते हैं।

भट्ठे की किस्में 


साधारणत: दो किस्म के भट्ठे काम में आते हैं (1) आंतरायिक भट्ठे (intermittent kilns) और (2) अविरत भट्ठे (continuous kilns)।

1. आंतरायिक भट्ठे  इस भट्ठे में एकांतर भरण होता है तथा धूम्रमार्ग का उचित प्रबंध और वायुप्रवाह का उचित नियंत्रण रहता है। प्रत्येक बार चूना तैयार हो जाने पर भट्ठी की सफाई होती है और तब नए प्रभार डाले जाते हैं। जलना पूरा हो जाने पर ठंढा होने में 10 से 15 दिन तक लगते हैं। ये भट्ठे महँगे पड़ते हैं, क्योंकि इनमें समय अधिक लगता है और कुछ उष्मा नष्ट हो जाती है।

2. अविरत भट्ठे  ये भट्ठे बहुत सस्ते होते हैं, क्योंकि इनकी भराई और फुँकाई तभी हो जाती है जब वे गरम रहते हैं। पर ऐसे भट्ठों का भारत में प्रचलन नहीं है। चूने के निर्माण में अन्य किस्म के अविरत भट्ठे भी उपयोग में आते हैं।

अविरत उर्ध्वाधर भट्ठों में कच्चेमाल उपर से डाले जाते हैं। भट्ठे के तल से उठती उष्ण गैसें माल को आरंभ में ही गर्म कर देती हैं और माल नीचे पहुंचते पहुंचते ईधंन से संयुक्त होता है तथा दाहक मंडल में पहूँचकर चूना पत्थर निस्तप्त हो जाता है। ठीक ठीक जलने के बाद चूना नीचे गिरते हुए शीतक मंडल में आकर वायुप्रवाह को गरम करता हुआ स्वयं ठंढा हो जाता है। पेंदे से चूना निकाल लिया जाता है।

चूने का निस्तापन ताप 1,000 सें. है। चूना पत्थर में मिले हुए पानी की भाप कार्बन डाइआक्साइड के बाहर निकलने की गति में त्वरण लाती है। कभी कभी चूना पत्थर में बाहर से पानी मिलाया जाता है। मिट्टीयुक्त चूना सुगमता से निस्तप्त होता है, पर सिलिका और ऐल्यूमिना की चूने से बंधुता के कारण कुछ ऊँचा ताप आवश्यक होता है। निस्ताप के समय नवजात सिलिका ओर ऐल्यूमिन, चूने के कुछ अंश के साथ संयुक्त होकर, कैलसियम सिलिकेट ओर कैलसियम ऐल्यूमिनेट बनाते हैं। ऐसे चूने को जलचूना कहते हैं, क्योंकि इसमें पानी के अंदर जमने का गुण होता है। (जय कृन)

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चूने का भट्ठा


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