बिहार के पश्चिम-उत्तर छोर पर पश्चिम चंपारण जिले के एक चॅंवर से निकलती है नदी सिकरहना, जो नेपाल की ओर से आने वाली अनेक छोटी-छोटी जलधाराओं का पानी समेटते हुए चंपारण, मुजफफरपुर, समस्तीपुर जिलों से होकर खगड़िया जिले में गंगा में समाहित हो जाती है। यह पूरी तरह मैदानी नदी है और गंडक नदी के पूरब-उत्तर के पूरे इलाके में हुई बरसात के पानी की निकासी का साधन है। इस बार की बाढ़ की शुरूआत इसी सिकरहना नदी से हुई और चंपारण जिले के अनेक शहरों, कस्बों में पानी घूसा, सडकें टूट गई और रेलमार्ग बंद हो गया। यहाँ से पानी निकलेगा तो रास्ते के जिलों को डूबोते हुए बढ़ेगा।
नि:संदेह, इसबार बिहार की बाढ़ छोटी नदियों की वजह से आई है। बिहार और नेपाल की सीमावर्ती क्षेत्र में अधिक वर्षा हुई। जिससे छोटी-छोटी धाराएँ उफन गई जो नेपाल तराई में हुई वर्षा का पानी लेकर बिहार में प्रवेश करती हैं। उल्लेखनीय है कि नेपाल की ओर से करीबन छह सौ धाराएँ बिहार में प्रवेश करती हैं। सिकरहना जिसे बूढ़ी गंडक भी कहते हैं, में तो चंपारण जिले में ही नेपाल की ओर से आने वाली दो दर्जन से अधिक नदियाँ मिलती हैं। उनका पानी समेटने में सिकरहना विफल रही। स्वयं सिकरहना की यह हालत थी कि वह जिस चंवर से जन्म लेती है, उससे होकर बगहा शहर समेत आस-पास के इलाके के पानी की निकासी इसबार नहीं हो पाई जिससे बगहा में भयानक जल जमाव हो गया।
हालत यह हुई कि स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने अधिकारीगण नाव पर चढ़कर गए और पुलिसकर्मियों ने कमर भर पानी में खड़े होकर झंडे को सलामी दी। यह तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब चली। उस समय बगहा के पश्चिम से प्रवाहित होने वाली विशाल नदी गंडक भी उफान पर थी और शहर में तीन कटाव स्थलों का मुकाबला करने में बाढ़ नियंत्रण विभाग का पूरा अमला जुटा था। गंडक तो शांत हो गई पर बरसात के पानी ने शहर में नाव चलवा दी। अगले दिन से जिले के हरेक इलाके में पानी घूसने लगा और चंपारण जिले की सभी नदियाँ पंडई, मसान, ओरिया, तिलाबे, हरबोरा, सरिसवां, बंगरी, भेलवा, तियर, गाद, मनियारी, लालबकेया आदि एक-एक कर अपने आस-पास के इलाके, सड़कों, रेलमार्ग को डूबोने लगी।
उधर राज्य के पूर्वी छोर पर हालत इससे भी अधिक खराब है। अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार जिलों के दूरदराज के इलाके की खबरें भी नहीं मिल रही। वहाँ एक नदी है कनकई जिसमें कई वर्षों से पानी नहीं आता था। इस साल इतना पानी आया कि तबाही मच गई। दूसरी नदी है परमान, यह नदी भी कई वर्षों से सुसुप्तावस्था में पड़ी थी। छोटी-छोटी जलधाराएँ अनगिनत हैं। बाढ़ की तबाही का कारण यही छोटी नदियाँ ही हैं। अररिया शहर में कमर भर पानी बकरा नदी से आया है। पूर्णिया में सौरा नदी का प्रकोप दिखा तो कटिहार व किशनगंज में महानंदा की कई सहायक धाराओं-मेची, डोंक, रीगा के साथ ही बकरा और कंकई इत्यादि का पानी आया।
वैसे महानंदा का तटबंध भी टूटा है, पर यह छानबीन का विषय होगा कि तटबंध भीतर की नदी ‘महानंदा’ के पानी की वजह से टूटा या बाहर से बरसाती पानी के दबाव में। पूर्वी बिहार के चार जिले-अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार के जिला मुख्यालयों समेत कई शहरों, बाजारों में कहीं घूटने भर तो कहीं कमर भर पानी है। असम की ओर जाने वाली सड़क और रेल मार्ग बंद है। बताते हैं कि राजमार्ग पर पूर्णिया के गुलाबबाग के पास असम जाने वाले ट्रकों की कतार 25 किलोमीटर लंबी हो गई है।
उत्तर बिहार की नदियों को लेकर लम्बे समय से कार्यरत श्री रणजीव बताते हैं कि इस बाढ़ की तुलना 2007 में आई बाढ़ से कर सकते हैं जब केवल बागमती घाटी में अधिक वर्षा हुई थी और वह पानी तटबंधों से बंधी नदी में प्रवेश करने में अक्षम रहने पर चारों ओर उपद्रव मचाती हुई आगे बढी। इस साल नेपाल तराई और सीमावर्ती जिलों में अधिक वर्षा का रुझान जुलाई के मध्य से ही बना था। आंकड़े बताते हैं कि बिहार के अन्य जिलों की तुलना में सीमाई जिलों में अधिक वर्षा हुई है। सरकार ने अत्यधिक वर्षा होने की चेतावनी तो जारी की, पर स्वयं तैयार नहीं हुई।
पश्चिम चंपारण के पंकज जी बताते हैं कि बाढ़ की अग्रीम चेतावनी के मुताबिक एनडीआरएफ की टीम तो 12 अगस्त को दोपहर में ही गौनाहा पहुँच चुकी थी, उसी रात करीब 12 बजे हरबोडा नदी की एक धारा मेघौली गाँव के उपर से गुजर गई जिसमें पाँच लोग बह गए, पर एनडीआरएफ की टीम को किसी ने बचाव कार्य में नहीं लगाया। उस गाँव में 15 अगस्त तक कोई सरकारी अधिकारी नहीं पहुँचा था। पश्चिम चंपारण जिलेे के पाँच प्रखंड बूरी तरह बर्बाद हुए हैं जिनमें गौनाहा की हालत सबसे खराब है जिसके 162 गाँवों में से 155 में तबाह हो गए हैं। नरकटियागंज, चनपटिया, सिकटा, लौरिया और मझौलिया का अधिकांश हिस्सा बाढ़-ग्रस्त है। पूर्वी चंपारण के रक्सौल, आदापुर, ढाका, पताही और सुगौली सर्वाधिक पीड़ित हैं।
बाढ़-ग्रस्त इलाके में फँसे लोगों को बचाने में सरकारी इंतज़ामों की अक्षमता की गवाही सरकारी आंकड़े ही देते हैं। बाढ़ से मरने वालों की संख्या जब 200 का आंकड़ा पार कर चुकी है, तब पूरे प्रदेश में राहत और बचाव कार्यों में महज 51 टीमें लगी हैं जिनमें एनडीआरफ, एसडीआरएफ और सेना के जवान भी शामिल हैं। इसे किसी एक जिले के लिये भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। समूचा अररिया जिला बाढ़ में डूबा है, नौ प्रखंडों में से पाँच का संपर्क टूटा हुआ है। उधर की कोई खबर जिला मुख्यालय में नहीं पहुँच रही। पर बचाव व राहत कार्य के लिये केवल 14 नावों के उपलब्ध होने की जानकारी मिल रही है। किशनगंज और कटिहार की स्थिति इससे भी खराब होगी। जहाँ से भी जितनी खबरें मिल रही हैं, उनसे पता चलता है कि राहत और बचाव कार्य कहीं भी मानक संचालन प्रक्रिया के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है।
अररिया जिले में बाढ़ पीड़ितों के बीच सक्रिय एनएपीएम के आशीष रंजन ने बताया कि शहर में बाढ़ के प्रवेश करने के आठ दिन बाद भी जिला प्रशासन आपदा संबंधी मानक संचालन प्रक्रिया का अनुपालन करने में विफल रही है। तय मानकों के आधार पर राहत शिविरों का संचालन करना तो दूर सामुदायिक भोजन देने की व्यवस्था भी बंद किया जा रहा है। बीच-बीच में हुई बारिश ने पीड़ितों पर कहर बरपाया और दसियों हजार लोग खुले आसमान के नीचे भीगने के लिये मजबूर हैं। अररिया कॉलेज और महात्मागांधी स्मारक उच्च विद्यालय में बाढ़ राहत शिविर का बोर्ड लगा है पर वहाँ बाढ़ पीड़ित हैं ही नहीं, फूड पैकेट बनाए जा रहे हैं और लोगों के रहने की कोई व्यवस्था नहीं है।
लोग जहाँ रह रहे हैं, वह या तो राजमार्ग (एएच 57) है या गाँवों के पास तटबंध या नहर, जहाँ बुनियादी सुविधाएँ नहीं के बराबर हैं। बच्चों के लिये दूध, सफाई और रोशनी तो दूर लोगों को दो जून भोजन भी नहीं मिल रहा। एनएपीएम के ही महेन्द्र ने कहा कि इतने बड़े पैमाने पर राहत और बचाव कार्य संचालित करना आसान नहीं है। यह बताते हुए हमारी टीम जिला कलेक्टर से मिली और अपनी सेवाएँ देने की पेशकश की। पर हमें कोई निर्देश नहीं मिला। एनएपीएम और जेजेएसएस ने साझा बयान में कहा है कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद कटावग्रस्त और अनेक घाटों पर चलने वाली नावों पर आने जाने वाले पीड़ितों से पैसे वसूले जा रहे हैं। पशुओं के लिये शिविर या चारे की व्यवस्था कहीं नहीं दिखती। जल निकासी, सफाई और छिड़काव की व्यवस्था जिला मुख्यालय में भी नहीं हो पाया है, सुदूर गाँवों की तो बात ही दूर है।
पश्चिम और पूर्वी जिलों में बाढ़ की तबाही अधिक है, इसका मतलब यह नहीं कि बीच के जिले अर्थात सीतामढ़ी, मधुबनी और दरभंगा बाढ़ से बच गए हैं। इनमें सीतामढ़ी ज्यादा प्रभावित हुआ है। यह मृतकों के आंकड़े से भी स्पष्ट होता है। वहाँ एक नदी है लखनदेई जो सीतामढ़ी शहर के बीचों-बीच से प्रवाहित होती है। उसमें आए पानी से पूरा शहर डूब गया। देहातों में बागमती के तटबंधों के टूटने से बाढ़ आई। बताते हैं कि बागमती के तटबंध आठ जगह टूट गए। दरभंगा और मधुबनी जिलों में अधवारा समूह की सभी नदियों के उफान पर होने से तबाही हुई है। सोलह नदियों के एक समूह को अधवारा कहा जाता है जिसे एक घाटी के रूप में जोड़कर उत्तर बिहार को आठ नदी घाटियों में विभाजित करते हैं। यह दरभंगा-मधुबनी जिलों से प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं जो अंततः बागमती से मिलकर करेह नाम से कोसी और फिर गंगा में समाहित होती हैं। इनके अलावा एक ही नदी बचती है कमला-बलान, इस बार उसका तटबंध भी घनश्यामपुर प्रखंड में टूटा है, पर इसका कारण कमला नदी पर बना रसियारी पुल की गलत डिज़ाइन को बताया जाता है।
उत्तर बिहार से होकर पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं में जाने वाला रेलमार्ग बंद है। पूरब जाने का मार्ग अर्थात असम को जोड़ने वाला रेलमार्ग बंद होने से असम दिल्ली और कलकत्ता दोनों से कटा हुआ है। कटिहार और किशनगंज जिलों में रेलपुल बह गए हैं। राजमार्गों पर ट्रकों की कतार लग गई है और प्लेटफार्मों पर यात्रियों की भीड़। बिहार के भीतर समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढ़ी, नरकटियागंज, गोरखपुर रेलमार्ग जगह जगह टूटा है। कहीं रेललाइनें हवा में झूलती रह गई हैं और नीचे की मिटटी बह गई है तो कहीं पुल व पुलिया टूट गए हैं। सुगौली-रक्सौल रेलखंड की भी यही हालत है। रेलमार्गों को बहाल करने के लिये सेना की मदद ली जा रही है। परन्तु एक रिपोर्ट के अनुसार इस महीने रेल यातायात के चालू होने के आसार कम ही हैं। उत्तर पूर्व सीमांत रेलवे ने यात्रा के बीच में फँसे यात्रियों की सहुलियत के लिये कटिहार सेक्शन के डालखेला से रायगंज के बीच बससेवा की व्यवस्था की है। रेलवे के एक प्रवक्ता ने गुवाहाटी में जारी बयान में कहा है कि स्थिति अगर बिगढ़ी नहीं तो किशनगंज रेलवे स्टेशन 28 अगस्त तक यात्री सेवा और माल ढुलाई के लिये चालू हो जाएगा।
बिहार की नदियों, बाढ़ का अध्ययन और लेखन में जीवन खपा देने वाले इंजीनियर डॉ. दिनेश कुमार मिश्र के अनुसार अगर 2007 की बाढ़ से कुछ भी सबक लिया गया होता तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता। उस साल पानी चारों तरफ फैल जरूर गया था, पर बाढ़ नवंबर तक बनी रही। सरकार ने तटबंधों को ऊँचा और मजबूत बनाने और सड़कों की दरारों को उसी मजबूती से बांधने का फैसला किया ताकि वे फिर न टूट सके। राज्य का तकनीकी अमला इस बात पर अपनी पीठ थपथपाता रहा कि 2009 से बिहार में कोई तटबंध नहीं टूटा। मगर कोई यह समझना नहीं चाहता कि पिछले कई वर्षों से बिहार में इतनी वर्षा ही नहीं हुई कि बाढ़ आ जाए।
बिहार सरकार के दस्तावेजों को खंगालने से साफ होता है कि सरकारी अमला बाढ़ प्रबंधन का मतलब तटबंध बनाना और उसकी हिफाजत करना ही मानता है। सामाजिक कार्यकर्ता रणजीव कहते हैं कि बिहार में हुई वर्षा के पानी की निकासी कैसे होगी, इसके बारे में कोई सोच नहीं है। तकरीबन सभी नदियों को तटबंधों से बांध दिया गया है। छोटी-छोटी जल धाराएँ भी इससे अछूती नहीं हैं। अब वर्षा का पानी उन धाराओं में समा नहीं पाता। उन्हें एकत्र करने के लिये तालाब आदि संरचनाएं एक-एक कर नष्ट होती गई हैं। इस प्रकार उस पानी को केवल तबाही फैलाने के लिये छोड़ दिया गया है। बिहार में पिछले दिनों सड़क निर्माण खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हुई, सडकें भी जलनिकासी में अवरोध होती हैं। इसके अलावा सरकारी निर्माणों में भी नदियों के बाढ़ क्षेत्र और प्रवाह क्षेत्र का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह होता है कि थोड़ी अधिक वर्षा होने पर सरकारी कार्यालयों, रिहायशी भवनों, अस्पतालों में पानी जमा हो जाता है। यह भी गौरतलब है कि पुराने शहरों की बस्तियों में जलजमाव की इतनी परेशानी नहीं होती।
बहरहाल, चंपारण जिले में आई बाढ़ का असर अब मुज़फ़्फ़रपुर जिले में दिखने लगा है। फिर समस्तीपुर और अंत में बेगूसराय होते हुए खगड़िया में दिखेगा। उधर अररिया, पूर्णिया का पानी कटिहार, किशनगंज जिलों के क्षेत्र से गुजरते हुए गंगा में जाएगा। मतलब यह है कि अगर अब वर्षा नहीं हो तब भी बाढ़ जल्दी खत्म नहीं होने वाली। उत्तर बिहार की सबसे बड़ी नदियाँ-कोसी और गंडक के जलस्तर में भी अचानक तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है, यद्यपि वह तेजी से घट भी जा रहा है। कोसी तटबंधों के बीच के गाँवों के निवासियों की सांसे सदा की तरह कोसी की धारा के बढ़ने-घटने के साथ बंधी हैं। उधर गंडक की एक छरकी के टूटने से आए पानी की निकासी के लिये प्रशासन ने नियोजित ढंग से एक स्लुइस गेट को काटकर जल निकासी की राह बनाया। दोनों विशाल नदियों पर पूरा प्रशासन मुस्तैद है, स्थिति नियंत्रण में बनी हुई है, पर अगर गंगा में अधिक पानी आ गया तब क्या होगा, कहा नहीं जा सकता।
कोसी क्षेत्र में 2008 की कुसहा त्रासदी से तबाह और पुनर्वास की बाट जोहते लोगों की तकलीफें इस वर्षा में बढ़ गई हैं। एनएपीएम के महेन्द्र ने बताया कि त्रासदी की नौंवी बरसी पर 18 अगस्त 2017 को कोसी क्षेत्र में कई जगहों पर लोगों ने मोमबत्ती जलाकर उस घटना को याद किया। मालूम हो कि कुसहा त्रासदी से हुई तबाही से उबरने के लिये विश्वबैंक से दो चरणों में कर्ज लेकर भी पीड़ितों का पुनर्वास नहीं हुआ है, बल्कि अब सरकारी कागजातों में पुनर्वास का उल्लेख भी नहीं होता। कर्ज में आई रकम आई रकम कहाँ गई, पता नहीं चलता।