छत

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 16:38
छत इमारत के सबसे ऊपरी भाग को कहते हैं, जो उसे ऊपर की ओर से मौसम के प्रभाव से बचने के लिये बनाया जाता तथा मकान की दीवारों या स्तंभों पर टिका होता है। तृण, फूस या पत्तों की छत, जो अनिवार्यत: ढालू होती है, छप्पर कहलाती है, जब कि मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, कंकीट आदि की छत, जिसमें बहुधा नाम मात्र की ढाल होती है, पाटन कहलाती है। बहुत ऊँचे स्थान के लिये भी छत शब्द का प्रयोग होता है, जैसे पामीर के प्लटों को 'दुनिया की छत' कहते हैं।

गुफाओं में रहनेवाले आदिकालीन मानव ने पहाड़ों को काटकर गुफाएँ बनाने और उनमें अपनी आवश्यकता के अनुकूल स्थान निकालने के लिये कठिन परिश्रम करते करते ऊबकर बाहर पत्थरों को एक दूसरे के ऊपर रखकर फिर उन्हें पाटकर घर बनाने का प्रयास किया होगा। पुराने 'डोलमेन' ऐसे ही प्रयास की ओर संकेत करते हैं। किल्टरनन (डब्लिन) में 'दैत्य की समाधि' नाम से प्रसिद्ध डोलमेन देखने से प्रकट होता है कि दो तीन सीधी शिलाओं के ऊपर कुछ चिपटी सी एक शिला इस प्रकार रखी है, जैसे दीवारों पर छत रखी हो।

छतों के प्रकार  छतें मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं : 1. सपाट अर्थात्‌ चौरस और 2. ढालू।

चौरस छतों में भी नाम मात्र की ढाल रहती है और ये बहुधा पक्की छतें ही होती हैं, जिनमें छादन सामग्री में खुले जोड़ नहीं रहते कि पानी भीतर रिस सके। अच्छी मिट्टी से भी कच्ची चौरस छतें बनाई जाती हैं। इनमें ढाल पक्की छतों की अपेक्षा कुछ अधिक रखी जाती है, किंतु इतनी अधिक नहीं कि मिट्टी ही पानी में बह जाए। धरनों या कड़ियों के ऊपर पत्थर के चौके, ईटं, लकड़ी के तख्ते, बाँस, सरपत या अन्य कोई पदार्थ बिछा दिए जाते हैं, फिर इसके ऊपर मिट्टी या कंकीट आदि फैला दी जाती है। इस प्रकार सपाट या चौरस छत बनती है।

आजकल चौरस छतें बहुधा सीमेंट कंक्रीट या ईटं की चिनाई की बनने लगी हैं। सीमेंट कंक्रीट या सीमेंट के तगड़े मसाले में ईटं की चिनाई की सिल्ली (slab) ढाल दी जाती है, जिसके अंदर तनाव लाने के लिये यथास्थान इस्पात की छड़े दबाई रहती हैं इस प्रकार प्रबलित कंक्रीट, या प्रबलित चिनाई, की छत बनती है। धरनें भी प्रवलित कंक्रीट या प्रबलित चिनाई की बनाई जाती है, और बहुधा धरने और सिल्ली एक साथ ढाल कर 'टी' धरनों वाली छतें बनाई जाती हैं (ऊपर सिल्ली और नीचे की ओर धरन मिलकर अंग्रेजी के वर्ण 'T' जैसी काट बनती है, इसलिये इन्हें 'टी' धरनें कहते हैं।

जब सिल्ली (या धरन) आलंबों पर रखी जाती है और उसपर भार (जिसमें सिल्ली का निजी भार सम्मिलित होता है।) पड़ता है, तब फलस्वरूप उसमें झुकनें की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति (नमन) का परिमण नमनधूर्ण से मापा जाता है। समांग संहतिवाली सिल्ली

क. मुख्य कड़ी; त. मुख्य तान; तफ़ . छोटी तान तथा थ. थाम।

(या धरन) में नमन का प्रभाव यह होता है कि वक्रता केंद्र की ओर का (भीतर का) तल कुछ सिकुड़ने की और दूसरी ओर (बाहर) का तल फैलने की कोशिश करता है। इसी को वैज्ञानिक भाषा में कहते हैं कि वक्रता के भीतर की ओर दबाव और बाहर की ओर तनाव पड़ता है। कंक्रीट या चिनाई दबाव सहन करने में तो काफी मजबूत होती है, किंतु तनाव के लिये कमजोर होती है। अत: इन्हें तनाव सहन कर सकने योग्य बनाने के लियें इनमें प्रबलन की आवश्यता होती है। ढालते समय उपयुक्त मात्रा में इस्पात की छड़े यथास्थान रखकर कंक्रीट (और चिनाई) प्रबलित की जाती है। नमन के फलस्वरूप और भी अनेक प्रतिबल उत्पन्न होते हैं जैसे कर्तन और इस्पात कंक्रीट का बंधन (पकड़) आदि। डिजाइन करते समय इन सबका ध्यान रखा जाता है।

ढालू छतें  अधिक वर्षावाले क्षेत्रों में प्राय: ढालू छतें ही बनती हैं। ये एक ढाल या दो ढालवाली, तथा एक ओर को या दोनों ओर को ढालू हो सकती हैं। जिसमें एक ओर को एक ढाल हो वह टेकदार छत कहलाती है। जिसें बीच से दोनों ओर को ढाल हो, उसके सिरे, जो तिकोनी दीवार से बंद रहते हैं, त्रिअंकी पार्श्व कहलाते हैं और छत त्रिअंकी छत कहलाती है। बीच की रेखा, जहाँ से दोनो ढालें नीचे उतरती हैं, काठी रेखा कहलाती है। यदि त्रिअंकी पार्श्वों के बजाय उधर भी ढालू छत ही हो, अर्थात्‌ छत में चारों ओर को ढाल हो, तो ऐसी छत काठी छत कहलाती है।

विदेशों में दुढालू छतें बहुत बनती हैं। इनमें काठी रेखा के समांतर दोनों ओर दूसरी रेखाएँ होती हैं, जहाँ से ढाल बदल जाती है। ऊपर की ओर को ढाल कम रहती है और नीचे की ओर की अधिक। इससे एक लाभ तो यह होता है कि ऊपर से उतरते उतरते वर्षा का जल जब मात्रा में अधिक हो जाता है तब अधिक ढाल पाकर और तेजी से उतरता है। दूसरा लाभ यह भी है कि कमरे के ऊपर छत के भीतर ही काफी जगह निकल आती है। कभी कभी तो यह जगह, जो नीचेवाले कमरे से कुछ ही कम होती है, एक अन्य कमरे का काम देती है। दो ओर को दुढालू छत 'गैंब्रेल' और चारों ओर को ढालवाली 'मैंसर्ड' छत कहलाती है।

छत की कैचियाँ  एक ढाल की छत बनाने के लिये छत का एक सिरा ऊँचा करना पड़ता है और उधर की दीवार ऊँची करने से ही काम चल जाता है। किंतु यदि ऊँचाई सीमित ही रखनी हो तो दोनों और ढाल देना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी छतों के लिये कैंचियाँ लगाई जाती हैं। छोटे पाटों की कैंचियाँ लकड़ी की और बड़े पाटों की लोहे की, या लकड़ी और लोहे की मिली जुली, हुआ करती हैं। लकड़ी दबाव के अवयवों के लिये और लोहा तनाव के अवयवों के लिये विशेष उपयुक्त होता है। लोहे की कैंचियों में एक या अधिक ऐंगिल, टी, चैनेल या आई सेक्शन दबाव के अवयवों के लिये प्रयुक्त होते हैं। तनाव के अवयवों में इनके अतिरिक्त पत्ती या छड़ें भी लगाई जा सकती हैं। इन अवयवों का विस्तार आवश्यकता से कुछ बड़ा रखा जाता है, ताकि उनमें रिवेटों के लिये छेद करने की गुंजाइश रहे।

पाट के अनुसार ही कैंचियों की बनावट होती है। इनके मुख्य अंग तीन हैं।

1. मुख्य कड़ियाँ, जिनपर पर्लिनें रखकर ऊपर छत डाली जाती है। प्राय: ये दबाव में रहती हैं।
2. मुख्य तान या निचली तान, जो मुख्य कड़ियों के नीचे के सिरों को बाहर की ओर फैलने से रोकती है। यह तनाव में रहती है।
3. म्मध्यवर्ती अवयव जो बनावट के अनुसार तनाव या दबाव में रहते हैं। इनकी संख्या पाट के अनुसार कम ज्यादा होती है। दबाव में रहनेवाले अंगों को 'थार्मे' कहते हैं। यथासंभव भार जोड़ों के ऊपर ही आने दिया जाता है, ताकि अवयवों में सीधा दबाव या तनाव ही पड़े, आड़ा नहीं। यदि जोड़ों के बीच में भी भार आता है, तो आड़े प्रतिबल के लिये वे अवयव काफी मोटे रखने पड़ते हैं।

(दबाववाले अवयव मोटे और तनाववाले पतले दिखाए गए हैं) 1. युग्मित कड़ियाँ (10 फुट पाट तक); 2. तानयुक्त युग्मित कड़ियाँ (14 फुट पाट तक); 3. कॉलरवाली कैंची (18 फुट); 4. नरथंभा या नर छड़ कैंची (20-30 फुट); 5. मादा थंभा या मादा छड़ कैंची (20-40 फुट); 8. फैन कैंची (40 फुट); 9. मिश्र फैन (70-80 फुट); 10. खमदार फिक (30 फुट); 11. खमदार मिश्र फिंक (50-60 फुट); 13. खमदार फैन (40 फुट); 14. खमदार मिश्र फैन (70-80 फुट); 15. विभाजित खंड फिंक (80-90 फुट); 16. प्राट कैंची; 17. चिपटी प्राट; 18. चिपटी वारेन; 19. आरी दंत या उत्तरी प्रकाश कैंची; 20. होव या तिकोनी तथा 21. चिपटी होव (कैंचियाँ संख्या 16 से 21 तक सभी, अवयकतानुसार खंडों की संख्या घटा बढ़ाकर, 20 से 80 फुट पाट तक होती है)।

कैंची का सबसे सादा उदाहरण युग्मित कड़ियाँ हैं। यदि पाट कुछ अधिक हो, तो इन कड़ियों के नीचेवाले सिरों की बाहर की ओर फैलने की प्रवृत्ति अधिक होती है। इससे दीवारों पर ठेल पहुँचती है। अत: नीचे के सिरे एक तान द्वारा बाँधने पड़ते हैं। यदि यह तान बिल्कुल नीचे न लगाकर कुछ ऊँचाई पर, कड़ियों के लगभग आधे पर, लगाई जाए, तो कॉलर कहलाती है। कॉलरवाली कैंची के नीचे कमरे की ऊँचाई कुछ अधिक मिल जाती है और लकड़ी की भी बचत होती है, किंतु मुख्य कड़ियों में नमन और दीवारों पर ठेल होने से इसके प्रयोग में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है।

तानयुक्त युग्मित कड़ियों में तान को बीच में एक नर थंभा द्वारा कैंची के शीर्ष से बाँध देने से तान को सहारा मिलता है और दोनों ओर दो तिरछी थामें लगाने से मुख्य कड़ियों को टेक मिलती है। इसप्रकार की कैंची को नर थंमा कैंची कहते हैं। यदि एक के बजाय दो थंभ हों तो उन्हें मादा थंभा कैंची कहेंगे।

अधिक पाट की कैंचियों में आवश्यकतानुसार अनेक थामें और तानें होती हैं। इनकी अनेक आकृतियाँ हैं, जो 'फिंक' कैंची, 'होव' कैंची, 'प्राट' कैंची, 'वारेन' कैंची आदि के नाम से विख्यात हैं। यदि कैंची की दोनो मुख्य कड़ियाँ असमान हों, एक ओर की ढाल बिल्कुल खड़ी हो, तो उसे आरीदंत कैंची कहते हैं। ऐसी कैचियाँ प्राय: कारखानों में, या बड़े बड़े शेडों में, लगती हैं और खड़ी ढाल की ओर शीशा या प्लास्टिक लगाया जाता है, ताकि अंदर प्रकाश पहुँच सके। यह खड़ी ढाल प्राय: उत्तर की ओर रखी जाती हैं, ताकि प्रकाश तो अंदर पहुँचे किंतु धूप न पहुँच सके (उत्तरी गोलार्ध में जहाँ पृथ्वी का अधिकांश स्थल है, सूर्य प्राय: शिरोबिंदु से दक्षिण की ओर ही रहता है)। इन कैंचियों को इसीलिये उतरी प्रकाश कैंची भी कहते हैं।

कैंची का सिद्धांत यह है कि फ्रेम यथासंभव त्रिभुजों में विभक्त हो जाए, क्योंकि त्रिभुज की भुजाओं की लंबाई में परिवर्तन हो तो उसकी आकृति नहीं बदलती, जबकि चतुर्भुज या अधिक भुजाओंवाली आकृति, भुजाओं की लंबाई अपरिवर्तित रहने पर भी प्रतिबल से प्रभावित होकर अपने कोण, और फलत: आकृति, बदल देती है, जैसे आयत समांतर चतुर्भुज हो सकता है और वर्ग समचतुर्भुज भी। जिस मादा-थंभा-कैंची में एक चतुर्भुज होता है, वह अपूर्ण कैंची है। इसी प्रकार युग्मित कड़ियाँ तथा कॉलरवाली कैंची भी अपूर्ण हैं।

छादन-सामग्री छादन सामग्री की विविधता ढालू छतों में विशेष दिखाई पड़ती है। घास फूस, तूण और पत्ते आदिकाल से छप्परों के लिये प्रयोग में आते रहे हैं। शीत, ताप आदि से रक्षा करने में प्रभावशाली ऐसा सस्ता पदार्थ भी और कोई नहीं है। संपन्न व्यक्ति भी कम वर्षावाले क्षेत्रों में मकान के ऊपर फूस की छत लगवाकर अधिक आराम अनुभव करते हैं, दोष केवल यह है कि आग लगने का विशेष भय रहता है।

खपड़ों की छत खपरैल कहलाती है। यह भी छप्पर की भाँति (किंतु उससे कम) व्यापक है। देहात में कड़ियों या बल्लियों के ऊपर बाँस, सरपत, झाड़ी, आदि कोई पतली लकड़ी रखकर खपड़े, छाए जाते हैं, और अच्छे काम के लिये कड़ियों के बत्ते कीलों से जुड़कर उनपर खपड़े छाए जाते हैं। खपड़ों से बहुधा चपटे खपड़ों का ही बोध होता है और आधे गोल, अर्थात्‌ नाली की शकल के खपड़े 'नरिए कहलाते हैं। छवाई केवल नरियों की, या खपड़ों और नरियों की मिलाकर, होती है। कुम्हार के चाक द्वारा बनाए हुए नरिए अच्छे और सुडौल होते हैं उनकी छत भी देखने में सुंदर लगती है। इससे भी अच्छे नरिए और खपड़े, जो 'इलाहावादी' कहलाते हैं, साँची में मशीन द्वारा बनाए जाते हैं। मशीन से और भी अनेक प्रकार के खपड़े बनाए जाते हैं, जो एक दूसरे में फँसते चले जाते हैं।

स्लेट भी छत के लिये बहुतायत से प्रयुक्त होती है। यह पत्थर की किस्म का कड़ा, समांग, और कभी खराब न होनेवाला, परतदार खनिज पदार्थ है, जो बहुत पतली परतों में चीरा जा सकता है। कुछ उत्तम किस्म की चट्टानों से तो 1/16 इंच मोटी स्लेटें तक निकाली जा सकती हैं। ये छेद करके कीलों से जड़ दी जाती हैं। अच्छी स्लेटें 12   6  से लेकर 26   16  तक के अनेक विस्तारों में मिलती हैं। छोटे विस्तारों में चढ़ाव का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक होता है और इनके लिये अधिक ढाल की भी आवश्यकता होती है। कभी कभी स्लेट में लौहमाक्षिक (iron pyrite) होता है जिसके छोटे छोटे, गोल गोल, सफेद धब्बे से दिखाई देते हैं। ऐसी स्लेटें छत में नहीं लगानी चाहिए, क्योंकि मौसम के प्रभाव से लौहमाक्षिक विघटित होकर स्लेट के क्षय का कारण होता है।

1. फूस की झौपड़ी; 2. नरियों की छवाई; 3. इलाहाबादी खपड़ों की छवाई; 4. स्लेट की छवाई; 5. पनालीदार जस्ती चादर की छवाई तथा 6. ऐस्वेस्टस-सीमेंट चादरों (ट्रैफर्ड) की छवाई।

बलूआ पत्थर के पतले चौके भी स्लेट की तरह छाए जाते हैं। हाँ, ये भारी होते हैं और छेद करके कीलों से नहीं जड़े जाते। ये खपड़ों की भाँति ही अपने वजन के कारण यथास्थान टिके रहते हैं। वजन अधिक होने के कारण छतों के लिये इनका प्रयोग खानों के आसपास ही अधिक होता है। पन्ना (मध्य प्रदेश) की खानों से 0.75'' और 0.5'' मोटे चौके तक निकाले जाते हैं। यदि ढुलाई की समस्या न हो तो वहाँ 15 फुट वर्ग तक के 2 इंच मोटे चौके निकल सकते हैं। इंग्लैंड में यार्कशायर के पत्थर के चौके छतों के लिये अच्छे माने जाते हैं।

आधुनिक पदार्थो में, विशेष प्रकार का कागज, किरमिच, तारकोल में डुबाया हुआ नमदा (फेल्ट) और अनेक प्रकार के गत्ते आदि भी छवाई के काम आते हैं, किंतु भारत में इनका चलन नहीं है। धात्वीय पदार्था में ताँबे, जस्ते, सीसे, ऐल्यूमिनियम और लोहे की चादरें प्रयोग में आती हैं। सादी चादरें तो लकड़ी के तख्तों के ऊपर ही लगाई जाती हैं किंतु एल्यूमिनियम और लोहे की जस्ती चादरें पनालीदार भी होती हैं, जो पर्लिनों के ऊपर ही अँकुरीनुमा कब्जों द्वारा कस दी जाती हैं। ये काफी सस्ती और हलकी होती हैं, किंतु यदि नीचे लकड़ी या अन्य कोई नकली छत न लगाई जाए, तो ये शीत-ताप की उग्रता को रोक नहीं पातीं। ऐस्बेस्टॉस सीमेंट की चादरें भी लोहें की पनालीदार सफेद चादरों (टिन) की भाँति ही लगाई जाती हैं। शीतताप की उग्रता रोकने की इनकी क्षमता धात्वीय चादरों की अपेक्षा कुछ अधिक होती हैं, किंतु ये कुछ भंगुर होती हैं।

गोल छतें ठंढे देशों के एस्किमो के बर्फ के घर 'इगलू' और अफ्रीका जैसे गर्म देशों के जूलू लोगों की झोपड़ियों (देखिए 'गृह') में ही शायद गोल छतों का आदि रूप देखने में आता है। लकड़ी गोल छतों के लिये विशेष उपयुक्त नहीं, अत: केवल पक्की छतें ही गोलाकार बनीं। इन्हें गुंबद कहते हैं (देखिए 'गुबंद')। इनका वास्तुकार की दृष्टि में प्रत्येक युग में बहुत महत्व रहा है। विशेष उपयोग के लिये निर्मित भवनों के गुबंद विशेष प्रकार से अलंकृत किए जाते रहे हैं। ईटं, पत्थर और प्रबलित कंक्रीट के गुबंदों का आज भी चलन है, विशेषकर सार्वजनिक स्थानों में, जहाँ उपयोगिता की अपेक्षा शोभा ही मुख्तया इनका उद्देश्य होता है।

कुछ ऐतिहासिक छतें  रोमवालों ने ईटं कंक्रीट के सुंदर गुंबद बनाए थे। रोम में अग्रीप्पा ने 27 ई. पू. में अनेक देवों का एक विशाल मंदिर बनवाया था, जो 609 ई. बाद सांता मेरिया रोटंडा नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके गुंबद का भीतरी व्यास 141 फुट है और प्रकाश के लिये शिखर पर 28 फुट व्यास का एक छिद्र है। यह गुंबद भीतर और काँसे के काम से अलंकृत किया गया था।

बीजापुर के गोल गुंबद में सादगी और भव्यता का अद्भुत सम्मिश्रण है। 17वीं शती की यह कृति विश्व में विशालतम इस अर्थ में है

कि इसके नीचे का क्षेत्रफल 18,000 वर्ग फुट से कुछ अधिक है, जब कि रोम के रोटंडा का क्षेत्रफल 15,833 वर्ग फुट ही है। ईटं के रद्दे बढ़ाबढ़ाकर बनाया हुआ गोल गुंबद 10 फुट मोटे एक औंधे कटोरे सा 110 फुट ऊँची दीवारों के ऊपर इस प्रकर रखा है कि भीतर की ओर लगभग 10 फुट चौड़ी एक दीर्घा चारों ओर छूट जाती है। 135 फुट भुजा के वर्गाकार कमरे को अनेक डाटों द्वारा कोने काट काटकर ऊपर गोल किया गा है, जिनकी अलंकारशून्यता दर्शक पर अपना विशेष छाप डाले बिना नहीं रहती।

गोल छतों के प्रसंग में कुस्तुंतुनिया का सेंट सोफिया गिरजाघर भी उल्लेखनीय है। जस्टिनियन द्वारा 532-7 ई. में बनवाई गई इस

विशाल इमारत में बाइज़ैटाइन (Byzantine) कला पूर्णता को प्राप्त हुई है और रोमन आयोजन का प्राच्य रचना एवं अलंकरण के साथ सुखद सम्मिश्रण यहाँ दृष्टिगोचर होता है। इसका पहिला गुंबद 558 ई. में भूकंप से गिर पड़ा था। उसके बाद दूसरा बना, जिसकी ऊँचाई 25 फुट अधिक थी। 1926-27 ई. में इसका फिर जीर्णोद्वार हुआ है।

हिंदू स्थापत्य में गुंबद जैसी चीज हाल में ही आई है। पुराने मंदिरों की छत, बहुधा पत्थरों के रद्दे दीवारों से बढ़ा बढ़ा कर रखते हुए, पिरापिड जैसी बनाई जाती थी। ऐसी छतों को शिखर कहते हैं। भुवनेश्वर (उड़ीसा) के विशाल लिंगराज मंदिर की छत भूमितल से 125 फुट की ऊँचाई पर बने स्कंध से उठती है, और ऊपर 'आमलक शिला' में, जो चारों ओर से घटे हुए पाट की वास्तविक छत है, समाप्त होती है। मंदिर के 'जगमोहन' की छत पिरामिड की भाँति उठती हुई 100 फुट ऊँची जाती है। इन शिखरों की एक विशेषता है ठोस घन चिनाई, जो बाहर से जितनी अलंकृत है, भीतर से ऊतनी ही सादी।

आधुनिक छतों में, दिल्ली के विज्ञानभवन की छत उल्लेखनीय है। मुख्य प्रेक्षागृह, जिसमें 1,100 व्यक्तियों के बैठने का स्थान है, 143 पाट की कैंचियोंवाली छत से पटा है। कैंचियों से ही नकली छत लटकाई गई है, जिसके भीतर से विद्युत्प्रकाश आने की व्यवस्था है। निरीक्षण के निमित्त आवागमन के लिये नकली छत के ऊपर रास्ते बने हुए हैं। बीचोबीच काच की विशाल छतगीरी है, जिससे नीचे की ओर दिन का सा ही प्रकाश पहुँचता है।

शेल छतें 


आजकल बड़ी बड़ी छतें कंक्रीट के शेल (खोल) की बनती हैं। सरंचना की दृष्टि से शेल छत तीन प्रकार की होती है। एक गोल या गुंबद सरीखी, जिसका पृष्ठ किसी वृत्त के चाप द्वारा अपनी त्रिज्या के समांतर किसी धुरी के चारों ओर परिक्रमा करने से बनता है; दूसरी बेनाकार या शेल सरीखी, जिसका पृष्ठ किसी आयत द्वारा अपनी किसी भुजा के चारों और परिक्रमा करने से बनता है और तीसरी अतिपरिवलयिक परवलयज या अंडाकार, जिसका पृष्ठ किसी दीर्घ वृत्त अपने लघु अक्ष के चारों और परिक्रमा करने पर बनता है।

क. भोगमंदिर; ख. नटमंदिर; ग. जगमोहन तथा घ. श्रीमंदिर

शेल छतों की विशेषता उनकी अत्यल्प मोटाई में है। इनकी दृढ़ता और मजबूती इनकी विशेष प्रकार की आकृति के कारण होती है। कुशीनगर (उ. प्र.) में निर्वाण बिहार (1956-57 ई.) की तीन इंच मोटी बेलनाकार छत, जिसके बीच में एक ओर एक बड़ी खिड़की भी है, 24 फुट व्यास की है। इलिनॉय (अमरीका) के विशाल प्रेक्षागृह की 400 फुट व्यास की गोलाकार शेल छत शायद अपनी किस्म की विशालतम है, जिसकी न्यूनतम मोटाई 3.5'' इंच है : किए जाते हैं। उपचार की आवश्यकता बहुधा चौरस छतों में ही पड़ती हैं किंतु महत्वपूर्ण

इमारतों में गुंबद या ढालू छतों पर भी उपचार किया जाता है बिटूमन, (bitumen), ऐस्फाल्ट, (asphalt) या मैल्थाइड की परत छत पर बिछाने से छत 10-15 वर्षों के लिये जलरोधी हो जाती है। प्रबलित कंक्रीट या प्रबलित चिनाईवालीं छतों में आवश्यक ढाल देने के लिये उनके ऊपर चूने की कंक्रीट या मिट्टी का फसका आदि बिछाते हैं। इनसे पानी भी रुकता है, किंतु कंक्रीट या फसका डालने के पहले छत पर बिटूमन पोत देने से छत का जीवनकाल बढ़ जाता है।

नकली छत या छतगीरी 


वास्तविक छत के नीचे, उसका अदर्शनीय रूप छिपाने की दृष्टि से नकली छत लगाई जाती है। सादी छतगोरी लकड़ी के तख्तों, ऐस्बेस्टॉस सीमेंट की चादरों, कपड़े या टाट आदि की होती है। अलंकृत छतगोरी बहुधा ऑव प्लास्टर की होती है। इसके भीतर से ही विद्युतप्रकाश की व्यवस्था रहती है। इसके लिये नकली छत के कुछ भाग पारदर्शी (शीशे के या प्लास्टिक के) हुआ करते हैं। कभी कभी वातानुकूलन के लिय कमरे का आयतन घटाने के उद्देश्य से भी नकली छत लगानी पड़ती है। (विश्वंभर प्रसाद गुप्त.)

Hindi Title

छत


विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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