जैसा कि आप जानते हैं, औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित किया गया था। यही वह प्रांत था जहाँ पर सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नयी व्यवस्था तथा एक नयी राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयत्न किए गए थे। आइए, यह देखें कि कंपनी शासन के प्रारंभिक वर्षों में बंगाल में क्या हुआ। 1-1 बर्दवान में की गई नीलामी की एक घटना सन् 1797 में बर्दवान में एक नीलामी की गई। यह एक बड़ी सार्वजनिक घटना थी। बर्दवान के राजा द्वारा धारित अनेक महल; संपदाएं बेचे जा रहे थे। सन् 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थी। जो जमींदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाते थे उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी संपदाएं नीलाम कर दी जाती थीं। चूँकि बर्दवान के राजा पर राजस्व की बड़ी भारी रकम बकाया थी, इसलिए उसकी संपदाएं नीलाम की जाने वाली थीं। नीलामी में बोली लगाने के लिए अनेक खरीददार आए थे और संपदाएं महल सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को बेच दी गईं। लेकिन कलेक्टर को तुरंत ही इस सारी कहानी में एक अजीब पेंच दिखाई दे गया। उसे जानने में आया कि उनमें से अनेक खरीददार, राजा के अपने ही नौकर या एजेंट थे और उन्होंने राजा की ओर से ही जमीनों को खरीदा था। नीलामी में 95 प्रतिशत से अधिक बिक्री फर्जी थी। वैसे तो राजा की जमीनें खुलेतौर पर बेच दी गई थीं पर उनकी जमींदारी का नियंत्रण उसी के हाथों में रहा था। राजा कंपनी को राजस्व क्यों नहीं अदा कर पाया था? नीलामी में खरीददार कौन थे? यह लेख उस समय पूर्वी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में क्या हो रहा था, इसके बारे में हमें बताता है?
अकेले बर्दवान राज की जमीनें ही ऐसी संपदाएं नहीं थीं जो अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बेची गई थीं। इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद 75 प्रतिशत से अधिक जमींदारियाँ हस्तांतरित कर दी गई थीं। ब्रिटिश अधिकारी यह आशा करते थे कि इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने से वे सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी जो बंगाल की विजय के समय से ही उनके समक्ष उपस्थित हो रही थीं। 1770 के दशक तक आते-आते, बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजरने लगी थी क्योंकि बार-बार अकाल पड़ रहे थे और खेती की पैदावार घटती जा रही थी। अधिकारी लोग ऐसा सोचते थे कि खेती, व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन सब तभी विकसित किए जा सकेंगे जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा और ऐसा तभी किया जा सकेगा जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जाएँगे और राजस्व माँग की दरों को स्थायी रूप से तय कर दिया जाएगा। यदि राज्य सरकार की राजस्व माँग स्थायी रूप से निर्धारित कर दी गई तो कंपनी राजस्व की नियमित प्राप्ति की आशा कर सकेगी और उद्यमकर्ता भी अपने पूँजी-निवेश से एक निश्चित लाभ कमाने की उम्मीद रख सकेंगे, क्योंकि राज्य अपने दावे में वृद्धि करके लाभ की राशि नहीं छीन सकेगा। अधिकारियों को यह आशा थी कि इस प्रक्रिया से छोटे किसानों योमॅन और धनी भूस्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा जिसके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूँजी और उद्यम दोनों होंगे। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि ब्रिटिश शासन से पालन-पोषण और प्रोत्साहन पाकर, यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार बना रहेगा लेकिन समस्या यह पता लगाने की थी कि वे कौन से व्यक्ति हैं जो कृषि में सुधार करने के साथ-साथ राज्य को निर्धारित राजस्व अदा करने का ठेका ले सकेंगे। कंपनी के अधिकारियों के बीच परस्पर लंबे वाद-विवाद के बाद, बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया गया। अब उन्हें जमींदारों के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व माँग को अदा करना था।
इस परिभाषा के अनुसार, जमींदार गाँव में भू-स्वामी नहीं था, बल्कि वह राज्य का राजस्व समाहर्ता यानी संग्राहक मात्र था। जमींदारों के नीचे अनेक कभी-कभी तो 400 तक गाँव होते थे। कंपनी के हिसाब से, एक जमींदारी के भीतर आने वाले गाँव मिलाकर एक राजस्व संपदा का रूप ले लेते थे। कंपनी समस्त संपदा पर कुल माँग निर्धारित करती थी। तदोपरांत, जमींदार यह निर्धारित करता था कि भिन्न-भिन्न गाँवों से राजस्व की कितनी-कितनी माँग पूरी करनी होगी, और फिर जमींदार उन गाँवों से निर्धारित राजस्व राशि इकट्ठा करता था। जमींदार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा और यदि वह ऐसा नहीं करेगा वो उसकी संपदा नीलाम की जा सकेगी।
कंपनी के अधिकारियों का यह सोचना था कि राजस्व माँग निर्धारित किए जाने से जमींदारों में सुरक्षा का भाव उत्पन्न होगा और वे अपने निवेश पर प्रतिफल प्राप्ति की आशा से प्रेरित होकर अपनी संपदाओं में सुधार करने के लिए प्रोत्साहित होंगे किन्तु इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद, कुछ प्रारंभिक दशकों में जमींदार अपनी राजस्व माँग को अदा करने में बराबर कोताही करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व की बकाया रकमें बढ़ती गईं। जमींदारों की इस असफलता के कई कारण थे। पहला : प्रारंभिक माँगें बहुत ऊँची थीं, क्योंकि ऐसा महसूस किया गया था कि यदि माँग को आने वाले संपूर्ण समय के लिए निर्धारित किया जा रहा है तो आगे चलकर कीमतों में बढ़ोतरी होने और खेती का विस्तार होने से आय में वृद्धि हो जाने पर भी कंपनी उस वृद्धि में अपने हिस्से का दावा कभी नहीं कर सकेगी। इस प्रत्याशित हानि को कम-से-कम स्तर पर रखने के लिए, कंपनी ने राजस्व माँग को ऊँचे स्तर पर रखा, और इसके लिए दलील दी कि ज्यों-ज्यों कृषि के उत्पादन में वृद्धि होती जाएगी और कीमतें बढ़ती जाएँगी, जमींदारों का बोझ शनै: शनै: कम होता जाएगा।
दूसरा : यह ऊँची माँग 1790 के दशक में लागू की गई थी जब कृषि की उपज की कीमतें नीची थीं, जिससे रैयत किसानों के लिए, जमींदार को उनकी देय राशियाँ चुकाना मुश्किल था। जब जमींदार स्वयं किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर सकता था तो वह आगे कंपनी को अपनी निर्धारित राजस्व राशि कैसे अदा कर सकता था?
तीसरा : राजस्व असमान था, फसल अच्छी हो या खराब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान जरूरी था। वस्तुत: सूर्यास्त विधि कानून के अनुसार, यदि निश्चित तारीख को सूर्य अस्त होने तक भुगतान नहीं आता था तो जमींदारी को नीलाम किया जा सकता था।
चौथा : इस्तमरारी बंदोबस्त ने प्रारंभ में जमींदार की शक्ति को रैयत से राजस्व इकट्ठा करने और अपनी जमींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित कर दिया था। कंपनी जमींदारों को पूरा महत्व तो देती थी पर वह उन्हें नियंत्रित तथा विनियमित करना, उनकी सत्ता को अपने वश में रखना और उनकी स्वायत्तता को सीमित करना भी चाहती थी।
फलस्वरूप जमींदारों की सैन्य-टुकड़ियों को भंग कर दिया गया, सीमा शुल्क समाप्त कर दिया गया और उनकी कचहरियों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया गया। जमींदारों से स्थानीय न्याय और स्थानीय पुलिस की व्यवस्था करने की शक्ति छीन ली गई। समय के साथ-साथ, कलेक्टर का कार्यालय सत्ता के एक विकल्पी केंद्र के रूप में उभर आया और जमींदार के अधिकार को पूरी तरह सीमित एवं प्रतिबंधित कर दिया गया। एक मामले में तो यहाँ तक हुआ कि जब राजा राजस्व का भुगतान नहीं कर सका तो एक कंपनी अधिकारी को तुरंत इस स्पष्ट अनुदेश के साथ उसकी जमींदारी में भेज दिया गया कि महल का पूरा कार्यभार अपने हाथ में ले लो और राजा तथा उसके अधिकारियों के संपूर्ण प्रभाव और प्राधिकार को खत्म कर देने के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली कदम उठाओ। राजस्व इकट्ठा करने के समय, जमींदार का एक अधिकारी जिसे आमतौर पर अमला कहते थे, गाँव में आता था। लेकिन राजस्व संग्रहण एक परिवार्षिक समस्या थी। कभी-कभी तो खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसानों के लिए अपनी देय राशियों का भुगतान करना बहुत कठिन हो जाता था और कभी-कभी ऐसा भी होता था कि रैयत जान बूझकर भुगतान में देरी कर देते थे। धनवान रैयत और गाँव के मुखिया – जोतदार और मंडल – जमींदार को परेशानी में देखकर बहुत खुश होते थे। क्योंकि जमींदार आसानी से उन पर अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। जमींदार बाकीदारों पर मुकदमा तो चला सकता था, मगर न्यायिक प्रक्रिया लंबी होती थी। 1798 में अकेले बर्दवान ज़िंले में ही राजस्व भुगतान के बकाया से संबंधित 30,000 से अधिक वाद लंबित थे।
अठारहवीं शताब्दी के अंत में जहाँ एक ओर अनेक जमींदार संकट की स्थिति से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर धनी किसानों के कुछ समूह गाँवों में अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे थे। फ़्रांसिस बुकानन के उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले के सर्वेक्षण में हमें धनी किसानों के इस वर्ग का, जिन्हें ‘जोतदार’ कहा जाता था, विशद विवरण देखने को मिलता है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक आते-आते, जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े रकबे, जो कभी-कभी तो कई हजार एकड़ में फ़ैले थे, अर्जित कर लिए थे। स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर भी उनका नियत्रंण था आरै इस प्रकार वे उस क्षेत्र के ग़रीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे। उनकी जमीन का काफी बड़ा भाग बटाईदारों अधिकारों या बरगादारों के माध्यम से जोता जाता था, जो खुद अपने हल लाते थे खते मे महे नत करते थे और फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा जोतदारों को दे देते थे। गाँवों में, जोतोदारों की शक्ति, जमींदारों की ताकत की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती थी। जमींदार के विपरीत जो शहरी इलाको मे रहते थे जोतदार गांवो मे ही रहते थे और ग़रीब ग्रामवासियों के काफ़ी बड़े वर्ग पर सीधे अपने नियंत्रण का प्रयोग करते थे। जमींदारों द्वारा गाँव की जमा लगान को बढ़ाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों का वे घोर प्रतिरोध करते थे जमींदारी अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करने से रोकते थे जो रैयत उन पर निर्भर रहते थे उन्हें वे अपने पक्ष में एकजुट रखते थे और जमींदार को राजस्व के भुगतान में जान-बूझकर देरी करा देते थे। सच तो यह है कि जब राजस्व का भुगतान न किए जाने पर जमींदार की जमींदारी को नीलाम किया जाता था तो अकसर जोतदार ही उन जमीनों को खरीद लेते थे। उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे, हालांकि धनी किसान और गाँव के मुखिया लोग भी बंगाल के अन्य भागों के देहाती इलाकों में प्रभावशाली बनकर उभर रहे थे। कुछ जगहों पर उन्हें ‘हवलदार’ कहा जाता था और कुछ अन्य स्थानों पर वे गाँटीदार या ‘मंडल’ कहलाते थे। उनके उदय से जमींदारों के अधिकार का कमजोर पड़ना अवश्यंभावी था।
किंतु, ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों की सत्ता समाप्त नहीं हुई। राजस्व की अत्यधिक माँग और अपनी भू-संपदा की संभावित नीलामी की समस्या से निपटने के लिए जमींदारों ने इन दबावों से उबरने के रास्ते निकाल लिए। नए संदर्भो में नयी रणनीतियाँ बना ली गईं। फर्जी बिक्री एक ऐसी ही तरकीब थी। इसमें कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे। बर्दवान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया क्योंकि कंपनी ने यह निर्णय ले रखा था कि स्त्रियों की संपति को नहीं छीना जाएगा। फिर दूसरे कदम के तौर पर उसके एजेंटों ने नीलामी की प्रक्रिया में जोड़-तोड़ किया। कंपनी की राजस्व माँग को जान-बूझकर रोक लिया गया और भुगतान न की गई बकाया राशि बढ़ती गई। जब भू-संपदा का कुछ हिस्सा नीलाम किया गया तो जमींदार के आदमियों ने ही अन्य खरीददारों के मुकाबले ऊँची-ऊँची बोलियाँ लगाकर संपत्ति को खरीद लिया।
आगे चलकर उन्होंने खरीद की राशि को अदा करने से इनकार कर दिया, इसलिए उस भूसंपदा को फिर से बेचना पड़ा। एक बार फिर जमींदार के एजेंटों ने ही उसे खरीद लिया और फिर एक बार खरीद की रकम नहीं अदा की गई और इसलिए एक बार फिर नीलामी करनी पड़ी। यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती रही और अंततोगत्वा राज और नीलामी के समय बोली लगाने वाले थक गए। जब किसी ने भी बोली नहीं लगाई तो उस संपदा को नीची कीमत पर फिर जमींदार को ही बेचना पड़ा। जमींदार कभी भी राजस्व की पूरी माँग नहीं अदा करता था इस प्रकार कंपनी कभी-कभार ही किसी मामले में इकट्ठा हुई बकाया राजस्व की राशियों को वसूल कर पाती थी। ऐसे सौदे बड़े पैमाने पर हुए। सन् 1793 से 1801 के बीच, बंगाल की चार बड़ी जमींदारियों ने, जिनमें बर्दवान की जमींदारी भी एक थी, अनेक बेनामी खरीददारियाँ कीं जिनसे कुल मिलाकर 30 लाख रुपये की प्राप्ति हुई । नीलामियों मे की गई कुल बिक्रियों में से 15 प्रतिशत सादै नव़फली थे जमींदार लोग और भी कई तरीकों से अपनी जमींदारी को छिनने से बचा लेते थे।जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेते थे तभी उन्हें हर मामले में उसका कब्जा नहीं मिलता था। कभी-कभी तो पुराने जमींदार के ‘लठियाल’ नए खरीददार के लोगों को मारपीटकर भगा देते थे और कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि पुराने रैयत बाहरी लोगों को यानी नए खरीददार के लोगों को जमीन में घुसने ही नहीं देते थे। वे अपने आपको पुराने जमींदार से जुड़ा हुआ महसूस करते थे और उसी के प्रति वफादार बने रहते थे और यह मानते थे कि पुराना जमींदार ही उनका अन्नदाता है और वे उसकी प्रजा हैं। जमींदारी की बिक्री से नके तादात्म्य और गौरव को ध्क्का पहुँचता था। इसलिए जमींदार आसानी से विस्थापित नहीं किए जा सकते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कीमतों में मंदी की स्थिति समाप्त हो गई। इसलिए, जो जमींदार 1790 के दशक की तकलीफ़ो को झेलने में सफल हो गए, उन्होंने अपनी सत्ता को सुदृढ़ बना लिया। राजस्व के भुगतान संबंधी नियमों को भी कुछ लचीला बना दिया गया। फलस्वरूप गाँवों पर जमींदार की सत्ता और अधिक मजबूत हो गई लेकिन आगे चलकर 1930 के दशक की घोर मंदी की हालत में अंतत: जमींदारों का भट्ठा बैठ गया और जोतदारों ने देहात में अपने पाँव मजबूत कर लिए।
हम जिन परिवर्तनों पर चर्चा कर रहे हैं उनमें से बहुत से परिवर्तनों का विस्तृत विवरण एक रिपोर्ट में दिया गया है जो सन् 1813 में ब्रिटिश संसद में पेश की गई थी। यह उन रिपोर्ट में से पाँचवीं रिपोर्ट थी जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन तथा क्रियाकलापों के विषय में तैयार की गई थी। अक्सर ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से उल्लिखित यह रिपोर्ट 1,002 पृष्ठों में थी। इसके 800 से अधिक पृष्ठ परिशिष्टों के थे जिनमें जमींदारों और रैयतों की अर्जियाँ, भिन्न-भिन्न जिलों के कलेक्टरों की रिपोर्ट, राजस्व विवरणियों से संबंधित सांख्यिकीय तालिकाएँ और अधिकारियों द्वारा बंगाल और मद्रास के राजस्व तथा न्यायिक प्रशासन पर लिखित टिप्पणियाँ शामिल की गई थीं। कंपनी ने 1760 के दशक के मध्य में जब से बंगाल में अपने आपको स्थापित किया था तभी से इंग्लैण्ड में उसके क्रियाकलापों पर बारीकी से नजर रखी जाने लगी थी और उन पर चर्चा की जाती थी। ब्रिटेन में बहुत से ऐसे समूह भी थे जो भारत तथा चीन के साथ व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार का विरोध करते थे। वे चाहते थे कि उस शाही फरमान को रद्द कर दिया जाए जिसके तहत इस कंपनी को यह एकाधिकार दिया गया था। ऐसे निजी व्यापारियों की संख्या बढ़ती जा रही थी जो भारत के साथ होने वाले व्यापार में हिस्सा लेना चाहते थे और ब्रिटेन के उद्योगपति ब्रिटिश विनिर्माताओं के लिए भारत का बाजार खुलवाने के लिए उत्सुक थे। कई राजनीतिक समूहों का तो यह कहना था कि बंगाल पर मिली विजय का लाभ केवल ईस्ट इंडिया कंपनी को ही मिल रहा है, संपूर्ण ब्रिटिश राष्ट्र को नहीं। कंपनी के कुशासन और अव्यवस्थित प्रशासन के विषय में प्राप्त सूचना पर ब्रिटेन में गरमागरम बहस छिड़ गई और कंपनी के अधिकारियों के लोभ-लालच और भ्रष्टाचार की घटनाओं को ब्रिटेन के समाचारपत्रों में व्यापक रूप से उछाला गया।
ब्रिटिश संसद ने भारत में कंपनी के शासन को विनियमित और नियंत्रित करने के लिए अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अनेक अधिनियम पारित किए। कंपनी को बाध्य किया गया कि वह भारत के प्रशासन के विषय में नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट भेजा करे और कंपनी के कामकाज की जाँच करने के लिए कई समितियाँ नियुक्त की गईं। ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ एक ऐसी ही रिपोर्ट है जो एक प्रवर समिति द्वारा तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गंभीर वाद-विवाद का आधार बनी। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ग्रामीण बंगाल में क्या हुआ इसके बारे में हमारी अवधारणा लगभग डेढ़ शताब्दी तक इस पाँचवीं रिपोर्ट के आधर पर ही बनती-सुधरती रही। पाँचवीं रिपोर्ट में उपलब्ध साक्ष्य बहुमूल्य हैं। लेकिन ऐसी की सरकारी रिपोर्ट को सावधानीपूर्वक पढ़ना और समझना चाहिए। हमें यह जानने की जरूरत है कि ये रिपोर्ट किसने और किस उद्देश्य से लिखी। वास्तव में आधुनिक शोधों से पता चलता है कि पाँचवीं रिपोर्ट में दिए गए तर्को और साक्ष्यों को बिना किसी आलोचना के स्वीकार नहीं किया जा सकता। शोधकर्ताओं ने ग्रामीण बंगाल में औपनिवेशिक शासन के बारे में लिखने के लिए बंगाल के अनेक जमींदारों के अभिलेखागारों तथा ज़िंलों के स्थानीय अभिलेखों की सावधनीपूर्वक जाँच की है। उनसे पता चलता है कि पाँचवीं रिपोर्ट लिखने वाले कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करने पर तुले हुए थे इसलिए पाँचवीं रिपोर्ट में परंपरागत जमींदारी सत्ता के पतन का वर्णन अतिरंजित है और जिस पैमाने पर जमींदार लोग अपनी जमीनें खोते जा रहे थे उसके बारे में भी बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया है। जैसा कि हमने देखा है, जब जमींदारियाँ नीलाम की जाती थीं, तब भी जमींदार नए-नए हथकंडे अपनाकर अपनी जमींदारी को बचा लेते थे और बहुत कम मामलों में विस्थापित होते थे।
अदा न किए गए राजस्व की समस्या
अकेले बर्दवान राज की जमीनें ही ऐसी संपदाएं नहीं थीं जो अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बेची गई थीं। इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद 75 प्रतिशत से अधिक जमींदारियाँ हस्तांतरित कर दी गई थीं। ब्रिटिश अधिकारी यह आशा करते थे कि इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने से वे सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी जो बंगाल की विजय के समय से ही उनके समक्ष उपस्थित हो रही थीं। 1770 के दशक तक आते-आते, बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजरने लगी थी क्योंकि बार-बार अकाल पड़ रहे थे और खेती की पैदावार घटती जा रही थी। अधिकारी लोग ऐसा सोचते थे कि खेती, व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन सब तभी विकसित किए जा सकेंगे जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा और ऐसा तभी किया जा सकेगा जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जाएँगे और राजस्व माँग की दरों को स्थायी रूप से तय कर दिया जाएगा। यदि राज्य सरकार की राजस्व माँग स्थायी रूप से निर्धारित कर दी गई तो कंपनी राजस्व की नियमित प्राप्ति की आशा कर सकेगी और उद्यमकर्ता भी अपने पूँजी-निवेश से एक निश्चित लाभ कमाने की उम्मीद रख सकेंगे, क्योंकि राज्य अपने दावे में वृद्धि करके लाभ की राशि नहीं छीन सकेगा। अधिकारियों को यह आशा थी कि इस प्रक्रिया से छोटे किसानों योमॅन और धनी भूस्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा जिसके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूँजी और उद्यम दोनों होंगे। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि ब्रिटिश शासन से पालन-पोषण और प्रोत्साहन पाकर, यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार बना रहेगा लेकिन समस्या यह पता लगाने की थी कि वे कौन से व्यक्ति हैं जो कृषि में सुधार करने के साथ-साथ राज्य को निर्धारित राजस्व अदा करने का ठेका ले सकेंगे। कंपनी के अधिकारियों के बीच परस्पर लंबे वाद-विवाद के बाद, बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया गया। अब उन्हें जमींदारों के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व माँग को अदा करना था।
इस परिभाषा के अनुसार, जमींदार गाँव में भू-स्वामी नहीं था, बल्कि वह राज्य का राजस्व समाहर्ता यानी संग्राहक मात्र था। जमींदारों के नीचे अनेक कभी-कभी तो 400 तक गाँव होते थे। कंपनी के हिसाब से, एक जमींदारी के भीतर आने वाले गाँव मिलाकर एक राजस्व संपदा का रूप ले लेते थे। कंपनी समस्त संपदा पर कुल माँग निर्धारित करती थी। तदोपरांत, जमींदार यह निर्धारित करता था कि भिन्न-भिन्न गाँवों से राजस्व की कितनी-कितनी माँग पूरी करनी होगी, और फिर जमींदार उन गाँवों से निर्धारित राजस्व राशि इकट्ठा करता था। जमींदार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा और यदि वह ऐसा नहीं करेगा वो उसकी संपदा नीलाम की जा सकेगी।
राजस्व राशि के भुगतान में जमींदार क्यों चूक करते थे?
कंपनी के अधिकारियों का यह सोचना था कि राजस्व माँग निर्धारित किए जाने से जमींदारों में सुरक्षा का भाव उत्पन्न होगा और वे अपने निवेश पर प्रतिफल प्राप्ति की आशा से प्रेरित होकर अपनी संपदाओं में सुधार करने के लिए प्रोत्साहित होंगे किन्तु इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद, कुछ प्रारंभिक दशकों में जमींदार अपनी राजस्व माँग को अदा करने में बराबर कोताही करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व की बकाया रकमें बढ़ती गईं। जमींदारों की इस असफलता के कई कारण थे। पहला : प्रारंभिक माँगें बहुत ऊँची थीं, क्योंकि ऐसा महसूस किया गया था कि यदि माँग को आने वाले संपूर्ण समय के लिए निर्धारित किया जा रहा है तो आगे चलकर कीमतों में बढ़ोतरी होने और खेती का विस्तार होने से आय में वृद्धि हो जाने पर भी कंपनी उस वृद्धि में अपने हिस्से का दावा कभी नहीं कर सकेगी। इस प्रत्याशित हानि को कम-से-कम स्तर पर रखने के लिए, कंपनी ने राजस्व माँग को ऊँचे स्तर पर रखा, और इसके लिए दलील दी कि ज्यों-ज्यों कृषि के उत्पादन में वृद्धि होती जाएगी और कीमतें बढ़ती जाएँगी, जमींदारों का बोझ शनै: शनै: कम होता जाएगा।
दूसरा : यह ऊँची माँग 1790 के दशक में लागू की गई थी जब कृषि की उपज की कीमतें नीची थीं, जिससे रैयत किसानों के लिए, जमींदार को उनकी देय राशियाँ चुकाना मुश्किल था। जब जमींदार स्वयं किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर सकता था तो वह आगे कंपनी को अपनी निर्धारित राजस्व राशि कैसे अदा कर सकता था?
तीसरा : राजस्व असमान था, फसल अच्छी हो या खराब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान जरूरी था। वस्तुत: सूर्यास्त विधि कानून के अनुसार, यदि निश्चित तारीख को सूर्य अस्त होने तक भुगतान नहीं आता था तो जमींदारी को नीलाम किया जा सकता था।
चौथा : इस्तमरारी बंदोबस्त ने प्रारंभ में जमींदार की शक्ति को रैयत से राजस्व इकट्ठा करने और अपनी जमींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित कर दिया था। कंपनी जमींदारों को पूरा महत्व तो देती थी पर वह उन्हें नियंत्रित तथा विनियमित करना, उनकी सत्ता को अपने वश में रखना और उनकी स्वायत्तता को सीमित करना भी चाहती थी।
फलस्वरूप जमींदारों की सैन्य-टुकड़ियों को भंग कर दिया गया, सीमा शुल्क समाप्त कर दिया गया और उनकी कचहरियों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया गया। जमींदारों से स्थानीय न्याय और स्थानीय पुलिस की व्यवस्था करने की शक्ति छीन ली गई। समय के साथ-साथ, कलेक्टर का कार्यालय सत्ता के एक विकल्पी केंद्र के रूप में उभर आया और जमींदार के अधिकार को पूरी तरह सीमित एवं प्रतिबंधित कर दिया गया। एक मामले में तो यहाँ तक हुआ कि जब राजा राजस्व का भुगतान नहीं कर सका तो एक कंपनी अधिकारी को तुरंत इस स्पष्ट अनुदेश के साथ उसकी जमींदारी में भेज दिया गया कि महल का पूरा कार्यभार अपने हाथ में ले लो और राजा तथा उसके अधिकारियों के संपूर्ण प्रभाव और प्राधिकार को खत्म कर देने के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली कदम उठाओ। राजस्व इकट्ठा करने के समय, जमींदार का एक अधिकारी जिसे आमतौर पर अमला कहते थे, गाँव में आता था। लेकिन राजस्व संग्रहण एक परिवार्षिक समस्या थी। कभी-कभी तो खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसानों के लिए अपनी देय राशियों का भुगतान करना बहुत कठिन हो जाता था और कभी-कभी ऐसा भी होता था कि रैयत जान बूझकर भुगतान में देरी कर देते थे। धनवान रैयत और गाँव के मुखिया – जोतदार और मंडल – जमींदार को परेशानी में देखकर बहुत खुश होते थे। क्योंकि जमींदार आसानी से उन पर अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। जमींदार बाकीदारों पर मुकदमा तो चला सकता था, मगर न्यायिक प्रक्रिया लंबी होती थी। 1798 में अकेले बर्दवान ज़िंले में ही राजस्व भुगतान के बकाया से संबंधित 30,000 से अधिक वाद लंबित थे।
जोतदारों का उदय
अठारहवीं शताब्दी के अंत में जहाँ एक ओर अनेक जमींदार संकट की स्थिति से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर धनी किसानों के कुछ समूह गाँवों में अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे थे। फ़्रांसिस बुकानन के उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले के सर्वेक्षण में हमें धनी किसानों के इस वर्ग का, जिन्हें ‘जोतदार’ कहा जाता था, विशद विवरण देखने को मिलता है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक आते-आते, जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े रकबे, जो कभी-कभी तो कई हजार एकड़ में फ़ैले थे, अर्जित कर लिए थे। स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर भी उनका नियत्रंण था आरै इस प्रकार वे उस क्षेत्र के ग़रीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे। उनकी जमीन का काफी बड़ा भाग बटाईदारों अधिकारों या बरगादारों के माध्यम से जोता जाता था, जो खुद अपने हल लाते थे खते मे महे नत करते थे और फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा जोतदारों को दे देते थे। गाँवों में, जोतोदारों की शक्ति, जमींदारों की ताकत की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती थी। जमींदार के विपरीत जो शहरी इलाको मे रहते थे जोतदार गांवो मे ही रहते थे और ग़रीब ग्रामवासियों के काफ़ी बड़े वर्ग पर सीधे अपने नियंत्रण का प्रयोग करते थे। जमींदारों द्वारा गाँव की जमा लगान को बढ़ाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों का वे घोर प्रतिरोध करते थे जमींदारी अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करने से रोकते थे जो रैयत उन पर निर्भर रहते थे उन्हें वे अपने पक्ष में एकजुट रखते थे और जमींदार को राजस्व के भुगतान में जान-बूझकर देरी करा देते थे। सच तो यह है कि जब राजस्व का भुगतान न किए जाने पर जमींदार की जमींदारी को नीलाम किया जाता था तो अकसर जोतदार ही उन जमीनों को खरीद लेते थे। उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे, हालांकि धनी किसान और गाँव के मुखिया लोग भी बंगाल के अन्य भागों के देहाती इलाकों में प्रभावशाली बनकर उभर रहे थे। कुछ जगहों पर उन्हें ‘हवलदार’ कहा जाता था और कुछ अन्य स्थानों पर वे गाँटीदार या ‘मंडल’ कहलाते थे। उनके उदय से जमींदारों के अधिकार का कमजोर पड़ना अवश्यंभावी था।
जमींदारों की ओर से प्रतिरोध
किंतु, ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों की सत्ता समाप्त नहीं हुई। राजस्व की अत्यधिक माँग और अपनी भू-संपदा की संभावित नीलामी की समस्या से निपटने के लिए जमींदारों ने इन दबावों से उबरने के रास्ते निकाल लिए। नए संदर्भो में नयी रणनीतियाँ बना ली गईं। फर्जी बिक्री एक ऐसी ही तरकीब थी। इसमें कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे। बर्दवान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया क्योंकि कंपनी ने यह निर्णय ले रखा था कि स्त्रियों की संपति को नहीं छीना जाएगा। फिर दूसरे कदम के तौर पर उसके एजेंटों ने नीलामी की प्रक्रिया में जोड़-तोड़ किया। कंपनी की राजस्व माँग को जान-बूझकर रोक लिया गया और भुगतान न की गई बकाया राशि बढ़ती गई। जब भू-संपदा का कुछ हिस्सा नीलाम किया गया तो जमींदार के आदमियों ने ही अन्य खरीददारों के मुकाबले ऊँची-ऊँची बोलियाँ लगाकर संपत्ति को खरीद लिया।
आगे चलकर उन्होंने खरीद की राशि को अदा करने से इनकार कर दिया, इसलिए उस भूसंपदा को फिर से बेचना पड़ा। एक बार फिर जमींदार के एजेंटों ने ही उसे खरीद लिया और फिर एक बार खरीद की रकम नहीं अदा की गई और इसलिए एक बार फिर नीलामी करनी पड़ी। यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती रही और अंततोगत्वा राज और नीलामी के समय बोली लगाने वाले थक गए। जब किसी ने भी बोली नहीं लगाई तो उस संपदा को नीची कीमत पर फिर जमींदार को ही बेचना पड़ा। जमींदार कभी भी राजस्व की पूरी माँग नहीं अदा करता था इस प्रकार कंपनी कभी-कभार ही किसी मामले में इकट्ठा हुई बकाया राजस्व की राशियों को वसूल कर पाती थी। ऐसे सौदे बड़े पैमाने पर हुए। सन् 1793 से 1801 के बीच, बंगाल की चार बड़ी जमींदारियों ने, जिनमें बर्दवान की जमींदारी भी एक थी, अनेक बेनामी खरीददारियाँ कीं जिनसे कुल मिलाकर 30 लाख रुपये की प्राप्ति हुई । नीलामियों मे की गई कुल बिक्रियों में से 15 प्रतिशत सादै नव़फली थे जमींदार लोग और भी कई तरीकों से अपनी जमींदारी को छिनने से बचा लेते थे।जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेते थे तभी उन्हें हर मामले में उसका कब्जा नहीं मिलता था। कभी-कभी तो पुराने जमींदार के ‘लठियाल’ नए खरीददार के लोगों को मारपीटकर भगा देते थे और कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि पुराने रैयत बाहरी लोगों को यानी नए खरीददार के लोगों को जमीन में घुसने ही नहीं देते थे। वे अपने आपको पुराने जमींदार से जुड़ा हुआ महसूस करते थे और उसी के प्रति वफादार बने रहते थे और यह मानते थे कि पुराना जमींदार ही उनका अन्नदाता है और वे उसकी प्रजा हैं। जमींदारी की बिक्री से नके तादात्म्य और गौरव को ध्क्का पहुँचता था। इसलिए जमींदार आसानी से विस्थापित नहीं किए जा सकते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कीमतों में मंदी की स्थिति समाप्त हो गई। इसलिए, जो जमींदार 1790 के दशक की तकलीफ़ो को झेलने में सफल हो गए, उन्होंने अपनी सत्ता को सुदृढ़ बना लिया। राजस्व के भुगतान संबंधी नियमों को भी कुछ लचीला बना दिया गया। फलस्वरूप गाँवों पर जमींदार की सत्ता और अधिक मजबूत हो गई लेकिन आगे चलकर 1930 के दशक की घोर मंदी की हालत में अंतत: जमींदारों का भट्ठा बैठ गया और जोतदारों ने देहात में अपने पाँव मजबूत कर लिए।
पाँचवीं रिपोर्ट
हम जिन परिवर्तनों पर चर्चा कर रहे हैं उनमें से बहुत से परिवर्तनों का विस्तृत विवरण एक रिपोर्ट में दिया गया है जो सन् 1813 में ब्रिटिश संसद में पेश की गई थी। यह उन रिपोर्ट में से पाँचवीं रिपोर्ट थी जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन तथा क्रियाकलापों के विषय में तैयार की गई थी। अक्सर ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से उल्लिखित यह रिपोर्ट 1,002 पृष्ठों में थी। इसके 800 से अधिक पृष्ठ परिशिष्टों के थे जिनमें जमींदारों और रैयतों की अर्जियाँ, भिन्न-भिन्न जिलों के कलेक्टरों की रिपोर्ट, राजस्व विवरणियों से संबंधित सांख्यिकीय तालिकाएँ और अधिकारियों द्वारा बंगाल और मद्रास के राजस्व तथा न्यायिक प्रशासन पर लिखित टिप्पणियाँ शामिल की गई थीं। कंपनी ने 1760 के दशक के मध्य में जब से बंगाल में अपने आपको स्थापित किया था तभी से इंग्लैण्ड में उसके क्रियाकलापों पर बारीकी से नजर रखी जाने लगी थी और उन पर चर्चा की जाती थी। ब्रिटेन में बहुत से ऐसे समूह भी थे जो भारत तथा चीन के साथ व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार का विरोध करते थे। वे चाहते थे कि उस शाही फरमान को रद्द कर दिया जाए जिसके तहत इस कंपनी को यह एकाधिकार दिया गया था। ऐसे निजी व्यापारियों की संख्या बढ़ती जा रही थी जो भारत के साथ होने वाले व्यापार में हिस्सा लेना चाहते थे और ब्रिटेन के उद्योगपति ब्रिटिश विनिर्माताओं के लिए भारत का बाजार खुलवाने के लिए उत्सुक थे। कई राजनीतिक समूहों का तो यह कहना था कि बंगाल पर मिली विजय का लाभ केवल ईस्ट इंडिया कंपनी को ही मिल रहा है, संपूर्ण ब्रिटिश राष्ट्र को नहीं। कंपनी के कुशासन और अव्यवस्थित प्रशासन के विषय में प्राप्त सूचना पर ब्रिटेन में गरमागरम बहस छिड़ गई और कंपनी के अधिकारियों के लोभ-लालच और भ्रष्टाचार की घटनाओं को ब्रिटेन के समाचारपत्रों में व्यापक रूप से उछाला गया।
ब्रिटिश संसद ने भारत में कंपनी के शासन को विनियमित और नियंत्रित करने के लिए अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अनेक अधिनियम पारित किए। कंपनी को बाध्य किया गया कि वह भारत के प्रशासन के विषय में नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट भेजा करे और कंपनी के कामकाज की जाँच करने के लिए कई समितियाँ नियुक्त की गईं। ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ एक ऐसी ही रिपोर्ट है जो एक प्रवर समिति द्वारा तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गंभीर वाद-विवाद का आधार बनी। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ग्रामीण बंगाल में क्या हुआ इसके बारे में हमारी अवधारणा लगभग डेढ़ शताब्दी तक इस पाँचवीं रिपोर्ट के आधर पर ही बनती-सुधरती रही। पाँचवीं रिपोर्ट में उपलब्ध साक्ष्य बहुमूल्य हैं। लेकिन ऐसी की सरकारी रिपोर्ट को सावधानीपूर्वक पढ़ना और समझना चाहिए। हमें यह जानने की जरूरत है कि ये रिपोर्ट किसने और किस उद्देश्य से लिखी। वास्तव में आधुनिक शोधों से पता चलता है कि पाँचवीं रिपोर्ट में दिए गए तर्को और साक्ष्यों को बिना किसी आलोचना के स्वीकार नहीं किया जा सकता। शोधकर्ताओं ने ग्रामीण बंगाल में औपनिवेशिक शासन के बारे में लिखने के लिए बंगाल के अनेक जमींदारों के अभिलेखागारों तथा ज़िंलों के स्थानीय अभिलेखों की सावधनीपूर्वक जाँच की है। उनसे पता चलता है कि पाँचवीं रिपोर्ट लिखने वाले कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करने पर तुले हुए थे इसलिए पाँचवीं रिपोर्ट में परंपरागत जमींदारी सत्ता के पतन का वर्णन अतिरंजित है और जिस पैमाने पर जमींदार लोग अपनी जमीनें खोते जा रहे थे उसके बारे में भी बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया है। जैसा कि हमने देखा है, जब जमींदारियाँ नीलाम की जाती थीं, तब भी जमींदार नए-नए हथकंडे अपनाकर अपनी जमींदारी को बचा लेते थे और बहुत कम मामलों में विस्थापित होते थे।
Hindi Title
औपनिवेशिक बंगाल में भूमि बंदोबस्त
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
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