डार्विन

Submitted by Hindi on Wed, 08/17/2011 - 09:05
डार्विन, चार्ल्स रॉबर्ट (Darwin, Charles Robert, सन्‌ 1809-82) अंग्रेज प्रकृतिवैज्ञानिक का जन्म श्रिउसबरी में हुआ था। विकासवाद के सिद्धांत की स्थापना का श्रेय मुख्यत: इन्हें प्राप्त है।

यद्यपि विश्व की परिवर्तनशीलता के कारणों के संबंध में प्राचीन काल से अनेक विचार चले आ रहे थे तथा 18वीं और 19वीं शताब्दियों में उद्भव (descent) के अनुसार जातियों की उत्परिवर्तनशीलता (Mutability) का सिद्धांत जड़ पकड़ रहा था, फिर भी डार्विन के पूर्व कोई परिकल्पना सर्वमान्य नहीं हुई थी। डार्विन के युवा होने तक जीवों की विभिन्न जातियों की उत्पत्ति का प्रश्न पुनर्विचार के लिए परिपक्व हो गया था। इनका कार्य इस संबंध की विपुल सामग्री को एकत्रित कर विश्व को सप्रमाण समझाना था।

इन्होंने इससे भी बड़ा काम किया। परिवर्तन (variation) तथा आनुवंशिकता (heredity) का अध्ययन कर इन्होंने एक ऐसे नए विज्ञान को जन्म दिया जिसकी कसौटी पर आगे चलकर उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत जाँचे गए। अन्यों द्वारा तथा स्वयं निरीक्षण की हुई बातों से सच्चे विवेचन और विश्लेषणात्मक तर्क से तथा वास्तविकता के आधार पर इन्होंने विकास के ऐसे सिद्धांत को प्रतिष्ठापित किया जो धीरे-धीरे सर्वमान्य हो गया और जिसने ज्ञात बातों की नई व्याख्या के लिए प्रशस्त मार्ग खोल दिया। बाद के अविष्कारों के कारण इनके मूल सिद्धांत में कुछ परिवर्तन करना पड़ा है, किंतु मुख्य संगत तथ्य वही के वही हैं।

जीवन तथा शिक्षा -


चार्ल्स डारविन के पिता का नाम रॉबर्ट डार्विन तथा माता का सुज़ैना वेजवुड (Susannah Wedgewood) था। ये अपने पिता के, जो श्रिउसबरी के समृद्ध डाक्टर थे, छठे पुत्र थे। ये जब आठ वर्ष के थे, इनकी माता की मृत्यु हो गई और इनकी बड़ी बहनों ने घर सँभाला, पर ये बहुधा अपने ननिहाल में रहते थे। फलत: आगे चलकर इनकी ममेरी बहन, एमा वेजवुड, से इनका विवाह हो गया, जिनके साथ इन्होंने अपने जीवन के अंतिम 43 वर्ष बिताए।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा श्रिउसबरी के ग्रैमर स्कूल में हुई। डार्विन ने स्वयं लिखा है कि इससे उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। 16 वर्ष की आयु में चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा के लिए इन्हें एडिनबरा युनिवर्सिटी में भरती किया गया, किंतु इस शास्त्र में इनका मन नहीं लगा। इनका झुकाव प्राकृतिक विज्ञान की ओर था। इन्होंने प्राणिवैज्ञानिक मौलिक निरीक्षणों संबंधी अपना सर्वप्रथम लेख प्लिनियन (plinian) सोसायटी के संमुख पढ़ा।

डाक्टरी के पेशे में इनके लगने की आशा जब कम दिखाई दी तो इनके पिता ने दु:खित हो इन्हें केंब्रिज विश्वविद्यालय में भरती कराया। जनवरी, सन्‌ 1831 में इन्होंने यहाँ से साधारण डिग्री प्राप्त की।

बीगल (Beagle) की यात्रा -


इसी साल पैटागोनिआ (Patagonia) तथा टियरा डेल फूएगो (Tierra del fuego) के समुद्रतटों का नक्शा तैयार करने तथा पृथ्वी के चतुर्दिक्‌ कालमापन के लिए राजकीय जहाज 'बीगल' पर कैप्टन रॉबर्ट फिट्ज़रॉय जा रहे थे। इन्हें एक प्राकृतिक वैज्ञानिक को साथ में ले जाने की अनुमति मिली और यह पद डार्विन को मिल गया।

यह समुद्री यात्रा पाँच वर्ष रही। इस यात्रा में इनकी प्रतिभा को पूर्ण अवसर मिला। अब ये मन की तुष्टि पर्यत निरीक्षण, संग्रह, अनुशीलन तथा सैद्धांतिक परिकल्पना कर सकते थे। केप वर्ड (Cape Verde) द्वीपों में, जहाँ जहाज अधिक काल तक रुकनेवाला था, इन्होंने विभिन्न जातियों के प्राणियों का निरीक्षण करना आरंभ किया। जीवित तथा उच्छिन्न जातियों का संबंध, उनका भौगोलिक वितरण, द्वीपों के रूपों का स्थानसीमन तथा विपुल कालावधि, ये सब विकासवाद के सिद्धांत के उद्घाटन में सहायक हुए।

केप वर्ड द्वीपों के पश्चात्‌ दक्षिणी अमरीका महाद्वीप का पूर्वी समुद्रतट और टियरा डेल फूएगो तथा फाकलैंड द्वीपों के समुद्रतटों की यात्रा में 29 मास लगे। डार्विन कभी समुद्रतट पर और कभी देश के भीतर यात्रा करते हुए निरीक्षण किया करते। गालापागस (Galapagos) द्वीपसमूह, टाहिटी, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, टास्मैनिया कीलिंग द्वीप, ऐसेंशन (Ascension) द्वीप, सेंट हेलेना तथा सदाशा अंतरीप की यात्रा ने 13 महीने लिए। अक्टूबर, सन्‌ 1836 में डार्विन इंग्लैंड वापस पहुँचे और संकलित तथ्यों में सामंजस्य स्थापित करने में लग गए।

उनकी गणना तब विज्ञान के शीर्ष विद्वानों में होने लगी, क्योंकि उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र, केंब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेन्स्लो ने, बिना उन्हें बताए, विज्ञान विषयक उनके पत्र छपवा डाले थे। सन्‌ 1838 में वे जियॉलॉजिकल सोसायटी के मंत्री बनाए गए तथा एक वर्ष पश्चात्‌ रॉयल सोसायटी के सदस्य (Fellow) चुने गए।

प्रकाशन -


बाद के वर्ष इन्होंने यात्रा का विवरण तैयार करने में बिताए। यात्रा में एकत्रित भूवैज्ञानिक तथ्य तीन खंडों में प्रकाशित हुए। जीववैज्ञानिक अनुसंधान विषयक बातें पाँच खंडों की पुस्तक में प्रकाशित हुईं। इनके शेष जीवन का बड़ा भाग ग्रंथ लिखने और उनके प्रकाशन में बीता, किंतु ये कार्य उनके मुख्य कार्य में बाधा पहुँचाते रहे। जातियों के प्रश्न का, जो विकास की समस्याओं का वास्तविक आधार था, स्पष्टीकरण आवश्यक था। संभवत: इसी कारण इन्होंने अलकपादों (cirripedes) तथा खंडावरों (barnacles) के संबंध में पूर्ण अनुसंधान आरंभ किया। इसमें इन्हें आठ वर्ष लगे और इसका फल चार खंडों में प्रकाशित हुआ।

जातिपरिवर्तनों के संबंध में लिखना इन्होंने सन्‌ 1837 में आरंभ किया था। इसके पश्चात्‌ अनेक वर्षों तक ये जीवों तथा वनस्पतियों के संबंध में विपुल तथ्य एकत्रित कर उनमें सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा में लगे रहे। इस कार्य के लिए इन्होंने विभिन्न उद्यमों में लगे लोगों, जैसे डाक्टरों, किसानों, मालियों, पशुपालकों इत्यादि, से भी यथार्थ बातें संचित कीं। इस प्रकार इन्होंने विशाल सामग्री का संग्रह किया और उसके आधार पर एक सुगठित सिद्धांत की परिकल्पना की।

सन्‌ 1858 में ऐल्फ्रडे रसेल वैलेस ने डार्विन को एक लेख भेजा। इससे ज्ञात हुआ कि वैलेस भी स्वछंद रूप से अनुसंधान और विचार कर उन्हीं निश्चयों पर पहुँचे थे जिन पर डार्विन। डार्विन ने अपने और वैलेस के नाम से एक संयुक्त प्रकाशन का निश्चय किया। पहली जुलाई, 1858 को लिनियन (Linnean) सोसायटी की बैठक में एक संयुक्त लेख पढ़ा गया। जीवों की जातियाँ विश्व के उत्पत्तिकाल से अपरिवर्तित चली आ रही हैं, इस प्राचीन विश्वास को इस लेख ने जबर्दस्त धक्का पहुँचाया।

डार्विन का विचार पहले एक बृहत्‌ ग्रंथ लिखने का था, किंतु उन्होंने अपेक्षाकृत छोटी, किंतु प्रसिद्ध, पुस्तक 'दि ओरिजिन ऑव स्पीशीज़ बाइ नैचुरल सिलेक्शन' प्रकाशित की। इसने रूढ़िवादियों में तहलका मचा दिया। धीरे धीरे वातावरण शांत हुआ और विपक्षी भी डार्विन के मत के हो गए।

अंतिम वर्ष -


डार्विन ने यह काल केंट प्रदेश के जंगलों से घिरे अपने गृह में शांतिपूर्वक बिताया। पाले हुए कबूतरों और मुर्गों के बीच या बागवानी में उनका समय बीतता था। वनस्पति शास्त्र में ये अधिक निमग्न रहने लगे, जिसके प्रयोगों का उत्साह इन्हें बराबर बना रहा।

इनके तीन पुत्र रॉयल सोसायटी के सदस्य चुने गए थे। वैज्ञानिक विचारों में निमग्न रहने पर भी डार्विन की उदारता और पारिवारिक प्रेम में कोई कमी न हुई। उन्हें इस बात का दु:ख था कि विज्ञान के प्रेम ने साहित्य, संगीत और कला से उनका संबंध अधिक घना न होने दिया। इनकी मृत्यु 19 अप्रैल, 1882 ई0 को हुई तथा ये सर आइज़क न्यूटन की कब्र के पास ही वेस्टमिंस्टर ऐबे में दफनाए गए।

इनके मुख्य ग्रंथों में से निम्नलिखित अधिक प्रसिद्ध हैं : (1) ऑन दि ओरिजिन ऑव स्पीशीज़ बाइ मीन्स ऑव नैचुरल सिलेक्शन, ऑर दि प्रिज़र्वेशन ऑव फेवर्ड रेसेज इन दि स्ट्रगल फॉर लाइफ (1859) ; (2) जिऑलोजी ऑव दि वाएज ऑव दि बीगल, खंड 1-3 (1842-46), (3) जर्नल ऑव रिसर्चेज़ (1845), (4) फोर मोनोग्राफ़्स ऑन सिरीपीड्स (1851-54), (5) दि वैरिएशन ऑव दि ऐनिमल्स ऐंड प्लैंट्स अंडर डोमेस्टिकेशन (2 खंड, 1868), (6) दि डिसेंट ऑव मैन, ऐंड सिलैक्शन इन रिलेशन टु सेक्स (2 खंड, 1871), (7) दि एक्शप्रेशन ऑव दि इमोशन्स इन मैन ऐंड ऐनिमल्स (1872), (8) इन्सेक्टिवोरस प्लैंट्स, (9) दि एफेक्ट ऑव क्रॉस ऐंड सेल्फफर्टिलिज़ेशन इन दि वेजिटेबुल किंग्डम इत्यादि। [भगवतीप्रसाद पांथरी]

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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