डाटदार पुल

Submitted by Hindi on Tue, 08/16/2011 - 10:30
डाटदार पुल यद्यपि वेदों, ब्राह्मणों और उपनिषदों में अनेक स्थानों में 'सेतु' शब्द आया है, जो पुल के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है और यह भी निर्विवाद है कि हिमालय की घाटियों में, जहाँ प्रागैतिहासिक कालीन सभ्यता अपेक्षाकृत पहले विकसित हुई थी, झूले के पुल संसार के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक विकास पा चुके थे तथा सिंधुघाटी झूलापुल की जन्मभूमि ही थी, तथापि वास्तविक चिनाई के या डाटदार पुलों का जन्म दजला-फरात की घाटी में मेसोपोटामिया में ही हुआ। यह कहा जा सकता है कि इनका बीजारोपण उस प्रकार के आदिकालीन 'टोड़ा' पुलों में हुआ था जो भारत के प्रागैतिहासिक कालीन निवासी, नदीतट की चट्टानों से आगे बढ़ा बढ़ाकर शिलाखंड रखते हुए और अंततोगत्वा घटे हुए अंतराल को एक ही खंड से पाटकर, बनाया करते थे। यद्यपि सिंधु घाटी सभ्यता मेसोपोटामिया की आदिकालीन सभ्यता से भी पुरानी मानी जाती है और वहाँ की ईटें तथा चिनाई उससे कहीं उच्चतर कोटि की थीं जिसके अवशेष मेसोपोटामिया में मिले हैं, फिर भी अभी तक ऐसे कोई चिह्न नहीं मिले जिनसे यह अनुमान लगाया जा सके कि चिनाई के पुल भी सिंधुघाटी में बनते थे।

पुरातत्ववेत्ताओं के मत से दजला-फरात की उर्वर घाटी में 4,000 वर्ष ईसा पूर्व सर्वप्रथम सुमेर बस्ती बसी। उस समय वहाँ ईटं ही एकमात्र निर्माणसामग्री थी। उपलब्ध सामग्री से ही निर्माणविधियाँ निश्चित होती हैं, अत: इस सभ्यता का प्रमुख निर्माणसिद्धांत डाट या गुंबद का था। शायद कभी टोड़ा पुल जैसी डाट बनाते समय कोई सुमेरियन अकस्मात्‌ ईटों को घुमा बैठा, जिससे वे खड़ी हो गईं, और विस्मय सहित उसे यह विदित हुआ कि डाट का छल्ला अपने स्थान पर रुका रहता है। इस प्रकार वास्तविक डाट की खोज हुई। मेसोपोटामिया में गढ़ी हुई ईटों से बनी पूर्ण विकसित डाटों के अवशेष मिले हैं, जो उपर्युक्त काल के कहे जाते हैं।

वास्तविक डाट के सिद्धांत की खोज निर्माणकला के लिए महान्‌ उपलब्धि थी। रोमन वास्तुकला के मूल में भी यही थी। मध्ययुगीन गॉथिक कृतियों और नए पुराने सभी गुंबदों का आधार भी डाट ही बनी। स्तंभ और सरदल विधि निष्क्रिय, निर्जीव और स्थैतिक थी; जबकि डाट की विधि की देन कुछ नई रही। एक शक्तिशाली, सक्रिय, सजीव और गतिशील बल प्राप्त हुआ जो उसकी आकृति से ही प्रकट होता है। शिखर से उठान आधार तक प्रत्येक ईटं या पत्थर अपना भार अगले को देता जाता है और अंततोगत्वा सारा भार अंत्याधार तक पहुँचता है। इसमें एक सतत सक्रिय स्खलनिक शक्ति की भावना निहित है।

शुद्ध डाट के उद्विकास में सुमेरियनों को कई शताब्दियाँ लगीं। उसी काल में मिस्र में भी बड़े-बड़े इंजीनियरों और निर्माताओं का प्रादुर्भाव हो रहा था। इतिहास के आरंभ में ही मिस्रवाले स्वत: या अपने पूर्वी पड़ोसियों से, डाट बनाना सीख चुके थे। डैंडरों में एक पुराना गुंबद है, जिसमें डाट के तीन छल्ले हैं, और जो 3,600 ई. पू. का कहा जाता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार 2,500 ई. पू. तक डाटों का चलन आम हो चुका था।

जब मिस्र की संस्कृति उन्नति के शिखर पर थी, मेसोपोटामिया में महत्वपूर्ण घटनाएँ घट रही थीं। यद्यपि सुमेरी सभ्यता नष्ट हो चुकी थी, तथापि दूसरी उससे भी अधिक शानदार संस्कृति पोषण पा रही थी। लगभग 2,000 ई. पू. में एक नई सेमेटिक संस्कृति सारे मेसोपोटामिया पर छा गई। पुरातात्विक उल्लेखों के अनुसार इससे कुछ ही वर्ष पूर्व, निमरूद की आज्ञा से बाबुल (बेबिलोन) में एक पुल बनाया गया था। निमरूद, नूह के पश्चात्‌ तीसरा शासक था। उसने फरात नदी के दोनों तटों पर स्थित दो राजमहलों को मिलाने के लिए पुल बनवाया था। कहते हैं, उस पुल में ईटों की एक ही डाट थी, जिसकी चौड़ाई 30 फुट और पाट 660 फुट था। यदि वास्तव में ऐसा पुल बना था, तो उस युग के लिए इंजीनियरी का एक चमत्कार ही था। अधिक संभावना यही है कि पुल की कुल लंबाई 660 फुट रही होगी और उसमें छोटी-छोटी अनेक दरें रही होंगी।

यूनानियों ने 450 ई. पू. में ईटों की डाट लगाना सीखा, जिसका नमूना परगमीन की 27 फुट पाट की डाट है। किंतु वे स्वभाव से ही खंभे और सरदल वाली इमारतें पसंद करते थे।

फारस निवासियों ने आदिकाल में धरनवाले, टोड़ावाले और डाटदार पुल बनाए, जिनका काल अनिश्चित है। डीज़फुल में आबे-डीज़ पर लगभग 350-300 ई. पू. में बनाया गया ईटं की डाटोंवाला एक प्राचीन पुल है। यह 1,250 फुट लंबा है। इसमें भली भाँति गढ़ी हुई ईटों की कुछ-कुछ नुकीली 20 डाटें हैं और स्कंध दीवार में अर्धवृत्ताकार खुली जगहें हैं।

चीन का पुल-निर्माण-काल 2,300 ई. पू. से आरंभ होता है। पुल के अर्थ में प्रयुक्त चीनी भाषा का वर्ण 1,003 ई. पू. का है। वहाँ 130 फुट पाट तक के लकड़ी के पुल बनते थे; उसके बाद 300 फुट पाट तक झूला पुल। सन्‌ 630 ई. में ह्वैंनसाग ने भारत में लोहे की जंजीरों का प्रयोग देखा, जिसके आधार पर चीनियों ने अपने झूला पुलों में अनेक सुधार किए, किंतु इन सबकी अपेक्षा वे डाट के पुल ही अधिक पंसद करते थे। यद्यपि वे डाट के प्रवर्तक नहीं थे, फिर भी उन्होंने उसे विशिष्ट आकृति प्रदान की। मेसोपोटामिया और भारत की संस्कृतियों के संपर्क में आने के फलस्वरूप, हैनवंश के उत्तर काल में पहली शती ईसवी के पश्चात्‌ चीन में पहला डाटदार पुल बना।

रोम निवासी लकड़ी के पुल संतोषजनक न पाकर अपनी संस्कृति के स्मारकस्वरूप अधिक पायदार और टिकाऊ इमारतें बनाना चाहते थे। उनकी बनाई हुई पत्थर की शानदार डार्ट शताब्दियाँ गुजार चुकी हैं। रोम में टाइबर नदी पर ही 178 ई. पू. के बीच आठ पुल बने। उनमें से छ: (जिनका जीणोंद्धार हो चुका है) अब भी मौजूद हैं। इनमें उन्होंने अपनी निर्माण संबंधी कला और विज्ञान तथा सजावट का भरपूर प्रदर्शन किया है।

विजेता और उपनिवेशवादी रोमनों ने अपने आसपास के देशों को अपने देश से सड़कों और पुलों द्वारा जोड़ रखा था। ब्रिटेन से उत्तरी अफ्रीका तक और स्पेन से एशिया माइनर तक लगभग 65,000 मील लंबी सड़कों पर सैकड़ों पुल बने। स्पेन और फ्रांस में भी अनेक प्राचीन पुल हैं।

मध्यकालीन पुल बहुधा सुरक्षात्मक दृष्टि से बनाए जाते थे। उनके पाए बहुत मोटे और दरें छोटी हुआ करती थीं। शत्रु के आक्रमण के समय मार्ग अवरुद्ध करने के लिए एक या अधिक डाटें तोड़ दी जा सकती थीं। शेष डाटों की ठेल सहन कर सकने के लिए पायों का मोटा होना अनिवार्य था। पुलों पर बहुधा पहरे की चौकियाँ भी हुआ करती थीं। ये पुल केवल उपयोगिता की दृष्टि से ही बनते थे। तत्कालीन गिरजाघरों के निर्माण में प्रदर्शित साहस एवं विश्वास का लेशमात्र भी पुलों में नहीं दिखाया गया। हाँ, इटली में पुनरुत्थान कालीन वास्तुकारों ने अनेक सुधार किए। उन्होंने बादामी तथा बैजवी (अंडाकार) डाटें बनाईं, जिनकी ऊँचाई पाट के अनुपात में कम होती है। इस प्रकार चौड़ी दर होने से जलमार्ग में अवरोध भी घटा और सड़क भी बहुत ऊँची होने से बचने लगी।

इंग्लैंड में जॉन रेनी द्वारा सन्‌ 1924-31 में बनवाए गए वर्तमान 'लंदन' पुल में पाँच बैजवी डाटें हैं, जिनमें से बीचवाली 252 फुट पाट की है। इन डाटों में अनुपात और सुंदरता दर्शनीय है। चिनाई का 'ग्रॉसवेनर' नामक सुंदर पुल इससे भी एक शताब्दी पूर्व, सन्‌ 1832 में, हरीसन ने चेस्टर में डी नदी पर बनवाया था, जिसमें 200 फुट पाट की 42 फुट ऊँची एक बादामी डाट है। एक और उल्लेखनीय ईटं की चिनाई का पुल मेडेन हेड में टेम्ज़ नदी पर है, जिस पर से होकर ग्रेट वेस्टर्न रेलवे जाती है। यह 'ब्रुसेल्स' पुल सन्‌ 1838 में बना था और आज तक बने हुए डाटदार पुलों में सबसे अधिक चिपटा है। दो डाटें पत्येक 128 फुट पाट की हैं, जिनकी ऊँचाई केवल 241/4 फुट है। जब यह बन रहा था तब ढूला निकालते समय डाटें कुछ बैठ गई थी। तभी से पुल की मजबूती पर संदेह किया जाता रहा, किंतु निकट भविष्य में ही इसके गिर जाने की आशंकाओं के बावजूद आज इतनी भारी-भारी रेलें इसपर से गुजरती हैं, जिनकी कल्पना इसके निर्माता इंजीनियरों ने कभी स्वप्न में भी न की होगी।

भारत में उल्लेखनीय पुल मुस्लिम काल में बने। जौनपुर में गोमती नदी का सुंदर डाटदार पुल, जो आज भी चालू है और अनेक अज्ञातपूर्व बाढ़ें झेल चुका है, शेरशाह सूरी ने बनवाया था। फीरोज़शाह का बनवाया हुआ एक पुल करनाल में यमुना नहर पर ग्रांड ट्रंक रोड के 70वें मील पर विद्यमान है। मुगल काल का एक डाटदार पुल चित्तोड़ के पास है। एक अन्य उल्लेखनीय प्राचीन पुल दिल्ली के निकट खुश्क नाला पर 'बारहपुला' नामक है, जिस पर से कभी दिल्ली-मथुरा रोड गुजरती थी। वास्तव में यह बारह बुर्जी पुल है, क्योंकि इसमें 11 दरें हैं, और मुँडेरों पर दोनों ओर बारह-बारह बुर्जियाँ हैं। इसकी डाटें कुछ नुकीली हैं और एक डाट को छोड़कर, जो बाद में कभी ईटं की बना दी गई है, सारा पुल अस्तरित, अनगढ़े पत्थरों का है। निर्माण के बाद इसकी ठीक से मरम्मत भी नहीं होती रही। लखनऊ में गोमती नदी पर बना हुआ बंदर पुल (मंकी ब्रिज हृ यह नामकरण कैसे हुआ, पता नहीं) जो शहर से विश्वविद्यालय क्षेत्र को मिलाता है, बहुत पुराना है।

इंजीनियरी कौशल का एक और नमूना रुड़की के निकट सोलानी जलसेतु में मिलता है। सन्‌ 1847-49 में बने इस महत्वपूर्ण डाटदार पुल के नीचे सोलानी नदी और ऊपर गंगा नहर बहती है। इसके ऊपर तीन मील तक नहर पक्की कर दी गई है। चूना सुर्खी की चिनाई से बने इस महत्वपूर्ण पुल के पीछे लोमहर्षक इतिहास है।

कहते हैं, एक बार असफल होने पर निर्माता इंजीनियर, 'काटले', ने पुन: स्वीकृति प्राप्त करके जब इसे दुबारा पूरा किया, तो नहर में पानी छोड़े जाने से पूर्व वह पुल के नीचे कुर्सी जमाकर बैठ गया, ताकि यदि दैवात्‌ पुन: असफल हो तो वह भी वहीं समाधिस्थ हो जाए। जनसमूह साँस थामे देखता रहा और परीक्षण की सफलता पर अत्यंत हर्षित हुआ।

चिनाई की डाटें वहीं उपयुक्त रहती हैं जहाँ उनके लिए पक्के, निर्भर करने योग्य आधार मिल सकें और नीवें सुदृढ़ हों। आधुनिक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि पर्याप्त उठान और मोटाईवाली डाट यदि सुदृढ़ आधार पर हो और ठीक से देखभाल होती रहे, तो काफी भार ले सकती है। चिनाई में संधियाँ होने के कारण ताप के परिवर्तन के अनुसार आवश्यक समंजन होता रहता है और आंतरिक प्रतिबल या संकुचन प्रतिबल नहीं उत्पन्न होते। अंतयाधारों में भी मामूली चाल होने से भारी हानि नहीं होती।

चिनाई के पुलों का मूलाधार डाट का सिद्धांत ही है, जिसमें भार परस्पर विरोधी दिशाओं में ठेल के रूप में प्रकट होता है। इस ठेल की रेखा को 'रैखिक डाट' कहते हैं, जो स्थायित्व की दृष्टि से डाट के छल्ले के मध्यवर्ती तृतीयांश में होनी चाहिए। डाट में लगनेवाला अंतिम पत्थर चाभी कहलाता है। चाभी लगने के पश्चात्‌ ढूला, जिसपर डाट लगाते समय उसका सारा भार टिका रहता है, कुछ (1 से 2 इंच तक) नीचा कर दिया जाता है, जिससे डाट बैठ जाए और उसमें दबाव के प्रतिबल समान रूप से संतुलित हो जाएँ। ढूले में पक्की लकड़ी के पच्चड़ या बालू की पेटियाँ पहिले से लगा देनी चाहिए, जिससे नीचा करते समय डाट में धमक या कंपन न पहुँचे, और सारा ढूला एकबारगी नीचा किया जा सके। 40 फुट से अधिक पाट की डाट लगाते समय ढूले के मध्य भाग पर वहाँ लगनेवाली सब ईटें लाद देनी चाहिए, फिर डाट लगाना आरंभ करना चाहिए। सिद्धांत रूप से, यदि डाट की आकृति उपयुक्त हो, जिससे रैखिक डाट मध्यतृतीयांश में ही रहे, तो डाट में केवल दबाव ही पड़ेगा और चिनाई की संधियों में (जो रैखिक डाट पर लंबवत्‌ ही होनी चाहिए) मसाला न होने पर भी डाट रुकी रहेगी।

उठान और पाट का अनुपात, जहाँ तक संभव हो, अधिक रखना चाहिए। यह अनुपात 1/5 से कम होने पर उष्मीय एवं संकुचन प्रभाव बढ़ जाते हैं, और भार के कारण नमनघूर्ण और ठेल भी बढ़ते हैं। अत: 1/10 न्यूनतम सीमा माननी चाहिए। मितव्ययिता के ध्यान से उत्तम अनुपात 1/5 से 1/3 तक है। यदि अनुपात 1/2 और 1/4 के मध्य हो डाट-छल्ले और पीलपायों में सामग्री न्यूनतम लगती है, क्योंकि गोल डाटों से पीलपायों पर बिल्कुल ठेल नहीं पहुँचती और अंडाकार डाट से बहुत कम पहुँचती है। परवलयिक अथवा बादामी डाट, अंडाकार या तीन केंद्रीय डाट से, अच्छी रहती है और देखने में भी भली लगती है। दर का पाट उसकी कुल ऊँचाई से अधिक (बल्कि डेढ़ या दो गुने से भी अधिक) हो तो अच्छा है, नहीं तो पीलपायों, पायों और बाजू दीवारों में सामग्री अधिक लगेगी।

अंत्याधारों पर एक ओर से डाट की और दूसरी ओर से मिट्टी की ठेल पड़ती है। अत: ये इतने मज़बूत होने चाहिए कि किसी एक ओर की ठेल के अभाव में भी दूसरी ओर की ठेल सहन कर सकें। पाए इतने मजबूत होने चाहिए कि दोनों ओर उठने वाली डाटों में से केवल एक पर ही पूरा चलभार आने के फलस्वरूप उत्पन्न सारी ठेल सहन कर सकें। प्रत्येक चौथा या पाँचवां पाया पीलपाया होना चाहिए, जिसकी चौड़ाई उतनी ही हो जितनी उठानरेखा पर अंत्याधार की।

आकल्पन के लिए अनेक प्रयोगात्मक सूत्र काम में लाए जाते हैं, किंतु महत्वपूर्ण दशाओं में आकल्पन की जाँच और पुष्टि गणना द्वारा कर लेना अच्छा होता है। रेखाचित्र की सहायता से गणना सरल हो जाती है। डाटदार पुल के विभिन्न अंग और उनके पारस्परिक संबंध चित्र में दिखाए हुए हैं। बुनियाद के लिए जहाँ पक्का आधार नहीं मिलता, वहाँ कुएँ गलाए जाते हैं। कभी-कभी तो उन्हें 100-200 फुट गहरा ले जाना पड़ता है ताकि उनके बाहरी धरातल के घर्षण के बल पर ही सारा भार टिका रहे। कहीं-कहीं लकड़ी, लोहे या कंक्रीट के खूँटे गाड़कर पक्का आधार प्राप्त किया जाता है।

संसार के तीन विशालतम डाटदार पुल 1902-03 ई. में बने। सबसे बड़ा प्लाएन (जर्मनी) में सीरा नदी पर बना, जिसका पाट अंत्याधारों सहित 296 फुट ओर उठान 59 फुट है। इसमें भार घटाने के उद्देश्य से मुख्य डाट के ऊपर लंबाई और चौड़ाई की दिशाओं में अनेक डाटें लगाई गईं हैं। दूसरी लक्जेमबर्ग डाट पाल सेर्जन द्वारा बनवाई गई थी, जिसका पाट अंत्याधारों सहित 278 फुट और उठान 102 फुट है। स्कंध और कूल्हों पर ऊँचे-ऊँचे खंभे और डाटें हैं, जिनके ऊपर सड़क है। इसमें मुख्य डाट दो समांतर पट्टियों में बनी है। पट्टियों में से प्रत्येक 30 फुट चौड़ी है और बीच में 20 फुट का अंतर है, जिस पर प्रबलित कंक्रीट स्लैब पड़ा है। इससे लगभग एक तिहाई चिनाई की बचत होने के अतिरिक्त एक सुविधा यह भी हुई कि एक एक डाट, काम के एक एक मौसम में, पूरी कर ली गई और वही ढूला दो बार इस्तेमाल किया जा सका। तीसरा पुल मार्वेग्नो (इटली) में ग्रेनाइट का रेल-सड़क-पुल है, जिसका मुख्य पाट 230 फुट और उठान बहुत ही कम, केवल 33 फुट है। भारत में सबसे बड़ी दर की ईटं की चिनाईवाली डाट का पुल, पंजाब में कांगड़ा जिले में, पठानकोट कुल्लू मार्ग के 65वें मील पर है। इसकी एक ही दर 140 फुट की है। डाट की मोटाई 5 फुट और बीच में ऊँचाई 4 फुट है। इसे 1865 ई0 में मेजर ब्राउन ने बनवाया था।

1900 से 1910 ई. तक पत्थर के डाटदार पुलों का जमाना रहा, जो शीघ्र ही समाप्त भी हो गया, क्योंकि अन्य अधिक सुविधाजनक निर्माण विधियाँ और सामग्रियाँ प्रकाश में आ चुकी थीं। कंक्रीट ने एक क्रांति ही ला दी । सादी कंक्रीट भी प्रयुक्त हुई। संसार में सादी कंक्रीट की विशालतम डाट 280 फुट पाट की क्लीवलैंड (ओहायो) में रॉकी नदी पर 1910 ई. में बनी। 19वीं शताब्दी में भारत में भी चूना कंक्रीट की डाटों के पुल बनाए गए, जिनकी दर 50 फुट तक की है। सन्‌ 1860 में बने पठानकोट-कुल्लू मार्ग पर 45वें मील पर एक पुल है, जिसमें 40 फुट दर की तीन डाटें हैं। शीघ्र ही प्रबलित कंक्रीट ने सबका स्थान ले लिया। प्रबलित कंक्रीट स्लैब और धरनें बहुतायत से बनीं, किंतु बड़े पाटों के लिए डाटों का इस्तेमाल बंद न हो सका। हाँ, डाटें प्रबलित कंक्रीट की बनने लगीं।

भारत में भी प्रबलित कंक्रीट के अनेक डाटदार पुल बने। कालीकट कनानोर सड़क के 7वें मील पर कोरांपुजा पुल सन्‌ 1938-40 में 3.38 लाख रुपए की लागत से बना। इसमें चार पाट, प्रत्येक 100 फुट के, तीन प्रत्येक 64 फुट 10 इंच के और एक 60 फुट का है। डाटें, उससे लटकी हुई पाटन सहित, प्रत्यंचा गर्डर का रूप ले लेती हैं। 635 फुट लंबा एक अन्य पुल, पाताल गंगा पर, पेन के निकट है। इसमें भी बीच की तीन दरों पर सौ-सौ फुट की प्रत्यंचा गर्डरें हैं। मद्रास में कूनम नदी पर भी प्रबलित प्रत्यंचा गर्डर की पाँच दरोंवाला एक पुल है।

आजकल पूर्वप्रतिबलित कंक्रीट का प्रयोग सभी महत्वपूर्ण कार्यों में होने लगा है। बड़े-बड़े पाटों पर पूर्वप्रबलित कंक्रीट की धरनें लगाई जाती हैं, किंतु कभी-कभी डाटों को भी वरीयता मिलती है, यद्यपि इनकी उठान अपेक्षाकृत कम रहती है। ऐस्बली में मार्ने नदी पर सन्‌ 1949 के लगभग फ्रैजिनट ने अनेक पुल बनवाए। इनके 242 फुट 9 इंच पाट में उठान 20वें भाग से भी कम है।

लोहे की डाटें भी असामान्य नहीं हैं, बहुधा प्रत्यंचा गर्डर के रूप में। लखनऊ में गोमती नदी पर एक लोहे का डाटदार पुल है। इस्पात की एक विशाल डाट न्यूयार्क में पूर्वी नदी पर हेलगेट पुल में सन्‌ 1917 में बनी। इसका पाट 977 1/2 फुट है। सिडनी (आस्ट्रेलिया) में हार्वर पुल सन्‌ 1923-32 में बना। इसमें 1,640 फुट पाट की एक डाट बनाई गई, जिसका संसार में सबसे बड़ी होने का दावा होता, किंतु उसके आरंभ होने के पाँच ही वर्ष बाद न्यूयार्क में किलवानकुल में 1,652 फुट 1 इंच पाट का 'बेयन' पुल बनने लगा, जो उससे चार मास पूर्व 1931 ई. में ही पूर्ण हो गया और संसार में सबसे बड़ी डाट तैयार हुई। दक्षिणी रोडीज़िया में 1,080 फुट पाट का बर्केनो पुल 1935 ई. में पूरा हुआ, जिसका संसार में तीसरा स्थान है।

लोहे की अच्छी प्रकार डिज़ाइन की गई और बनाई गईं डाटें बड़ी शानदार और सुंदर होती हैं। अब तो इंजीनियर 2,000 फुट और 3,000 फुट पाट की लोहे की डाटें बनाने की कल्पना कर रहे हैं। [विश्वंभरप्रसाद गुप्त]

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संदर्भ
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