दीमक

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 12:35
दीमक वर्ग इंसेक्टा (Insecta) और गण आइसॉप्टरा (Isoptera) की सदस्य हैं। ये बस्तियाँ बनाकर समूहों में रहती हैं। और इनकी बस्तियों में सामाजिक संगठन की पूर्ण व्यवस्था रहती है। बस्तियों का कार्य संपन्न के लिए इनके समूहों में श्रमिक, सिपाही तथा सेविका दीमकें होती हैं। यह विश्वास करने योग्य बात नहीं, परंतु वास्तविकता यह है कि अपने आवश्यकतानुसार यह प्राणी श्रमिक अथवा सिपाही दीमक आदि पैदा करता रहता है। यहाँ तक कि यदि रानी की प्रजनन शक्ति समाप्त हो जाए, यह वह मर जाए, तो श्रमिक किसी भी बच्चे को विशेष भोजन खिलाकर रानी बना देते हैं।

देखने में दीमक चींटी की भाँति होती है, परंतु वैज्ञानिक वर्गीकरण के अनुसार उससे भिन्न और उसकी अपेक्षा कम विकसित है। अनुमान है कि यह प्राणी पिछले 20 से लेकर 30 लाख वर्ष से पृथ्वी पर है, यद्यपि इसके विषय में विशेष अध्ययन पिछले दो सौ वर्षों से ही हो रहे हैं। दीमकें केवल गरम तथा शीतोष्ण देशों में ही पाई जाती हैं। अब तब इनकी लगभग 1,500 जातियों का अध्ययन हुआ है। स्वयं दीमकें बहुत कम दिखलाई पड़ती हैं, परंतु ये अपने घर प्रमुख स्थानों पर बनाती हैं। इनके घरों को वल्मीक या टरमिटेरिया (termitaria) कहते हैं। वल्मीक हर देश में मिलते हैं। ये पर्याप्त ऊँचे और भिन्न भिन्न आकरों के होते हैं। साधारणतया चार से लेकर 10 फुट तक ऊँचे वल्मीक देखने में आते हैं, परंतु ये 20 फुट तक ऊँचे भी पाए गए हैं। दक्षिणी भारत के पूर्वी तट पर काफी ऊँचे वल्मीक दिखाई पड़ते हैं।

दीमकें चींटियों से लेकर बड़े चींटों के बराबर तक की होती हैं। वल्मीक में अनेक प्रकार की दीमकें होती हैं। कुछ जनक प्राणी हैं, जो बच्चा पैदा कर सकते हैं, और कुछ वंध्या, जिनकी बच्चा पैदा करने की शक्ति लुप्त हो जाती है। जनक पंखदार होते हैं। जाति का बढ़ाना और नई बस्तियाँ बसाना इनका मुख्य ध्येय होता है। प्रत्येक बस्ती में एक शाही जोड़ा होता है एक रानी तथा एक राजा। ये पंखदार होते हैं। और बस्ती के निर्माता होते हैं। वंघ्या श्रेणी की दीमकों में कुछ काज काज करनेवाली श्रमिक दीमकें होती हैं और कुछ बस्ती की रक्षा करनेवाले सिपाही। श्रमिक वास्तव में मादा होते हैं जिनकी प्रजनन शक्ति लुप्त हो जाती है। इनमें कुछ भोजन एकत्र करते हैं, कुछ रानी की देखभाल करते हैं कुछ बस्ती की सफाई करते हैं और कुछ नन्हें मुन्नों का पालन पोषण। अपने कम के अनुसार इन्हें कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। इसी प्रकार सिपाही भी दो प्रकार के होते हैं : (1) बड़े जबड़े वाले और (2) सूँड़ वाले, जिनका सर सूँड़दार होता है और जो शत्रु पर नाशक द्रव्य की पिचकारी चलाते हैं।

अन्य कीटों की भाँति दीमक का शरीर भी तीन भागों में विभाजित होता है : सिर, वक्ष तथा उदर। श्रमिक तथा बच्चा देनेवाली दीमक का सिर गोल या अंडाकार होता है और सिपाहियों में वह और बड़ा तथा नासपाती के आकार का होता है। संयुक्त नेत्र सदा सिर पर रहते हैं, यद्यपि कुछ विशेष जातियों में ये कम विकसित होते हैं, या होते ही नहीं। घर के बाहर भोजन आदि की खोज में आने जानेवाली दीमकों में संयुक्त नेत्र बड़े होते हैं परंतु जिनको सदा वल्मीक के अंदर ही रहना पड़ता है उनमें छोटे हो जाते हैं, या लुप्त हो जाते हैं। संयुक्त नेत्र के साथ साथ साधारण नेत्र भी होते हैं, जिन्हें ओसेलाइ (ocelli) कहते हैं। इनकी शृंगिकाएँ (antenna) कई खंडों की बनी होती हैं और प्रत्येक खंड माला की गुरिया की भाँति होता है। खंडों की संख्या 10 से 30 तक होती है। दीमक के मुखांग लकड़ी तथा वनपस्ति आदि काटने के लिए बने रहते हैं। ये भोजन को कुतरकर खाती हैं, इसलिए चिबुकास्थि (mandible) इनमें दृढ़ होती है और उनकी भीतरी सतह पर छोटे छोटे दाँत होते हैं।

वक्ष तीन खंडों का होता है। पंखदार दीमकों में वक्ष के दो खंडों के ऊपर (पृष्ठीय ओर) पंख लगे रहते हैं और नीचे प्रतिपृष्ठीय तथा

प्रत्येक खंड में एक एक जोड़ा पैर होता है। बनावट में तीनों जोड़े पैर लगभग एक जैसे होते हैं। पंख दो जोड़े होते हैं। और दोनों एक दूसरे जैसे होते हैं। सभी दीमकों के पंख नहीं होते। केवल जनक दीमकें ही पंखदार होती हैं। श्रमिक एवं सिपाही आदि के पंख नहीं होते। उदर दस खंडों का होता है, यद्यपि इसमें ग्यारह खंड होने चाहिए।

जीवनक्रम  प्रजनन शक्ति सब दीमकों में नहीं होती। हर बस्ती में केवल एक रानी होती है। वही पूरी बस्ती की दीमकों की माँ होती है। वह एक बड़े अर्धगोलाकार सुंदर कमरे में रहती है। देखने में रानी मोटी, भद्दी और फूली सी होती है। उसका उदर बढ़कर 2 या इंच, या इससे भी अधिक, लंबा हो जाता है। सिर तथा वक्ष इतना छोटा होता है कि बिना ध्यान से देखे पता तक नहीं चलता। राजा छोटा और कायर होता है। वह प्राय: रानी के इधर उधर ही घूमता रहता है। पर उसकी आँखों से ओझल रहता है। रानी के चारों ओर उसकी सेविकाएँ और रक्षक रहते हैं। ये सब रानी के प्रति अपनी श्रद्धा उसे चाट चाटकर प्रदर्शित करते हैं। शरीर इतना बड़ा हो जाता है कि रानी स्वयं खा तक नहीं सकती, इसलिए उसे श्रमिक ही खिलाते हैं। रानी का काम केवल अंडा देना है। वह दिन रात एक गति लगातार अंडे दिया करती है। कुछ वैज्ञानिकों का कथन है कि वह 60 अंडे प्रति मिनट देती है। इस तरह वह 24 घंटे में 86 हजार अंडे देती है। ज्यों ज्यों वह अंडे देती है, श्रमिक दीमकें उन्हें धोकर विशेष कमरों में ले जाकर रख देती है। इन्हीं अंडों से कुछ समय पश्चात्‌ निंफ (nymph) निकलते हैं। अंडों में से बच्चे 24 से 90 दिनों में निकलते हैं। यह समय अनेक परिस्थितियों पर आधारित है, जिनमें से एक ताप भी है। यदि ताप कम होता है, तो समय अधिक लगता है। निंफ रूप रंग में वयस्क्‌ जैसे, परंतु छोटे होते हैं और उनके प्रजननांग नही रहते। कुछ समय में कई बार त्वचानिर्मोचन (मोल्ट) करके वे प्रौढ़ रूप धारण कर लेते हैं। त्वचानिर्मोचन प्राय: पाँच बार होता है।

प्रारंभ में सभी निंफ एक जैसे होते हैं। उन्हें श्रमिक, रानी या सिपाही विशेष भोजन की सहायता से बनाया जाता है। साधारण बच्चे को विशेष भोजन, विशेष ढंग की मालिश और विशेष ताप रानी बना देता है। यदि उसे सिपाही बनाना है, तो बिल्कुल दूसरे ढंग का भोजन दिया जाता है।

आम तौर से रानी चार पाँच साल तक एक गति से अंडा देती रहती है और अपनी बस्तीवालों की श्रद्धा का पात्र बनी रहती है। यदि वह अस्वस्थ हो जाती है और उसकी अंडा पैदा करने की गति में कमी हो जाती है, तो श्रमिक उसके भोजन की ओर विशेष ध्यान देने लगते हैं। परंतु यदि वह अंडे देना बिल्कुल बंद कर देती है तो उसका भोजन बंद कर दिया जाता है, जिससे वह कुछ दिनों में मर जाती है। तब श्रमिक उसके शरीर को खा डालते है और उसके स्थान पर नई रानी बैठा देते हैं।

दीमक का मुख्य भोजन है लकड़ी, पत्तियाँ, घास अथवा पेड़ पौधों से निकली वस्तुएँ। दीमक लकड़ी खाती अवश्य है, परंतु वह स्वयं उस लकड़ी को पचा नहीं सकती। लकड़ी पचाने के लिए वह अपने आमाशय में एक विशेष जाति के एककोशीय जीवों को रखती है। यह एककोशीय प्राणी लकड़ी पचाने के लिए द्रव्य पैदा करते हैं। दीमक के बच्चों को श्रमिकों और शाही दीमकों का मल भी भोजन के रूप में दिया जाता है। इसी मल द्वारा एक पीढ़ी के व्यक्तियों के आमाशय से दूसरी पीढ़ी के व्यक्तियों के आमाशय में एककोशीय प्राणी पहुँचते हैं। श्रमिक दीमकें अपने मुँह से एक प्रकार का तरल पदार्थ पैदा करती हैं, जिसे बच्चे अथवा सिपाही खाते हैं। इस संबंध में यह उल्लेखनीय है कि प्राय: सभी दीमकें एक दूसरे के शरीर से निकला पदार्थ चाटा करती है। कभी कभी तो चाटने की शीघ्रता में वे एक दूसरे के अंग तक तोड़ लेती हैं।

कुछ दीमकें अपनी बस्तियों में विशेष जाति के कीड़ों को 'मेहमान' के रूप में रख लेती हैं, क्योंकि इन मेहमानों का मल इन्हें बड़ा स्वादिष्ठ मालूम पड़त है। ऐसे 'मेहमानों' को ये बचपन से ही लाकर अपनी बस्तियों में रख लेती हैं और उन्हें बड़े चाव से पालती हैं। यदि मेहमान दीमकों के अंडे भी खा लेते हैं, तो भी दीमकें उनसे रुष्ट नहीं होतीं। कुछ दीमकें अपनी बस्तियों में फफूंदी की खेती करती हैं और उनके बीजाणुओं (spores) को रख लेती हैं तथा जब जी चाहा खाती हैं। इस भोजन को वे उस समय खाती हैं, जब उन्हें वर्षा या अन्य कारणों से भोजन के लिए बाहर जाने का अवसर नहीं मिलता।

दीमक मानवोपयोगी वस्तुओं की भयंकर शत्रु हैं। ये लकड़ी और चमड़े की वस्तुएँ बुरी तरह से खा डालती हैं। कुर्सी, मेज, किवाड़, खिड़की, खपरैल की बल्लियाँ आदि ये प्राय: नष्ट कर डालती हैं। दरी, कंबल कालीन तथा किताबें आदि भी इसे नहीं बचतीं। ये किसी चीज को बाहर से खाना नहीं शुरु करतीं। किसी एक किनारे से चुप चाप घुस जाती हैं। और फिर अंदर ही अंदर उसे खाकर खोखला कर डालती हैं1 कुछ दीमकें ऐसी भी हैं जो अवकाश मिलने पर धातु की बनी वस्तुएँ भी खा डालती हैं। इनके मुँह से ऐसा रस निकलता है, जिसके लगने से धातु क्षीण हो जाती और बाद में कट जाती है।

इमारती लकड़ी को दीमक से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं :

1. प्रयुक्त लकड़ी को विषैला कर देना।
2. उपयुक्त विषद्रव्यों का प्रयोग करके लकड़ी के निकट दीमक के जीवन के लिए प्रतिकूल परिस्थितयाँ उत्पन्न कर देना।

दीमकों के उद्भव स्थान और संक्रमणीय सामग्री के बीच उपयुक्त अवरोध की व्यवस्था कर देना।(सत्यानारायण प्रसाद)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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