दक्कन

Submitted by Hindi on Sat, 08/20/2011 - 11:29
दक्कन (Deccan) स्थिति : 14o' उo अo तथा 67o' पूo देo। यह शब्द संस्कृत भाषा के दक्षिण का अपभ्रंश है। हमारे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इसमें भारत का प्रायद्वीपीय त्रिभुज, जो नर्मदा नदी या विंध्याचल के दक्षिण स्थित है, संमिलित है। कुछ विद्वानों के मतानुसार इसमें संपूर्ण मराठीभाषी क्षेत्र संमिलित है, जो दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला हुआ है और कुछ लोगों के अनुसार यह क्षेत्र सात्माल पर्वतश्रेणी के दक्षिण, पश्चिमी घाट पर्वतश्रेणी के समांतर कुमारी अंतरीप तक फैला हुआ है।

भूवैज्ञानिकों के अनुसार दक्कन भारतीय उपमहाद्वीप के तीन भूगर्भिक विभागों -- उत्तरी पर्वतीय भाग, सिंध गंगा का मैदान एवं प्रायद्वीपीय भाग--में से अंतिम है। भूगर्भिक रचना के आधार पर इसकी उत्तरी सीमा नदियों के मैदान से निर्धारित होती है। पर सिंध और ब्रह्मपुत्र का मैदान दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी सिरे पर भी है। इस प्रकार उत्तरी सीमा पश्चिमी स्थित साल्ट रेंज से लेकर पूर्व में शिलौंग के पठार तक फैली एक जीवा के समान है, जिसका केंद्र कहीं तिब्बत में स्थित है। यह दक्षिणी प्रायद्वीप अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी के बीच टीले (hurst) के सदृश प्रतीत होता है। इस त्रिभुजाकार स्थल की निम्नलिखित तीन मुख्य विशेषताएँ हैं :

1. अनुमानित भूगर्भिक इतिहासकाल से यह एक स्थलखंड रहा है, जिसपर कुछ तटवर्ती भागों को छोड़कर समुद्र द्वारा अपहृत होने का कोई चिह्न प्राप्त नहीं है।

2. यह पृथ्वी का कठोरतम भाग प्रतीत होता है, जिसकी आधारशिला गहरी एवं अक्षत प्रतीत होती है। कैंब्रियन युग से लेकर अब तक अनेक पर्वतनिर्माणकारी शक्तियों का प्रभाव संसार में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है, पर इस स्थलखंड पर केवल कुछ दरारें या भ्रंश तथा अति साधारण वलन ही बन पाए। भ्रंश क्रिया, बलों के दबाव या खिंचाव से हुई है।

3. तृतीय तथ्य इसके भूआकार से संबंधित है, जो उपर्युक्त दोनों बातों से अधिक प्रभावित है। युगों से प्रकृति की शक्तियाँ इसे विभिन्न प्रकार से नष्ट करती रही हैं, परिणामस्वरूप सामान्य सतह पर वे ही कुछ भाग ऊपर रह सके, जिनको ये शक्तियाँ नष्ट नहीं कर सकी हैं। इस प्रकार यहाँ पर अवशिष्ट पर्वत (relict mountians) ही रह गए हैं। नदियों की घाटियाँ चौड़ी एवं छिछली हो गई हैं और इनकी ढाल भी न्यूनतम हो गई है। नदियाँ प्राय: अपने क्षरण के आधारतल को प्राप्त कर चुकी हैं। भ्रंश के कारण अनेक दरारें पड़ जाने से यह प्रायद्वीप विभिन्न इकाइयों में बँट गया है। गोंडवाला क्षेत्र एक से अधिक बार ऊपर उठा और नीचे घँसा है1

दक्कन की प्रमुख पर्वतश्रेणियाँ अरावली, विंध्य, सातपुड़ा, पश्चिमी घाट या सह्याद्रि तथा पूर्वी घाट हैं। इनमें अरावली को विश्व की सबसे प्राचीन वलनदार पर्वतश्रेणी होने का गौरव प्राप्त है। यद्यपि इसकी वर्तमान ऊँचाई मात्र 4,000 फुट है और क्षेत्र भी संकुचित हो गया है, तथापि यह उस विस्तृत स्थलखंड की जल-विभाजन-श्रेणी का अवशेष है, जो अरब सागर से लेकर गढ़वाल तक फैली हुई थी। विंध्याचल नर्मदा नदी के उत्तर में इसके समांतर पूर्व-पश्चिम दिशा में विस्तृत है। इसके दक्षिण और ताप्ती नदी के उत्तर में सातपुड़ा (sevej fold) पर्वतश्रेणी है। सातपुड़ा की समांतर ये श्रेणियाँ राजपीपला के पास सह्यादि पर्वतश्रेणी में विलीन हो जाती हैं। इस पर्वतश्रेणी में वलन के कुछ संकेत मिलते हैं, जिससे इसको भी यदा कदा वलनदार पर्वत कह दिया जाता है। सह्यादि की श्रृंखला पश्चिमी तट के समांतर जाती हुई नीलगिरि में मिलकर फिर अन्नमलाई की पहाड़ियों के रूप में प्रकट होती है, जिसकी औसत ऊँचाई 3,000 फुट है। इसके विपरीत पूर्वी घाट की पर्वतश्रृंखला कटी फटी एवं अत्यधिक नीची है।

दक्कन की नदियाँ प्राय: बहुत पुरानी हैं। मंद बहाव के कारण इनमें अवसाद वहन करने की शक्ति नहीं रही है। केवल वर्षा ऋतु में प्रवाह तेज रहता है। अवसाद के जमाव की क्रिया अधिक होती है। नर्मदा एवं ताप्ती को छोड़कर अन्य समस्त नदियाँ प्राय: पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व को जाती हैं। यद्यपि सबका उद्गम पश्चिमी घाट पर्वतश्रेणी ही है। इनमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी मुख्य हैं। इस वैषम्य को लेकर विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की पूर्व-प्रवाह-प्रणालियों का अनुमान लगाया है। एक मत के अनुसार सह्यादि पर्वत उस विस्तृत भूखंड का जलविभाजक रहा, जिसका पश्चिमी भाग समुद्र में निमग्न हो गया है। नदियाँ इसके दोनों तरफ प्रवाहित हुआ करती थीं। इसके अपवादस्वरूप नर्मदा और ताप्ती नदियाँ मिलती हैं, जो पश्चिमवाहिनी है। इस अपवाद को देखते हुए जिस विचार का प्रतिपादन हुआ उसके अनुसार पूर्व की सभी नदियाँ हरद्वार के पास पिलग्रिम की शिवालिक नदी में गिरती थीं। कालांतर में विभिन्न शक्तियों के कारण इनका प्रवाह बदल गया। इसी बीच कुछ बृहत्‌ हलचलें हुईं और प्रायद्वीप में दरारें पड़ गईं तथा दक्षिणी भाग दक्षिण-पूर्व की ओर झुक गया, जिससे नदियों का बहाव भी उधर ही हो गया। इस तथ्य की पुष्टि पूर्वी तट पर काँप के जमाव एवं डेल्टा बनने से होती है।

दक्कन के लगभग मध्य से कर्क रेखा जाती है। केवल ऊँचाई को छोड़कर यहाँ का जलवायु प्राय: सम है। जुलाई का ताप 20सेंo से 32सेंo के बीच तथा शीतकाल में 10सेंo से 24सेंo के मध्य रहता है। वर्षा की मात्रा ऊँचाई के अनुसार है। सबसे अधिक वर्षा पश्र्चिमी घाट पहाड़ पर होती है, इसके उपरांत पूर्वी घाट पर अधिक वर्षा होती है। पर तामिलनाड तथा आसपास का क्षेत्र शीतकालीन वर्षा का क्षेत्र भी है।

इस प्रकार दक्कन भूगर्भिक रचना, भौम्याकृति आदि के वैषम्य से समुचित अध्ययन के लिये विभिन्न इकाइयों में बाँटा गया है। इन इकाइयों को प्राकृतिक प्रदेश कहते हैं। प्रोफेसर ओo एचo केo स्पेट के मतानुसार इसके निम्नलिखित मुख्य विभाग किए जा सकते हैं :

1. थार का मरुस्थल 8. कोंकण
2. अरावली क्षेत्र 9. गोआ कनारा
3. मध्य विंध्य देश 10. केरल-मलाबार तट
4. सातपुड़ा-मैकाल क्षेत्र 11. पश्र्चिमी घाट
5. छोटा नागपुर का पठार 12. महाराष्ट्र
6. कच्छ एवं कठियावाड़ 13. कर्नाटक
7. गुजरात 14. दक्षिणी क्षेत्र
15. उत्तरी-पूर्वी दक्कन 19. उड़ीसा डेल्टा
16. शिलौंग 20. उत्तरी सरकार एवं नेल्लोर
17. तैलंगाना 21. तामिलनाड
18. पूर्वी पहाड़ियाँ

दक्कन में मुख्य रूप से तीन प्रकार की मृदाएँ पाई जाती हैं, जिनके गुण एवं विशेषताएँ उन चट्टानों पर निर्भर करती हैं, जिनके ऊपर वे बनी हैं। दक्कन में कठोर परिवर्तित चट्टानों का बाहुल्य है, अत: मिट्टी की तह मोटी नहीं है और उसमें बालू के कण अधिक रहते हैं। (1) लाल मिट्टी -- यह मिट्टी अम्लीय ग्रेनाइट, नीस तथा फेल्सपार पर बनी है और बुंदेलखंड से कुमारी अंतरीप तक सर्वाधिक क्षेत्र में (8,00,000 वर्ग मील) फैली हुई है। बलुआ पत्थरों ने भी इसके निर्माण में योग दिया है। ऐसी मिट्टी के क्षेत्र दक्षिण-पश्र्चिमी बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मैसूर एवं मद्रास में फैले हुए हैं। (2) काली मिट्टी -- यह दक्कन की सर्वोत्तम मिट्टी है और लावा निर्मित प्रदेश में पाई जाती है। गुजरात, बरार तथा मध्य प्रदेश के भाग इसमें संमिलित हैं। (3) लेटराइट मिट्टी -- इसका क्षेत्र विस्तृत नहीं है। यह छिट पुट ही पाई जाती है। लेटराइट चट्टान के क्षेत्र में यह विशेष रूप से पाई जाती है।

दक्षिणी पठार -


यह आद्य (Archaean) कल्प की चट्टानों से निर्मित भाग प्रायद्वीपीय भारत के अधिक भाग में फैला है। इस मध्य क्षेत्रीय पठार का विस्तार अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी के बीच 12उo अo से 21उo अo माना जाता है1 इस पठार की औसत ऊँचाई 2,000 फुट है। यह चतुर्दिक्‌ पर्वतश्रेणियों से घिरा हुआ है, पश्र्चिम में सह्यादि पर्वत है, जिसकी औसत ऊँचाई 3,000 फुट है। उत्तरी-पश्र्चिमी भाग पर इओसीन कालीन ज्वालामुखी के उद्गार से लावा की मोटी तह जम गई है। यह तहें प्राय: समांतर ही है। सह्यादि पर्वत पर इनके प्रक्षरण से सीढ़ीनुमा आकृति बन गई है। पूर्वी सीमा पर पूर्वी घाट पर्वतश्रेणी है। उत्तर में विंध्य और सातपुड़ा पर्वत इसकी सीमा बनाते हैं और दक्षिण में नीलगिरि, अन्नमलाई आदि पर्वत हैं। नीलगिरि पर्वत 8,000 फुट से भी अधिक ऊँचा है।

दक्षिणी ट्रैप -


यह भारत का लावा निर्मित काली मिट्टी का प्रदेश है, जो गुजरात, महराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश के क्षेत्रों में फैला हुआ है। इस क्षेत्र का वर्तमान विस्तार लगभग 2,00,000 वर्ग मील में है। यह निर्माणकारी भयावह दृश्य क्रिटेशस युग के अंत एवं इओसीन युग के प्रारंभ में उपस्थित हुआ था। ज्वालामुखी के उद्गार के साथ समय समय पर इतना मैंग्मा (magma) ऊपर आया कि हजारों फुट मोटी बैसॉल्ट की तह जमा हो गई। निर्माणकाल से ही प्राकृतिक शक्तियाँ इसकी मात्रा और प्रसार को कम करने में लगी हुई हैं। लावा के अवशेष पश्र्चिम में सिंधु तथा पूर्व में राजमुद्री तक फैले हुए हैं। इनसे इसके प्राचीन कालीन विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है।

लावा की सतह की मोटाई का अनुमान विभिन्न स्थानों पर वेधन (Boring) द्वारा लगाया गया है। ऐसा अनुमान है कि तह पूर्व की ओर पतली हो गई है। दक्षिणी सीमा पर इसकी मोटाई 2,000 से 2,500 फुट, अमरकंट में 500 फुट तथा सिंध में 100 फुट है। भूसावल के समीप किए गए वेधछिद्र (borehole) आकँड़ों से यह ज्ञात हुआ है कि लगभग 1,200 फुट की गहराई में लावा की मोटी पतली 29 परतें हैं, जो एक दूसरे से ज्वालामुखी की भूरी राख एवं वनस्पतियों द्वारा अलग की गई हैं। इन परतों की मोटाई 5 फुट से लेकर 97 फुट तक है।

बैसॉल्ट की परतें प्राय: समांतर एवं क्षैतिज हैं। केवल बंबई के समीप ये समुद्र की ओर 5से 15तक झुकी हुई हैं। इनमें समानता भी अधिक है। इनमें ऑजाइट (augite) बैसॉल्ट का बाहुल्य है, जिसका घनत्व 2.9 है। ये आग्नेय शैल हरे भूरे तथा गहरे काले रंग के हैं। यहाँ के बैसॉल्ट में बालू की मात्रा 48.6 से 52 प्रतिशत है। लावे का फैलाव असमान भौम्याकृति पर हुआ है, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह क्रिया एक स्थलखंड पर ही हुई। यहाँ के प्रमुख खनिज इस प्रकार हैं : एनॉर्याइट (anorthite) 23.07 प्रतिशत, ऐल्वाइट (albite) 21.01 प्रति शत, डाईप्साइड 17.41 प्रतिशत, हाइपरस्थीन (hypersthene) 17.78 प्रतिशत, मैगनेटाइट (magnetite) 4.64 प्रति शत, आर्थोक्लेज (orthoclase) 4.45 प्रतिशत, क्वार्टज (quartz) 4.14 प्रतिशत, इल्मेनाइट (ilmenite) 3.65 प्रतिशत एवं ऐपेटाइट (apatite) 1.01 प्रतिशत।

बैसॉल्ट का आर्थिक महत्व अधिक है। इसका प्रयोग सड़कों और इमारतों के निर्माण में किया जाता है। चाल्सीडोनी में ऐंगेट प्राप्त होता है। नदियों की बालू में कभी कभी लोह धातु की मात्रा इतनी अधिक होती है कि उससे शुद्ध धातु प्राप्त की जाती है। वेसीक्यूलर (vesiculer) बैसॉल्ट में जलसंचय की क्षमता अधिक रहती है, जबकि अन्य कठोर बैसॉल्ट जल का अवशोषण नहीं करते। यहाँ की मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ है। [कैलाशनाथ सिंह]

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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