Damodar River in Hindi

Submitted by Hindi on Thu, 12/23/2010 - 15:00
दामोदर नदी छोटानागपुर की पहाड़ियों से 610 मीटर की ऊँचाई से निकलकर लगभग 290 किमी. झारखण्ड में प्रवाहित होने के बाद पश्चिम बंगाल में प्रवेश कर 240 किमी. प्रवाहित होकर हुगली नदी में मिल जाती है। झारखण्ड में इसे देवनद के नाम से जाना जाता है। पहले दामोदर नदी अपनी बाढ़ों के लिए कुख्यात थी। इस नदी को पहले बंगाल का शो कहा जाता था।

परियोजना की संरचना


संयुक्त अमेरिका के टेनेसी घाटी परियोजना की तर्ज़ पर यहाँ दामोदर घाटी परियोजना की संरचना प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में की गई। इससे बाढ़ों का आना रुका तथा नई-नई सिंचाई परियोजनाएँ तथा पनबिजली उत्पादन केन्द्र स्थापित हुए।

प्रवाह स्थिति


दामोदर नदी पलामू ज़िले से निकलकर हज़ारीबाग़, गिरिडीह, धनबाद होते हुए बंगाल में प्रवेश करती है, जहाँ रानीगंज, आसनसोल के औद्योगिक क्षेत्र से होती हुई दुर्गापुर से बर्द्धमान और बांकुड़ ज़िले की सीमा रेखा बन जाती है। हज़ारीबाग़ से बर्द्धमान ज़िले तक इस नदी की धारा काफ़ी तेज़ होती है, क्योंकि इस स्थिति में वह छोटानागपुर के पठारी भाग से नीचे की ओर बहती है। बर्द्धमान के बाद हुगली ज़िला में दामोदर समतल मैदानी भाग में पहुँचती है। यहाँ पर इसकी धारा मन्द पड़ जाती है। यहाँ पर यह डेल्टा बनाने लग जाती है। यहाँ से दामोदर हावड़ा के निकट से होती हुई हुगली के साथ मिलकर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।

दामोदर की सहायक नदियों में कोनार, बोकारो और बराकर प्रमुख हैं। ये नदियाँ गिरिडीह, हज़ारीबाग़ और बोकारो ज़िले में हैं। दामोदर नदी धनबाद के जिस स्थान में प्रवेश करती है, वहीं पर इसमें जमुनिया नदी आ मिलती है। जमुनिया नदी धनबाद की पश्चिमी सीमा गिरिडीह ज़िले के साथ सीमा का निर्माण करती है। इससे पूर्व में दामोदर से कतरी नदी मिलती है, जो पारसनाथ के पादप प्रदेश से निकली है। चिरकुण्डा के पास दामोदर में बराकर नदी मिली है। इसी बराकर नदी में मैथन डैम बना हुआ है।

Hindi Title

दामोदर नदी


अन्य स्रोतों से

दामोदर नदी ने रास्ता दिखाया


विल्काक्स (1930) ने पिछले समय में बंगाल के वर्ध्दमान जिले में दामोदर नदी द्वारा घाटी में सिंचाई पद्धति के बारे में बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज अफसर और मुलाजिम मूलत: व्यापारी और नाविक थे। उनको भारत में सिंचाई, बाढ़ और उसके नियंत्रण के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर नदियों के किनारे कुछ जमीन्दारी तटबंध थे जो कि बहुत कम ऊंचाई के हुआ करते थे। इनसे केवल हल्की-फुल्की बाढ़ों का ही सामना किया जा सकता था। इनका मकसद था कि निचले इलाकों में पानी जल्दी न भरने पाए। जैसे ही बाढ़ का पानी इतनी ऊंचाई अख्तियार कर ले कि तटबंध के ऊपर से पानी बहने का अंदेशा होने लगे तो गांव वाले बरसात में इन तटबंधों को खुद ही काट दिया करते थे जिससे कि गाद युक्त गंदला पानी खेतों में चला जाए और सिंचाई तथा खाद की जरूरतें अपने आप पूरी हो जाएं।

विल्काक्स (1930) ने पिछले समय में बंगाल के वर्ध्दमान जिले में दामोदर नदी द्वारा घाटी में सिंचाई पध्दति के बारे में बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया है। इस घाटी में किसान नदी के किनारे 60-75 सेण्टीमीटर ऊंचे बौने तटबंधों का हर साल निर्माण करते थे। सूखे मौसम में इनका इस्तेमाल रास्ते के तौर पर होता था। उनके अनुसार घाटी में बरसात की शुरुआत के साथ-साथ बाढ़ों की भी शुरुआत होती थी जिससे कि बुआई और रोपनी का काम समय से और सुचारु रूप से हो जाता था। जैसे-जैसे बारिश तेज होती थी उसी रफ्तार से जमीन में नमी बढ़ती थी और धीरे-धीरे सारे इलाके पर पानी की चादर बिछ जाती थी। यह पानी मच्छरों के लारवा की पैदाइश के लिए बहुत उपयुक्त होता था। इसी समय ऊनती नदी का गन्दा पानी या तो बौने तटबंधों के ऊपर से बह कर पूरे इलाके पर फैलता था या फिर किसान ही बड़ी संख्या में इन तटबंधों को जगह-जगह पर काट दिया करते थे जिससे नदी का पानी एकदम छिछली और चौड़ी धारा के माध्यम से चारों ओर फैलता था। इस गन्दले पानी में कार्प और झींगा जैसी मछलियों के अण्डे होते थे जो कि नदी के पानी के साथ-साथ धान के खेतों और तालाबों में पहुंच जाते थे। जल्दी ही इन अण्डों से छोटी-छोटी मछलियां निकल आती थीं जो मांसाहारी होती थीं। ये मछलियां मच्छरों के अण्डों पर टूट पड़ती थीं और उनका सफाया कर देती थीं। खेतों की मेड़ें और चौड़ी-छिछली धाराओं के किनारे इन मछलियों को रास्ता दिखाते थे और जहां भी यह पानी जा सकता था, यह मछलियां वहां मौजूद रहती थीं। यही जगहें मच्छरों के अण्डों की भी थीं और उनका मछलियों से बच पाना नामुमकिन होता था।

अगर कभी लम्बे समय तक बारिश नहीं हुई तो ऐसे हालात से बचाव के लिए स्थानीय लोगों ने बड़ी संख्या मे तालाब और पोखरे बना रखे थे जहां मछलियां जाकर शरण ले सकती थीं। सूखे की स्थिति में यही तालाब सिंचाई और फसल सुरक्षा की गारण्टी देते थे और क्योंकि नदी के किनारे बने तटबंध बहुत कम ऊंचाई के हुआ करते थे और 40-50 जगहों पर एक साथ काटे जाते थे इसलिए बाढ़ का कोई खतरा नहीं होता था और इस काम में कोई जोखिम भी नहीं था। नदी के ऊपरी सतह का पानी खेतों तक पहुंचने के कारण ताजी मिट्टी की शक्ल में उर्वरक खाद खेतों को मिल जाती थी। बरसात समाप्त होने के बाद बौने तटबंधों की दरारें भर कर उनकी मरम्मत कर दी जाती थी।

दामोदर नदी बेसिनदामोदर नदी बेसिनविल्काक्स लिखते हैं, ‘कोई भी गांव वाला इस तरह की स्पष्ट तकनीकी राय नहीं दे सकता था अगर उसने अपने बाप-दादाओं से यह किस्से न सुने होते या खुद तटबंधों को काटते हुए उनको न देखा होता। नदी के तटबंध 40-50 जगहों पर क्यों काटे जाते थे- यह तर्क इस बात को रेखांकित करता है।’ अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को मजबूत बनाने और सुधारने का काम नहीं किया। उन्हें लगा कि चौड़ी और छिछली धाराएं नदी की छाड़न हैं और नदियों के किनारे बने तटबंध केवल बाढ़ से बचाव के लिए बनाए जाते हैं। उन्होंने चौड़ी-छिछली धाराओं की उपेक्षा की और उन्हें ‘मृत नदी’ घोषित कर दिया और जमीन्दारी तटबंधों को बाढ़ नियंत्रण के लिए मजबूत करना शुरू किया। लोगों ने फिर भी तटबंधों को काटना नहीं छोड़ा। उधर अंग्रेज सरकार इस बात पर तुली हुई थी कि वह किसी भी कीमत पर इस ‘दुर्भाग्यपूर्ण घटना’ को रोकेगी। उसका मानना था कि इतनी जगहों पर तटबंध नदी की ‘अनियंत्रित बाढ़’ के कारण टूटते हैं। उन्हें इस बात का गुमान तक नहीं हुआ कि तटबंध चोरी-चुपके किसान ही काटते हैं। उन्हें यह भी समझ में नहीं आया कि एक बड़ी लम्बाई में तटबंधों के बीच घिरी नदी से एक ही साल में 40 से 50 स्थानों पर दरारें क्यों पड़ेंगी? तटबंधों के अन्दर फंसी नदी की मुक्ति के लिए तो दो एक जगह की दरार ही काफी है- वह इतनी जगहों पर तटबंध क्यों तोड़ेगी?

साभार - (दुई पाटन के बीच में सेंध)

दामोदर नदी : एक परिचय



दस्तावेजों के मुताबिक दामोदर नदी झारखंड प्रदेश के लोहरदगा और लातेहार जिले के सीमा पर बसे बोदा पहाड़ की चूल्हापानी नामक स्थान से निकलकर पश्चिम बंगाल के गंगा सागर से कुछ पहले पवित्र नदी गंगा में हुगली के पास मिलती है। झारखंड में इसकी लंबाई करीब 300 किलोमीटर और पश्चिम बंगाल में करीब 263 किलोमीटर है। दामोदर बेसिन का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 16,93,380 हेक्टेयर है। लंबाई के अनुसार झारखंड में सबसे बड़ी बेसिन है जिसमें धरातलीय जल की कुल उपलब्धिता 5800 एमसीएम तथा भूगर्भीय जल की उपलब्धिता 1231 एमसीएम है। द्वितीय सिंचाई आयोग के अनुसार क्रमश: 1254.1 एमएसीएम तथा 422 एमसीएम का उपयोग झारखंड में होता है।
जानकारों की मानें तो आजादी के पूर्व इस नदी को 'बंगाल का शोक' कहा जाता था। क्योंकि झारखंड में यह नदी तो पहाड़ी और खाईनुमा स्थलों से होकर गुजरती है लेकिन बंगाल में इसे समतल भूमि से गुजरना पड़ता है। ऐसे में जब भी बाढ़ की स्थिति होती थी तो झारखंड को तो खास नुकसान नहीं होता था, लेकिन बंगाल में इसके आसपास की सारी फसलें बरबाद हो जाती थी। 1943 में आई भयंकर बाढ़ ने तो बंगाल को हिलाकर रख दिया। इस स्थिति से निपटने के लिए वैज्ञानिक मेघनाथ साहा की पहल पर अमेरिका की 'टेनेसी वैली आथोरिटी' की तर्ज पर 'दामोदर घाटी निगम' की स्थापना 1948 में की गई। इसके बाद पश्चिम बंगाल का प्रभावित इलाका जल प्रलय से मुक्त होकर उपजाऊ जमीन में परिवर्तित हो गया, लेकिन झारखंड में इसी नदी पर चार बड़े जलाशयों के निर्माण के बाद यहां विस्थापन की समस्या तो बढ़ी ही ,उपयोगी व उपजाऊ जमीन डूब गए। यही नहीं, इस नदी के दोनों किनारे अंधाधुंध उद्योगों का विकास हुआ और इससे नदी का जल प्रदूषित होने लगा।