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राष्ट्रीय सहारा ईपेपर (हस्तक्षेप), 10 जुलाई 2012
जीडीपी में 14 फीसद का योगदान करनेवाले कृषि क्षेत्र की सरकार को कोई खास परवाह नहीं
इसका अर्थ यह हुआ कि यूपीए सरकार अगले दो-तीन हफ्तों तक सिवाय इंद्र देव की प्रार्थना के और कुछ नहीं करने जा रही है। अगर उसके भाग्य से अगले कुछ दिनों-हफ्तों में मानसून की बारिश में कुछ सुधार हुआ तो वह एक बार फिर कुछ भी करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच निकलेगी। लेकिन अगर मानसून उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा तो भी उसके रुख से साफ है कि वह कुछ खास करने नहीं जा रही है। वैसे भी एक बार सूखा पड़ने और फसल बर्बाद हो जाने के बाद कुछ करने को नहीं रह जाता है। ऐसी स्थिति में सूखाग्रस्त क्षेत्रों को अधिक से अधिक कुछ दिखावटी मदद की घोषणा कर दी जाएगी और बाकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी जाएगी। नतीजा, मानसून की विफलता और सूखे को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वाक्युद्ध भी होगा। राज्य सरकारें सूखे को केंद्र से प्राकृतिक आपदा घोषित करने की मांग करेंगी और केंद्र सरकार उसे स्वीकार नहीं करेगी। आश्चर्य नहीं कि इन दोनों की नूरा कुश्ती का सबसे अधिक फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठाएंगे जो सूखे का बहाना बनाकर खाद्य वस्तुओं, फलों-सब्जियों और दूध की मनमानी कीमतें वसूलेंगे और आम गरीब उपभोक्ता इसकी कीमत चुकाएंगे जबकि दूसरी ओर, किसान एक बार फिर फसल के नुकसान और उसके कारण कर्ज जाल में फंसने को मजबूर होंगे।
आजादी के बाद से यह कहानी दर्जनों बार दोहराई जा चुकी है। मानसून की आंख-मिचौली नई बात नहीं है। आमतौर पर भारत पर मानसून की कृपा बनी रही है लेकिन हर कुछ साल बाद मानसून धोखा भी दे जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि इन सालों में कई बार मानसून की अति कृपा बाढ़ के रूप में फसलों और किसानों को बर्बाद करती रही है। वैसे इसमें मानसून का कोई दोष नहीं है। यह तो उसकी स्वाभाविक प्रकृति है। इस प्रकृति चक्र को नियंत्रित या निर्देशित करना संभव भी नहीं है। असल में, सूखा या बाढ़ मानसून की विफलता या अधिकता का नहीं बल्कि नीतियों और नीति-निर्माताओं की विफलताओं का नतीजा हैं। इस मायने में भारत में सूखा या बाढ़ मनुष्य निर्मित परिघटनाएं हैं। पी साईनाथ ने ठीक ही लिखा है,‘इस देश में सभी (मतलब नेताओं-अफसरों-व्यापारियों) को सूखा अच्छा लगता है।’ इसी तरह सब जानते हैं कि बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में नेता-अफसर-इंजीनियर- ठेकेदार बहुत बेसब्री से बाढ़ का इंतजार करते हैं।
इस देश में बाढ़ और सूखे के साथ राहत कार्यों की अर्थव्यवस्था अभिन्न रूप में जुड़ी हुई है और राहत के माल के महाभोज की कहानियां भी किसी से छुपी नहीं है। जाहिर है कि इन सभी के सूखे और बाढ़ में निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं और वे नहीं चाहते हैं कि आम गरीब किसानों को इससे मुक्ति मिले। यह सचमुच इस देश के शासक वर्ग की सबसे बड़ी नीतिगत विफलताओं में से एक है कि आजादी के छह दशक बाद और विकास के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद भारतीय कृषि मानसून की कृपा पर निर्भर है। तथ्य यह है कि देश में 2009 तक कुल कृषि भूमि का सिर्फ 35 फीसद ही सिंचित था। यह उस देश का हाल है जो खुद को कृषि प्रधान देश कहता रहा है। लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और आखिरी खेत तक पानी पहुंचाने के मामले में यह नाकामी कृषि और देश के अन्नदाता किसानों के साथ किया गया बहुत बड़ा मजाक है। कृषि और किसान इसकी कीमत चुकाने को मजबूर हैं।
लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार में यह विफलता किसी प्राकृतिक दुर्घटना या लापरवाही के कारण नहीं है। वास्तव में, इसके लिए 90 के दशक की वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां और आर्थिक सुधार जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कृषि को बिल्कुल अनदेखा किया और साथ में, सरकारी खर्चों में कटौती की सबसे अधिक गाज सिंचाई योजनाओं पर गिरी। यह किसी से छुपा तथ्य नहीं है कि इन दो दशकों में कृषि प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे चली गई और कृषि में सार्वजनिक निवेश में गिरावट दर्ज की गई। नतीजा यह हुआ कि इस दौर में बजट की कमी के कारण एक तो सिंचाई परियोजनाओं पर काम की गति कछुए से भी धीमी हो गई और दूसरी ओर, नहरों और नलकूपों की देखरेख न होने के कारण उनकी भी हालत बद से बदतर होती चली गई।
एक और कड़वी सच्चाई यह है कि जिन इलाकों को आंकड़ों में सिंचित बताया जाता है, उनमें से काफी बड़े हिस्से में राज्य सरकारों की अनदेखी, लापरवाही और सबसे बढ़कर भ्रष्टाचार के कारण नहरों और नलकूपों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। आश्चर्य नहीं कि राज्यों में सिंचाई विभाग जमाने से सबसे भ्रष्ट और लूट-खसोट में लिप्त विभाग माने जाते रहे हैं। हालांकि जब से केंद्र और राज्य सरकारों ने सिंचाई परियोजनाओं पर खर्चों में कटौती शुरू कर दी, लूट-खसोट के लिए गुंजाइश कम होती चली गई और दूसरे कई विभाग भ्रष्टाचार के मामले में उनसे आगे निकल गए।
खेती बिना ही तरक्की की नीतियां बनाई गई असल में, 90 के दशक में आर्थिक सुधारों के चैम्पियनों ने कृषि क्षेत्र की समस्याओं और चुनौतियों को देखते हुए यह मान लिया कि कृषि में कोई सुधार संभव नहीं है और भारत की आर्थिक मुक्ति का हाईवे उद्योग और सेवा क्षेत्र के जरिये ही बन सकता है। नतीजा यह हुआ कि पिछले दो दशकों में सुनियोजित तरीके से कृषि की उपेक्षा करके और एक तरह से उसे बाईपास करते हुए आर्थिक तरक्की का नया हाईवे तैयार किया गया है। हैरानी की बात नहीं है कि इन दो दशकों में जीडीपी में कृषि का हिस्सा गिरते हुए आधे से भी कम रह गया है। 1990-91 में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग 30 फीसदी था, जो 2011-12 में घटकर 14 फीसद के आसपास रह गया है जबकि कृषि पर आश्रित लोगों की तादाद में बहुत मामूली कमी आई है। जाहिर है कि यह किसी दैवीय कारण से नहीं हुआ है बल्कि यह पिछले कई दशकों खासकर 1990 के बाद की नीतियों का नतीजा है।
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस तथ्य को अपनी नीतियों की सफलता के रूप में देखते हैं कि अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान कम से कमतर होता जा रहा है। वे इसे भारत के एक विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में आगे बढ़ने का प्रमाण मानते हैं। आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नव उदारवादी सुधारों के चैपियनों में इसे लेकर जश्न का माहौल है। उनकी इस खुशी का बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को काफी हद तक कृषि के दबावों से मुक्त कर दिया है यानी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को प्रभावित करने की उसकी क्षमता काफी कम हो गई है। यह तथ्य है कि पिछले वर्षों में जब अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर सालाना औसतन 8 फीसद से अधिक चल रही थी, उस समय कृषि की वृद्धि दर औसतन 2 फीसद के आसपास थी। इससे नार्थ ब्लाक में बैठे आर्थिक मैनेजरों का हौसला बढ़ा कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है।
विश्लेषकों के मुताबिक, अगर इस साल मानसून अच्छा नहीं रहता है तो इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में अधिक से अधिक आधी फीसद की कमी आएगी। यही कारण है कि सूखे की आशंकाओं के बावजूद नीति-नियंताओं और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में वह घबराहट और हड़बड़ी नहीं है, जो औद्योगिक उत्पादन या सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण दिख रही है। यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि कहां कृषि को मानसून यानी इंद्र देव पर निर्भरता से मुक्त करने का वादा था और कहां नीति-नियंता अर्थव्यवस्था की कृषि पर से निर्भरता खत्म करके खुश हो रहे हैं और इसे अपनी कामयाबी मान रहे हैं। सवाल यह है कि यह ‘कामयाबी’ किस कीमत पर आई है? लेकिन याद रहे, कृषि की उपेक्षा की कीमत सिर्फ किसानों और कृषि मजदूरों को ही नहीं, आम शहरी-मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को भी चुकानी पड़ेगी। पिछले तीन वर्षों से खाद्य वस्तुओं की लगातार ऊंची मुद्रास्फीति दर कृषि की उपेक्षा और कृषि के बिना भी अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार की नीति का नतीजा है जिसने अब अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार पर भी ब्रेक लगाना शुरू कर दिया है। क्या नार्थ ब्लाक और योजना भवन में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों की आंखें मानसून की इस नाकामी से खुलेंगी?
कृषि क्षेत्र की महत्ता के कारण खेती और उसके सहयोगी क्षेत्र जैसे वन और मत्स्य पालन का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 19 फीसद हिस्सेदारी है। इस पर देश का 60 फीसद हिस्सा निर्भर करता है। भारत के निर्यात क्षेत्र में इसकी भागीदारी 10.95 फीसद है। कृषि पैदावार का औद्योगिक उत्पादन पर प्रभाव औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने के लिहाज से खेती इसके लिए अहम सेक्टर है। इनमें से कुछ तो; जैसे- वस्त्र उद्योग और चीनी मिलें तो सीधे-सीधे आश्रित हैं, जबकि शराब कंपनी जैसे क्षेत्र अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर है। खेती की पैदावार में बढ़ोतरी कई रूपों में औद्योगिक इकाइयों पर असर डालती है और रोजगार के प्रकारों में भी। इसलिए खेती में गिरावट का औद्योगिक उत्पादनों पर सीधा असर पड़ेगा, इसके दामों को प्रभावित करेगा और इस तरह अर्थव्यवस्था के असंतुलन का कारण बन जाएगा।
जीडीपी में नहीं रही वह जगह भारतीय अर्थव्यवस्था विगत दो दशकों से बहुत बदल गई है। उसको देखते हुए सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी बढ़ने के बजाए घटी है। इस बीच, खनन, उत्पादन, निर्माण और विद्युत क्षेत्र में 1970-71 की 26.6 फीसद की तुलना में 2004- 05 में 27 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इसी अवधि में, सेवा क्षेत्र में 32 फीसद से 52.4 फीसद की वृद्धि हुई है। बावजूद प्रधान क्यों बनी हुई है खेती इसलिए क्योंकि देश की 60 फीसद आबादी की आजीविका खे ती से जुड़ी हुई है। सिंचाई की अन्य सुविधाओं के अभाव में अधिकतर किसान वर्षा पर निर्भर हैं। वर्षा की मात्रा कृषि उत्पादन को निर्धारित करती है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी- 19 फीसद खेती के काम में लगा श्रम बल- 60 फीसद खेती क्षेत्र में निर्यात- 11.1फीसद कुल पैदावार- 100 मिलियन टन गेहूं का पैदावार- 88.3 मिलियन टन तेलहन- 31 मिलियन टन
मानसून की आंख-मिचौली नई बात नहीं है। आमतौर पर भारत पर मानसून की कृपा बनी रही है लेकिन हर कुछ साल बाद मानसून धोखा भी दे जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि इन सालों में कई बार मानसून की अति कृपा बाढ़ के रूप में फसलों और किसानों को बर्बाद करती रही है। वैसे इसमें मानसून का कोई दोष नहीं है। यह तो उसकी स्वाभाविक प्रकृति है। इस प्रकृति चक्र को नियंत्रित या निर्देशित करना संभव भी नहीं है। असल में, सूखा या बाढ़ मानसून की विफलता या अधिकता का नहीं बल्कि नीतियों और नीति-निर्माताओं की विफलताओं का नतीजा हैं।
मानसून की बारिश औसत से कम रहने वाली है और जून महीने तक की बारिश सामान्य से 31 फीसद कम रही है। इससे सूखे की आशंका बढ़ गई है। इसके बावजूद कृषि मंत्री शरद पवार से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के चेहरों पर कोई शिकन नहीं है। वे निश्चिंत हैं। उनका कहना है कि जून में मानसून की बारिश कम होने के बावजूद चिंता की कोई बात नहीं है। उनका दावा है कि अभी मानसून के तीन महीने बचे हुए हैं, जिसमें अच्छी बारिश की उम्मीद है। इसलिए खरीफ की फसल अच्छी रहने की उम्मीद बनी हुई है। साफ है कि कृषि मंत्री या योजना आयोग के उपाध्यक्ष ‘सूखा’ शब्द के जिक्र से बचना चाहते हैं। लेकिन उनके आत्मविास की वजह यह नहीं है कि वे इंद्र देव की कृपा पर भरोसा करते हैं या भारतीय कृषि मानसून की विफलता से मुक्त हो चुकी है। उन्हें सच्चाई पता है लेकिन वे उसे जाहिर करने से बच रहे हैं। ‘सूखा’ शब्द को लेकर सरकारी घबराहट समझी जा सकती है। सरकार अच्छी तरह जानती है कि यह स्वीकार करते ही उन्हें खरीफ फसलों को बचाने के लिए आपात और वैकल्पिक योजना तैयार करनी पड़ेगी, राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़कर किसानों की मदद करनी पड़ेगी और आवारा पूंजी को खुश करने करने के लिए सब्सिडी खासकर खाद, डीजल और बिजली सब्सिडी में कटौती योजना टालनी पड़ेगी। स्पष्ट है कि यूपीए सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। वह ऐसी किसी भी स्थिति को टालना चाहती है।सामने सूखा : प्रार्थना के शिल्प में सरकार
इसका अर्थ यह हुआ कि यूपीए सरकार अगले दो-तीन हफ्तों तक सिवाय इंद्र देव की प्रार्थना के और कुछ नहीं करने जा रही है। अगर उसके भाग्य से अगले कुछ दिनों-हफ्तों में मानसून की बारिश में कुछ सुधार हुआ तो वह एक बार फिर कुछ भी करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच निकलेगी। लेकिन अगर मानसून उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा तो भी उसके रुख से साफ है कि वह कुछ खास करने नहीं जा रही है। वैसे भी एक बार सूखा पड़ने और फसल बर्बाद हो जाने के बाद कुछ करने को नहीं रह जाता है। ऐसी स्थिति में सूखाग्रस्त क्षेत्रों को अधिक से अधिक कुछ दिखावटी मदद की घोषणा कर दी जाएगी और बाकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी जाएगी। नतीजा, मानसून की विफलता और सूखे को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वाक्युद्ध भी होगा। राज्य सरकारें सूखे को केंद्र से प्राकृतिक आपदा घोषित करने की मांग करेंगी और केंद्र सरकार उसे स्वीकार नहीं करेगी। आश्चर्य नहीं कि इन दोनों की नूरा कुश्ती का सबसे अधिक फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठाएंगे जो सूखे का बहाना बनाकर खाद्य वस्तुओं, फलों-सब्जियों और दूध की मनमानी कीमतें वसूलेंगे और आम गरीब उपभोक्ता इसकी कीमत चुकाएंगे जबकि दूसरी ओर, किसान एक बार फिर फसल के नुकसान और उसके कारण कर्ज जाल में फंसने को मजबूर होंगे।
राहत के माल का महाभोज
आजादी के बाद से यह कहानी दर्जनों बार दोहराई जा चुकी है। मानसून की आंख-मिचौली नई बात नहीं है। आमतौर पर भारत पर मानसून की कृपा बनी रही है लेकिन हर कुछ साल बाद मानसून धोखा भी दे जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि इन सालों में कई बार मानसून की अति कृपा बाढ़ के रूप में फसलों और किसानों को बर्बाद करती रही है। वैसे इसमें मानसून का कोई दोष नहीं है। यह तो उसकी स्वाभाविक प्रकृति है। इस प्रकृति चक्र को नियंत्रित या निर्देशित करना संभव भी नहीं है। असल में, सूखा या बाढ़ मानसून की विफलता या अधिकता का नहीं बल्कि नीतियों और नीति-निर्माताओं की विफलताओं का नतीजा हैं। इस मायने में भारत में सूखा या बाढ़ मनुष्य निर्मित परिघटनाएं हैं। पी साईनाथ ने ठीक ही लिखा है,‘इस देश में सभी (मतलब नेताओं-अफसरों-व्यापारियों) को सूखा अच्छा लगता है।’ इसी तरह सब जानते हैं कि बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में नेता-अफसर-इंजीनियर- ठेकेदार बहुत बेसब्री से बाढ़ का इंतजार करते हैं।
इस देश में बाढ़ और सूखे के साथ राहत कार्यों की अर्थव्यवस्था अभिन्न रूप में जुड़ी हुई है और राहत के माल के महाभोज की कहानियां भी किसी से छुपी नहीं है। जाहिर है कि इन सभी के सूखे और बाढ़ में निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं और वे नहीं चाहते हैं कि आम गरीब किसानों को इससे मुक्ति मिले। यह सचमुच इस देश के शासक वर्ग की सबसे बड़ी नीतिगत विफलताओं में से एक है कि आजादी के छह दशक बाद और विकास के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद भारतीय कृषि मानसून की कृपा पर निर्भर है। तथ्य यह है कि देश में 2009 तक कुल कृषि भूमि का सिर्फ 35 फीसद ही सिंचित था। यह उस देश का हाल है जो खुद को कृषि प्रधान देश कहता रहा है। लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और आखिरी खेत तक पानी पहुंचाने के मामले में यह नाकामी कृषि और देश के अन्नदाता किसानों के साथ किया गया बहुत बड़ा मजाक है। कृषि और किसान इसकी कीमत चुकाने को मजबूर हैं।
उदारीकरण ने हाशिये पर किया कृषि को
लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार में यह विफलता किसी प्राकृतिक दुर्घटना या लापरवाही के कारण नहीं है। वास्तव में, इसके लिए 90 के दशक की वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां और आर्थिक सुधार जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कृषि को बिल्कुल अनदेखा किया और साथ में, सरकारी खर्चों में कटौती की सबसे अधिक गाज सिंचाई योजनाओं पर गिरी। यह किसी से छुपा तथ्य नहीं है कि इन दो दशकों में कृषि प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे चली गई और कृषि में सार्वजनिक निवेश में गिरावट दर्ज की गई। नतीजा यह हुआ कि इस दौर में बजट की कमी के कारण एक तो सिंचाई परियोजनाओं पर काम की गति कछुए से भी धीमी हो गई और दूसरी ओर, नहरों और नलकूपों की देखरेख न होने के कारण उनकी भी हालत बद से बदतर होती चली गई।
एक और कड़वी सच्चाई यह है कि जिन इलाकों को आंकड़ों में सिंचित बताया जाता है, उनमें से काफी बड़े हिस्से में राज्य सरकारों की अनदेखी, लापरवाही और सबसे बढ़कर भ्रष्टाचार के कारण नहरों और नलकूपों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। आश्चर्य नहीं कि राज्यों में सिंचाई विभाग जमाने से सबसे भ्रष्ट और लूट-खसोट में लिप्त विभाग माने जाते रहे हैं। हालांकि जब से केंद्र और राज्य सरकारों ने सिंचाई परियोजनाओं पर खर्चों में कटौती शुरू कर दी, लूट-खसोट के लिए गुंजाइश कम होती चली गई और दूसरे कई विभाग भ्रष्टाचार के मामले में उनसे आगे निकल गए।
खेती बिना ही तरक्की की नीतियां बनाई गई असल में, 90 के दशक में आर्थिक सुधारों के चैम्पियनों ने कृषि क्षेत्र की समस्याओं और चुनौतियों को देखते हुए यह मान लिया कि कृषि में कोई सुधार संभव नहीं है और भारत की आर्थिक मुक्ति का हाईवे उद्योग और सेवा क्षेत्र के जरिये ही बन सकता है। नतीजा यह हुआ कि पिछले दो दशकों में सुनियोजित तरीके से कृषि की उपेक्षा करके और एक तरह से उसे बाईपास करते हुए आर्थिक तरक्की का नया हाईवे तैयार किया गया है। हैरानी की बात नहीं है कि इन दो दशकों में जीडीपी में कृषि का हिस्सा गिरते हुए आधे से भी कम रह गया है। 1990-91 में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग 30 फीसदी था, जो 2011-12 में घटकर 14 फीसद के आसपास रह गया है जबकि कृषि पर आश्रित लोगों की तादाद में बहुत मामूली कमी आई है। जाहिर है कि यह किसी दैवीय कारण से नहीं हुआ है बल्कि यह पिछले कई दशकों खासकर 1990 के बाद की नीतियों का नतीजा है।
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस तथ्य को अपनी नीतियों की सफलता के रूप में देखते हैं कि अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान कम से कमतर होता जा रहा है। वे इसे भारत के एक विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में आगे बढ़ने का प्रमाण मानते हैं। आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नव उदारवादी सुधारों के चैपियनों में इसे लेकर जश्न का माहौल है। उनकी इस खुशी का बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को काफी हद तक कृषि के दबावों से मुक्त कर दिया है यानी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को प्रभावित करने की उसकी क्षमता काफी कम हो गई है। यह तथ्य है कि पिछले वर्षों में जब अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर सालाना औसतन 8 फीसद से अधिक चल रही थी, उस समय कृषि की वृद्धि दर औसतन 2 फीसद के आसपास थी। इससे नार्थ ब्लाक में बैठे आर्थिक मैनेजरों का हौसला बढ़ा कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है।
विश्लेषकों के मुताबिक, अगर इस साल मानसून अच्छा नहीं रहता है तो इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में अधिक से अधिक आधी फीसद की कमी आएगी। यही कारण है कि सूखे की आशंकाओं के बावजूद नीति-नियंताओं और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में वह घबराहट और हड़बड़ी नहीं है, जो औद्योगिक उत्पादन या सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण दिख रही है। यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि कहां कृषि को मानसून यानी इंद्र देव पर निर्भरता से मुक्त करने का वादा था और कहां नीति-नियंता अर्थव्यवस्था की कृषि पर से निर्भरता खत्म करके खुश हो रहे हैं और इसे अपनी कामयाबी मान रहे हैं। सवाल यह है कि यह ‘कामयाबी’ किस कीमत पर आई है? लेकिन याद रहे, कृषि की उपेक्षा की कीमत सिर्फ किसानों और कृषि मजदूरों को ही नहीं, आम शहरी-मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को भी चुकानी पड़ेगी। पिछले तीन वर्षों से खाद्य वस्तुओं की लगातार ऊंची मुद्रास्फीति दर कृषि की उपेक्षा और कृषि के बिना भी अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार की नीति का नतीजा है जिसने अब अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार पर भी ब्रेक लगाना शुरू कर दिया है। क्या नार्थ ब्लाक और योजना भवन में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों की आंखें मानसून की इस नाकामी से खुलेंगी?
खेती : तथ्यपत्र
कृषि क्षेत्र की महत्ता के कारण खेती और उसके सहयोगी क्षेत्र जैसे वन और मत्स्य पालन का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 19 फीसद हिस्सेदारी है। इस पर देश का 60 फीसद हिस्सा निर्भर करता है। भारत के निर्यात क्षेत्र में इसकी भागीदारी 10.95 फीसद है। कृषि पैदावार का औद्योगिक उत्पादन पर प्रभाव औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने के लिहाज से खेती इसके लिए अहम सेक्टर है। इनमें से कुछ तो; जैसे- वस्त्र उद्योग और चीनी मिलें तो सीधे-सीधे आश्रित हैं, जबकि शराब कंपनी जैसे क्षेत्र अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर है। खेती की पैदावार में बढ़ोतरी कई रूपों में औद्योगिक इकाइयों पर असर डालती है और रोजगार के प्रकारों में भी। इसलिए खेती में गिरावट का औद्योगिक उत्पादनों पर सीधा असर पड़ेगा, इसके दामों को प्रभावित करेगा और इस तरह अर्थव्यवस्था के असंतुलन का कारण बन जाएगा।
जीडीपी में नहीं रही वह जगह भारतीय अर्थव्यवस्था विगत दो दशकों से बहुत बदल गई है। उसको देखते हुए सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी बढ़ने के बजाए घटी है। इस बीच, खनन, उत्पादन, निर्माण और विद्युत क्षेत्र में 1970-71 की 26.6 फीसद की तुलना में 2004- 05 में 27 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इसी अवधि में, सेवा क्षेत्र में 32 फीसद से 52.4 फीसद की वृद्धि हुई है। बावजूद प्रधान क्यों बनी हुई है खेती इसलिए क्योंकि देश की 60 फीसद आबादी की आजीविका खे ती से जुड़ी हुई है। सिंचाई की अन्य सुविधाओं के अभाव में अधिकतर किसान वर्षा पर निर्भर हैं। वर्षा की मात्रा कृषि उत्पादन को निर्धारित करती है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी- 19 फीसद खेती के काम में लगा श्रम बल- 60 फीसद खेती क्षेत्र में निर्यात- 11.1फीसद कुल पैदावार- 100 मिलियन टन गेहूं का पैदावार- 88.3 मिलियन टन तेलहन- 31 मिलियन टन