धूमकेतु

Submitted by Hindi on Wed, 08/17/2011 - 11:11
धूमकेतु सौर परिवार का गौण सदस्य है। सूर्य के आकर्षण के कारण यह शंक्वाकार मार्ग (conic sectional orbit) में भ्रमण करता है। सूर्य से दूर रहने पर यह गोलाकार ज्योतिविंदु सा दिखलाई देता है, किंतु सूर्य के समीप आने पर इसकी आकृति अद्भुत दिखलाई देती है। इस समय इसकी आकृति को दो मुख्य भागों, सिर तथा पूँछ में बाँट सकते हैं। सिर का केंद्र अति चमकीला होता है। उसे इसका नाभिक (nucleus) कहते हैं, नाभिक के चारों ओर नीहारिका की आकृति का उजला चमकीला भाग, जिससे पूँछ फूटती सी लगती है, कोमा कहलाता है। पूँछ सदा सूर्य से विपरीत दिशा में रहती है। कुछ धूमकेतु सूर्य के समीप आने पर भी पूँछ को प्रकट नहीं करते, ऐसे धूमकेतुओं को पुच्छहीन धूमकेतु कहते हैं। इसकी लंबी पूँछ के कारण इसे पुच्छलतारा भी कहते हैं।

धूमकेतु के आयाम- धूमकेतुओं का सिर 50,000 से 2,50,000 किलोमीटर लंबा तथा पूँछ 80,00,000 से 8,00,00,000 किलोमीटर लंबी रहती है। इसका नाभिक इनकी तुलना में अत्यंत छोटा होता है। मई, 1910, में हैलि का धूमकेतु सूर्य तथा पृथ्वी के बीच था। इस समय विशाल दूरदर्शियों से देखने पर भी उसके नाभिक का सूर्य के बिंब पर कोई च्ह्रि नहीं दिखाई दिया। 1822 द्वितीय धूमकेतु के सूर्य तथा पृथ्वी के बीच आने पर भी ऐसा ही परिणाम प्राप्त हुआ था। इन वेधों से पता चलता है कि धूमकेतुओं का नाभिक आकार में छोटा होता है। हैलि के धूमकेतु के नाभिक का विस्तार 30 किलोमीटर से अधिक न होगा। फ्रांसीसी ज्योतिषी बाल्दे (Baldet) ने 1927 सप्तम तथा 1920 षष्ठ धूमकेतुओं के पृथ्वी के अत्यंत समीप होने पर इनके नाभिकों का नापा, जो लगभग 400 मीटर उपलब्ध हुए।

धूमकेतुओं का नामकरण- धूमकेतुओं के नाम प्राय: उनके आविष्कारकों के नाम पर रख दिए जाते हैं, या हैलिक का (Halley's) धूमकेतु, ह्विपल धूमकेतु (comet Whipple) आदि। धूमकेतुओं के नामकरण की दूसरी विधि यह है कि जिस वर्ष में धूमकेतु उपलब्ध हों उस वर्ष के पश्चात्‌ उसके रविनीच से गुजरने के क्रम की संख्या लिख देते हैं, यथा धूमकेतु 1862 तृतीय, धूमकेतु 1882 द्वितीय आदि।

धूमकेतुओं की कक्षाएँ - 1,000 से अधिक ज्ञात धूमकेतुओं में से लगभग 525 धूमकेतुओं की कक्षाएँ ज्ञात हैं। इनमें लगभग 274 धूमकेतुओं की कक्षाएँ परवलयाकार (parabolic), लगभग 52 धूमकेतुओं की अतिपरवलयाकार (hyperbolic), तथा 199 की कक्षाएँ दीर्घवृत्ताकार कक्षा के धूमकेतु अन्य ग्रहों के समान सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं। इस समय को इनका आवर्तनकाल (periodic time) कहते हैं। दीर्घवृत्ताकार कक्षा के धूमकेतुओं में से 114 धूमकेतु दीर्घ आवतर्नकाल के हैं। इनका आवर्तनकाल 200 वर्षो से अधिक है। ज्योतिषयों का विश्वास है कि यद्यपि अधिकांश धूमकेतु परवलय या अतिपरवलय के आकार की कक्षाओं में जाते दिखलाई देते हैं, तथापि उनकी वास्तविक कक्षाएँ अतिविस्तृत बृहद् अक्ष के दीर्घवृत्त ही हैं। गुरु तथा शनि के आकर्षणों के कारण इनकी कक्षाएँ परिवर्तित हो जाती हैं तथा ये परवलय या अतिपरवलयाकर प्रतीत होती हैं। बृहत्तम ग्रह बृहस्पति का धूमकेतुओं की गति पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसके कारण सन्‌ 1819 से सन्‌ 1933 के भीतर पान्स विन्नेके (Pans Winnecke) धूमकेतु के आवर्तनकाल में 5.56 वर्षों से 6.16 वर्षों तक का परिवर्तन हुआ है तथा रविनीच की दूरी में 0.755 से 1.10 ज्योतिष इकाइयों (सूर्य से पृथ्वी की माध्य दूरी) का अंतर पड़ गया है। इसी प्रकार इसकी कक्षा के क्रांतिवृत्त से झुकाव, उत्केंद्रता तथा कक्षा की स्थिति में भी अंतर पड़ गया है। इसी प्रकार का प्रभाव उल्फ प्रथम धूमकेतु पर भी पड़ा है। बृहस्पति के आकर्षण के कारण ब्रूक के धूमकेतु का आवर्तनकाल 29 वर्षों से 7 वर्षों में परिवर्तित हो गया है। धूमकेतुओं की गति में अन्य ग्रहों के आकर्षण से भी परिवर्तन आ जाता है। हमारी पृथ्वी के कारण 1770 के लेक्सेल के धूमकेतु के आवतर्नकाल में दिन का अंतर आ गया था।

धूमकेतुओं के मूलतत्व- लिटिलटन (Lyttleton) के मतानुसार धूमकेतु लघु पदार्थकणों से, जो संभवत: बरफ के कण हैं, बने हैं। इनके सिर के बरफ के कण रहते हैं, जो पानी, ऐमोनिया, हाइड्रोकार्बन तथा कार्बन ऑक्साइड से बने होते हैं। इनकी पूँछों के वर्णक्रम द्वारा पता चला है कि इनमें हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन तथा नाइट्रोजन के मिश्रण विद्यमान हैं, जिससे पता चलता है कि इनकी पूँछ को बनाने वाले तत्व हल्के हैं।

धूमकेतुओं का द्रव्यमान तथा घनत्व- लेक्सेल धूमकेतु 1770 प्रथम बृहस्पति के उपग्रह के अति समीप से गुजरा तथा इससे उसकी गति में कोई प्रभावकारी अंतर नहीं पड़ा। वही धूमकेतु पृथ्वी से 2.4 किलोमीटर की दूरी से गया, जिसका पृथ्वी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे पता चलता है कि धूमकेतुओं के नाभिकों का द्रव्यमान अत्यंत कम होता है। पूँछ का द्रव्यमान तो और भी कम होता है। सिर तथा पूँछ के विशाल आकार की तुलना में इनका घनत्व शून्य सा ही होता है। सी. पेनी गेपोश्किन ने लिखा है कि धूमकेतु की पूँछ के 200 घन मीलों में उतनी भी द्रव्यमात्रा नहीं, जितनी पृथ्वी के तल की हवा के एक धन इंच में होती है। यदि इसकी पूँछ का कभी पृथ्वी से टकराव भी हो जाए तो इसके अणुओं तथा द्रव्यकणों की स्वल्प मात्रा का ही पृथ्वी से संयोग होगा। सन्‌ 1910 में हैलि के धूमकेतु की पूँछ पृथ्वी से टकरा गई थी तो भी पृथ्वी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसलिए धूमकेतुओं से टकराने से पृथ्वी के ऊपर किसी खतरे के आने की संभावना नहीं है।

धूमकेतुओं का प्रकाश- धूमकेतु, जो अणुओं और जमे हुए द्रव्यकणों का समूह है, सूर्य से दूर रहने पर प्रकाशहीन रहने के कारण अदृश्य रहता है। किंतु ज्योंही यह सूर्य के पर्याप्त निकट पहुँच जाता है, सूर्य के प्रकाश के कारण इसके जमे ठोस कण पिघलने लगते हैं। इसी समय इसके ऊपर उल्काओं की धूल की एक हल्की परत चढ़ जाती है, जो ऊष्मा की कुचालक (bad conductor) होती है। इससे इसका नाभिक पूरी तरह पिघलता नहीं है। सूर्य की पराबैंगनी किरणों (ultra voilet rays) से इसकी गैसें चमकने लगती हैं। सूर्य के प्रकाश के दबाव की मात्रा इसके गुरत्वाकर्षण की मात्रा से अधिक होती है। अतएव सूर्यकिरणें धूमकेतु के द्रव्य का विरुद्ध दिशा में ढकेल देती हैं और हमें धूमकेतु की पूँछ सदा सूर्य की दिशा के विरुद्ध दिखाई देती है। इस प्रकर धूमकेतु का प्रकाश अंशत: इसकी चमकती गैसों तथा अंशत: सूर्य के प्रतिबिबिंत प्रकाश के कारण होता है।

हैलि का धूमकेतु (Halley's Comet)- न्यूटन के समकालीन ज्योतिषी एडमंड हैलि (Edumund Halley) ने 1662 ई. में एक धूमकेतु का प्रेक्षण किया। उसने उसकी कक्षा की गणना की तथा इससे उसे प्रतीत हुआ कि यह वही धूमकेतु था जो सन्‌ 1607, सन्‌ 1531 तथा संभवत: सन्‌ 1465 में भी दिखलाई दिया था। उसने गणना द्वारा भविष्यवाणी की कि यह सन्‌ 1758 के लगभग पुन: दृश्य होगा, और ऐसा हुआ भी। यह सन्‌ 1758 के बड़े दिन की रात्रि (Christmas night) को दिखलाई दिया। तबसे इसका नाम हैलि का धूमकेतु पड़ गया। निकट भूत में यह सन्‌ 1910 में दिखलाई दिया था। सन्‌ 1985 के लगभग इसके पुन: दीखने की संभावना है। इसकी कक्षा का सूर्योच्च (aphelion) नेप्चून की कक्षा के कुछ बाहर है। यह आवर्तक धूमकेतु है, जिसका आवर्तनकाल लगभग 75 वर्ष है। वोरोनज़ोव वेल्यामिनोव (Vorontsov Vellyaminov) नामक रूसी ज्योतिषी ने हैली के धूमकेतु के द्रव्यमान के 3 1019 ग्राम होने का अनुमान लगाया है, जो पृथ्वी के द्रव्यमान का 5 10-9 गुना होगा।

धूमकेतुओं का स्रोत तथा उनका विकास- डच ज्योतिषी जे. ओर्ट (J. Oart) ने सन्‌ 1950 में बताया कि सूर्य से 2,00,000 ज्योतिष इकाइयों (सूर्य से पृथ्वी की माध्य दूरी) तक धूमकेतुओं का मेघ सौर परिवार को चारों ओर से घेरे हुए है। यह मेघ उस विशाल तारांतर्वर्ती गैस तथा धूल के विशाल मेघ का अवशेष है, जिससे सौर परिवार का जन्म हुआ था। इसमें लगभग 1,00,00,00,00,000 धूमकेतु हैं, जिनका कुल द्रव्यमान पृथ्वी का 100 गुना अथवा पूरे सौर परिवार का 10-3 से 10-4 गुना होगा। धूमकेतु मेघ की दूरी इतनी अधिक है कि उसपर सूर्य के समीपवर्ती तारों का भी प्रभाव पड़ता रहत है। मेघ में द्रव्यकणों की गति की न्यूनता के कारण उत्पन्न घर्षणों से धूमकेतुओं के नाभिकों का जन्म हो जाता है तथा ये धूमकेतुओं के द्रव्य को एकत्रित कर लेते हैं। पारर्श्वर्ती तारों के क्षोभकारी प्रभाव (perturbational effect) के कारण इनकी कक्षाओं में परिवर्तन हो जाता है तथा ये सूर्य के आकर्षण के प्रभाव में आकर सूर्य की परिक्रमा करने लगते हैं। इनमें अधिकांश दीर्घ आवर्तनकालिक रहते हैं। कुछ बृहस्पति के आकर्षण के प्रभाव से अल्पकालिक आवर्तक हो जाते हैं। यद्यपि सूर्य की परिक्रमा करते समय धूमकेतु धीरे धीरे विघटित हो जाते हैं, तथापि अन्य धूमकेतु उनका स्थान ले लेते हैं। इस प्रकार हमारे दृष्टिक्षेत्र में धूमकेतुओं के आने का क्रम लगा रहता है।

धूमकेतुओं की आयु- सूर्य की परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात्‌ एक धूमकेतु कितने वर्षों तक अपने स्वरूप को बनाए रख सकता है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें धूमकेतु की सौर परिक्रमा के समय उसपर पड़नेवाले प्रभावों का अध्ययन करना पड़ता है। जब धूमकेतु सूर्य के आसन्न पहुँचता है, तब सूर्य की ऊष्मा से उसके नाभिक के बहुत से हिमकरण भाप बनकर सौरमंडल में फैल जाते हैं। इस प्रकार उसके नाभिक का आकार छोटा होता रहता है। हैलिक का विशाल धूमकेतु भी पिछली बार जब दृश्य हुआ था तब उतना चमकीला न था जितना इससे पहले था। अपनी सौर यात्रा में कभी कभी धूमकेतु बृहस्पति के आकर्षण प्रभाव से अपनी कक्षा से च्युत हो जाते हैं तथा वे ग्रहों से टकरा जाते हैं। तब ये धूमकेतु के रूप में तो नहीं दिखलाई देते, किंतु इनके नाभिक के द्रव्यकण उल्का नदी के रूप में अपनी कक्षा में चलते रहते हैं। जब यह उल्का नदी पृथ्वी के वायुमंडल में घुस जाती है, तो हमें उल्कावृष्टि से उसका बोध होता है। धीरे धीरे ये उल्काएँ भी ग्रहों के वातावरण में घुसकर जल जाती हैं और फिर दिखाई नहीं देतीं। उदाहरणार्थ, बीला का धूमकेतु (Beila's comet) प्रति वर्ष में सूर्य की परिक्रमा किया करता था। सन्‌ 1846 में लौटने पर यह दो स्वतंत्र धूमकेतुओं के रूप में टूटा दिखाई दिया, जो अगल बगल सूर्य की परिक्रमा कर रहे थे। इसके बाद के आवर्तन में इन दोनों भागों की परस्पर दूरी लगभग 20 लाख किलोमीटर हो गई। इसके बाद यह धूमकेतु कभी दिखलाई नहीं दिया, किंतु जिन तिथियों को इसके पुन: लौटने की संभावना थी, उनमें पृथ्वी पर भारी उल्कावृष्टियाँ हुई। इस प्रकार धूमकेतुओं के विघटन से उल्का नदियों का जन्म होता है। संभवत: वीणा (Lyra) तथा सिंह में उपलब्ध उल्का नदियाँ भी इसी प्रकार के किसी धूमकेतु का अंतिम अवशेष हैं। इस प्रकार देखने से पता चलता है कि धूमकेतु की सौरपरिक्रमा उसके निजी जीवन के लिए बड़ी खतरनाक है। यह सूर्य की कुछ सौ परिक्रमाएँ सुरक्षित ढंग से कर सकता है। इस प्रकार इसका जीवनकाल हजारों या लाखों वर्षों तक सीमित रहता है।

धूमकेतु तथा पृथ्वी- प्राचीन काल में धूमकेतुओं का दर्शन पृथ्वी के निवासियों पर आनेवाली विपत्तियों  अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी तथा राज्यविप्लव आदि  का पूर्वसूचक माना जाता था। वैज्ञानिक भी प्रारंभ में इनके पृथ्वी से टकराने पर पृथ्वी को क्षति पहुँचने की आशंका करते रहे हैं। अब इनके द्रव्यमान को देखते हुए यह शंका निर्मूल हो चुकी है, किंतु प्रोफेसर हॉयल ने एक नई आशंका प्रकट की है। वह है धूमकेतुओं के प्रभाव से पृथ्वी के वायुमंडल में भयंकर परिवर्तन। उनका आशय यह है कि पृथ्वी के तल से 20,000 फुट ऊपर वायुमंडल में जल के लघुकणों का आवरण है, जो हमारी पृथ्वी के लिए लताकुंज (greenhouse) की छत का कार्य करता है। एक ओर तो यह सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने में सहायक होकर हमें जीवन के लिए अपेक्षित ऊष्मा प्रदान करने में सहायक होता है, दूसरी ओर यह पृथ्वी की ऊष्मा को बाहर जाने से रोकता है। यह आवरण इतना ऊँचा है कि इसका जल साधारण वर्षा से बरस नहीं सकता। इसका जो कुछ थोड़ा बहुत जल बरस भी जाता है, उसकी सागरों से उठनेवाली वाष्पों से क्षतिपूर्ति हो जाती है। इस आवरण पर यदि निरंतर भीषण उल्कावृष्टि हो, तो इसके जलकणों से अधिकांश की वर्षा हो जाने से यह आवरण क्षतिग्रस्त हो सकता है। उस अवस्था में पृथ्वी के वायुमंडल में ऊष्मा के पर्याप्त अवरोधक न रहने से पृथ्वी पर पुन: हिमकाल (ice age) लौट सकता है, जो पृथ्वी के विनाश का कारण हो सकता है। इससे पूर्व हम यह बता चुके हैं कि धूमकेतु अपने स्वरूप के विघटित होने पर उल्काओं के झुंडों को छोड़ जाते हैं, जो हमारे वायुमंडल से टकराते रहते हैं। इसलिए प्रोफेसर हॉयल की आशंका महत्वपूर्ण है। इसकी परीक्षा के लिए हमें बहुत समय तक अनुसंधान करना पडेगा।(मुरारीलाल शर्मा)

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