धूप

Submitted by Hindi on Wed, 08/17/2011 - 11:04
धूप सूर्यकिरणों से सीधे प्रकाश और गर्मी को कहते हैं। इसके अंतर्गत विकिरण के दृश्य अंश ही नहीं आते, वरन्‌ अदृश्य नीललोहित और अवरक्त किरणें भी आती हैं। इसमें सूर्य की परावर्तित और प्रकीर्णित किरणें सम्मिलित नहीं हैं।

धूप उर्जा और प्रकाश का मूलभूत स्रोत होने के कारण पृथ्वी और उसके सहवासियों तथा वनस्पतियों और जीवधारियों के लिए सूर्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसीलिए प्राचीन काल से ही सूर्य की ओर श्रद्धा के साथ लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है। भूमंडल के भिन्न-भिन्न भागों में धूप की प्रकृति और धूप के दैनिक तथा वार्षिक परिवर्तनचक्र को ठीक-ठीक समझने के लिए सूर्य और पृथ्वी की सापेक्ष गति का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है। सौर परिवार में पृथ्वी स्थिर पिंड नहीं है। सूर्य को व्यवहारत: स्थिर मानने पर अपनी धुरी पर परिभ्रमण करने के कारण ही पृथ्वी पर दिन और रात होते हैं। ऋतुपरिवर्तन के साथ एक ही साथ पर दिवालोक की अवधि में परिवर्तन और वर्ष के एक ही विशेष दिवास में भिन्न-भिन्न स्थान पर दिवाकाल की विभिन्न अवधि का कारण पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करना है। पूरे एक वर्ष के समय में पृथ्वी 94  107 किमी. लंबी दीर्घवृत्ताकार कक्षा पर सूर्य की परिक्रमा करती है। इस दीर्घवृत्त के फोकसों में से एक पर सूर्य की स्थिति होती है। जनवरी में निकटतम अनुसूर्यविंदु (perihelion) से होकर गुजरते समय पृथ्वी लगभग 5 106 किमी. सूर्य के निकट पहुँच जाती है। यह सूर्य के निकटतम पृथ्वी की स्थिति है। जुलाई और जनवरी में पृथ्वी सूर्य से क्रमश: लगभग 151 106 किमी. और 146 106 किमी. दूरी पर रहती है। भूकक्षा सूर्य से गुजरनेवाले समतल में तो स्थित है, किंतु भूअक्ष इस समतल पर लंब नहीं है, अपितु वह इस समतल से 23.5 का कोण बनाता है। परिक्रमा की प्रत्येक स्थिति में भूअक्ष पूर्ववर्ती और परवर्ती स्थिति के समांतर होता है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण खगोल (celestial sphere) में 21 जून को सौर अवनमन 23.5 उत्तर, 21 मार्च को 0 , 21 दिसंबर को 23.5 दक्षिण और 23 सितंबर को पुन: 0 होता है। पृथ्वी के उत्तरी या दक्षिणी ध्रुवों में से एक विभिन्न मासों में सूर्य की ओर और दूसरा सूर्य से परे झुका होता है। इसके कारण पृथ्वी के दैनिक परिभ्रमण के साथ विषुव प्रदेश को छोड़ अन्य सभी स्थानों पर विभिन्न महीनों में दिवालोक की अवधि बदलती रहती है। यह स्पष्ट है कि दिसंबर में जब भू-अक्ष का उत्तरी सिरा सूर्य से परे होता है, तब उत्तरी गोलार्ध में दिन की अपेक्षा रातें बड़ी होती हैं और दक्षिणी गोलार्ध में रातों की अपेक्षा दिन बड़े होते हैं। इस समय उत्तरी शीत कटिबंध में सूर्यप्रकाश बिलकुल नहीं होता और दक्षिणी शीत कटिबंध में चौबीसों घंटे प्रकाश रहता है। जून में परिस्थिति उलट जाती है। उत्तरी गोलार्ध में दिन बड़े और रातें छोटी और दक्षिणी गोलार्ध में दिन छोटे और रातें बड़ी हो जाती हैं। इस समय उत्तरी शीत कटिबंध में दिन ही दिन होता है, रात्रि नहीं होती और दक्षिणी कटिबंध में रात ही रात होती है, दिन नहीं होता। मार्च और सितंबर में एक विशिष्ट दिन सूर्य के भूमध्य रेखा पर स्थित होने के कारण, समस्त पृथ्वी पर दिन और रात बराबर होते हैं। उत्तरी और दक्षिणी शीत कटिबंधों में छमाही दिन या छमाही रात के संक्रमण काल का यह समय होता है। इस प्रकार विषुवत्‌ प्रदेश को छोड़ कर पृथ्वी के सभी स्थानों पर दिवालोक की अवधि वर्ष भर बदलती रहती है। किसी स्थान पर सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद जितनी देर तक सूर्य की किरणें वायुमंडल द्वारा अपवर्तित (refracted) होकर पहुँचती हैं, उतनी देर वहाँ सांध्य प्रकाश (twilight) रहता है। विषुवत्‌ प्रदेश से ध्रुव प्रदेश की ओर बढ़ने पर सांध्य प्रकाश की अवधि बढ़ती जाती है। ध्रुव प्रदेशों में सांध्य प्रकाश का विशेष महत्व है, क्योंकि वर्ष के अधिकांश काल में वहाँ सीधी धूप नही प्राप्त होती।

भूपृष्ठ और उसके वायुमंडल को गरम करने में धूप का विशेष महत्व है। किंतु आतपन (insolation), अर्थात्‌ किसी स्थान के भूपृष्ठ को गरम करने, में धूप का अंशदान दिवालोक की अवधि के अतिरिक्त अनेक वन्य बातों पर भी निर्भर करता है, जिनमें निम्नलिखित महत्वपूर्ण हैं :

1. क्षितिज के समतल पर सूर्यकिरणों की नति- आतपन सौर उच्चता, या सौर किरणों द्वारा क्षितिज पर बनाए हुए कोण, पर निर्भर करता है। किसी क्षैतिज पृष्ठ पर आतपन की तीव्रता इस कोण की ज्या (sine) की अनुलोमानुपाती होती है। भूअक्ष के झुकाव के कारण ज्यों ज्यों कोई गोलार्ध सूर्य के सम्मुख होता जाता है, त्यों त्यों किसी स्थान पर सौर किरणों द्वारा क्षितिज पर बनाया गया यह कोण वर्ष भर, प्रत्येक क्षण बदलता रहता है।

2. सूर्य से पृथ्वी की दूरी- दीर्घवृत्ताकार पथ पर परिक्रमा करते समय पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी वर्ष भर बदलती रहती है। जनवरी में पृथ्वी सूर्य के निकटतम और जुलाई में दूरतम होती है। स्पष्ट ही पृथ्वी पर आतपन की तीव्रता जनवरी में जुलाई की अपेक्षा अधिक होनी चाहिए। आतपन में वृद्धि तो होती है, लेकिन बहुत कम। बहुधा यह वृद्धि, आतपन को कम करनेवाले कुछ अन्य कारकों से, क्षतिपूरित हो जाती है।

3. वायुमंडल में पारेषण, अवशोषण एवं विकिरण- वायुमंडल में पारेषण, अवशोषण तथा विकिरण घटनाओं की परस्पर जटिल क्रिया होती है। सूर्यकिरणों की तरंग लघुदैर्ध्य के आपतित विकिरण का लगभग 42 प्रति शत अंश पृथ्वी के वायुमंडल की बाह्य सीमा से ही अंतरिक्ष को तत्काल लौट जाता है। शेष विकिरण का लगभग 15 प्रति शत वायुमंडल द्वारा और 43 प्रति शत भूपृष्ठ द्वारा सीधे अवशोषित हो जाता है। इस अवशोषित विकिरण के आठ प्रति शत को भूपृष्ठ पुन: दीर्घतरंगों के रूप में विकिरण करता है और 35 प्रति शत को वायुमंडल में पारेषित करता है। पारेषण द्वारा प्राप्त विकिरण को वायुमंडल दीर्घतरंग ऊष्मा विकिरण के रूप में अंतरिक्ष को पुन: विकीर्ण करके, आगामी लघुतरंग और प्रगामी दीर्घतरंग विकिरणों में संतुलन करता है। इस प्रकार धूप में हेरफेर होने पर भी भूपृष्ठ का माध्य ताप व्यवहारत: लगभग एक सा रहता है।

किसी दिन, किसी स्थान पर धूप की कुल अवधि बदली, कोहरा आदि आकाश को धुँधला करनेवाले अनेक घटकों पर निर्भर करती है। धूप अभिलेखक (Sunshine Recorder) नामक उपकरण से वेधशालाओं में धूप के वास्तविक घंटों का निर्धारण किया जाता है। इस उपकरण में एक चौखटे पर काच का एक गोला स्थापित रहता है, जिसे इस प्रकार समंजित किया जा सकता है कि गोले का एक व्यास ध्रुव की ओर संकेत करे। गोले के नीचे उपयुक्त स्थान पर समांतर रखे, घंटों में अंशाकिंत पत्रक (card) पर सौर किरणों को फोकस करते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच जब भी बदली, कोहरा आदि नहीं होते, तब फोकस पड़ी हुई किरणें पत्रक को समुचित स्थान पर जला देती हैं। (किरणचंद चक्रवर्ती)

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संदर्भ
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