एक नजर जलवायु परिवर्तन पर  

Submitted by Editorial Team on Wed, 07/08/2020 - 09:00
Source
विज्ञान प्रगति, जनवरी 2010  

जलवायु परिवर्तन, फोटो - needpix.comजलवायु परिवर्तन, फोटो - needpix.com

प्रायः ऋतुओं के समय में विचित्र एवं असम्भावित परिवर्तन होते रहते हैं जिससे ऋतुओं का प्रारम्भ अपने निर्धारित क्रमानुसार नहीं होता, जैसा कि होना चाहिए। निर्धारित समय से पूर्व वर्षा ऋतु का आगमन या अभूतपूर्व शीतलहरी आदि अप्रत्याशित घटनाओं को देखकर वैज्ञानिकों का ध्यान ऋतु विपर्यय की ओर गया है। देश-विदेश के विशेषज्ञ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या के अध्ययन में लगे हुए हैं। वे इसे जलवायु परिवर्तन कहते हैं। भारत के प्राचीन ऋतु विशेषज्ञों का कहना था कि अन्न ही जगत का प्राण है और अन्न वर्षा के अधीन है जबकि वर्षा ऋतुओं के अधीन है। इसलिए ऋतुएं ही राष्ट्र का जीवन हैं। किंतु ऋतु वैचित्र्य के कारण खाद्योत्पादन दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है।

बड़े-बड़े राष्ट्र भी खाद्यान्न के मामले में दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर होने लगे हैं। दूसरी ओर जनसंख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। सर्वविदित है कि भोजन, वस्त्र और मकान जीवन की ये तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं। इनमें से वस्त्र तथा मकान शायद उतने आवश्यक नहीं जितना कि भोजन है। यही कारण है कि आधुनिक वैज्ञानिक अब ऋतुओं पर विजय पाने के लिए प्रयत्नशील दिखते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े बांध और नहरें बनाई हैं जिनसे मनुष्य केवल मानसून पर ही निर्भर न रहे बल्कि वह कृत्रिम साधनों से भी सिंचाई कर सके। किंतु संपूर्ण कृष्य भूमि को ऐसे प्रयासों से सींच पाना कठिन कार्य है। जब अत्यधिक वर्षा होती है तो लोगों को बाढ़ों का प्रकोप सहना पड़ सकता है। इससे कृष्य भूमि जलमग्न हो जाती है और फसलें नष्ट हो जाती हैं। इसलिए अवर्षण अथवा अत्यधिक वर्षा दोनों ही दुःखद स्थितियाँ हैं। अवर्षण से सूखा और अकाल की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।

आधुनिक समय में मौसम विज्ञान बहुत अधिक विकसित हो चुका है फिर भी प्रायः मौसमविदों की भविष्यवाणियां निरर्थक हो जाती हैं। ऐसे में यह विचार कौंधता है कि क्‍या इसमें भारतीय ऋतु विज्ञान की सहायता नहीं ली जा सकती? भले ही पराधीन काल में भारतीय ऋतु विज्ञान उपेक्षित रहा हो किंतु अब स्वतंत्र देश में उसका परीक्षण तो किया ही जा सकता है। यह देखा जाता है कि प्रायः प्राचीन ऋतु विज्ञान की वर्षा सम्बन्धी भविष्यवाणियां सत्य उतरती हैं। ऐसी स्थिति में यदि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ भारतीय ऋतु विज्ञान की भी सहायता ली जा सके तो शायद ऋतु विपर्यय से निपटने में सरलता हो।

भारतीय ऋतु विज्ञान की परंपरा

वैदिक साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि भारतीयों को ऋतुओं का अच्छा ज्ञान था। ऋग्वेद संहिता में वर्ष के 12 मासों एवं 360 दिनों का उल्लेख है। तैत्तिरीय संहिता में मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभ, नभस्, इष, ऊर्ज, सहस, सहस्य, तपस, तपस्य - इन बारह मासों के अतिरिक्त अधिमास और क्षय मास का भी उल्लेख हुआ है। आगे चलकर इन बारहों महीनों को छह ऋतुओं में संयोजित किया गया : मधु, माधव मास से वसन्त ऋतु; शुक्र, शुचि से ग्रीष्म ऋतु; नभस्‌ तथा नभस्य मास से वर्षा ऋतु; इष तथा ऊर्ज मास से शरद ऋतु; सहस तथा सहस्य मास से हेमन्त ऋतु; तपस तथा तपस्य मास से शिशिर ऋतु। 

कहीं-कहीं हेमन्त और शिशिर को मिलाकर एक ऋतु मानने से छः के स्थान पर पांच ही ऋतुओं का उल्लेख मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में दो-दो ऋतुओं को एक ऋतु मानकर गर्मी, वर्षा तथा जाड़ा ये तीन ऋतुएं मानी गई हैं। यह ऋतुचक्र निरंतर चलता रहता परवर्ती आचार्यों में गर्ग, वशिष्ठ, पराशर, कश्यप, वत्स, असित, देवल, वृद्ध गर्ग, भृगु, बृहस्पति, मनु, मय, सारस्वत, नारद, अत्रि, ब्रह्म, पौलस्त्य, रोभवा, मरीचि, अंगिरा, व्यास, शौनक, च्यवन आदि हुए, जिनका काल वैदिक युग से पुराण युग तक विस्तीर्ण है। इन आचायों ने ऋतु विज्ञान (आधुनिक मौसम विज्ञान, Meteorology) को व्यवस्थित रूप प्रदान किया। इनमें वराहमिहिर कृत “बृहत्संहिता' में ऋतु विज्ञान पर विस्तार से विचार हुआ है। उनके अनुसार मेघों की उत्पत्ति, धूम, ताप, वायु और जलकणों से होती है। सूर्य की किरणों से शोधित होने पर जल कण भाप में बदल जाते हैं और बादल बनते हैं। वर्षा एवं ऋतु परिवर्तन में हवा, वर्षा, बिजली, बादल गर्जना - ये ही कारण हैं। यह भी पता था कि भूमि के बाहर वायु की कक्षा है। गर्जन, उल्कापात, बिजली, इन्द्रधनुष तथा मेघ इसी वायु की कक्षा में होते हैं।

ऋतु विज्ञान के मूलाधार

ऋतु विज्ञान के मूलाधार सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य सौर मण्डलीय ग्रहों (विशेषकर सूर्य और चन्द्रमा) पर आधारित हैं। भिन्‍न-भिन्‍न समय में सूर्य, चन्द्र तथा अन्य ग्रहों की स्थितियाँ पृथ्वी से भिन्‍न-भिन्‍न होने पर मौसम में परिवर्तन होता रहता है। इसे भारतीय ऋतु-वेत्ता तथा आधुनिक मौसमविद्‌ भी मानते हैं।

मौसम में परिवर्तन के चार कारण माने जाते हैं…1. ताप, 2. वायुमण्डल का दाब, 3. वायु की दिशा तथा 4. आर्द्रता या नमी।

इस तरह यह देखा जा सकता है कि मौसम में जो जो और जितने भी परिवर्तन होते हैं, वे सूर्य तथा अन्य सौर ग्रहों पर निर्भर करते हैं। उदाहरणार्थ, सूर्य की ओर पृथ्वी के झुकाव में परिवर्तनों से गर्मी, बरसात और जाड़ा जैसे महान परिवर्तन होते हैं वैसे ही वर्षा, हवा, धुंध, आंधी जैसे सामान्य मौसम परिवर्तन भी सूर्य पर आधारित हैं।

इस तरह भारतीय ऋतु विज्ञान मुख्यतः गणितीय सिद्धांतों एवं ऋतु परीक्षण सिद्धांतों पर आधारित रहा है। ये दोनों सिद्धांत परस्पर अन्तर्ग्रथित हैं। गणितीय सिद्धांत में मौसम परीक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती। गणित के आधार पर वर्ष में किसी भी दिन या महीने या वर्षों आगे या पीछे किस दिन ग्रहों की क्या स्थिति होगी - इसे जाना जा सकता है। इसे खगोल विज्ञान कहते हैं। पृथ्वी, सूर्य तथा ग्रहों की भिन्‍न-भिन्‍न स्थितियों पर मौसम में क्या-क्या परिवर्तन हो सकते हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हमारे ऋषियों ने किया। इसी के आधार पर ग्रहों की स्थिति देखकर मौसम सम्बन्धी भविष्यवाणी की जाती है। उदहारणार्थ वसंत सम्पात- 21 मार्च से सूर्य की स्थिति के कारण गर्मी का बढ़ना और शरत सम्पात- 23 सितम्बर से शीत का बढ़ना सुनिश्चित है। इसी प्रकार सूर्य, चंद्रमा तथा अन्य ग्रहों की दिन-प्रति-दिन की स्थिति के कारण ऋतु में क्या-क्या परिवर्तन होंगे, इसे बतलाया जा सकता है। किन्तु गणितीय आधार पर मौसम की पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती क्योंकि उनसे मौसम सम्बन्धी जो तथ्य प्राप्त होंगे वे पूरे विश्व के लिए होंगे और भूमण्डल के औसत मौसम के सूचक होंगे। पृथ्वी की बनावट और भिन्न-भिन्न स्थानों पर पृथ्वी में भिन्‍न-भिन्‍न शैलों या धातुओं की विद्यमानता के कारण पृथ्वी पर हर स्थान के मौसम में भिन्‍नता होगी। अतः गणितीय सिद्धांतों से वर्षा, आंधी आदि का योग सिद्ध होने पर भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उक्त वर्षा किस प्रदेश में होगी। फलतः निश्चित स्थान की जानकारी हेतु ऋतु परीक्षण आवश्यक है। इस तरह जिस भूभाग में गणितीय तथ्यों तथा ऋतु परीक्षण द्वारा दोनों प्रकार से निश्चित योग घटित हों, वहीं निश्चित भविष्यवाणी की जा सकती है।

आगे चलकर भारतीय ऋतु विज्ञान की तीन शाखाएं देखी जाती हैं : . वार्षिक वर्षा ज्ञान के सिद्धांत, 2. मासिक या पाक्षिक वर्षा का ज्ञान तथा 3. दैनिक वर्षा ज्ञान के सिद्धांत।

इस तरह भारतीय ऋतु विज्ञान और आधुनिक मौसम विज्ञान में काफी साम्य है, यद्यपि दोनों के सिद्धांत तथा साधनों में अन्तर है। अतः भारतीय ऋतु विज्ञान तथा आधुनिक मौसम विज्ञान में सामन्जस्य द्वारा मौसम सम्बन्धी अनुसंधान किये जाने की आवश्यकता है।

आधुनिक मौसम विज्ञान में भविष्यवाणी हेतु 6 आधार हैं : 

  • 1. धरातलीय हवाओं की दिशा और वेग का ज्ञान - जिसे विंडवेन तथा एनीमोमीटर से मापते हैं। 
  • 2. बादलों का अध्ययन - जिसे गुब्बारों आदि के द्वारा मापा जाता है। 
  • 3. ताप - इसे तापमापी यंत्र से ज्ञात करते हैं। 
  • 4. आर्द्रता -- इसे आर्द्रतामापी यंत्रों द्वारा ज्ञात करते हैं। 
  • 5. वर्षा --- इसे रेनगेज से मापते हैं। 
  • 6. धूप की तीव्रता का ज्ञान।

यद्यपि भारतीय ऋतु विज्ञान में हवा का वेग मापने का विधान नहीं है किन्तु हवा की दिशा जानने और उसका फल कहने की विधि आधुनिक विधि से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। बादलों का अध्ययन भी हमारे शास्त्रों में काफी विशद है। वर्षा मापने की भी हमारे यहां प्राचीन परंपरा है। पाश्चात्य विज्ञान में जहां केवल ऋतु प्रेक्षण का ही विधान है वहीं हमारे यहां दूसरा विकल्प गणितीय सिद्धांत भी है।

हमारे ऋतु विज्ञान द्वारा छह मास पूर्व की गई भविष्यवाणी का लाभ कृषकों को हो सकता है। चौबीस घंटे के मौसम की भविष्यवाणी उतनी उपयोगी नहीं। भारत कृषि प्रधान देश रहा है अतः महर्षियों ने जो सिद्धांत प्रतिपादित किये, वे कृषकों के हित को ध्यान में रखकर ही प्रतिपादित किये गये थे।

भारतीय ऋतु विज्ञान के जो गणितीय सिद्धांत हैं उनमें ऋतु परीक्षण की आवश्यकता नहीं है। गणित द्वारा सौरमण्डलीय ग्रहों की स्थिति को जानकर कभी भी और किसी भी समय के लिए उनसे भविष्यवाणी की जा सकती है। किंतु केवल गणितीय आधार पर की गई भविष्यवाणी विश्वसनीय नहीं जब तक स्थानीय ऋतु प्रेक्षण से उसकी पुष्टि न हो जाय। भारतीय ऋतु प्रणाली में 4-4 मिनट तक के प्रेक्षण लेने का विधान है जबकि आधुनिक प्रणाली में दो बार (प्रातः एवं सायं) प्रेक्षण लिये जाते हैं।

भारतीय ऋतु विज्ञान के कुछ सिद्धांत जो भारत के अलावा समान अक्षांशों के प्रदेशों में काम दे सकते हैं। प्राय: 90% सिद्धांत विश्व के किसी भी भाग में प्रयोग में लाये जा सकते हैं। इनमें मेघ गर्भ धारण सिद्धांत सर्वोपरि है। भारतीय ऋतु विज्ञान के पुनरुद्धारक आचार्य वराहमिहिर ने प्रेक्षणों को लेने हेतु व्यवस्था की थी (सतर्क ज्योतिषी को चार सहायक नियुक्त करने चाहिए जिनमें प्रत्येक निरीक्षण के लिए आठों दिशाओं में से क्रमशः दो-दो दिशाएं बांट लें क्योंकि उल्कापात की घटनाएं अति शीघ्र होती रहती हैं)।

वैसे आज के युग में भारतीय ऋतु प्रेक्षण का अंशमात्र भी प्रचलन में नहीं है। कुछ ज्योतिषी अद्यावधि वर्षा आदि ऋतु सम्बन्धी भविष्यवाणी करते हैं किंतु वह केवल गणितीय सिद्धांतों पर आधारित होती हैं और मोटे तौर पर देखकर ही भविष्यवाणी कर देते हैं। फिर भी ये भविष्यवाणियां प्रायः सत्य उतरती हैं।

रोचक बात यह है कि संस्कृत में लिखित ऋतु विज्ञान धीरे-धीरे लोक में प्रसारित होता रहा तो उसकी भाषा और शब्दावली बदल गई। 15वीं सदी में घाघ नामक एक मौसम विज्ञानी हुआ जिसकी वर्षा संबंधी कहावतें किसानों की मार्गदर्शिका बनी हुई हैं। मनोरंजनार्थ यहां वर्षा सम्बन्धी कुछ फुटकर सिद्धांत दिए जा रहे हैं 

  • 1. वर्षा ऋतु में शुक्र और चन्द्रमा परस्पर 2800 दूरी पर हों तो वर्षा होती है। 
  • 2. वर्षा ऋतु में शनि और चंद्रमा परस्पर 120 या 190० दूरी पर हों तो वर्षा होती है। 
  • 3. जब कोई ग्रह उदय या अस्त हो रहा हो तो वर्षा होती है। 
  • 4. अमावस्या, पूर्णमासी अथवा संक्रान्ति को वर्षा की सम्भावना होती है। 
  • 5. सूर्य के आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश के समय वर्षा होती है। 
  • 6. शुक्र और बुध एक रेखांश में मिलें तो वर्षा होती है। 
  • 7. तीन या इससे अधिक ग्रह एक साथ अस्त हों तो भारी वर्षा होती है। 
  • 8. सूर्य आगे और मंगल उसके पीछे हो तो उन दिनों यथोचित वर्षा होती है। 
  • 9. शुक्र सूर्य से उत्तर हो तो उन दिनों यथोचित वर्षा होती है।
  • 10. जब बृहस्पति उदय हो या शुक्र अस्त हो तो वर्षा होती है। 
  • 11. श्रावण या आश्विन में बुध का उदय वर्षा का सूचक है। 
  • 12. आषाढ़ में अधिक मास उत्तम वर्षा का सूचक है।

अनावृष्टि के लक्षण

  • 1. मंगल और शनि एक रेखांश पर हों तो आंधी चले, आग लगे किंतु वर्षा न हो। 
  • 2. मंगल आगे और सूर्य पीछे हो तो वर्षा में रुकावट होती है। 
  • 3. अगस्त्य उदय के बाद (सितम्बर) प्रायः वर्षा कम होती है। 
  • 4. चैत्रमास में वर्षा हो जाय तो चातुर्मास में वर्षा कम होवे। 
  • 5. यदि चंद्रमा, मंगल तथा शुक्र तीनों मीन राशि में हों तो वर्षा न हो। 
  • 6. यदि माघ मास में जाड़ा न पड़े, आर्द्रा में वर्षा न हो तो अकाल पड़े। 

इसी तरह सद्योवृष्टि (24 घंटे के अन्दर वर्षा) के लक्षण दिये हुए हैं। यथा -

 

  • *तीतर बोलत रात को धन को लच्छन जान। वर्षा होवे चहुंदिसे सांची बात बखान।।
  •  
  • काले बादल आथ मैं चढ़ती उगे लाल। ता जल इतनी रवि करत सके न भुवि संभाल।।
  • उत्तर चमके बीजुरी, पूरब बहे जु वायु। घाघ कहे सुन भड्डरी वर्षा भीतर लायु।
  • सांझे धनुष सकारे पानी, कहे घाघ सुनु पंडित ज्ञानी। 
  • सुक्रवार की बादरी रहे शनीचर छाय। घाघ कहे सुन घाघनी बिनु बरसे ना जाय।।
  • पश्चिम चमके बिजली उत्तर छूटे वायु। सहादेव कह भाडली एही दुकाल की पाव।।
  • जिस मास में पांच शनिवार हों, उस मास वर्षा कम हो। 
  • मिथुन, कर्क या सिंह में शुक्र हो तो वर्षा कम हो।

ऋतुचक्र क्या है?

पृथ्वी अपनी धुरी पर निरंतर घूमने के साथ-साथ सूर्य का भी चक्कर लगाती है। इसी चक्कर लगाने से पृथ्वी का कोई एक अंश सूर्य के समक्ष आता है तो कभी कोई दूसरा। फलतः ऋतुओं का जन्म होता है, यथा वर्षा ऋतु, ग्रीष्म ऋतु तथा शीत ऋतु। ऋतुओं का आना-जाना ऋतु चक्र का सूचक है। यह चक्र अनन्त काल से चलता आ रहा है किन्तु विगत दो सौ वर्षों से औद्योगीकरण के फलस्वरूप, ऐसा लगने लगा है कि ऋतु चक्र कुछ-कुछ बदल रहा है।

ऋतुचक्र का बदलाव या जलवायु परिवर्तन

यदि ऋतुओं की अवधि में घट-बढ़ हो, यदि उनमें कम जाड़ा या अधिक गर्मी पड़े तो कहा जाएगा कि ऋतु चक्र बदला है या जलवायु परिवर्तन हुआ है। आज चारों ओर वैश्विक तापन की चर्चा है। यह जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है। यह जलवायु परिवर्तन ऐसे परिवर्तन का सूचक है जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध मानव की उन गतिविधियों से है जो वैश्विक वायुमण्डल के संघटन को बदलने में सक्षम हैं।

चूंकि औद्योगीकरण के दौरान जीवाश्म ईंधनों का अत्यधिक मात्रा में उपयोग हुआ है फलतः प्रचुर मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें उत्सर्जित होकर वायुमंडल में मिल गई हैं। इससे पृथ्वी का ताप बढ़ा है। वैश्विक तापन (Global Warming) कहते हैं।

वैश्विक परिदृश्य में परिवर्तन

पृथ्वी के चारों ओर वायुमण्डल है जिसका सबसे निचला भाग, जो पृथ्वी से 8 से 7 किलोमीटर की ऊंचाई तक है, पृथ्वी पर जलवायु की अवस्था को निर्धारित करता है। यदि वायुमण्डल के इस भाग में, जो ट्रोपोस्फियर कहलाता है, कोई परिवर्तन होता है तो पृथ्वी की जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत काल से ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन तथा अन्य विरल गैसें एक निश्चित अनुपात में पाई जाती रही हैं, किंतु औद्योगीकरण के पश्चात्‌ वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा क्रमशः बढ़ती गई जिससे पृथ्वी के ताप में वृद्धि होने लगी।

कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के कुपरिणाम 

जीवाश्म ईधनों के जलाने तथा जंगलों के विनाश से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ी है। यह सान्द्रता 280 पीपीएम से बढ़कर 560 पीपीएम हो सकती है। सम्प्रति वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता वर्ष 2000 के स्तर से काफी अधिक है। अनुमान है कि अगले बीस वर्षों तक वैश्विक तापन से प्रति दस वर्षों में 0.2 डिग्री सेल्सियस ताप वृद्धि होगी। पृथ्वी का औसत तापमान +15 डिग्री सेल्सियस है और पिछले 100 वर्षों में इसमें मात्र +0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। यूनेस्को के इंटर गवर्नमेंट पैनेल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2050 ई. तक पृथ्वी के ताप में 1 से 3 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है।

ताप वृद्धि के क्‍या परिणाम होंगे?

यदि इसी तरह पृथ्वी का ताप बढ़ता रहा तो जलवायु परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ेगा। इससे ग्लेशियर पिघलेंगे, समुद्रों में जलस्तर में वृद्धि (30-100 सेमी.) होगी, जिससे बहुत से तटवर्ती इलाके जलमग्न हो जायेंगे और कृषि प्रभावित होगी। इतना ही नहीं, मलेरिया, डेंगू, कालाजार जैसे रोगों की वृद्धि होगी।

वैश्विक स्तर पर जलवायु के क्‍या परिणाम होंगे?

यदि इसी तरह पृथ्वी का ताप बढ़ता रहा तो उत्तरी अमरीका में गर्म हवाएं चलेंगी, जंगलों में आग लगेगी, ग्लेशियर पूरे वर्ष पिघलेंगे और समुद्रतटीय भागों में बाढ़ें आयेंगी। इसी तरह दक्षिण और मध्य अमरीका में वर्षा कम होगी, जंगल ठीक से कार्बन डाइऑक्साइड का स्वात्मीकरण नहीं कर पायेंगे। अटलांटिक समुद्र तट पर बाढ़ आयेगी, घास के मैदान छिन्‍न-भिन्‍न हो जायेंगे। 

अफ्रीका में जल का अभाव रहेगा। एशिया महाद्वीप में हिमालय के ग्लेशियर पिघलेंगे जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा। बहुत से तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे और कृषि की हालत खराब होगी। ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड में पानी की कमी हो जायेगी, जीव-जन्तु मरेंगे, तटीय क्षेत्रों में झंझावात बढ़ेंगे, ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघलेगी और ग्लेशियर खिसकेंगे।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से बचने के उपाय

यदि बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाय तो कुछ हद तक ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सकता है। किन्तु कुछ देश यह मान कर चल रहे हैं कि ग्लोबल वा्मिंग के विनाशकारी प्रभाव से बचने के अन्य साधन अपनाये जाने की आवश्यकता है। यथा नार्वे ने मार्च 2007 में एक अभियान शुरु किया जिसके अन्तर्गत 30 लाख किस्म के बीजों को बर्फ के काफी भीतर सुरक्षित स्थान में संग्रहीत किया जा सकेगा। बच्चों की त्वचा पर पराबैंगनी किरणों के प्रभाव का अध्ययन चल रहा है। भूजल, समुद्र, वन्य प्राणियों के जीवन और पलायन का भी अध्ययन किया जा रहा है। कुछ देशों ने जंगलों को सुरक्षित रखने और उनको विकसित करने की योजना भी बनाई है। यही नहीं, औद्योगीकरण के बारे में नये सिरे से विचार हो रहा है। जागरूक देशों का मीडिया लोगों को ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से सावधान कर रहा है और उससे बचने के प्रयास के लिए प्रशिक्षण दे रहा है।

सांझा प्रयास आवश्यक

जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए साझे प्रयासों की जरूरत है। विश्व बैंक के एक आकलन के अनुसार पर्यावरण को अब तक हुए नुकसान को यदि पलटना है तो दुनिया को अपने आर्थिक विकास दर का 5% प्रदूषण-मुक्त तकनीकों और संरक्षण प्रयासों के नाम करना होगा।

आजकल विकसित देश अपने यहां कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम न करके अपना धन विकासशील देशों की परियोजनाओं में लगाते हैं। इस तरह विकासशील देशों में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में जो कमी होती है, वह उस देश के खाते में जायेगी जिसने परियोजना में धन लगाया। इस तरह विकसित देश धन के बलबूते पर अपने यहां का उत्सर्जन कम किये बिना ही इसका लाभ ले रहे हैं।

वैसे भारत कुल कार्बन डाइऑक्साइड का 4% उत्सर्जित करता है जबकि अमरीका 25%। अच्छा होगा कि विकसित देशों पर कार्बन टैक्स लगाया जाय। विकासशील देश इसी बात से आशंकित हैं कि कहीं प्रदूषणमुक्त तकनीकों के नाम पर 'टेक ऑफ' कर रही उनकी अर्थ व्यवस्थाओं के पर न कतर दिये जायें। संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित आईपीसीसी की रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि पर्यावरण के बदलते स्वरूप की सबसे बड़ी कीमत एशिया और अफ्रीका की उस आबादी को चुकानी होगी जो पहले ही अपना जीवन बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। 

यदि धरती को बचाना है तो वायुमंडल में पहुंच रही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को वर्ष 2050 तक आधा करना होगा। जीवाश्म ईंधन का प्रयोग बन्द करके गैर-पारंपरिक ऊर्जा साधनों का दोहन करना होगा और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना होगा।

ग्लोबल वार्मिंग से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले देशों में भारत भी है। इससे देश की जीवनदायिनी नदी गंगा के लुप्त हो जाने का खतरा है। यही नहीं, 2030 तक ज्यादातर हिमालयी ग्लेशियर पिघल जाने से निचले इलाके डूब सकते हैं और 2050 तक 20 करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है। बंगाल की खाड़ी में सम्पन्न अध्ययनों से पता चला है कि यहां समुद्र का स्तर प्रतिवर्ष 3.4 मिमी. बढ़ रहा है जबकि विश्व में इसका औसत 2.2 मिमी. है। यह भयावह स्थिति है।

जलवायु परिवर्तन से देश का चतुर्दिक विकास प्रभावित हो सकता है अतः ऐसे सारे उपायों को अपनाने की आवश्यकता है जिनसे जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित किया जा सके। इसी में हमारी दूरदर्शिता होगी।

( डा. शिवगोपाल मिश्र, प्रधानमंत्री, विज्ञान परिषद्‌, प्रयाग, महर्षि दयानन्द मार्ग, इलाहाबाद - 211 002 (उ.प्र.))