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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'बागमती की सद्गति' से
सुनते हैं कि जब 2002 में भारत की नदी जोड़ योजना पर बहस तेज हुई और भारत के प्रबुद्ध वर्ग ने उसकी संभाव्यता पर सवाल खड़ा करना शुरू किया तब नेशनल वाटर डेवलपमेन्ट एजेन्सी ने नदी जोड़ योजना के विकल्पों की तलाश शुरू की और ऐसे छः प्रस्तावों को चुना जिनमें इस ‘अपनी गंगा’ का पहला स्थान था। अगर सबसे अच्छे प्रस्ताव की स्थिति यह है तो बाकी प्रस्तावों का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
इस योजना के जनक तमिलनाडु के एक इंजीनियर हैं जिनका प्रस्ताव है कि समुद्र तल से 500 मीटर की ऊँचाई पर जम्मू से लेकर मेघालय तक एक ऐसा बांध बनाया जाए जिसमें हिमालय से आने वाली सारी नदियों के पानी को इस बांध के पीछे बने जलाशय में रोक लिया जाए। इस बांध के समानांतर एक नहर बनायी जाए जिसको बांध से जोड़ कर उसमें पानी की आपूर्ति की जाए। उस हालत में इस नहर से जम्मू से लेकर मेघालय तक नौ परिवहन की व्यवस्था हो जायेगी। नदियों के अधिकांश पानी को रोक लिए जाने के कारण बाढ़ नहीं आयेगी और पानी रहने से सिंचाई की व्यवस्था तो अपने आप हो जायेगी। दिक्कत सिर्फ एक ही जगह है जिसकी ओर माननीय इंजिनियर का ध्यान नहीं गया वह यह कि उत्तराखंड से लेकर मेघालय के बीच की जमीन लगभग सपाट है और 500 मीटर ऊँचाई पर बांध बनाने के लिए नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र का इस्तेमाल करना पड़ेगा। इतना करने के बाद यह बांध और उसके पीछे पश्चिम से पूरब तक नदियों का अटका हुआ सारा पानी न सिर्फ नेपाल के एक बड़े हिस्से को डुबायेगा वरन् उसे दो भागों में बांट भी देगा। नेपाल को जहाँ नुनथर और शीसापानी जैसे छोटे बांधों पर निर्णय लेने में साठ साल का समय कम पड़ता है तो उससे यह उम्मीद करना कि वह अपने देश की पूरी लम्बाई में बांध बनाने देने के लिए राजी होगा, कतई मुमकिन नहीं है।फिर भी इस तरह की योजना का प्रस्ताव देने वाले तो मौजूद हैं ही, उसकी संभावनाओं पर विचार करने वाले नेताओं की भी कमी नहीं है। सुनते हैं कि जब 2002 में भारत की नदी जोड़ योजना पर बहस तेज हुई और भारत के प्रबुद्ध वर्ग ने उसकी संभाव्यता पर सवाल खड़ा करना शुरू किया तब नेशनल वाटर डेवलपमेन्ट एजेन्सी ने नदी जोड़ योजना के विकल्पों की तलाश शुरू की और ऐसे छः प्रस्तावों को चुना जिनमें इस ‘अपनी गंगा’ का पहला स्थान था। अगर सबसे अच्छे प्रस्ताव की स्थिति यह है तो बाकी प्रस्तावों का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
इस तरह के प्रस्तावों का क्रियान्वयन तभी हो सकता है जब देशों के बीच राजनैतिक और भौगोलिक सीमाएं न हों, बांध और जलाशय के क्षेत्र में कोई रहता न हो, निर्माणकर्ता के पास बर्बाद करने के लिए अकूत संपत्ति हो और उसको कोई रोकने या समझाने वाला भी न बचा हो।