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गांधी मार्ग, नवंबर-दिसम्बर 2008
कोई 250 बरस पहले अंग्रेजी लेखक जॉनाथन स्विफ्ट ने एक कहानी लिखी थी ‘गुलिवर्स ट्रेवल्स’। तब से अब तक इसके अनगिनत अनुवाद हुए हैं। इस सुंदर कथा के एक प्रसंग में एक ऐसे साधारण आदमी को बड़े से बड़े राजा, महाराजा से भी बड़ा बताया गया है जो फसल की एक बाली को, घास के एक तिनके को दो बालियों, दो तिनकों में बदल दे। लगता है बाद में कृषि वैज्ञानिकों ने इसी कहानी को पढ़कर सभी तरह की फसलें दुगुनी करने के तरीके खोज निकाले। ‘वन स्ट्रा’ एक बाली को किसी भी कीमत पर टु स्ट्रा, दो बाली में बदलने की कोशिश होती चली गई। कीमत सचमुच कुछ भी होः जमीन बर्बाद हो जाए, पानी जहरीला हो जाए, हरित क्रांति के कारण परंपरागत फसलें मर जाएं, लोग हरित फसल के विपुल लेकिन मंहगे उत्पादन के ढेर से एक मुट्ठी भर अनाज न खरीद पाएं, वे भूखों मर जाएं-हर कीमत पर एक की दो बाली करना इस समय की आधुनिक खेती का एकमात्र सिद्धांत बन गया है। ऐसे में फिर से एक बाली की ओर ‘लौटने’ की बात भला कौन कर सकता था? पर यह सौभाग्य है कि एक बाली की बात की जाने लगी। जापान के किसान मासानोबु फुकोका ने कोई 25 बरस पहले प्राकृतिक खेती के प्रयोगों से कई लोगों को इस सारे मामले पर फिर से सोचने के लिए प्रेरित किया। उनके प्रयोगों व अनुभवों का वर्णन करने वाली उनकी पुस्तक ‘वन स्ट्रा रिवोल्यूशन’ का भी गुलिवर्स ट्रेवल्स की तरह अनेक भाषाओं में अनुवाद होता चला गया। पिछले दिनों इस अद्भुत विचारक का देहांत हुआ। उन पर गांधी-मार्ग में ही कोई 21 वर्ष पहले लिखा लेख प्रस्तुत है।
दक्षिण जापान के शिकोकु द्वीप में एक छोटे-से गांव के पास श्री मासानोबु फुकोका पिछले अनेक सालों से एक नए तरीके से खेती करने के प्रयोग में लगे हैं। इसे वे प्राकृतिक खेती कहते हैं। हमारे देश में प्राचीन काल में प्रचलित ऋषि खेती से भी कुछ मामलों में यह भिन्न है। जमीन को खराब करने वाली आधुनिक खेती से तो यह बिलकुल उलटी है। प्राकृतिक खेती में न किसी यंत्र की जरूरत है, न रासायनिकों की, निराई की भी बहुत कम जरूरत पड़ती है। श्री फुकोका जमीन की जुताई भी नहीं करते, न बनी बनाई कम्पोस्ट खाद का इस्तेमाल करते हैं। धान की खेती में दुनिया भर में शुरू से आखिर तक खेतों में पानी जमा रखने की रिवाज है, पर श्री फुकोका ऐसा भी नहीं करते। पिछले पच्चीस-तीस साल से उनकी खेती अनजुती चली आ रही है। फिर भी अत्यधिक उपजाऊ जापानी खेतों की बराबरी कर रही है। खेती की उनकी पद्धति में मेहनत भी कम लगती है। उससे न प्रदूषण होता है, और न बिजली, पेट्रोल, डीजल जैसी की ही उन्हें गरज है।
श्री फुकोका के इलाके में धान की पैदावार ज्यादा होती है। वैसे जापान में दूसरे विश्व युद्ध के पहले तक भी धान की जो परंपरागत खेती होती रही है, वह रासायनिक खेती की तुलना में बिलकुल निर्दोष और जमीन के लिए अधिक स्वास्थ्यकर रही है, तथा श्री फुकोका उसके गुणों और विशेषताओं से अनभिज्ञ नहीं हैं। फिर भी उनका कहना है कि परंपरागत ढंग की खेती में हम लोग ऐसी अनेक क्रियाएं करते हैं, जो अनावश्यक हैं। वे अपनी पद्धति को ‘कुछ न करने’ की खेती कहते हैं। उनका कहना है कि कम-से-कम समय देकर भी एक व्यक्ति पूरे परिवार के लायक अनाज पैदा कर सकता है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि इस पद्धति में किसान आलसी बन जाए। बड़ी व्यवस्थित योजना के अनुसार खेती की देखभाल करनी होती है। जो भी करना है, वह पूरी संवेदना के साथ निश्चित रूप से करना है। एक बार तय कर लिया कि इस जमीन में से धान या फल-सब्जी पैदा करना है तो उसके लिए पूरी देख-रेख की जिम्मेदारी भी निभानी होगी। प्रकृति को छेड़ दें और फिर उसकी लापरवाही करें- यह बिलकुल गैर-जिम्मेदारी होगी और हानिकारक भी ।
वे करते क्या हैं? पतझड़ के मौसम में वे धान, सफेद घास और जाड़े, रबी के अनाज (जिसमें गेहूं, जौ आदि शामिल हैं।) के बीज एक साथ बो देते हैं और उन्हें धान के पुआल की मोटी परत से ढंक देते हैं। जौ और घास के पौधे जल्दी उग आते हैं और बसंत तक धान के बीज पड़े रहते हैं।
प्राकृतिक, पारंपरिक तथा रासायनिक तीनों पद्धतियों में पैदावार यदि बराबर भी हो तो भी मिट्टी पर होने वाले असर में भारी अंतर है। फुकोका की पद्धति से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति हर फसल के बाद बढ़ती चलती है। पिछले पचीस सालों में, जब से उन्होंने जोतना बंद किया, उनकी जमीन का उपजाऊपन, मिट्टी की रचना और पानी को धारण करके रखने की उसकी शक्ति-तीनों में काफी वृद्धि हुई है।जब तक जाड़े के अनाज निचले खेतों में पकते रहते हैं तब तक पहाड़ के बगीचों में काम चलता रहता है। नवंबर से अप्रैल तक फलों की फसल काटी जाती है। मई में जौ और घास की कटाई करके उसे आठ-दस दिन खेतों में ही सूखने के लिए फैला देते हैं। फिर गहा कर भंडारण कर लेते हैं। सारा पुआल घास-पात की तरह फैला देते हैं। इसके बाद जून में जब बारिश होती है तो खेतों में कुछ समय के लिए बारिश के पानी को रोक लेते हैं ताकि खेत में उगी घास-पात कमजोर पड़े और उसके नीचे धान फूट सके। खेत के सूखते ही धान के नीचे फिर घास निकल आती है। आम किसान को इस समय निराई का बड़ा काम करना पड़ता है, लेकिन फुकोका तो केवल पानी निकालने में और खेतों के बीच की मेंड़ साफ करने में लगे रहते हैं।
धान की कटाई अक्टूबर में होती है। फसल को रस्सी पर लटका कर सूखाते हैं और फिर गहाते हैं। इनके यहां चौथाई एकड़ में लगभग 600 किलो तक धान पैदा होता है। आम तौर पर रासायनिक तथा पारंपरिक खेती की पैदावार की मात्रा भी यही होती है। बल्कि जाड़ों की फसलों की पैदावार फुकोका की खेती में दूसरे से ज्यादा ही होती है।
प्राकृतिक, पारंपरिक तथा रासायनिक तीनों पद्धतियों में पैदावार यदि बराबर भी हो तो भी मिट्टी पर होने वाले असर में भारी अंतर है। फुकोका की पद्धति से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति हर फसल के बाद बढ़ती चलती है। पिछले पचीस सालों में, जब से उन्होंने जोतना बंद किया, उनकी जमीन का उपजाऊपन, मिट्टी की रचना और पानी को धारण करके रखने की उसकी शक्ति-तीनों में काफी वृद्धि हुई है। परंपरागत तरीके से मिट्टी का गुण एक-सा बना रहता है। किसान जिस मात्रा में कंपोस्ट डालता है, उस अनुपात में फसल ले सकता है।
रासायनिक खेती से मिट्टी कमजोर और अनुपजाऊ होती जाती है और जल्दी ही उसकी प्राकृतिक ऊर्वरता खत्म हो जाती है। उसे थामे रखने के लिए और ज्यादा महंगी खाद डालनी पड़ती है।
श्री फुकोका की पद्धति की एक सुविधा यह है कि इसमें शुरू से आखिर तक धान के खेतों में पानी भरकर रखना नहीं पड़ता। खेती के कई जानकारों को यह बिल्कुल असंभव लगता है। पर यह संभव है। श्री फुकोका कहते हैं कि इससे धान की पैदावार ज्यादा अच्छी होती है। उनके धान के डंठल ज्यादा मजबूत होते हैं, उनकी जड़े गहरी होती हैं। धान के पुराने बीज से ही उनके खेत में एक-एक बाली में 250 से 300 तक दाने लगते हैं।
आजकल खेतों में और बागों में रोगों और कीड़ों की भरमार हो चली है। हमारे आधुनिक खेत तो युद्धभूमि में बदल गए हैं। दिन-रात जहरीली दवाएं छिड़की जाती हैं। कीड़े तो मरते हैं कि नहीं, पर इस जहर ने अब हमको ही मारना शुरू कर दिया है।घास-पात के कारण मिट्टी में जल-धारण-क्षमता बढ़ती है। कई इलाकों में तो प्राकृतिक खेती में सिंचाई की जरूरत ही नहीं रहती। इसलिए, जहां पहले से धान पैदा ही नहीं होता था, वहां भी धान और दूसरी फसलें उगाई जा सकती हैं। खड़ी ढलान वाली पड़ती जमीन को भी, बिना भूक्षरण के उत्पादक बनाया जा सकता है। लापरवाही भरी पद्धतियों और रासायनिक ऊर्वरकों के कारण बिगड़ी जमीन को भी प्रातृतिक खेती की पद्धति से सुधारा जा सकता है।
आजकल खेतों में और बागों में रोगों और कीड़ों की भरमार हो चली है। हमारे आधुनिक खेत तो युद्धभूमि में बदल गए हैं। दिन-रात जहरीली दवाएं छिड़की जाती हैं। कीड़े तो मरते हैं कि नहीं, पर इस जहर ने अब हमकों ही मारना शुरू कर दिया है। फुकोका के खेतों में भी कीड़े हैं, लेकिन उनसे फसल को कोई क्षति नहीं पहुंचती। क्षति तो कमजोर फसल को पहुंचती है। श्री फुकोका जोर देकर कहते हैं कि रोगों और कीड़ों को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है स्वस्थ वातावरण में खेती करना।
श्री फुकोका के बगीचों में फलदार वृक्षों की छटाई नहीं की जाती। फल तोड़ने में आसानी के लिए लोग ऊपर की टहनियों को छांटकर पेड़ों को चौड़ाई में फैलाया करते हैं। श्री फुकोका पेड़ों को प्राकृतिक ढंग से, स्वच्छंद बढ़ने देते हैं। बिना किसी तैयारी के पहाड़ी ढलानों पर सब्जी पैदा करते हैं। हां, शुरू-शुरू में घास-पात को काटना पड़ता है, पर सब्जी के पौधों के जमने के बाद उन्हें फिर छेड़ते नहीं, प्राकृतिक रूप से बढ़ने देते हैं। कुछ सब्जियों को बिना काटे छोड़ देते हैं, उनके बीज खेत में ही गिरते हैं, फिर उगते हैं। इस तरह दो-तीन बार उगने से उनमें, पहले का कसेलापन कम हो जाता है और उनके बढ़ने के स्वभाव में भी बदलाव होने लगता है।
श्री फुकोका का जीवन बड़ा सादा है। उनके पास लोग आते हैं, उनके प्रयोगों को देखते हैं और उनके साथ भी रहते हैं। उनके यहां कोई आधुनिक सुविधा नहीं है। पानी पास के झरने से बाल्टी भर कर लाना होता है। रोशनी के लिए लालटेन काम में लेते हैं। उस पहाड़ी इलाके में कई तरह के कंद और साग-सब्जी मिलती है। पास के तालाबों और नदियों से मछली ला सकते हैं। कुछ मील दूर समुद्र से समुद्री सब्जी भी लाते हैं।
मौसम और जलवायु के अनुसार उनके काम बदलते रहते हैं। आमतौर पर सुबह आठ बजे काम शुरू करते हैं और अंधेरे से पहले खेतों से लौट आते हैं। खेती के अलावा पानी लाना, ईंधन के लिए लकड़ी काटना, खाना पकाना, नहाना-धोना, बकरी चराना, मुर्गी और चूजों की देखभाल, अंडा बटोरना, शहद की मक्खी के छत्तों की देखभाल, झोपड़ी दुरुस्त करना या नई बनाना और सोयाबीन से दही आदि बनाना, वगैरह अनेक काम वे लोग करते हैं।
उनके खर्च के लिए फुकोका प्रति व्यक्ति महीना 10,000 येन (लगभग 400 रुपए) देते हैं, बाकी सारा खर्च उन्हें अपनी पैदावार में से निकालना होता है। इस तरह का परिश्रम और सादगी भरा जीवन श्री फुकोका ने समझ बूझकर अपनाया है, क्योंकि वे मानते हैं इस जीवन शैली से संवेदनशीलता बढ़ती है जो प्राकृतिक पद्धति की इस कृषि के लिए बहुत जरूरी है।
श्री फुकोका बचपन में ही आधुनिक खेती की पढ़ाई पढ़ने, माइक्रो बायोलाजिस्ट बनने के लिए गांव छोड़कर योकोहामा शहर चले गए थे। पौधों के रोगों के विशेषज्ञ के रूप में कुछ साल काम किया, एक प्रयोगशाला में खेती के कस्टम इंस्पेक्टर के रूप में कुछ समय तक रहे। उस दौरान ही 25 साल की उम्र के फुकोका में भारी परिवर्तन आया और इस प्राकृतिक कृषि-क्रांति की नींव पड़ी। वे काम छोड़कर अपने गांव चले आए और तब से इसी काम में लगे हैं।
फुकोका ने शुरू-शुरू में अपनी पद्धति के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में अनेक लेख लिखे। रेडियो और टी.वी. से उनके कई साक्षात्कार प्रसारित हुए। पर उनका तरीका अपनाने के लिए कोई आगे नहीं आया। यह वह समय था जब जापान बड़ी तेजी और मजबूती से बिलकुल उलटी दिशा में दौड़ने की तैयारी में था।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान में अमेरिका ने आधुनिक रासायनिक खेती की नींव डाली। इससे परंपरागत पद्धति के बराबर ही उपज आने लगी, लेकिन श्रम आधे से भी कम लगने लगा। समय भी काफी बचने लगा। लोग खुश हो गए। फिर तो रासायनिक खेती के पीछे सारा जापान दौड़ने लगा।
फुकोका की सबसे बड़ी देन हैः खेती में तेजी से फैल रही हिंसा को रोकने के लिए सत्याग्रह का एक और दर्शन। दो बाली से वापस फिर से एक बाली की यह यात्रा एक क्रांति ही है। पिछले चालीस सालों से श्री फुकोका, बड़े दुख के साथ देखते आए हैं कि रासायनिक खेती के कारण जापान की जमीन और जापानी समाज किस कदर बिगड़ता चला गया है। जापानी लोग आंख मूंदकर आर्थिक और औद्योगिक विकास की अमेरिकी पद्धति पर तेजी से चलने लगे हैं। खेतिहर लोग गांव छोड़कर शहरी औद्योगिक केन्द्रों में जमा हो गए हैं। फुकोका ने देखा कि वे जिस गांव में पैदा हुए और जहां पिछले 1400 सालों से उनके पुरखे रहते आए थे, वह अब मात्सुयामा शहर का एक उपनगर बनने की स्थिति में आ गया है। फुकोका के खेतों से राजमार्ग निकलता है और सारे खेत टूटी-फूटी बोतलों और तरह-तरह के कचरे से पट रहे हैं।
यद्यपि श्री फुकोका अपनी इस विचारधारा को किसी धर्म या धार्मिक संगठन के साथ जोड़ते नहीं हैं, फिर भी उनके अनेक पारिभाषिक शब्द और अपनी बात समझाने की उनकी शैली ‘जेन’ बौद्ध मत से प्रभावित लगती है। कभी-कभी बाईबल का भी वे उद्धरण देते हैं और अपनी बात समर्थन में जूडो-क्रिश्चियन दर्शन और ईश्वरवाद का भी सहारा लेते हैं।
श्री फुकोका का मानना है कि प्राकृतिक खेती व्यक्ति के स्वस्थ अध्यात्म में से जनम लेती है। उनके विचारों में धरती का काम करना और मानव-आत्मा को शुद्ध करना दोनों एक ही प्रक्रिया है। इसलिए वे अमुक एक खास तरह की जीवन शैली और ऋषि-पद्धति की सिफारिश करते हैं जिससे यह प्रक्रिया विकसित हो सकती है।
विश्वास नहीं होता कि श्री फुकोका को अपने जीवन काल में ही, आज की इतनी विरोधी परिस्थितियों के बावजूद अपने विचारों को प्रत्यक्ष व्यवहार में उतारने में इतनी कामयाबी मिली है। 35 साल बीत गए, पर अब भी उनके विचारों में निरंतर विकास हो रहा है। लोग मानते हैं कि फुकोका की सबसे बड़ी देन हैः खेती में तेजी से फैल रही हिंसा को रोकने के लिए सत्याग्रह का एक और दर्शन। दो बाली से वापस फिर से एक बाली की यह यात्रा एक क्रांति ही है।
आज रासायनिक खेती के कारण धरती पर आगे चलकर घोर विपदा आ सकती है, यह बात लोगों की समझ में आने लगी है। इसलिए वैकल्पिक खेती की तलाश बढ़ने लगी है। श्री फुकोका आज जापान में इस विषय के एक प्रमुख प्रवक्ता साबित हो रहे हैं। 1975 में ‘द वन स्ट्रा रिसोल्यूशन’ पुस्तक के पहली बार प्रकाशित होने के बाद तो जापान इस प्राकृतिक खेती की ओर विशेष आकर्षित हो चला है।
इस पुस्तक की भूमिका में श्री वेंडेल बेरी ने ठीक ही लिखा है कि इस प्राकृतिक खेती का उद्गम विश्व भर के मानवों और मानवता के प्रति आदर में से हुआ है। मनुष्य का वही काम सर्वोत्तम है जो मानवता के भले के लिए किया जाता है, अधिक उत्पादन या क्षमता में बढ़ोत्तरी नहीं जो कि औद्योगिक खेती का एकमात्र लक्ष्य है। श्री फुकोका कहते हैं कि खेती का अंतिम लक्ष्य अन्न पैदा करना नहीं, मानव का उत्कर्ष और पूर्णता है। जो खेती पूर्ण है वह पूर्ण मानव को, उसके शरीर और आत्मा दोनों को पुष्ट करती है। मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता है।
यह पुस्तक जापान के संदर्भ में लिखी गई है, लेकिन इसमें उठाए गए मुद्दे सारे संसार पर लागू होते हैं। एक बाली की क्रांति के अपने अनूठे प्रयोग के विस्तृत वर्णन के अलावा लेखक ने मशीनी खेती, रासायनिक खाद, पर्यावरण प्रदूषण, फसलों और फलों का रासायनिक उपचार, चमकीली और गैर मौसमी वस्तुओं के लिए लोगों की ललक, व्यापार-प्रधान खेती, विदेशी नकल, विदेशी मुद्रा के लिए खेती के चक्र और फसलों के चयन पर सरकार का दबाव, प्रकृति के बारे में मानव की अब तक की समझ की सीमा आदि अनेक विषयों का संक्षिप्त, लेकिन सुंदर विवेचन किया है। इस पुस्तक को पढ़ते समय उपन्यास का-सा आनंद आता है। कई देशों के किसानों और विशेषज्ञों को सचेत करने में यह पुस्तक बहुत उपयोगी साबित हुई है।