नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में रस्सी और बाँस की किमचि से नापकर एक-एक फुट की दूरी पर एक-एक मुट्ठी साधारण केचुआ खाद रख दी। फिर उसी खेत की 5-7 तगारी छनी हुई मिट्टी और उतना ही गोबर लेकर उसमें एक किलो मुंडा पिस्सी गेहूँ का बीज, ढाई-ढाई सौ ग्राम मेथी, चना, सरसों, तिल का बीज समान रूप से मिलाया और उसमें गोमूत्र मिलाकर सबको आटे की तरह गूथ लिया फिर उसकी छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर केचुआ खाद पर रख दीं। उसके ऊपर फिर एक-एक मुट्ठी केचुआ खाद रखकर ऊपर सूखा चारा रखा। गेहूँ हमारी महत्त्वपूर्ण रबी की फसल है। पंजाब और हरियाणा में सिंचित गेहूँ फसल का रिकॉर्ड उत्पादन लिया जाता है। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार सर्वोत्तम गेहूँ मध्य प्रदेश में होता है। हमारे देश में सन 60 के दशक में हरित क्रान्ति की शुरुआत भी गेहूँ से ही हुई थी। अन्तररराष्ट्रीय नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉ. नार्मन बोरलाग ने मैक्सिकन जाति के बौने गेहूँ के बीज यहाँ बोए थे। गेहूँ की बढ़ती उत्पादकता ने रासायनिक उर्वरक, खरपतवार नाशक दवाइयों और सिंचाई साधनों की खपत भी बढ़ा दी।
इस कारण अधिक पैदावार लेकर भी किसानों का लाभप्रद खेती का गणित गड़बड़ा गया। पर्यावरण प्रदूषित हुआ, वह अलग। ऐसे गेहूँ की बोनी से छोटी जोत के किसान वैसे भी वंचित ही रहे। इसलिये सबको पुसा सकने वाली खेती के लिये कम लागत वाली गेहूँ की खेती की दरकार थी। इस पर देश में कई सफल प्रयोग हुए हैं।
कोल्हापुर के दिवंगत कृषि वैज्ञानिक दाभोलकरजी की यह सीख कि सोचो, करो, देखो और सीखो तथा प्राकृतिक खेती के पुरोधा जापान के वयोवृद्ध वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओका की शून्य जुताई से प्रेरणा पाकर गत वर्ष रबी के मौसम में अपने खेत पर मैंने भी गेहूँ पर प्रयोग किया। वर्षा में नाम मात्र सोयाबीन की फसल मैंने ली थी। मगर खेत से सोयाबीन काटकर उसके अवशेष वहीं डाल दिये थे।
पहले तो नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में रस्सी और बाँस की किमचि से नापकर एक-एक फुट की दूरी पर एक-एक मुट्ठी साधारण केचुआ खाद रख दी। फिर उसी खेत की 5-7 तगारी छनी हुई मिट्टी और उतना ही गोबर लेकर उसमें एक किलो मुंडा पिस्सी गेहूँ का बीज, ढाई-ढाई सौ ग्राम मेथी, चना, सरसों, तिल का बीज समान रूप से मिलाया और उसमें गोमूत्र मिलाकर सबको आटे की तरह गूथ लिया फिर उसकी छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर केचुआ खाद पर रख दीं।
उसके ऊपर फिर एक-एक मुट्ठी केचुआ खाद रखकर ऊपर सूखा चारा रखा। बाद में झारे से हल्की सिंचाई कर दी। दस दिन बाद 10 लीटर पानी में एक किलो गोबर, एक लीटर गोमूत्र, पचास ग्राम काला गुड़ तीन दिन तक सड़ाया। फिर उसमें सौ लीटर पानी डालकर घोल तैयार किया और अंकुरित बीजों पर डाल दिया। 15-20 दिनों बाद फिर झारे से सिंचाई कर दी। एक माह बाद फिर गोबर, गोमूत्र का छिड़काव कर दिया और 5-6 दिनों बाद पाईप से सिंचाई की।
इस प्रयोग के लिये गेहूँ का ‘मुंडा पिस्सी’ नाम की लगभग लुप्त जाति का बीज उपयोग में लिया गया था। वैसे पिस्सी मालवा क्षेत्र में गेहूँ की पुरानी प्रजाति है। मगर अक्सर इस पर गेरूए की बीमारी आने से और फिर मैक्सिकन जाति का प्रचलन प्रारम्भ होने से यह लुप्त प्रायः हो गई थी। आमतौर पर यह देखा गया है कि जिन फसलों की रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता अधिक होती है, उन्हीं पर कीट और रोग अधिक लगते हैं। इसलिये लगा कि जैविक पद्धति से गेहूँ बोने पर रोग की गुंजाईश कम होगी।
‘मुंडा पिस्सी’ जाति का बीज पुराने दुर्लभ देसी बीजों का संरक्षण करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और वैज्ञानिक जेकब नेल्लीथानम ने 3 साल पहले मुझे दिया था। वह भी बस 5 किलो। उस बीज से मैंने धीरे-धीरे 10 क्विंटल बीज पैदा कर लिया था। इस गेहूँ के आटे से बनी रोटियाँ नरम, स्वादिष्ट और पचने में हल्की होती हैं। दूसरा इसका आटा फूलता भी खूब है। इसकी बालियों में रेशे भी नहीं होते हैं।
फसल जब एक बिलास (लगभग 9-10 इंच) ऊँची हो गई उस वक्त, अधिकतर स्थानों पर गेहूँ का अंकुरण रखकर कहीं-कहीं मेथी, कहीं सरसों, कहीं चने के पौधे रहने दिये, बाकी सब उखाड़कर वहीं खेत में डाल दिये। गेहूँ में जमकर फुटाव आया। एक-एक बिन्दु पर कम-से-कम बारह और अधिक-से-अधिक पैंतालीस कल्ले फूटे। पड़ोस में एक किसान ने लोकवन गेहूँ रासायनिक खाद के साथ डाला था। उसकी जड़ें कमजोर थीं और फुटाव 4-5 से ज्यादा नहीं थे। मेरे खेत में गेहूँ जब दाने पर आया तब आखिरी सिंचाई दो झारे से और दो नालियों से यानि कुल चार सिंचाई की गई।
गेहूँ में जब बालियाँ फूटीं तो उसकी सुडौलता देखते ही बनती थी। आस-पास के किसान हैरत में थे कि शायद मैंने गेहूँ का कोई विदेशी बीज बोया है या न जाने कौन-सा चमत्कारी फसल टॉनिक छिड़का है। मेरी फसल का मुआयाना करने सबसे पहले प्राकृतिक खेती के विशेषज्ञ श्री दीपक सचदे आये। इन्हीं के मार्गदर्शन में मैंने मसाला मिट्टी बनाना और शून्य जुताई का प्रयोग सीखा था। वे फसल देखकर बेहद प्रसन्न हुए। उनके अलावा सामाजिक कार्यकर्ता कुट्टी मेनन, कृषि महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. वी.एन. श्रॉफ सहित अनेक कृषि विशेषज्ञों ने भी फसल देखी और दाने गिनकर अन्दाज लगाया कि पाँच-छह क्विंटल गेहूँ आना चाहिए।
मुंडा पिस्सी बीज के साथ-साथ थोड़ा लोकवन का मिश्रण भी था, मगर उसकी अलग कटाई और तुलाई की गई। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में जब कटाई हुई तब मुंडा पिस्सी गेहूँ 515 किलो, लोकवन 45 किलो और सरसों 42 किलो निकली। मेथी और चना नहीं के बराबर निकले।
यह मेरा पहला मौका था। इसलिये कुछ गलतियाँ भी हुईं। जैसे लोग ज्यादा लगे। एक सिंचाई ज्यादा करनी पड़ी। जो केचुआ खाद खेत में डाला गया था, वह छनने के बाद निकला कचरा था। यदि अच्छी किस्म का केचुआ खाद डाला जाता तो और भी अधिक उत्पादन मिलता। मगर इस शून्य जुताई प्रयोग से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। बीज की अच्छी बचत हुई। एक एकड़ में 38 किलो बीज की बचत मायने रखती है। गोबर, मिट्टी, गोमूत्र की गोलियाँ बनाने की विधि इतनी सरल है कि आप घर के सभी सदस्यों को भी बिठाकर काम पर लगा सकते हैं। खेत नहीं जोतने से भूमि में समाया हुआ कर्ब फसल उत्पादन बढ़ाने के काम आया। एक बार भी निंदाई नहीं करनी पड़ी और न डोरा चलाना पड़ा।
यह पूछा जा सकता है कि शून्य जोत में बैल बेकार हो गए तो कैसे काम चलेगा। बैलों से वाहन, गहाई और बिजली उत्पादन का काम करवाया जा सकता है। कानपुर की गौशाला में एक बैल से जनरेटर चलाकर बिजली पैदा की जाती है। इसके अलावा गाय बैलों का गोबर और गोमूत्र तो काम का है ही।
विशेष उल्लेखनीय यह है कि सिवाय मजदूरी के और दो सिंचाई के कुछ भी अतिरिक्त पैसा नहीं लगा। यह प्रयोग छोटी जोत के किसानों के लिये वरदान सिद्ध हो सकता है। कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विभाग को मुंडा पिस्सी गेहूँ का संवर्धन करना चाहिए। वैसे शून्य जुताई वाली इस अलौकिक गेहूँँ की खेती ने मुझे जो आनन्द दिया, उसका शब्दों में वर्णन करना सम्भव नहीं है।
आधुनिक कृषि विज्ञान की पढ़ाई और फिर उसी तरह के कृषि व्यवसाय वाली कम्पनियों में काम करने के बाद श्री अरुण डिके प्राकृतिक खेती के अलौकिक लोक में सचमुच तन, मन और धन से रम गए हैं।