एक नयी दुनिया की खोज

Submitted by Hindi on Wed, 10/05/2011 - 11:07
Source
अनुवादः अरविन्द गुप्ता, सेंटर फॉर इंनवायरोनमेंट एडयूकेशन

कार्तिकेय वी साराभाई

अहमदाबाद से अपनी बुनियादी शिक्षा पूरी करने के बाद कार्तिकेय वी साराभाई ने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड से प्राकृतिक विज्ञान में ट्राईपोस की उपाधि प्राप्त की और पोस्ट ग्रैजुएट पढ़ाई एमआईटी, अमरीका में की।
कार्तिकेय ने शिक्षा में शुरुआती काम विक्रम साराभाई कम्यूनिटी साइंस सेंटर में किया। उन्होंने 1977 में विकसत (विक्रम साराभाई सेंटर फॉर डेवलपमेंट इंटरएक्शन) और 1979 में सुंदरवन नेचर एडयुकेशन सेंटर की स्थापना की। 80 के दशक की शुरुआत में वो अहमदाबाद में डब्लूडब्लूएफ की शाखा स्थापित करने में कामयाब रहे। कुछ समय पहले तक वो डब्लूडब्लूएफ की उत्तरी गुजरात शाखा के चेयरमैन थे।
कार्तिकेय, सेंटर फॉर इंवारनमेंट एडयुकेशन के स्थापक निदेशक हैं। यह एक राष्ट्रीय केंद्र है जिसे भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय से वित्तीय सहायता मिलती है। यह केंद्र नेहरू फाउंडेशन फॉर डेवलपमेंट से संबंद्ध है। वो आईयूसीएन कमीशन फॉर एडयुकेशन और कम्यूनिकेशन के प्रांतीय चेयरमैन भी हैं।

सत्तर के दशक के शुरू में अगर किसी ने मुझ से मेरी रुचियों के बारे में पूछा होता तो उसमें निश्चित रूप से ‘वन्यजीव’, ‘प्रकृति’ या ‘पर्यावरण’ जैसे शब्द नहीं शामिल होते। इन सबमें मेरी रुचि इसी दौरान जागी, परंतु इस रुचि के लिए किसी एक विशेष घटना को श्रेय देना कठिन होगा क्योंकि उस दौरन बहुत सी बातें हुई जो महत्वपूर्ण थीं।परंतु अगर इसके लिए मुझे किसी एक ‘घटना’ की पहचान करनी हो तो यह शुरुआत हमारे बाग में चुगद यानि स्पाटिड उल्लुओं (एथीन ब्रामा) की एक जोड़ी से शुरू हुई। मेरी पत्नी राजश्री (राजू) को, अहमदाबाद के हमारे बाग में पेल्टोफोर्म के पेड़ की डॉल पर (पेल्टोफोर्म राक्सबर्घी) उल्लुओं की एक जोड़ी बैठी हुई दिखायी दी। वे दोनों दिखने में छोटे बच्चों जैसे थे और अपनी सिर को बड़े रोचक तरीके से नचा रहे थे। कुछ दिनों तक हरेक शाम हम उन्हें निहारते। कुछ दिनों बाद ही राजू का जन्मदिन आने वाले था और मैंने उसे उस अवसर पर एक उल्लुओं की किताब भेंट करने की सोची। नटराज सिनेमाघर के पास स्थित पाकेट बुकशाप में सचमुच एक ऐसी ही किताब थी। उसके कवर पर एक फोटोग्राफ था जिसमें एक उल्लू मरे हुये चूहे को अपनी चोंच में पकड़े हुये उड़ रहा था। उसे देखकर मैं थोड़ा भयभीत हुआ। हमारे बाग के उल्लुओं से इसका क्या संबंध! उस समय प्राकृतिक सौंदर्य के बारे में मेरी संवेदनायें इतनी गहरी नहीं थीं। मैं उस फोटोग्राफ का आनंद नहीं ले सका और अंत में मैंने वो पुस्तक नहीं खरीदी।

1976 में हम लोग कुछ साल मुंबई और बौस्टन में रहने के बाद अहमदाबाद वापिस लौटे। उस समय हमारा बड़ा लड़का मोहल छह साल का था। वो हवाईजहाजों के पीछे एकदम दीवाना था। हमारे पास एक सचित्र पुस्तक थी जिसमें उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले लगभग सभी हवाईजहाज दिये गये थे। हम रोजाना ही उस पुस्तक के पन्नों को पलटते थे। मोहल को सभी हवाईजहाजों के नाम रट गये थे। परंतु उनमें से केवल चंद ही हवाईजहाजों को भारत में देखा जा सकता था।

अहमदाबाद में वापिस आकर मोहल का ध्यान बगीचे में पक्षियों की ओर आकर्षित हुआ। वो अक्सर किसी चिडि़या की ओर इशारा करता और उसका नाम पूछता। इससे मुझे खुद अपनी अज्ञानता का पता चला। कई बार तो मुझे लगा जैसे मैंने उस पक्षी को पहले कभी देखा ही नहीं हो। उल्लुओं के अनुभव से उबरने के बाद मैं पक्षियों के बारे में, हवाईजहाजों जैसी ही एक अच्छी पुस्तक तलाशने लगा।

उसी समय विक्रम ए साराभाई कम्यूनिटी साइंस सेंटर के परिषद की एक बैठक हुई। उसके एक सदस्य संस्कार केंद्र में लगे पुस्तक मेले में जाना चाहते थे। मैंने उनसे पक्षियों पर कोई अच्छी पुस्तक सुझाने के लिए कहा। पुस्तकों की कई दुकानों पर उन्होंने किसी डॉ सलीम अली की पुस्तक के बारे में पूछा। परंतु हर बार उन्हें एक ही जवाब मिला। उसका वर्तमान संस्करण बिक चुका था पर उन्हें नये संस्करण के जल्दी ही आने की उम्मीद थी।

भारतीय पक्षियों पर कोई पुस्तक उपलब्ध हो और उसके इतने चहेते हों कि पुस्तक का पूरा संस्करण हाथों-हाथ बिक जाये यह मेरे लिए एक बिल्कुल नयी खबर थी। अगले कुछ महीनों तक मैं उस पुस्तक को तलाशता रहा। काफी इंतजार के बाद उसका दसवां संस्करण छपा।

मोहल और मेरे पास अब एक नया खिलौना था उसका हम तत्काल अपने बगीचे में इस्तेमाल करने लगे और नये-नये पक्षी खोजने लगे। मुझे शुरू की कुछ चिडि़यें याद हैं - हमारे लान में पिल्लख यानि यैलो वैगटेल्स (मोटासिला फ्लावा) और हुदहुद (अुपुपा इपौप्स) थी, जिसे हम एक कठफोड़वा समझते थे। हम दोनों यह काम कोई दो हफ्तों तक करते रहे फिर राजू भी हमारी टीम में शामिल हो गयी। हम लोग लान मैं बैठे किताब के पन्ने पलट रहे थे। राजू मेरी गोद में सिर रखे पेड़ों को निहार रही थी। उसे एक बहुत मधुर आवाज सुनायी पड़ी और वो उस पक्षी को खोजने लगी। उसे एक बड़ी खूबसूरत काली और सफेद रंग की चिडि़या दिखायी दी। हम सबने फौरन उपर की ओर देखा और तब हमारा परिचय दईया यानि मैग्पाई राबिन (कापसायचस सौलारिस) से हुआ।

हम लोग अपने बगीचे में पक्षी खोजने में व्यस्त रहते और बाद में उनके बारे में पुस्तक में पढ़ते। इसमें कुछ मुश्किल अवश्य आती क्योंकि अक्सर चित्रों और वास्तविक अवलोकनों में काफी अंतर होता। उस समय हमें पक्षियों के नाम भी बड़े अजीब से लगते थे। अक्सर हम पक्षियों को पुस्तक की पृष्ठ संख्या का नाम ही दे देते थे। अब मोहल की रुचि हवाईजहाजों से हटकर पक्षियों को जानने में रम गयी थी। अब वो पक्षियों की पुस्तक को भी हवाईजहाज वाली किताब की तल्लीनता से ही देखता था।

नये पक्षियों को देखने की भूख हमें नये-नये स्थानों पर ले गयी। एक बार हम छोटे कच्छ की खाड़ी में जंगली गधों को देखने गये थे। वापिसी में मोहल ने हमसे कार रुकवायी। उसे गिद्धों - सफेद पीठ वाले (जिप्स बेंगालिंसिस) और लंबी चोंच वाले गिद्ध (जिप्स इंडिकस) का एक बड़ा झुंड दिखायी दिया। उसमें एक इकलौता मिस्री गिद्ध (नियोफ्रोन पेरेनोपेट्रस) भी था।

उन दिनों हमारे पास एक सुपर 8, फिल्म कैमरा था। मोहल ने हमसे मरे जानवर और गिद्धों को बिल्कुल नजदीक जाकर फिल्म करने का आग्रह किया। गिद्ध उसके सबसे प्रिय पक्षी थे। मुझे लगा कि बहुत अल्पकाल में ही सुंदरता को लेकर हमारा दृष्टिकोण एकदम बदल गया!

उन दिनों मुझे नियमित रूप से मुंबई जाना पड़ता था। मैं अक्सर ग्रेट वेस्ट्रन बिल्डिंग में स्थित डब्लूडब्लूएफ के दफ्तर में जाया करता था। वहां मेरी भेंट लवकुमार खच्चर से हुई। वो उस समय वहां के शिक्षा अधिकारी थे और भारत में, शिविर (कैम्पिंग) आंदोलन के प्रणेता थे। हमने हिंडोलगढ़ और कच्छ की खाड़ी के पिरोटन द्वीप में उनके द्वारा आयोजित कुछ शिविरों में भाग लिया।

पक्षी-निरीक्षण की दृष्टि से हिंडोलगढ़ का अनुभव एकदम अद्भुत था। उस समय मोहल की आयु 7 वर्ष की होगी और हमारा छोटा पुत्र संवित 2 साल का होगा। हम सलीम अली से सबसे पहली बार 1977 में, हिंडोलगढ़ में मिले। उन्होंने बच्चों के लिए अपनी पुस्तक द बुक ऑफ इंडियन बर्डस पर अपने हस्ताक्षर किये । (इसको हम केवल ‘पुस्तक’ के नाम से संबोधित करते और इस पर लवकुमार भाई बहुत चिढ़ते।)

हमारा परिचय लवकुमार के चचेरे भाई दरबारसाहिब से भी हुआ। वो हिंडोलगढ़ के राजकुमार थे। सलीम अली और उनके बीच पक्षियों पर चर्चा वाकई में सुनने काबिल होती। एक घटना मुझे अभी भी याद है। हिडोलगढ़ में पक्षियों को ‘रिंग’ पहनाने के लिए जाल में एक पक्षी को पकड़ा गया। डॉ सलीम अली ने तुरंत उसे लेसर व्हाइटथ्रोट (स्लिविया कुरूका) बताया। दरबारसाहिब उनके समीप ही चल रहे थे। वो कुछ देर तक चुप रहे। परंतु फिर उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार हल्के से कहा, “मैं माफी चाहता हूं पर मेरी राय में वो चिडि़या व्हाइटथ्रोट (स्लिविया कुक्यूमिनिस) है।” फिर उन्होंने चिडि़या के कुछ पंखों को दिखाया। “बिल्कुल ठीक, एकदम सही,” सलीम अली ने खुश होते हुये अपनी मधुर आवाज में कहा।

अगले कुछ सालों में राजू, बच्चों को और मुझे डॉ सलीम अली, दरबारसाहिब और लवकुमार भाई के साथ पक्षी-निरीक्षण करने का कई बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। सलीम अली के विनोदी स्वभाव में हमेशा हमें बहुत आनंद आता था।

एक बार मैं और राजू डॉ सलीम अली और दिलनवाज वारियावा (जो उस समय डब्लूडब्लूएफ, इंडिया की प्रमुख थीं) के साथ बोरिवली गये। वहां पर हमें बसंता यानि लार्ज ग्रीन बारबिट की आवाज सुनायी दी। वो आवाज हमारे लिये एकदम नयी थी और राजू उसे सुनकर बहुत उत्साहित हुई। उसने उस आवाज की नकल की और सलीम अली से उस चिडि़या का नाम जानना चाहा। सलीम अली ने बहुत गंभीर चेहरा बनाया और राजू को चिढ़ाने के लिये कहा, “मुझे लगता है कि तुमने किसी लकड़बग्घे की आवाज सुनी है!” उसके बाद से राजू ने कभी भी, किसी पक्षी की आवाज की नकल नहीं उतारी।

1976 में, राजू और मैंने थालतेज टेकड़ी पर, एनएफडी-विकसत के कैम्पस पर काम करना शुरू कर दिया था। हमने नीम (आजादरख्त इंडिका) के पेड़ों से काम शुरू किया जिन्हें एक साल पहले ही मेरी मां मृणालिनी साराभाई ने, गुजरात फौरेस्ट डिपार्टमेंट की मदद से लगाया था। राजू की पेड़ों में विशेष रुचि थी। हम जहां भी जाते वहां पर फारेस्ट नर्सरी से कुछ नये पौधे लेकर आते। अगले कुछ वर्षों में थालतेज टेकड़ी के पेड़ों को हरा-भरा होते देखने का अनुभव भी बड़ा उत्साहित करने वाला था।

पक्षी-निरीक्षण के कारण ही हम प्रकृति को उसके र्स्वांगीण स्वरूप में देख पाये। सुंदरता की हमारी परिभाषा भी इस बीच तेजी से बदलती रही। हम लोग प्रकृति में कोई सुंदर चीज देखते और फिर उस भावना को अपने कैम्पस में प्रस्थापित करने की कोशिश करते। मैं अक्सर उसका चित्र बनाता और फिर उसके बारे में कैम्पस के प्रमुख माली रामसिंह को समझाता।

हमें बाग-बगीचों में पायी जाने वाली और प्रकृति में पायी जाने वाली ‘व्यवस्था’ के बीच में हमें काफी अंतर दिखायी पड़ा। जंगल में हमें चीजें एक-दूसरे पर, बेतरतीब और अव्यवस्थित तरीके से उगती नजर आती हैं। जबकि बाग-बगीचों में एक स्पष्ट व्यवस्था होती है। प्रकृति की समझ बढ़ने के साथ-साथ हमें उसमें छिपी एक गहरी ‘व्यवस्था’ की अनुभूति भी होने लगी। यह व्यवस्था सहक्रियाशीलता (सिनर्जी) पर आधारित होती है। प्रकृति में कोई भी चीज बेतरतीब और निरउद्देश्य नहीं होती।

लवकुमार भाई अक्सर हमें समझाते कि क्यों कोई विशेष पेड़ या बेल एक-दूसरे के पास ही उगते हैं। उनके हरेक आकार और रंग के पीछे कोई मतलब होता है। “आकार हमेशा उपयोगिता का पीछा करता है,” मेरे साथी धुन करकरिया मुझ से कहते। एक बार जब डॉ सलीम अली हमारे कैम्पस में आये तो उन्होंने भी मुझसे पूछा कि यहां कभी बसंतगौरी यानि क्रिम्सन ब्रेस्टिड बारबिट (मेगलआईमा हेमासिफेला) दिखायी दी है या नहीं। उन्हें इस पक्षी के लिए हमारे यहां का परिवेश एकदम उपयुक्त लगा। दो महीने बाद यह पक्षी हमें सच में दिखायी पड़ा! धीरे-धीरे हम प्रकृति के जटिल संबंधों की ओर अधिक संवेदनशील होने लगे।

1975 और 1976 की दीवाली की छुट्टियों में हमने श्रेयस स्कूल के सुंदर कैम्पस में, श्रेयस छुट्टी शिविरों का आयोजन किया था। इस स्कूल के सुंदर कैम्पस को मेरी चाची लीनाबेन ने विकसित किया था। ये शिविर बहुत सफल रहे और इनके कारण मेरा अपने पुराने स्कूल से दुबारा संबंध जुड़ा। क्योंकि हम खुद अपने कैम्पस के विकास में लगे थे इसलिए हम इस सुंदर कैम्पस के ताने-बाने को अधिक गहराई से समझ सके। उंचे तेजस्वी आरडूसा (एलियेंथस ऐक्सैल्जा) और छोटे इग्लू जैसे पीलू (सैल्वाडोरा पर्सिका) के पेड़ों की छांव के नीचे हम कुछ कक्षायें चला पाये। इस कैम्पस में बहुत से स्थानीय, देसी पेड़ों को लगाया गया था। किताबों में जिन पेड़ों को सुंदर ‘बाग-बगीचे’ के वृक्षों की संज्ञा दी जाती है यहां पर उनकी भरमार कम ही थी।

हम बच्चों के लिये ‘कैम्पस पर जीवन’ नाम का एक कार्यक्रम चलाते थे। इसी के दौरान मेरी अनिल पटेल से भेंट हुई। वो उस समय स्कूल में खेलकूद के समन्वयक थे। अनिल से जल्द ही गहरी मित्रता हो गयी और वो हर हफते हमारे साथ किसी नयी जगह पर घूमने के लिये आने लगे। हम गुजरात और अन्य स्थानों पर स्थित अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों को देखने गये। लवकुमार भाई हमें उन रोचक जगहों पर जाने की सलाह देते जो अभी पार्क मनोनीत नहीं किये गये थे। इसमें एक जगह थी इडॉर की पहाड़ी। वहां बड़े-बड़े और भारी पत्थर थे जिनकी अपनी एक खास सुंदरता थी। अहमदाबाद के पास वो जगह हम लोगों के मिलने का प्रिय स्थान बनी।

1977 में, मई की भीषण गर्मी के समय मैंने और अनिल ने गिर अभयारण्य जाने की ठानी। गर्मी के कारण सात साल के मोहल और मेरी भतीजी अपर्णा को लू लग गयी और वो पूरी यात्रा के दौरान गाड़ी की पिछली सीट पर सोते रहे। राजू हमारे साथ आने में असमर्थ थीं क्योंकि उस समय संवित केवल दो वर्ष का ही था।

हमारे साथ मशहूर फोटोग्राफर सुलेमान पटेल थे। वो गिर के एक नाले में ग्यारह शेरों का एक-साथ पानी पीते हुये फोटो लेने के लिए प्रसिद्ध थे। वो एक बढि़या गाइड थे और उन्होंने हमें जानवरों के पंजों की पहचान करना सिखाया।

शायद डॉ सलीम अली ने ही सबसे पहले यह टिप्पणी की थी कि अगर गिर के जंगलों में शेर नहीं होते तो वो अवश्य एक सुंदर पक्षी अभयारण्य होता। अन्य चीजों के अलावा हमें यहां पहली बार शाही बुलबुल यानि पैराडॉइज फ्लाईकैचर (टर्पसीफोन पैराडिसी) के दर्शन हुये। इस पक्षी को हमने अनेकों बार पुस्तक में देखा था और हम अचरज करते थे कि ये हमें कहां दिखेगी। मैं इसके बारे में राजू को बताने के लिए उत्सुक था। राजू को उस सुंदर यात्रा में भाग न लेना बहुत खला। उसके बस एक सप्ताह बाद, न जाने कहां से एक नर शाही बुलबुल यानि पैराडॉइज फ्लाईकैचर झट से उड़ता हुआ आया और हमारे बेडरूम की खिड़की के सामने वाले खेजड़ी (प्रोसोपिस स्पेसीगेरा) के पेड़ पर आकर बैठ गया। कहां हम लोगों ने मई की चिलचिलाती धूप में 16 घंटे की कठिन यात्रा के बाद इस पक्षी को देखा। और अब वही पक्षी हमारे बगीचे में मौजूद था! मुझे लगा जैसे राजू के पक्षी निरीक्षण में कोई दैवीय शक्ति मदद कर रही हो!

इसी समय अनिल ने हमें लालसिंह राउल नाम के एक व्यक्ति के बारे में बताया जो हर रविवार को श्रेयस में जामनगर से आते थे और छात्रों को कैम्पस में पक्षी निरीक्षण के लिये ले जाते थे। उसके साथ लोग ऐसी बहुत सी नयी चिडि़यों को देखते जो सालों के पक्षी-निरीक्षण के बाद में उन्होंने नहीं देखीं थीं। वो खासकर ऐसी छोटी चिडि़यों को ढूंढने में माहिर थे जो झाडि़यों और घास में आसानी से छिप जाती थीं।

अहमदाबाद में हम नियमित रूप से हरेक इतवार को इंड्रोडा पार्क जाते ही थे। यहां पहली बार हमें घुघ्घू यानि ग्रेट हौर्नड आउल (बुबो बुबो) को देखने का सुअवसर मिला। हमारे साथ डेविड फर्नांडीस थे जिन्होंने लवकुमारभाई से डब्लूडब्लूएफ के शिक्षा अधिकारी का कार्यभार संभाला था। पिरोटन द्वीप पर लवकुमारभाई के शिविरों ने हमारे लिये एक नयी दुनिया ही खोल दी। यह दुनिया समुद्री जीवों और मूंगा चट्टानों (कोरल रीफ्स) की थी। उन द्वीपों पर सिर्फ बैठे ज्वार-भाटे को आते-जाते देखना अपने आप में एक अचरज भरा नजारा था। पहले मीलों तक पानी का स्तर एकदम उतर जाता और फिर तेजी से वापिस चढ़ना शुरू होता। हमें वहां तरह-तरह के मूंगे ओर स्टारफिश दिखे और ऐसे अद्भुत बहुरूपिये अष्टभुज (आक्टोपस) दिखे जो छिपने की कला में माहिर थे और आपको देखते ही रंग बदल देते थे।

यहीं मिट्टी के तट पर मुझे कच्छ वनस्पतियों में मिट्टी में फुदकने वाले मडस्किपर्स दिखे। इन्हें देख मुझे आदिकालीन प्राणियों - पृथ्वी के पहले जलथली प्राणियों के चित्रों की याद आयी जिन्हें मैंने बचपन में देखा था।

1978 में मुझे मद्रास जाना पड़ा। मैंने रोमोलस विटेकर और गिंडी में उनके सांप उद्यान के बारे में सुना था। उस समय वो महाबलिपुरम के रास्ते में समुद्र के तट के पास कहीं रह रहे थे। क्योंकि हम उनसे पहले से संपर्क नहीं कर पाये इसलिए मेरी बहन रेवती सुबह के समय मुझे कार से वहां ले गयीं।

पक्षी, पेड़, मूंगे एक चीज थे परंतु सांप और मगरमच्छ उनसे बिल्कुल अलग थे। जो काम रौम कर रहे थे मैं उससे बहुत प्रभावित हुआ। मगरमच्छ फार्म यानि क्रोकोडॉयल बैंक अभी शुरू के चरण में ही था। जब हम वहां थे तो रेवती का कुत्ता एक घेरे में कूद पड़ा। इससे हम लोग काफी भयभीत हुये! सौभाग्य से उस घेरे में छोटे घडि़याल थे जो अभी बड़े मगरमच्छ नहीं बने थे।

कुछ ऐसा हुआ कि अगले ही महीने रौम अहमदाबाद के इंड्रोरा पार्क में आने वाले थे। मैंने उन्हें अपने घर पर रहने का निमंत्रण दिया। उस समय मानसून का समय था और पहली बारिश हो चुकी थी। हम लोग रात का खाना खाकर, अपनी टार्चें लेकर मुख्य सड़क पर ‘सर्पदर्शन’ के लिये निकलते। हमारी निगाहें वर्षा से तर-बतर सड़कों पर इस प्रकार जमी होतीं जैसे हम वहां चीतों को देखने आये हों। कई झूठी खतरे की घंटियां बजतीं और रौम कहते, “देखो इस टायर सांप को” या फिर “इस रस्सी सांप को”। अधिकांश सांप ट्रकों और कारों से कुचले होते। परंतु हमें सड़कें पार करते हुये कई जिंदा सांप भी दिखे। अक्सर हम अपनी यात्रा से रात को दो बजे वापिस लौटते। परंतु यह अपने आप में एक विलक्षण अनुभव था।

एक दिन रौम थालतेज टेकड़ी वाले कैम्पस में आये। जिस रास्ते से हम रोज गुजरते थे वहां से उन्होंने दो बड़े नाग यानि कोबरा (नाजा नाजा ओक्सियाना) सांपों को खींच कर निकाला। नेहरू फाउंडेशन की पूरी टीम - आफिस के लोग, माली, सब लोग रौम के पीछे-पीछे चले। लोग सांपों की ओर आकर्षित क्यों होते हैं इसे समझना और उसकी शैक्षिक संभावनाओं को समझना मुश्किल नहीं है। छोटा संवित भी अहानिकारक सांपो को छूने से अपने आपको रोक नहीं सका।

हम लोगों ने अहमदाबाद में एक सांप-शो करने का निश्चय किया। मैंने तभी डब्लूडब्लूएफ की अहमदाबाद शाखा शुरू करी थी और उसका पहला अवैतनिक सचिव भी था। हमें डब्लूडब्लूएफ के कार्यक्रम को चलाने के लिये धन की जरूरत थी और मुझे पैसे जुटाने के लिये सांप-शो एक बहुत अच्छा कार्यक्रम लगा।

अक्टूबर 1978 में वीएएससीएससी में सांप-शो आयोजित किया गया और वो बहुत ही सफल रहा। लगभग हरेक अखबार ने पहले पन्ने पर बड़े फोटोग्राफ्स छापकर उसका खूब प्रचार किया। इसके वजह से हम 70 स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को इकट्ठा कर पाये। 58,000 लोगों ने सांप-शो के टिकट खरीदे।

एक समय तो ऐसा आया जब शो के बाहर खड़ी भीड़ को नियंत्रित करना मुश्किल हो गया और पुलिस ने शो को बंद करने की धमकी दे दी। हमने जल्दी-जल्दी लोगों को बाहर लाइनों में खड़ा किया और क्योंकि उन्हें अंदर जाने में करीब एक घंटा लगता इसलिये मैंने घंटों तक बाहर खड़े लोगों को एक अहानिकारक सांप दिखाया और उसके बारे में बताया।

उसमें से एक स्वंयसेवी कार्यकर्ता का नाम था विजयराज जडेजा। उस दिन हमारे थालतेज कैम्पस के पास से एक सांप पकड़ा गया था। विजयराज उसे अपने हाथ में पकड़े था और लोगों को बता रहा था कि यह एक कैट स्नेक (बोइगा ट्राइगोनाटा) है। जैसे ही रौम ने यह देखा उसने चुपचाप विजयराज से उस सांप को नीचे रख देने को कहा क्योंकि वो अहानिकारक कैट-स्नेक नहीं परंतु बिल्कुल उससे ही मिलता-जुलता विषैला सा-स्केल्ड वाइपर सांप था। उस सांप ने विजयराज को काट लिया था और जल्द ही उसे विष-निरोधक इंजेक्शन लेने के लिये अस्पताल जाना पड़ा।

मैं अस्पताल में उसे देखने गया। मैं उससे उसके पेशे और रुचियों के बारे में पूछा। उसकी वन्यजीवन में बहुत गहरी दिलचस्पी थी खासकर के शिकारी पक्षियों में परंतु वो किसी मारकेटिंग नौकरी में फंसा था जिससे वो असंतुष्ट था। मैंने उससे कहा कि स्पेस एैपलीकेशन सेंटर के पास ही हमारा एक आम का बाग है और सांप-शो की सफलता के बाद हम वहां पर एक सांप उद्यान विकसित करना चाहते हैं। क्या वो इसमें शामिल होगा? विजयराज ने हां कहा और अगले ही वर्ष सुंदरवन शुरू हो गया।

इसके लिये हमने एक टीम बनायी। अमर सिंह मेरे पिता के समय से आम के बाग की चैकीदारी कर रहे थे। उनके तीनों बड़े लड़कों की इसमें रुचि थी इसलिये नाथुबा, केशुबा और गुलाब तीनों इस टीम के सदस्य बन गये। वो सभी सांप पकड़ने में बहुत माहिर हो गये। बहुत से लोग सांप पकड़ने के लिये हमें बुलाते थे और इस प्रकार धीरे-धीरे करके हमने सांपों का अच्छा संकलन इकट्ठा किया।

परंतु सांपों को खाना खिलाने की दिक्कत थी। हम सभी लोग बहुत सी रातों को मेंढक पकड़ने के लिये जाते थे। मुझ से यह काम नहीं बन पाया परंतु मोहल और अनिल इसमें माहिर हो गये। मोहल अपने रबर के उफंचे गमबूटस और टार्च लेकर अहमदाबाद के आसपास पानी की ताल-तलैयों में हमेशा मेढक पकड़ने के लिये तैयार रहता था।

अक्टूबर 18, 1979 को डॉ सलीम अली ने औपचारिक रूप से पार्क का उद्घाटन किया। शायद राष्ट्रीय प्रेस में खबर फैले इसलिये उद्घाटन से एक दिन पहले वहां सबसे बड़े नाग ने एक छोटे नाग को निगल लिया और फिर पांच मिनटों के बाद पूरे सांप को वापिस उल्टी कर दिया। उल्टी करा हुआ सांप अभी भी जिंदा था और वो ऐसे चल रहा था मानों कुछ हुआ ही न हो!

इस लेख में मैं प्रकृति खोजने का कुछ आनंद लोगों के साथ बांटना चाहता था। सुंदरवन ने हमें इसका मौका दिया। एक ऐसा पार्क जहां बहुत से लोग, खासकर बच्चे प्रकृति में खोजबीन शुरू कर सकते हैं।

1. लवकुमार खच्चर, प्रख्यात प्रकृति वैज्ञानिक, मध्य काठियावाड़ में जासदन के राजसी परिवार के सदस्य हैं। कई वर्षों के बाद मैंने उनसे सुंदरवन की जिम्मेदारी संभालने की विनती की। उन्होंने उसे स्वीकारा और 1986 से 1995 तक वे सुंदरवन के निदेशक रहे।

2. धुन करकरिया ने विकसत में ग्राफ्कि डिजायन केंद्र की शुरुआत की। बाद में यह केंद्र सीईई में आ गया। वो उस केंद्रीय टीम के सदस्य थे जिसने सीईई की स्थापना की। उन्होंने केंद्र के ‘इंटरप्रटेशन प्रोजेक्ट’ को विकसित किया।

3. अनिल पटेल ने 1984 से 1986 तक सुंदरवन के निदेशक का पद संभाला। उन्होंने 1984 से 1995 तक डब्लूडब्लूएफ की उत्तरी गुजरात शाखा के अवैतनिक सचिव का पदभार भी संभाला।

4. बहुत सालों बाद जब लालसिंह राउल सरकारी नौकरी से रिटायर हुये तब मैंने उनसे गुजराती में, पक्षियों पर कुछ निर्णायक पुस्तकें लिखने का आग्रह किया। सीईई ने उन्हें तीन खंडों में छापा है और उनके उत्साहजनक परिणाम मिले हैं जिसमें कुछ पुरस्कार भी शामिल हैं।

5. विजयराज जडेजा बाद में वदोदरा के कामतीबाई जीवविज्ञान पार्क में संग्रहपाल बन गये।