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पंचायतनामा डॉट कॉम
जंगल की रक्षा एवं प्रबंधन में ग्रामीण, पंचायत और सरकार-तीनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जंगल को लेकर अगर इन तीनों स्तरों पर समझदारी और समन्वय बन जाए तो वन और वनावरण के सवाल पर एक व्यापक बदलाव हो सकता है। वन का सवाल एक बहुआयामी सवाल है और यह जलवायु एवं पर्यावरणीय संकटों से घिरे आज के समय का अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है। जंगल एक ऐसा मुद्दा है जो जल, जीवन, जीविका, कृषि, जैवविविधता, संस्कृति, स्वास्थ्य, जड़ी-बूटी एवं चिकित्सा, जलवायु आदि पहलुओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है। इस पर हर स्तर से एक बुनियादी समझ बनाने और एक नजरिया विकसित करने की जरूरत है।
वर्तमान संदर्भ में वनों को लेकर गांव, पंचायत और प्रशासन के स्तर पर व्यापक जागरुकता लाने की बड़ी जरूरत है। झारखंड जैसे पठार-पर्वत एवं पहाड़ी प्रदेश के लिए यह और भी जरूरी हो जाता है जहां विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का बेतहासा दोहन किया जा रहा है। अंधाधुंध खनन किया जा रहा है। बड़े पैमाने पर इन खनन उद्योगों से जंगलों का विनाश हो रहा है। ऐसे में जंगल कैसे बचेगा और कौन बचायेगा? पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन की संकट की जिम्मेवारी कौन लेगा? इन समस्याओं से निबटने के लिए एक तरफ तो सरकारों को नीतिगत फैसले लेने होंगे और वन पर्यावरण नीति और खनन नीति के बीच समन्वय बनाना होगा। लेकिन वनों के सरंक्षण एवं प्रबंधन में स्थानीय गांव समुदाय, पंचायत और प्रशासन बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में ठोस पहल हो, ठोस कार्यक्रम बने, अभियान चले और ग्राम सभा एवं पंचायतों को प्रशिक्षण मिले। कार्यक्रम को लागू करने में सरकार हर संभव मदद करे। इस काम में सरकार गैर सरकारी संगठनों एवं सामुदायिक या नागरिक संगठनों से सहयोग ले सकती है।
जंगलों की सुरक्षा तभी होगी जब वनाश्रित लोगों की जीविका एवं अन्य अधिकारों की सुरक्षा होगी। झारखंड में 2010 में पंचायत चुनाव हो चुके हैं। गांव सभा और पंचायत जंगल के मुद्दे को लेकर कई काम कर सकते हैं। सबसे पहले तो वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने में वे पूरी तरह मदद करें। इसके लिए सबसे पहले तो गांव सभा और पंचायत प्रतिनिधियों को खुद ही वनाधिकार कानून एवं नियम को समझना होगा। पंचायत राज अधिनियम और अनुसूचित क्षेत्रों के लिए बने ‘पेसा’ कानून में प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की शक्ति को भी समझना जरूरी है। वनाधिकार कानून की धारा-3 (1) के (झ) में गांव सभा को वन संसाधनों के संरक्षण, संवर्धन, प्रबंधन, पुनरुत्पादन का अधिकार है। धारा-5 में गांव सभा एवं पंचायतों को वन, वन्य जीव, जड़ी-बूटी एवं जैवविविधता के संरक्षण के लिए शक्ति दी गई है। साथ ही वे स्थानीय पर्यावरण एवं स्थानीय समुदाय और उनकी परम्परा एवं संस्कृति पर दुष्प्रभाव डालने वाले किसी भी गतिविधि को रोकने में कदम उठा सकते हैं। इन सब के लिए जहां गांव सभा का गठन नहीं है, वहां गांव सभा गठन कर वनाधिकार कानून के तहत उनके अधिकारों एवं जिम्मेवारियों को बतलाना होगा। वनाधिकार को लागू करने के लिए गांव सभा के अंदर वनाधिकार समिति गठन करना होगा। लेकिन सामुदायिक वन संसाधनों के प्रबंधन के लिए गांव सभा को एक अलग से सामुदायिक वनपालन समिति गठन करना है जिसमें महिला-पुरुष और युवा वर्ग शामिल हों। महिलाएं कम से कम से एक तिहाई तो जरूर हों, पर अधिक होने पर भी कोई हर्ज नहीं है।
सामुदायिक वनपालन समिति के गठन के बाद वन संरक्षण एवं प्रबंधन के लिए गांव सभा को नियम बनाना होगा और उन नियमों को लागू करना होगा। नियम का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड या सजा का प्रावधान रखना होगा। गांव के लोग जंगल का उपयोग, जैसे- घर बनाने, कृषि उपकरण बनाने, जलावन आदि जरूरी कामों के लिए किस तरह से करेंगे, इसके लिए भी नियम बनाने होंगे। लकड़ी कटाई और जंगल को आग से बचाने के अलावा वनोपज के संग्रहण के तौर-तरीकों के लिए भी नियम बनाकर वन पालन समिति के रजिस्टर में दर्ज करना होगा। जंगल की नियमित देख-भाल एवं रखवाली के लिए कार्य-दल भी बना सकते हैं जो बारी-बारी से जंगलों की निगरानी करें। समिति गठन करने, नियम बनाने, निर्णयों को रजिस्टर में दर्ज करने और अमल में लाने जैसी प्रक्रिया में पंचायत प्रतिनिधिगण गांव सभा, वनाधिकार समिति और वन पालन समिति को सहयोग कर सकते हैं। गांव और सरकार के बीच एक कड़ी बन सकता है पंचायत।
लोग जंगलों की सुरक्षा या वन पालन में तभी रुचि लेंगे, जब जंगलों से उन्हें फायदा मिले और यह उनकी आय वृद्घि और स्वरोजगार का जरिया बने। केंदू पत्ता, लाह, हर्रा, बहेरा, आंवला, चिरौंजी इत्यादि वनोपज का संग्रहण एवं बिक्री ग्राम सभा द्वारा गठित सहकारिता समिति द्वारा शहर के बाजार में अच्छे दामों में की जा सकती है। पंचायत द्वारा गांव में पत्तल प्लेट बनाने के लिए मशीन लगाने के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए। महिला समूह द्वारा पत्तल प्लेट बनाकर, आंवला, जामुन, महुआ आदि का टॉनिक बनाकर तथा मूल्य संवर्धन एवं खाद्य प्रसंस्करण कर वन खाद्य पदार्थ इत्यादि को बाजार में बेचकर आमदनी बढ़ाने का काम हो सकता है। जड़ी-बूटी आधारित परंपरागत चिकित्सा व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए पंचायत स्तर पर वैद्य लोगों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। जंगलों के आस-पास झरने या छोटे-मोटे नाले के पानी को रोकने के लिए आहार-पाइन या छोटे बांध बनाये जा सकते हैं। जंगलों के आस-पास जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है। उजड़े हुए वनभूमि पर फिर से मनरेगा या वन विभाग की योजना के तहत स्थानीय प्रजाति के पेड़ों या फलदार पेड़ों को लगाने का काम होना चाहिए।
वन एवं पर्यावरण के मुद्दे पर पंचायत या प्रखंड स्तर पर साल में कम से कम एक बार पर्यावरण एवं सांस्कृतिक मेले आयोजित होने चाहिए। इसमें नाच-गान, नाटक, गोष्ठी आदि के साथ-साथ वन पर्यावरण से जुड़े चित्रों, वन पदार्थों इत्यादि की प्रदर्शनी की जा सकती है। अगर इन सारे सुझावों को अमल करने में गांव सभा, पंचायत और प्रशासन आपस में सहयोग करते हुए समन्वित प्रयास करते हैं तो वन-पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ जीविका, जैवविविधता, जड़ी-बूटी और जंगल से जु.डे परम्परागत ज्ञान और संस्कृति की भी रक्षा होगी।
वर्तमान संदर्भ में वनों को लेकर गांव, पंचायत और प्रशासन के स्तर पर व्यापक जागरुकता लाने की बड़ी जरूरत है। झारखंड जैसे पठार-पर्वत एवं पहाड़ी प्रदेश के लिए यह और भी जरूरी हो जाता है जहां विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का बेतहासा दोहन किया जा रहा है। अंधाधुंध खनन किया जा रहा है। बड़े पैमाने पर इन खनन उद्योगों से जंगलों का विनाश हो रहा है। ऐसे में जंगल कैसे बचेगा और कौन बचायेगा? पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन की संकट की जिम्मेवारी कौन लेगा? इन समस्याओं से निबटने के लिए एक तरफ तो सरकारों को नीतिगत फैसले लेने होंगे और वन पर्यावरण नीति और खनन नीति के बीच समन्वय बनाना होगा। लेकिन वनों के सरंक्षण एवं प्रबंधन में स्थानीय गांव समुदाय, पंचायत और प्रशासन बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में ठोस पहल हो, ठोस कार्यक्रम बने, अभियान चले और ग्राम सभा एवं पंचायतों को प्रशिक्षण मिले। कार्यक्रम को लागू करने में सरकार हर संभव मदद करे। इस काम में सरकार गैर सरकारी संगठनों एवं सामुदायिक या नागरिक संगठनों से सहयोग ले सकती है।
वनाधिकार के क्रियान्वयन के साथ वनों का संरक्षण एवं प्रबंधन
जंगलों की सुरक्षा तभी होगी जब वनाश्रित लोगों की जीविका एवं अन्य अधिकारों की सुरक्षा होगी। झारखंड में 2010 में पंचायत चुनाव हो चुके हैं। गांव सभा और पंचायत जंगल के मुद्दे को लेकर कई काम कर सकते हैं। सबसे पहले तो वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने में वे पूरी तरह मदद करें। इसके लिए सबसे पहले तो गांव सभा और पंचायत प्रतिनिधियों को खुद ही वनाधिकार कानून एवं नियम को समझना होगा। पंचायत राज अधिनियम और अनुसूचित क्षेत्रों के लिए बने ‘पेसा’ कानून में प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की शक्ति को भी समझना जरूरी है। वनाधिकार कानून की धारा-3 (1) के (झ) में गांव सभा को वन संसाधनों के संरक्षण, संवर्धन, प्रबंधन, पुनरुत्पादन का अधिकार है। धारा-5 में गांव सभा एवं पंचायतों को वन, वन्य जीव, जड़ी-बूटी एवं जैवविविधता के संरक्षण के लिए शक्ति दी गई है। साथ ही वे स्थानीय पर्यावरण एवं स्थानीय समुदाय और उनकी परम्परा एवं संस्कृति पर दुष्प्रभाव डालने वाले किसी भी गतिविधि को रोकने में कदम उठा सकते हैं। इन सब के लिए जहां गांव सभा का गठन नहीं है, वहां गांव सभा गठन कर वनाधिकार कानून के तहत उनके अधिकारों एवं जिम्मेवारियों को बतलाना होगा। वनाधिकार को लागू करने के लिए गांव सभा के अंदर वनाधिकार समिति गठन करना होगा। लेकिन सामुदायिक वन संसाधनों के प्रबंधन के लिए गांव सभा को एक अलग से सामुदायिक वनपालन समिति गठन करना है जिसमें महिला-पुरुष और युवा वर्ग शामिल हों। महिलाएं कम से कम से एक तिहाई तो जरूर हों, पर अधिक होने पर भी कोई हर्ज नहीं है।
सामुदायिक वनपालन समिति के गठन के बाद वन संरक्षण एवं प्रबंधन के लिए गांव सभा को नियम बनाना होगा और उन नियमों को लागू करना होगा। नियम का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड या सजा का प्रावधान रखना होगा। गांव के लोग जंगल का उपयोग, जैसे- घर बनाने, कृषि उपकरण बनाने, जलावन आदि जरूरी कामों के लिए किस तरह से करेंगे, इसके लिए भी नियम बनाने होंगे। लकड़ी कटाई और जंगल को आग से बचाने के अलावा वनोपज के संग्रहण के तौर-तरीकों के लिए भी नियम बनाकर वन पालन समिति के रजिस्टर में दर्ज करना होगा। जंगल की नियमित देख-भाल एवं रखवाली के लिए कार्य-दल भी बना सकते हैं जो बारी-बारी से जंगलों की निगरानी करें। समिति गठन करने, नियम बनाने, निर्णयों को रजिस्टर में दर्ज करने और अमल में लाने जैसी प्रक्रिया में पंचायत प्रतिनिधिगण गांव सभा, वनाधिकार समिति और वन पालन समिति को सहयोग कर सकते हैं। गांव और सरकार के बीच एक कड़ी बन सकता है पंचायत।
आयवृद्घि एवं स्वरोजगार का कार्यक्रम चलाया जाये
लोग जंगलों की सुरक्षा या वन पालन में तभी रुचि लेंगे, जब जंगलों से उन्हें फायदा मिले और यह उनकी आय वृद्घि और स्वरोजगार का जरिया बने। केंदू पत्ता, लाह, हर्रा, बहेरा, आंवला, चिरौंजी इत्यादि वनोपज का संग्रहण एवं बिक्री ग्राम सभा द्वारा गठित सहकारिता समिति द्वारा शहर के बाजार में अच्छे दामों में की जा सकती है। पंचायत द्वारा गांव में पत्तल प्लेट बनाने के लिए मशीन लगाने के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए। महिला समूह द्वारा पत्तल प्लेट बनाकर, आंवला, जामुन, महुआ आदि का टॉनिक बनाकर तथा मूल्य संवर्धन एवं खाद्य प्रसंस्करण कर वन खाद्य पदार्थ इत्यादि को बाजार में बेचकर आमदनी बढ़ाने का काम हो सकता है। जड़ी-बूटी आधारित परंपरागत चिकित्सा व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए पंचायत स्तर पर वैद्य लोगों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। जंगलों के आस-पास झरने या छोटे-मोटे नाले के पानी को रोकने के लिए आहार-पाइन या छोटे बांध बनाये जा सकते हैं। जंगलों के आस-पास जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है। उजड़े हुए वनभूमि पर फिर से मनरेगा या वन विभाग की योजना के तहत स्थानीय प्रजाति के पेड़ों या फलदार पेड़ों को लगाने का काम होना चाहिए।
वन एवं पर्यावरण के मुद्दे पर पंचायत या प्रखंड स्तर पर साल में कम से कम एक बार पर्यावरण एवं सांस्कृतिक मेले आयोजित होने चाहिए। इसमें नाच-गान, नाटक, गोष्ठी आदि के साथ-साथ वन पर्यावरण से जुड़े चित्रों, वन पदार्थों इत्यादि की प्रदर्शनी की जा सकती है। अगर इन सारे सुझावों को अमल करने में गांव सभा, पंचायत और प्रशासन आपस में सहयोग करते हुए समन्वित प्रयास करते हैं तो वन-पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ जीविका, जैवविविधता, जड़ी-बूटी और जंगल से जु.डे परम्परागत ज्ञान और संस्कृति की भी रक्षा होगी।