गाय-भैंस के बछड़ों में भूजल से फ्लोरोसिस 

Submitted by Shivendra on Fri, 02/21/2020 - 16:32

ग्रामीण भारत के अधिकांश पशुपालकों व कृषकों को यह पता ही नहीं कि उनकी गाय-भैंस जैसे पालतू व घरेलू पशुओं के बछड़ों को हैंडपम्प, बोरवेल तथा गहरी बावड़ियों व कुओं का पानी पिलाने से फ्लोरोसिस नाम की खतरानक बीमारी भी हो सकती है। दरअसल, ये लोग इन भूमिगत जल स्रोतों के मीठे पानी को पशुओं के लिए हानिकारक नहीं मानते, बल्कि इसे पशुओं के स्वास्थ के लिए लाभदायक समझते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि भारत के लगभग सभी राज्यों के भूजल में फ्लोराइड नाम का विषैला रसायन मौजूद है, जो पशुओं की सेहत के लिए खतरनाक और नुकसानदायक है। इसकी पुख्ता जानकारी हाल ही में किये गए शोध सर्वेक्षणों के प्रकाशित आंकड़ों से ज्ञात हुई है। ऐसे फ्लोराइडयुक्त भूजल का लम्बे समय तक व बार-बार सेवन करने से न केवल स्वस्थ पालतू पशुओं को बल्कि हट्टे-कट्टे इंसानों को भी फ्लोरोसिस बीमारी हो जाती है। 
गाय-भैंस के बछड़ों में फ्लोरोसिस बीमारी तुलनात्मक तेजी से पनपती है, लेकिन ज्यादातर ग्रामीण पशुपालक व किसान आज भी इस बीमारी के होने के बारे में बेखबर हैं। इन्हें इस बीमारी के होने का आभास अक्सर तब होने लगता है जब इनके बछड़े तेज दोड़ने के बजाए हल्के-हल्के लंगड़ा के चलने लगते हैं और जल्दी से उठ-बैठ भी नही हो पाते है। वहीँ इनकी पीठ या कमर धीरे-धीरे नीचे की ओर झुकने लगती है या फिर धनुषाकार होने लगती है। फ्लोराइड के विषैलेपन के असर से ये बछड़े दिनों-दिन शारीरिक रूप से और कमजोर व दुर्बल होने लगतें हैं तथा सुस्त पड़ जाते हैं। इनके शरीर की हड्डियां उभरी हुई साफ दिखाई देने लगती है। इनको बार-बार प्यास लगती है तथा इन्हें पतले दस्त या कब्ज रहते है। बछड़ों में इस बीमारी के होने का पता आसानी से लगाया जा सकता है। क्योंकि इस बीमारी के होने का पुख्ता लक्षण सबसे पहले इनके निकल रहे आगे के दुधिया दांतों पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। फ्लोराइड के असर से इन दांतों पर नीचे से ऊपर की ओर उभरती हुई हल्की या फिर गहरी पीली-भूरी-काली आड़ी धारियां स्पष्ट दिखाई देती है। कभी-कभी इनकी जगह काले-भूरे रंग के छोटे छोटे दाने भी निकल आते हैं। इन दंत विकृतियों को चिकित्सा विज्ञान में डेंटल-फ्लोरोसिस कहते हैं। ऐेेसी विकृतियाँ स्थाई दांतों में भी पनप जाती हैं।
     
बछड़ों में डेंटल-फ्लोरोसिस

बार-बार फ्लोराइडयुक्त भूजल पीने से इन बछड़ों के पैरों की हड्डियां व जोड़ों में जकड़न होने लगती है। इनसे जुडी मांसपेशियां सख्त हो जाने से ये लंगड़ापन के शिकार हो जाते हैं। जिससे ये न तो ठीक से चल-फिर पाते हैं और न ही जल्द से उठ-बैठ पाते। फ्लोराइड विष के असर ये हड्डियां कमजोर पड़ जाती हैं, जो थोड़े से दबाव में बांकी-टेड़ी होने के साथ ये जल्द से टूट भी जाती हैं।  हड्डियों में आई इन विकृतियों को स्केलेटल-फ्लोरोसिस भी कहते हैं। 

स्केलेटल-फ्लोरोसिस से पीड़ित बछड़े

फ्लोराइड से ग्रसित दांत अक्सर कमजोर हो कर जल्दी से टूटकर गिर जाते हैं। इससे बछड़े भोजन या चारा ठीक से न चबाने के कारण भूख से जल्द मर जाते हैं। दूसरी ओर हड्डियों में आयी विभिन्न विकृतियों के कारण पनपी शारीरिक विकलांगता (स्केलेटल-फ्लोरोसिस) से बछड़ों को बाजार में बेचने पर इनकी अच्छी कीमत नही मिल पाती है। जिससे पशुपालक व किसान दोनों ही स्थितियों में भारी आर्थिक नुकसान होने से निराश व हताश हो जाते हैं। बछड़ों में एक बार डेंटल-फ्लोरोसिस व स्केलेटल-फ्लोरोसिस विकसित हो जाने पर ये किसी भी औषधी या इलाज से ठीक नहीं होती है अर्थात ये विकृतियाँ लाइलाज होती हैं। सिर्फ बचाव में ही इस बीमारी का इलाज उपलब्ध है। यह बीमारी बछड़ों में न हो इसके लिए इन्हें भूजल की जगह सतही जल यानी तालाबों, नदियों, नहरों को पानी या फ्लोराइडमुक्त पानी पिलाने की जरुरत है। कई बार यह भी देखने को भी मिलता है कि पशुपालक इस बीमारी को ठीक करने के लिए इन बछड़ों की पीठ, पुठे व पैरों पर गर्म लोहे की छड़ या फिर जलती लकड़ी से दागते हैं, जो काफी ज्यादा पीड़ादायक है और गलत भी। इससे यह बीमारी ठीक तो नहीं होती बल्कि बछड़ों के मरने की संभावना और अधिक हो जाती है।

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प्रो. शांतिलाल चौबीसा,अंतरराष्ट्रीय फ्लोराइड जर्नल के क्षेत्रीय संपादक प्रो. शांतिलाल चौबीसा, अंतरराष्ट्रीय फ्लोराइड जर्नल के क्षेत्रीय संपादक