पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन
धान के खेत, तथा रोमंथी पशु उत्पादन को उत्सर्जन का मुख्य स्रोत माना जाता है। धान के खेतों में लगातार पानी भरा रहना मिथेन उत्सर्जन का एक कारण है। अत्यधिक सीमित आंकलनों के आधार पर अमेरिका और यूरोप में किए गए अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों में यह बताया गया कि धान के खेतों से प्रतिवर्ष 110 टीजी गैस उत्सर्जित होती है।
पृथ्वी की जलवायु तेजी से बदल रही है और इसका प्रभाव विभिन्न जीवों के विकास तथा वातावरण की संरचना व रासायनिक संघटन के बदलाव के रूप में हो रहा है। पिछले कुछ दशकों से मानवीय कार्यों के कारण पृथ्वी की जलवायु में होने वाले परिवर्तनों की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान केन्द्रित हुआ है। वातावरण की गैसीय संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है और इसका कारण उद्योगों से होने वाला उत्सर्जन, जीवाश्म ईंधन का जलना, व्यापक वृक्षों की कटाई और जीवद्रव्य को जलाना तथा इसके साथ-साथ भूमि उपयोग और भूमि प्रबंधन की विधियों में बदलाव आना है। इन मानवीय क्रियाओं के परिणामस्वरूप रेडियोसक्री गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जिन्हें सामान्यत: ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है, उनके उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। 1000 और 1750 ई. की अवधि में वातवरण में कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की सांद्रताएं क्रमश: 280+6 पीपीएम, 700+60 पीपीबी और 270+10पीपीबी के बीच थी। आज ये मान क्रमश: 369 पीपीएम, 1750 पीपीबी और 136 पीपीबी हो गए हैं। ये ग्रीन हाउस गैसें पृथ्वी की सतह से निकलने वाले इन्फ्रारेड किरणन को रोक देती है। यह प्रक्रिया सामान्यत: ग्रीनहाउस प्रभाव कहलाती है जिससे निचले वातावरण में निबल उर्जा बढ़ जाती है और वातावरण गर्म हो जाता है। विश्व का औसत वार्षिक तापमान 19वीं सदी के अंत की तुलना में 20वीं सदी के अंत में 0.7 डिग्री से. बढ़ गया है। रात के तापमान में भी दिन के समय के उच्चतम तापमान की तुलना में दुगनी दर से वृद्धि हुई है। वर्ष 1860 से, जब से उपकरणों से तापमान के नापने की शुरूआत हुई है, 1990 का दशक पृथ्वी का सबसे गर्म दशक था और पिछले 1000 वर्षों में 20वीं शताब्दी सबसे गर्म शताब्दी थी। विश्व स्तर पर सात सबसे गर्म वर्ष 1990 के दशक में रिकार्ड किए गए।
पृथ्वी के गर्म होने से जलवायु संबंधी प्राचलों जैसे वर्षा, मृदा की नमी और समुद्रतल परिवर्तित होते हैं विश्व के अनेक भागों में पिछले दशक में सूखा, गर्मी और बाढ़ जैसी जलवायु संबंधी आपदाओं का घटना इसी कारण हुआ। क्षेत्रीय विविधताओं के साथ समुद्रतल 10-20 सें.मी. बढ़ गया है और इसी प्रकार पृथ्वी पर हिमाच्छादन भी धीरे-धीरे घट रहा है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर-शासकीय पैनल ने 2001 की अपनी रिपोर्ट में विभिन्न मॉडलों का उपयोग करते हुए यह बताया है कि अगले 100 वर्षों में पृथ्वी की सतह और इसके उपर की वायु का तापमान 1.4-5.8 डिग्री से. तक बढ़ सकता है। वर्ष 2100 तक कार्बन डाइऑक्साइड के स्तरों के 388-399, 478-1099 तक बढ़ने का अनुमान है। भारत में 2020 तक क्षेत्र-औसत वार्षिक माध्य उष्मन 1.0 एवं 1.4 डि.से. के बीच बढ़ने का अनुमान है तथा 2050 तक इसके 2.2-2.9 डि.से. बढ़ने का अनुमान है। खरीफ (मानसून) के मौसम में रबी (शरद ऋतु में) के मौसम की तुलना में तापमान में कम वृद्धि होने की संभावना है। खरीफ मौसम में अधिकांश भागों में वर्षा के अधिक होने तथा रबी के मौसम में कुछ क्षेत्रों में वर्षा के कम होने की संभावना है तथा रबी में वर्षा के मामले में अधिक अनिश्चितता रहने की संभावना है।
दक्षिण एशिया में 2020, 2050 और 2080 में विभिन्न फसल मौसमों में पृथ्वी के उष्मन के कारण तापमान और वर्षा में संभावित परिवर्तन
वर्ष |
मौसम |
तापमान में वृद्धि, डिग्री से. |
वर्षा में परिवर्तन, प्रतिशत |
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|
न्यूनतम |
उच्चतम |
न्यूनतम |
उच्चतम |
2020 |
रबी |
1.08 |
1.54 |
-1.95 |
4.36 |
|
खरीफ |
0.87 |
1.12 |
1.81 |
5.10 |
2050 |
रबी |
2.54 |
3.18 |
-9.22 |
3.82 |
|
खरीफ |
1.81 |
2.37 |
7.18 |
10.52 |
20800 |
रबी |
4.14 |
6.31 |
-24.83 |
4.50 |
|
खरीफ |
2.91 |
4.62 |
10.10 |
15.18 |
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
एशिया में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप अधिक बाढ़े आ सकती हैं, जल्दी-जल्दी सूखे पड़ सकते हैं, बार-बार वनों में आग लग सकती है, कृषि व जल कृषि की उत्पादकता घट सकती है, समुद्रतल बढ़ने के कारण इसके किनारे रहने वाले लोग विस्थापित हो सकते हैं, मेंग्रोस घट सकते हैं, आदि-आदि। इस प्रकार के परिणामों का फसलों, मिट्टियों, पशुधन, मत्यिसकी और नाशकजीवों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ सकता है। कार्बन डाइऑक्साइड की वातावरण में वृद्धि होने से पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित हो सकती है, दूसरी ओर तापमान में वृद्धि के कारण फसलों की अवधि घट सकती है, श्वसन दरों में वृद्धि हो सकती है और वाष्पन-उत्स्वेदन बढ़ सकता है, फसलों और नाशकजीवों के बीच का संतुलन प्रभावित हो सकता है, मृदाओं में पोषक खनिजीकरण में तेजी आ सकती है, उर्वरक उपयोग की दक्षता घट सकती है, आदि-आदि। वर्षा में अनिश्चितता से सूखा और बाढ़ आने के कारण अकाल, ग्रामीण गरीबी और पलायन जैसी घटनाएं हो सकती हैं, भले ही सिंचाई सुविधाओं में कितना ही सुधार क्यों न हो गया हो।
तापमान बढ़ने के कारण समुद्र के तल में वृद्धि होने से मत्सियकी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित हो सकती है। इसी प्रकार तापमान में वृद्धि से चारा और जल की उपलब्धता में परिवर्तन हो सकता है जिससे मांस और दूध उत्पादन प्रभावित हो सकते हैं। परोक्ष रूप से कृषि भूमि उपयोग गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है क्योंकि तापमान बढ़ने पर बर्फ पिघल सकती है, सिंचाई की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है, सूखों एवं बाढ़ों की आवर्तता व गहनता बदल सकती है, मृदा में कार्बनिक पदार्थ रूपांतरित हो सकते हैं, मिटटी का कटाव हो सकता है, खेती योग्य भूमि घट सकती है और उर्जा की उपलब्धता कम हो सकती है। इन सभी परिवर्तनों का कृषि उत्पादन पर गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है तथा इससे किसी भी क्षेत्र की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ सकती है।
ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को नापने में देसी प्रयासों की आवश्यकता
पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन का मानवजीवन की गुणवत्ता पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। अत: इस प्रक्रिया को समझने की विश्व भर में बहुत आवश्यकता है, ताकि इसक नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिए कार्यनीतियां बनाई जा सकें। यह अनुभव किया गया है कि पर्यावरण की गुणवत्ता में परिवर्तन से जीवन के सभी पहलू प्रभावित होते हैं। अत: ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की आवश्यकता है क्योंकि ये गैसें ही वातावरण के गर्म होने के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं। पर्यावरणीय मुददों का हल सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के मुददों से जुड़ा है। प्रत्येक देश या क्षेत्र अपनी समस्याओं से अपने-अपने ढंग से निपटना चाहता है और यह आवश्यक नहीं कि जिससे एक देश या क्षेत्र का भला होता हो, उससे दूसरे देश या क्षेत्र का भी भला हो। अत: पर्यावरण संबंधी ऐसी समस्याओं से विभिन्न पक्षों में टकराव उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए पश्चिमी विश्व में वर्तमान जीवन शैलियों को बनाई रहने की अभिलाषा से इन देशों द्वारा उर्जा की अधिक खपत की जा रही है जिससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि हो रहा है, दूसरी ओर विकासशील देशों में आय बढ़ाने और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के प्रयासों से उर्जा के उपयोग में वृद्धि हो रही है।
पश्चिमी विश्व में वर्तमान में उपलब्ध स्वच्छ प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इन प्रौद्योगिकियों को अन्य देश भी अपने विकासात्मक लक्ष्य पूरा करने के लिए अपना सकते हैं लेकिन कार्पोरेट निकायों, जिनकी प्रौद्योगिकियां हैं में इन प्रौद्योगिकियों की साझेदारी की मंशा नहीं है। बिडम्वना है कि भारत, चीन तथा एशिया के अन्य विकासशील देशों को ग्रीन हाउस गैसों के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन एवं परिणामस्वरूप पृथ्वी के गर्म होने के लिए पश्चिमी विश्व द्वारा उत्तरदायी ठहराया जाता है। विश्व के सभी स्रोतों से मिथेन का कुल वार्षिक उत्सर्जन 375 टी जी होने का अनुमान है। यद्यपि वातावरण में मिथेन के कुल वार्षिक उत्सर्जन में वृद्धि कार्बनडाइऑक्साइड की तुलना में कम है लेकिन इसे वैश्विक उष्मन का सबसे प्रमुख उत्तरदायी माना जाता है (15-20 प्रतिशत)। कृषि मुख्यत: धान के खेत, तथा रोमंथी पशु उत्पादन को उत्सर्जन का मुख्य स्रोत माना जाता है। धान के खेतों में लगातार पानी भरा रहना मिथेन उत्सर्जन का एक कारण है। अत्यधिक सीमित आंकलनों के आधार पर अमेरिका और यूरोप में किए गए अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों में यह बताया गया कि धान के खेतों से प्रतिवर्ष 110 टीजी गैस उत्सर्जित होती है। चूंकि भारत और चीन में चावल की खेती मुख्य रूप से की जाती है अत: यू एस-ई पी ए ने भारतीय चावल के खेतों से प्रतिवर्ष 38 टीजी मिथेन के उत्सर्जन का आंकलन प्रस्तुत किया। इसके आधार पर यह अंतर्राष्ट्रीय धारणा बनी, कि एशिया, विशेषकर भारत और चीन विश्व उष्मन में प्रमुख योगदान देते हैं और इससे बचने के लिए कुछ किया जाना चाहिए।
इसके लिए भारतीय धान के खेतों से मिथेन उत्सर्जन के सही आंकलन विकसित करने हेतु प्रमाणिक एवं क्रमबद्ध देशी अनुसंधान प्रयासों की आवश्यकता हुई। इसके परिणामस्वरूप भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में 1990 से इस संदर्भ में विशिष्ट अध्ययन किए गए जिससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के प्रमाणिक आंकलन निर्धारित किए गए और वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर हमारी राष्ट्रीय नीति निर्धारित हुई। वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय चिंताओं और टकराव से जलवायु परिवर्तन पर यूनाइटेड नेशन्स फ्रेम वर्क, कन्वेन्शन हुआ और उसके बाद जून 1992 में विश्व शिखर सम्मेलन हुआ। 21 मार्च 1994 को यूएनएफसीसीसी लागू हुआ जिसके अंतर्गत सभी पक्षों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर राष्ट्रीय अनुसूचियां संकलित करनी होती हैं, समय-समय पर अद्यतन करनी होती हैं तथा उन्हें प्रकाशित करना होता है। भा.कृ.अ.सं. ने भारतीय कृषि से मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जनों की राष्ट्रीय सूचियां तैयार करने में नेतृत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह संस्थान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की क्रियाविधियों को विस्तार से समझने तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के आंकलनों में अनिश्चितताओं को कम करने और उत्सर्जनों मे कमी लाने के लिए कार्यनीतियां विकसित करने के अनुसंधान मे सक्रिय रूप से जुटा हुआ है।