गंगा-रामगंगा के निचले दोआब में बाढ़ का भौगोलिक विश्लेषण (Geographical analysis of floods in the lower Doab of Ganga-Ramganga)

Submitted by RuralWater on Thu, 10/31/2019 - 10:09

शोधार्थी - श्रीमती आभा त्रिपाठी

भारत के लोगों का जीवन वैदिक काल से ही नदियों से सर्वाधिक प्रभावित रहा है। प्राचीन भारत का अर्थतन्त्र नदियों पर ही निर्भर करता था। इस कारण ही प्रदेशों के नाम नदियों पर आधारित थे जैसे - सप्तसिन्धु, इसका तात्पर्य है सात नदियों की भूमि।1 आज भी पांच नदियों की भूमि को ’पंजाब’ के नाम से जाना जाता है। सभ्यता का जन्म भी नदियों की घाटियों में ही हुआ था।आर्यों की ‘‘सिन्धु घाटी सभ्यता’’ विश्व प्रसिद्ध है। नदियों ने सदा से ही अर्थतन्त्र को प्रभावित करने के साथ ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। डाॅ0 विलियमके अनुसार ‘‘आज भी संसार की एक तिहाई जनसंख्या अपना भरण-पोषण नदियों के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की भूमि से करती आ रही है।’’ नदियों की उल्लिखित उपादेयता को ध्यान में रखते हुये गंगा के मैदान को भारत का धान्यागार, रेड बेसिन को चीन का हृदय, मिश्र को नील का वरदान, मिसीसिपी, मिसौरी को संयुक्त राज्य अमेरिका की मेरूदण्ड कहा जाता है।

बाढ़ विभीषिका की संकल्पना:-

भारतीय उपमहाद्वीप ने सदैव से मौसम सम्बन्धी विरोधाभास एवं जटिलताओं का सामना किया है। इसीलिये भारतीय कृषि को ’मानसून का जुआँ’ कहा जाता है। मानसून की इसी अनिश्चितता के परिणाम स्वरूप कुछ स्थानों पर भारी वर्षा हो जाती है। अत्यधिक मात्रा में होने वाली वर्षा नदियों के तटों को छोड़कर समीपवर्ती क्षेत्रों में प्रसरित हो जाती है। वर्षा की प्रसरित जलराशि ‘‘बाढ़’’ के नाम से जानी जाती है और सम्बन्धित क्षेत्र में तबाही का कारण बनती है। वैदिक साहित्य में भी अत्यधिक वर्षा को रोकने के लिये की जाने वाली प्रार्थनाओं का वर्णन मिलता है। मुगल काल में भी बाढ़ों का उल्लेख मिलता है उससे होने वाली क्षति से बचने के लिये कुछ भी कार्य नहीं किया गया। ब्रिटिश काल में बाढ़ ग्रस्त जनपदों में तटबन्धों का निर्माण कराया गया था, परन्तु अध्ययन से ऐसा पाया गया है कि कुछ महत्वपूर्ण नगरों को ही बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने हेतु ऐसा किया गया था।

इतिहास बताता है कि भारत अनेक प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होता रहा है। चक्रवात, बाढ़, भूकम्प और सूखा इनमें से प्रमुख आपदाएंँ हैं। देश का साठ प्रतिशत भू-भाग विभिन्न तीव्रताओं के भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र है। जबकि चार करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में बाढ़ की संभावना प्रतिवर्ष बनी रहती है तथा 68 प्रतिशत क्षेत्र में सूखे की आशंका मंडराती रहती है। इससे न केवल हजारों जीवन की क्षति होती है अपितु भारी मात्रा में निजी, सामुदायिक और सार्वजनिक परिसम्पत्तियों को भी क्षति पहुंँचती हैं।

यद्यपि वैज्ञानिक और भौतिक कारकों से देश में अत्यधिक प्रगति हुई है, किन्तु प्राकृतिक आपदाओं के कारण जन-धन की क्षति में कमी होती नहीं दिखाई दे रही है। भारत  सरकार ने अपने बाढ़ आपदा प्रबन्धन दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन किये है। यह नीति अब केवल राहत पहुंँचाने तक ही सीमित नहीं है, अपितु आपदाओं से निपटने की तैयारियों, उनके शमन और बचाव पर अधिक बल दिया जा रहा है। यह परिवर्तन इन धारणाओं के फलस्वरूप इस दृष्टिकोण में आया है कि विकास प्रक्रिया में जब तक आपदा शमन को उचित स्थान नहीं दिया जाता, विकास की प्रक्रिया लम्बे समय तक जारी नहीं रखी जा सकती। सरकार के इस नये दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि आपदा शमन के उपाय विकास से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों में अपनाये जाने चाहिए। आपदा प्रबन्धन का नीतिगत ढांँचे में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि निर्धन और वंचित लोग ही प्राकृतिक आपदाओं से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।

बाढ़ आपदा प्रबंधन एक बहुआयामी क्षेत्र है। इसमें मौसम पूर्वानुमान, चेतावनी, बचाव, राहत, पुनर्निर्माण और पुनर्वास सम्मिलित है। प्रशासन, वैज्ञानिक, योजनाकार, स्वयंसेवक और समुदाय सभी इस बहुआयामी प्रयास में हाथ बँटाते हैं। उनकी भूमिकायें और गतिविधियांँ एक दूसरे की पूरक और सहायक होती हैं, इसलिये इन गतिविधियों में समन्वय नितांत आवश्यक है। 


प्राकृतिक आपदाएंँ, अर्थव्यवस्था, कृषि, खाद्य सुरक्षा, जल, स्वच्छता, पर्यावरण और स्वास्थ्य को सीधे-सीधे प्रभावित करती है। इसलिये अधिकांश विकासशील देशों के लिये यह चिन्ता का एक प्रमुख बड़ा कारण है। आर्थिक पहलू के अतिरिक्त इस तरह की आपदाओं का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है जिनका गम्भीरता से अध्ययन कर शमन की उपयुक्त रणनीति तैयार करने की आवश्यकता है। आज प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व चेतावनी की अनेक प्रणालियांँ उपलब्ध हैं लेकिन वे यह सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त नहीं है कि हम आपदाओं से सुरक्षित हैं। यहीं पर आपदा प्रबन्धन की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।अब गत वर्षों की अप्रत्याशित बाढ़ की  घटनाओं के विश्लेषणों से सीखने का समय है। वर्ष 2010 के अगस्त-सितम्बर माह में उत्तराखण्ड व हिमाचल प्रदेश में औसत से अधिक बादल फटने से घटनाएंँ हुई थीं।पहाड़ों में इस कारण नदी-नालों में भी अप्रत्याशित पानी आया था। इस पानी ने और बादल के विस्फोटों से हुये भूस्खलनों के मलवे ने बाढ़ की विभीषिका को और भी बढ़ाया था। पहाड़ों से लगे मैदानों में निरन्तर बाढ़ के लिये, पहाड़ों में यदि तेज वर्षा हुई तो वहांँ से आते पानी को उत्तरदायी ठहराया जाता है। इस बात को राष्ट्रीय आपदा प्रबंध संस्थान भी स्वीकारता है। वर्ष 2010 में अधिकारिक तौर पर उसने मैदानी नगरों के बाढ़ों और पहाड़ी बाढ़ों के अंतःसम्बन्धों के प्रबन्धन पर तार्किक कार्य समन्वयन दिशा-निर्देश भी जारी किये गये थे। हालांकि पहले भी इन अंतःसम्बन्धों का अनुभव किया गया था। इसी सोच के कारण देश में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश को बाढ़ से बचाने के लिये नेपाल में बाँंधों के रखरखाव पर व्यय व सहायता भी करता रहा है।

नदियों में अधिक मलवा या गाद तब भी आने लगता है जब बांँधों के जलग्रहण क्षेत्र में वन विनाश तेज हो जाता है। ऐसा तब होता है जब भू-स्खलन व भू-क्षरण बढ़ जाता है या बस्तियों में अनियंत्रित मानवीय गतिविधियाँं बढ़ जाती हैं। अतः यह बहुत आवश्यक है कि जलग्रहण क्षेत्र में घास, झाड़ियों, पेड़ों, वनों का अधिक संरक्षण, रोपण व विस्तार हो। इससे खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा व पहाड़ी ढलानों की स्थिरता भी बनी रहती है। आज जलग्रहण क्षेत्रों में सड़कों व अन्य निर्माण कार्यो में विस्फोटकों के उपयोग से भी भू-स्खलन व भू-क्षरण बढ़ता जा रहा है। कई जगहों पर यह मलवा सीधे नदियों में चला जाता है। इससे भी बाढ़ की स्थितियां बनने में सहायता मिलती है। इन स्थितियों से देश में सभी जगहों पर बांँधों से खतरे पैदा हुए हैं।

राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार बाढ़ वह मौसम की परिस्थिति है जब नदी का जल परिभाषित चिन्ह के ऊपर प्रवाहित होने लगता है। यह चिन्ह मानसून के समय नदी अपवाह के औसत आधार पर निर्धारित किया जाता है। निर्धारण की अवधि 10-15 वर्ष के बीच हो सकती है। दूसरी ओर भारतीय मौसम विज्ञान संस्थान के अनुसार सूखा वह मौसम की परिस्थिति है जब मध्य मई से मध्य अक्टूबर के बीच लगातार चार सप्ताह के बीच वर्षा की मात्रा 5 सेन्टीमीटर से कम होती है। भारत विश्व के उन कुछ एक देशों में है जहां बाढ़ और सूखा का प्रभाव लगभग प्रतिवर्ष प्राकृतिक विपदा के रूप में पड़ता है। भारत का लगभग 84 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़ या सूखे के प्रभाव में है। स्वतंत्रता के बाद इन समस्याओं की दिशा में अनेक कार्य किये गये हैं। इसके बाद भी इन प्राकृतिक विपदाओं का प्रभाव यथावत है।6

अध्ययन क्षेत्र गंगा-रामगंगा निचला दोआब के 21 वर्षों के आंकड़ों का गहन अध्ययन करने पर निष्कर्ष निकलता है कि इस समयावधि में दो वर्ष (1990-2000 एवं 2006-07) में सामान्य वर्षा होने के कारण बाढ़ की स्थिति भी सामान्य रही। सामान्य से कम वर्षा वाले वर्ष 10 है। 1991 में कुल वर्ष के आंँकड़ों से ज्ञात होता है कि 754.22 मिलीमीटर, 1992 में 725.05 मिलीमीटर, 1993 में 810.43 मिलीमीटर, 1994 में 636.02 मिलीमीटर, 1995 में 828.82 मिलीमीटर, वर्षा होने के कारण यह वर्ष सूखाग्रस्त रहे।

आगामी वर्षों में वर्षा की मात्रा में कुछ सीमा तक बढोत्तरी हुई और सूखे से कुछ राहत नजर आने लगी। वर्ष 1996 में कुल वर्षा 930.27 मिलीमीटर, 1997 में 926.75 मिलीमीटर वर्षा अंकित की गयी। वर्ष 1999 में पुनः वर्षा सामान्य हुयी जो 842.48 मिलीमीटर रही। परन्तु एकाएक वर्ष 2000 के वर्षा के समंक में वृद्धि हुई और 938.47 मिलीमीटर वर्षा अंकित की गयी, जिसके कारण मध्यम बाढ़ से गंगा-रामगंगा निचला दोआब प्रभावित हुआ। वर्ष 2001, 2002 में पुनः सूखे की स्थिति आयी और वर्षा क्रमशः 622.02 मिलीमीटर, 538.19 मिलीमीटर, अंकित की गयी।

वर्ष 1990 में वर्षा अधिक होने के कारण बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। 897.23 मिलीमीटर वर्षा रही तथा निम्न बाढ़ घोषित की गयी। 1998 में 1198.94 मिलीमीटर वर्षा रही,उच्च बाढ़ घोषित की गयी। इस प्रकार क्रमशः वर्ष 2003 में 1253.64 मिलीमीटर, वर्ष 2008 में 1467.03 मिलीमीटर तथा वर्ष 2010 में 1398.69 मिलीमीटर वर्षा रही तथा इस वर्ष अध्ययन क्षेत्र गंगा-रामगंगा के निचले दोआब सर्वाधिक भयंकर बाढ़ आई। जिसके कारण अपार जन-धन की क्षति हुई। विस्तृत विवरण हेतु सारणी क्रमांक 1.1 दृष्टव्य है।

गंगा-रामगंगा निचला दोआब की बाढ़ का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि गंगा मैदान का, क्योंकि इसी मैदान का भाग जनपद बदायूँ, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद एवं हरदोई भी है। गंगा-रामगंगा के मैदान की भाँंति नदियों की लगभग सभी विशेषतायें जो बाढ़ को भयंकर बनाने में सहयोग देती हैं। अध्ययन क्षेत्र की नदियों में भी पायी जाती हैं। बाढ़ प्रतिवर्ष अपना प्रभाव दिखाती रहती हैं। अध्ययन क्षेत्र गंगा-रामगंगा निचला दोआब में भयंकर बाढ़ का अभिलेख मिलता है। अध्ययन क्षेत्र में बाढ़ न्यूनाधिक मात्रा में प्रतिवर्ष आती रहती हैं। कहा जा सकता है कि बाढ़ अध्ययन क्षेत्र की स्थाई धरोहर है। अध्ययन क्षेत्र का पश्चिमी भाग गंगा नदी की बाढ़, पूर्वी भाग रामगंगा नदी एवं उसकी सहायक नदियों की बाढ़ से प्रभावित होता रहता है। सन् 1950 से बाढ़ की बारम्बारता में वृद्धि हुई है, क्योंकि नदियों के उत्तरी प्रवाह क्षेत्र में जंगलों का सफाया हो गया है। सड़कों का निर्माण कार्य भी प्रवाह मार्ग में बाधा उपस्थित करते रहते हैं।10 जल प्रवाह चक्र एक निरन्तर गति से प्रवाहमान रहता है। मार्ग में पड़ने वाली विभिन्न बाधाओं के फलस्वरूप बाढ़ का उदय हो जाता है। ऐसा देखा गया है कि मानव द्वारा प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप करने से प्राकृतिक विपदायें विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेती है। उल्लिखित तथ्यों से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में बाढ़ एक स्वाभाविक समस्या है।

सम्बन्धित साहित्य का पुनरावलोकन -

  • के0 एल0 मिश्रा ने उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर को वर्ष 2002 मंे प्रस्तुत अपने पी-एच0डी शोधकार्य ’’उड़ीसा तटीय क्षेत्र में चक्रवातीय एवं बाढ़ प्रकोपः मानवीय प्रतिक्रिया सामुदायिक उत्तरदायित्व तथा प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन में एक अध्ययन’’ में बाढ़ का अध्ययन सामाजिक एवं मानवीय संदर्भ में प्रस्तुत किया।
  • वी0 एस0 कटियार द्वारा वर्ष 1968 में आगरा विश्वविद्यालय आगरा को प्रस्तुत किये गये अपने पी-एच0डी0 स्तर के शोधकार्य जिसका शीर्षक ’’घाघरा बाढ़ बेसिन के विशेष संदर्भ में उत्तर प्रदेश में बाढ़ का एक भौगोलिक अध्ययन’’ में घाघरा नदी में आने वाली नियमित बाढ़ों का अध्ययन भौगोलिक कारकों को आधार मान कर किया।
  • जी0 के0 पान्डा ने ’’उड़ीसा के तटीय मैदान में अपवाह एवं बाढ़: व्यवहारिक भूआकृतिक विज्ञान में एक अध्ययन’’ शीर्षक से 1989 में उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर में किये गये शोधकार्य में अपवाह घनत्व, संयोजन, प्रतिरूप, घाटी उच्चावच विश्लेषण आदि में अध्ययन को बाढ़ विभीषिका कम  करने हेतु विश्लेषित कर कुछ महत्वूर्ण सुझाव निष्कर्ष के रूप में प्राप्त किये।
  • एस0 सी0 ठाकुर ने गंगा नदी के बाढ़ मैदान पर अपना अनुसंधान कार्य प्रस्तुत किया। उन्होंने 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में ’’गंगा बाढ़ मैदान में बाढ़ प्रकोप के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया एवं समायोजन’’ शीर्षक से अपना भौगोलिक शोधकार्य प्रस्तुत किया।
  • एन0 रानी द्वारा ’’निचले बागमती नदी बेसिन में बाढ़ तथा सतत् जल प्रबन्धन’’ शीर्षक से दिल्ली, विश्वविद्यालय, दिल्ली को वर्ष 2001 में अपने एम0 फिल0 लघु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया।
  • पी0 सिंह ने जवाहरलाल नेहरु, विश्वविद्यालय में वर्ष 1995 में भूगोल विषय में एम0फिल0 उपाधि हेतु "COLONISED RIVERS OF NORTH BIHAR : COLONIAL INTERVENTION IN IRRIGATION AND FLOOD CONTROL, 1880-1940" शीर्षक से लघु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया।
  • पी0 के0 भोली द्वारा एम0फिल0 स्तर के लघु शोधकार्य ’’तटीय उड़ीसा में प्राकृतिक आपदाओं के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया एवं तक आपदाओं के प्रति मानवीय  प्रतिक्रिया एवं तक आपदाओं के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया एवं उत्तरदायित्व’’ में जोकि उन्होंने उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर को प्रस्तुति की, निचले महानदी-देवी दोआब क्षेत्र का एक मामला अध्ययन प्रस्तुत किया।
  • आर0 रामचन्द्रन एवं एस0सी0 ठाकुर द्वारा ’’गंगा के खादर मैदान में बाढ़ आपदा के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया एवं समायोजन’’ शीर्षक से एक मानोग्राफ प्रस्तुत किया गया, जिसमें इन्होने बाढ़ से सम्बन्धित पहलुओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया। यह मोनोग्राफ राष्ट्रीय एटलस, संगठन, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित किया गया।

प्रस्तावित शोध का उद्देश्य: -

आपदायें अचानक आती हैं तथा यह मानव सभ्यता, मानव जीवन, सम्पत्ति, पशुधन एवं सामान्य कार्यशैली पर व्यापक प्रभाव डालती हैं। बाढ़ जैसी आपदा के पश्चात् मानव को बाह्य सहयोग की अतिशय आवश्यकता पड़ती है। गंगा व रामगंगा के निचले दोआब में प्रतिवर्ष बाढ़ जैसी आपदा का सामना वहाँ के निवासियों को करना पड़ता है। गंगा-रामगंगा के दोआब में प्रति वर्ष बाढ़ आने से लगभग 1028 गांँव जलमग्न हो जाते है। ऐसा अनुमान है कि प्रति वर्ष औसतन 60 लोगों की मृत्यु हो जाती है। ऐसी स्थिति तब है जबकि क्षेत्र में 51 बाढ़ चेतावनी केन्द्र, 92 बाढ़ चैकियाँ तथा 51 शरणालयों की व्यवस्था है। बाढ़ से बचाव की स्थाई योजना आजतक नहीं बनाई जा सकी है।

वर्तमान में प्रस्तावित गंगा एक्सप्रेस वे (Ganga Express Way) के निर्माण से सम्भवतः बाढ़ से कुछ बचाव होगा। शोधार्थी का इस क्षेत्र से निकट सम्बन्ध है। अतः निम्नलिखित उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए अध्ययन क्षेत्र का चयन किया गया है -

  • 1. विशेष आपदा न्यूनीकरण योजना का प्रारूप निर्मित करना।
  • 2. आपदा पूर्व की तैयारी योजना।
  • 3. सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • 4. आपदा निवारीकरण को विकास योजनाओं में सम्मिलित करना।
  • 5. जिला एवं प्रखण्ड स्तर पर आपदा प्रबन्धन योजना बनाना।
  • 6. बाढ़ की सूचना को शीघ्रातिशीघ्र प्रसारित करने की व्यवस्था करना जिससे धन-जन की हानि को न्यूनतम किया जा सके।
  • 7. सामुदायिक जागरूकता हेतु प्रयास करना।
  • 8. मानवीय कौशल संशोधन एवं सम्वर्द्धन हेतु प्रयास करना।
  • 9. असुरक्षित बाढ़ग्रस्त ग्रामों को चिन्हित करना।
  • 10. आपदा नियंत्रण की जानकारी जनसामान्य को प्रदान करना तथा उन्हें क्रियान्वित रखना।
  • 11. अध्ययन क्षेत्र में स्थानीय समूहों की सहायता से सामुदायिक रसोईघर स्थापित करना।
  • 12. शरणार्थी कैम्पों में समुचित अस्थायी निवास व्यवस्था रखना।
  • 13. खोज एवं बचाव दल को प्रभावितों को खोजने का प्रशिक्षण देना।
  • 14. आपदा नियंत्रण केन्द्रो पर संसाधनों (मोटरबोट, नौकावाहन, जीपगाड़ियाँ, स्वयंसेवक, टेन्ट, वाटरटेन्ट, वायरलेस-सेट, वी-सेट) की सूची रखना।
  • 15. जनपद प्रशासन व स्वयं सेवी संस्थाओं के मध्य समन्वय बनाये रखना।


अध्ययन क्षेत्र का चयन: -

गंगा-रामगंगा निचला दोआब में बाढ़ आपदा से सर्वाधिक क्षति होती है, शोधार्थी का अध्ययन क्षेत्र से निकटतम् सम्बन्ध है, यहाँ पर होने वाली आर्थिक, सामाजिक समस्याओं से भलीभाँति परिचित है, अतः इन्ही समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुये शोधार्थी ने गंगा-रामगंगा निचला दोआब का चयन किया। यहाँ पर प्रवाहित होने वाली मुख्य नदियाँ गंगा एवं रामगंगा है। अध्ययन क्षेत्र में सामाजिक-आर्थिक विकास में कृषि, उद्योग, अधिवास, व्यापार, जनसंख्या, सामाजिक-संगठन आदि पर आपदाओं का प्रभाव पड़ता है, उनमें बाढ़ भी एक प्रमुख आपदा है। कोई भी क्षेत्र अपना सम्पूर्ण विकास तभी कर सकता है, जब वह आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो और साथ ही आपदाओं से रहित हो, परन्तु ऐसा सम्भव नही है, अध्ययन क्षेत्र में व्यक्ति निवास करते है और आगे भी करते रहेगें और नदियाँ उन्हें प्रभावित करती रही हैं, और आगे भी प्रभावित करती रहेगी। अध्ययन क्षेत्र में बाढ़ से अनेक प्रकार की समस्यायें उत्पन्न होती है। मानव स्वास्थ्य, शिक्षा, पशुधन, आय के अन्य स्रोतों पर बाढ़ का प्रभाव पड़ता है।


1.6. विधितन्त्र एवं सर्वेक्षण -

सम्पूर्ण शोधकार्य में अग्रलिखित परिकल्पनाओं व माॅडल का उपयोग किया गया है। बाढ़ के खतरे का आकलन करने के लिये संदर्भित माॅडल का सहयोग लिया गया है। बाढ़ से होने वाली क्षति के संदर्भ में प्रमुख रूप से तीन परिकल्पनायें है। अतिरिक्त जल का वेगपूर्वक प्रवाहित होने वाली जलधारायें न केवल पुलों को तोडती है बल्कि उन्हें बहाकर भी ले जाती है। भवनों व सड़क मार्गों को पूर्णतः या आंशिक रूप से तोड़ देती हैं। वेगपूर्वक प्रवाहित होती जलधाराएंँ कृषि योग्य भूमि को अपने साथ बहा ले जाती है, लहलहाती फसलों को नष्ट कर देती हैं तथा उपजाऊ भूमि पर अनुर्वर बालू को जमा कर देती हैं। नदी द्वारा अपने मार्ग को बदलने की प्रक्रिया में कृषि योग्य भूमि को नष्ट करना भी बाढ़ की क्षति का ही परिणाम है।

  • 1. प्रत्यक्ष क्षति: - वह क्षति जो बाढ़ के दौरान होती है और जिसकी क्षतिपूर्ति मरम्मत व स्थानापन्न विधियों से की जा सकती है।
  • 2. अप्रत्यक्ष क्षति: - वह क्षति जो व्यावसायिक सेवाओं व आर्थिक गतिविधियों के समाप्त होने से होती है।
  • 3. अपूर्णीय क्षति: - वह क्षति जो मानव जीवन की समाप्ति व मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने से सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों पर पड़ता है।

उपर्युक्त तीनों प्रकार से होने वाली क्षति को निम्नवत् सूचीबद्ध किया जा सकता है -

  • 1. आवासीय भवन क्षति
  • 2. व्यापारिक क्षति
  • 3. औद्योगिक व विनिर्माण क्षति
  • 4. सामान्य जनसुविधाओं की क्षति
  • 5. सड़क मार्ग क्षति
  • 6. अन्य क्षति

गंगा नदी व रामगंगा पर निर्मित लोहिया सेतु व ब्रह्यदत्त सेतु पर जल की गहराई को निर्धारित करने वाले संकेतक निर्मित है। प्रान्तीय नदी जल सर्वेक्षण विभाग, लखनऊ, उ0प्र0 प्रतिदिन गहराई का अंकन करता है। गंगा नदी में जल की गहराई मौसम के अनुसार बदलती रहती है। सबसे कम गहराई अगस्त माह में औसतन 9.6 मीटर के लगभग रहती है। इस प्रकार इसके जलस्तर में लगभग 4.4 मीटर का अन्तराल रहता है। कभी-कभी जुलाई, अगस्त और सितम्बर के महीनों में इसका जल खतरे के निशान (9.00 मीटर) से ऊपर निकलकर भयंकर बाढ़ का रूप ले लेता है। गंगा नदी के जल की औसत गहराई की मासिक परिवर्तनशीलता 9.67 एवं वार्षिक औसत गहराई 6.66 मीटर के लगभग रहती है। गंगा नदी में अधिकतम जल का निकास अगस्त के महीने में 9023.46 क्यूसेक मीटर प्रतिसेकेण्ड है तथा औसत वार्षिक 1974.94 क्यूसेक मीटर प्रतिसेकेण्ड जल प्रवाह गति है। इस प्रकार गंगा नदी के जल प्रवाहगति में वार्षिक 8883.24 क्यूसेक मीटर प्रतिसेकेण्ड का अन्तराल है। इस नदी में जल की गति सबसे अधिक अगस्त माह में औसतन 2.02 मीटर प्रति सेकेण्ड एवं न्यूनतम दिसम्बर माह में 0.16 मीटर प्रति सेकेण्ड है। सम्पूर्ण वर्ष की औसत गति 0.80 मीटर प्रति सेकेण्ड है, इस प्रकार गति में वार्षिक अन्तराल 1.86 मीटर प्रतिसेकेण्ड है।


रामगंगा नदी के जल की गहराई में मौसम के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सबसे कम गहराई अप्रैल माह में लगभग 5.4 मीटर तथा सबसे अधिक गहराई अगस्त माह में 10.10 मीटर के लगभग रहती है। इसी प्रकार इसकी गहराई में वार्षिक अन्तराल लगभग 4.70 मीटर है। जुलाई, अगस्त और सितम्बर के महीने में रामगंगा नदी का जल खतरे के निशान (9.20 मीटर) से कभी-कभी ऊपर निकलकर बाढ़ का कारण बन जाता है। इस नदी के जल की औसत गहराई की मासिक परिवर्तनशीलता 19.74 प्रतिशत एवं औसत वार्षिक जल की गहराई 6.94 मीटर के लगभग रहती है। रामगंगा नदी के किनारों की ऊँचाई कम होने के कारण वर्षाऋतु में भयंकर बाढ़ आती है जिससे अत्याधिक धन-जन की हानि होती है। यह नदी वर्षा ऋतु के बाद अत्यन्त संकरी हो जाती है। इस समय इसकी चौड़ाई कहीं-कहीं 10 मीटर के लगभग ही रह जाती है तथा जल मुख्यधारा में ही शेष रह जाता है। शोध अध्ययन में अद्यतन सांख्यिकीय विधियों का उपयोग, विधितंत्र का प्रयोग तथा मानचित्रों का समावेश करने का प्रयास किया गया है। प्रश्नावली के माध्यम से क्षेत्र के जन सामान्य की भागीदारी भी सुनिश्चित की गयी है। सम्पूर्ण शोध का सर्वेक्षण, प्राथमिक समंकों (Primary Data) तथा द्वितीयक समंकों (Secondry Data) तथा व्यक्तिगत सर्वेक्षणों पर आधारित करके पूर्ण किया गया है। तहसील स्तर पर नदियों के जल स्तर का अनवीक्षण नियमित रूप से किया जाता है।

शोध संगठन -शोध संगठन के अन्तर्गत

  • अध्याय-1 में प्रस्तावना एवं सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि शीर्षक के अन्तर्गत सामानय परिचय, बाढ़ विभीषिका की संकल्पना के साथ-साथ साहित्य का पुनरावलोकन  किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन के उद्देश्य का स्पष्टीकरण किया गया है। अध्ययन क्षेत्र के चयन के आधार के साथ ही सर्वेक्षण एवं प्रयुक्त विधितन्त्र को भी प्रस्तुत किया गया है।
  • अध्याय-2 में अध्ययन क्षेत्र की भौगोलिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत अध्ययन क्षेत्र की अवस्थिति, संरचना, उच्चावच, जलवायविक दशायें, मृदा एवं वनस्पति का अध्ययन किया गया है। जनसंख्या परिदृश्य में जनसंख्या वितरण पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। औद्योगिक भूदृश्य तथा यातायात एवं संचार को भी प्रस्तुत किया गया है। 
  • अध्याय-3 में अपवाह प्रणाली के आविर्भाव एवं आकार शीर्षक के अन्तर्गत नदियों की उत्पत्ति एवं नदियाँ एवं नाले, मुख्य नदी गंगा-रामगंगा अपवाह प्रणाली के साथ-साथ नदियों के जल की गुणवत्ता को भी शोधार्थी द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
  • अध्याय-4 अध्ययन क्षेत्र में बाढ़ प्रभावित ग्राम शीर्षक के अन्तर्गत उच्च बाढ़ग्रस्त ग्राम, मध्यम बाढ़ग्रस्त ग्राम तथा निम्न बाढ़ग्रस्त ग्राम के साथ-साथ बाढ़ तीव्रता के आधार पर ग्रामों का विभाजन प्रस्तुत किया गया है।
  • अध्याय-5 में अध्ययन क्षेत्र में बाढ़ आने के उत्तरादायी कारक नामक शीर्षक के अन्तर्गत प्राकृतिक कारण, मानवीय कारण के साथ-साथ बाढ़ का स्वभाव, समय, अवधि, बारम्बारता एवं नदी विसर्प का अध्ययन को दर्शाया गया है।
  • अध्याय-6 जिसका शीर्षक भूमि उपयोग पर बाढ़ का प्रभाव है, के अन्तर्गत सामान्य भूमि उपयोग पर बाढ़ का प्रभाव, कृषित व अकृषित भूमि पर बाढ़ का प्रभाव, शस्य प्रतिरूप पर बाढ़ के प्रभाव के अध्ययन के साथ फसलोत्पादन एवं फसलचक्र पर बाढ़ का प्रभाव एवं उर्वरता सतर पर बाढ़ का प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
  • अध्याय-7 में आर्थिक क्रिया-कलाप एवं बाढ़ शीर्षक के अन्तर्गत मानव स्वास्थ्य एवं शिक्षा का बाढ़ का प्रभाव, आवासीय व्यवस्था पर बाढ़ का प्रभाव के साथ-साथ पशुपालन एवं मत्स्योत्पादन पर बाढ़ का प्रभाव, व्यवसाय एवं उद्योगधन्धों पर बाढ़ का प्रभाव तथा आय के अन्य स्रोतों पर बाढ़ के प्रभाव को प्रस्तुत किया गया है।
  • अध्याय-8 में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में क्षति आकलन शीर्षक के अन्तर्गत मानव जीवन क्षति, गृहक्षति, पशुधन क्षति, शस्यक्षति, मार्गक्षति के साथ-साथ लघु सेतुक्षति, तटबन्ध क्षति तथा औद्योगिक क्षति को प्रस्तुत किया गया है। 
  • अध्याय-9 में बाढ़ नियन्त्रण एवं नियोजन शीर्षक के अन्तर्गत अपवाह में सम्भव सुधार, बांँध एवं तटबन्धों का निर्माण, अपरदन अवरोधक कार्य के साथ-साथ बाढ़ चेतावनी प्रणाली तथा स्वयंसेवी संगठनों का सहयोग प्रस्तुत किया गया है।


सर्वान्त में चयनित ग्रन्थसूची, परिशिष्ट एवं छायाचित्र को भी शोधार्थी द्वारा दर्शाने का अथक् प्रयास किया गया है।

 

संदर्भ/REFERENCES

  • 1. Rigveda The hymns of Regveda, Griffith's Translation, Volume VIII, p.27.
  • 2. Lohana, M.P., Outline of Economic History of India, Part, Pre-British Period, Bombay, 1922 p. 63.
  • 3. William, G Floods, Newyork, 1955, p. 12.
  • 4. White, G Human adjustment to Floods, Washington, 1945, p. 225.
  • 5. गुप्ता, एन0 कुमार वैश्विक तपन से बाढ़ का संकट गहराया, विज्ञान प्रगति, पृष्ठ 39, जून 2011, नई दिल्ली, पृष्ठ 39.
  • 6. Katiyar, V.C., A Geographical Study of Floods in Uttar Pradesh with special reference to the Ghagara flood plain, unpub. thesis, 1967, p. 56.
  • 7. Saxena, D.P., Regional Geography of Vedic India, 1976, p. 308.
  • 8. Bajpai, R.P., The 1938 Floods in the Eastern United Provinces, Geographical Review, Calcutta, 1939, p. 2.
  • 9. U.P. Flood Reports Committee Report, Ministry of Power and Irrigation Flood Report, New Delhi, 1954, p. 45.
  • 10. Yadava, R.P., Human Adjustment to Floods in the Eastern Uttar Pradesh and Related Area Development Strategy, Unpub. thesis, B.H.U., Varanasi, 1981, p. 43