गंगा भारत की सबसे बड़ी नदी तथा संसार के लंबे जलमार्गों में से एक। गंगा का उद्गम उत्तर भारत में स्थित टेहरी गढ़वाल में 13,800 ऊँची हिमाच्छादित गंगोत्री के समीप एक हिमगुफा में है (स्थिति : 300 55’ उ. अ. तथा 790 7’ प. दे.)। इस स्थान को गोमुख कहते हैं। यहाँ इस नदी का नाम भागीरथी है।
इस नदी को संसार के अनेक पर्वतशिखरों-नंदा देवी, गुरला मांधाता, धौलागिरि, गोसाईथांन, कंचनजंगा और एवरेस्ट की पिघली हुई बर्फ से जल प्राप्त होता है। इस नदी का प्रसवण क्षेत्र वस्तुत: यामुन (बंदरपूँछ) से लेकर नंदादेवी तक विस्तृत है और यह नदी अनेक नदियों से मिलकर बनी है। इस कारण इस क्षेत्र को प्राचीनकाल में सप्तगंगम कहा करते थे। इसके पूर्व पश्चिम दो भाग हैं। पूर्वी क्षेत्र में बदरीनाथ
तक यह विष्णुगंगा कही जाती है और पश्चिमी क्षेत्र में द्रोणागिरि के किनारे धौला गंगा की धारा है। यह धारा जोशी मठ के निकट विष्णु गंगा में मिलती है और तब तह संयुक्त धारा अलकनंदा कही जाती है इसके आगे नंदप्रयाग में मंदाकिनी आकर अलकनंदा कही जाती है। इसके आगे नंदप्रयाग में मंदाकिनी आकर अलकनंदा में मिलती है और कर्णप्रयाग में पिंडरगंगा का मिलन होता है। तदनंतर रूद्रप्रयाग में गंगोत्री से निकलनेवाली भागीरथी और अलकनंदा का संगम होता है। और तब इसके आगे इन सभी धाराओं के संयोग से बनी धारा गंगा कहलाती है। ऋषिकेश क्षेत्र से होकर सुखी स्थान के निकट यह मैदान में प्रवेश करती है और दक्षिण-पश्चिम हरिद्वार की ओर, जो अति प्राचीन और पवित्र स्थान है, मुड़ जाती है। इसके बाद देहरादून, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर और फर्रूखाबाद जिलों में टेढ़ी मेढ़ी बहती है। फर्रूखाबाद जिले में रामगंगा इसमें आकर मिलती है। और तब आगे बढ़ने पर इलाहाबाद में यमुना आकर मिलती है। कदाचित पुराकाल में यहीं एक सरस्वती नाम की तीसरी नदी भी मिलती थी जिसका अब पता नहीं है। इस कारण यह स्थान त्रिवेणी संगम के नाम से प्रख्यात है। हिमालय से लेकर गंगा-युमना के संगम तक का सारा भूभाग प्राचीन काल में अंतर्वेद के नाम से प्रख्यात था। यह प्रदेश धन धान्य से समृद्ध और वैदिक संस्कृति का केंद्र रहा है।
प्रयाग से दक्षिण-पूर्व से पूर्व को बहती मिर्जापुर से होती हुई वाराणसी नगरी में प्रवेश करती है यहाँ इसके किनारे सुंदर घाटों का दृश्य बहुत ही आकर्षक और अनुपम है। ऐसा दृश्य संसार में अन्यत्र किसी नदी का नहीं मिलता। आगे जाने पर इसमें गोमती मिल जाती है। इसके बाद यह गाजीपुर जिले से होती हुई बिहार राज्य में प्रवेश करती है। यहां उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर बलिया जिले में घाघरा नदी इसमें मिलती है। घाघरा गंगा का संगम बदलता रहता है। बिहार में प्रवेश करने के कुछ दूर बाद दक्षिण से सोन आकर इसमें मिल जाती है। पटना के सम्मुख नेपाल से निकली हुई गंडक नदी इससे मिल जाती है। पूर्व में कोसी से मिलने के बाद राजमहल की पहाड़ियों के किनारे किनारे बहती प्राचीन गौड़ नगर को छूती हुई पूर्वमुखी हो गई है। किंतु राजमहल से लगभग 20 मील पहले यह दो धाराओं में बँट गई है। एक धारा मुर्शिदाबाद, बहरामपुर, नदिय, कालना, हुगली, चंदननगर होती हुई पश्चिम-दक्षिण की ओर बढ़कर बंगाल की खाड़ी में जा गिरती है। यही हुगली कही जाती है किंतु इस धारा को इस भूभाग के निवासी गंगा या भागीरथी कहते हैं। दूसरी धारा, जिसे मूल धारा कहना अधिक उचित होगा, अपने फूटने के स्थान से आगे पद्मा कहलाती है। और वह पाबना होती हुई गोआलंद पहुँचती है। गोआलंद के निकट इसमें ब्रह्मपुत्र की यमुना नामक धारा आकर मिलती है। यह मूल धारा ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर मेघना कही जाती है और वह नोआखाली के निकट समुद्र में गिरती है। वस्तुत: यही गंगा है और भूगोल ग्रंथों में इसे ही गंगा कहा गया है। इस प्रकार अपने उद्गम से लेकर मुहाने तक गंगा 1557 मील लंबी है।
इन दोनों धाराओं और समुद्र की रेखा के बीच जो त्रिकोणात्मक मुखभूमि (डेल्टा) है उसका क्षेत्रफल 28,080 वर्ग मील है। इन दोनों धाराओं के बीच सागरतट की लंबाई सागरतीर्थ से चट्टग्राम (चटगाँव) तक 370 मील के लगभग है। इस मुखभूमि में इन दो धाराओं के बीच उद्गम क्षेत्र के समान ही नौधाराएँ हैं जो अलग अलग सागर में गिरती हैं और उन सबके अपने नाम हैं। यथा-गंगा (मेघना), ब्रह्मपुत्र, हरिणहाट, पुस्फर, मुर्जाटा (कागा), बड़पुंग, मलिंजु, रायमंगल (युमना), हुगली।
ये संयुक्त नदियां बाढ़ में 18,00,000 घन फुट पानी का प्रस्राव (Disharge) प्रति सेकंड करती हैं, जो मिसीसिपी के उच्चतम प्रस्राव से भी अधिक है। व्यापार के लिये गंगा की सर्वप्रमुख डेल्टायी शाखा हुगली है। इसके मुहाने से लगभग 90 मील की दूरी पर स्थित कलकत्ता प्रमुख व्यावसायिक नगर एवं पत्तन है। नदी के मुहाने पर सुंदरवन का प्रसिद्ध एवं विस्तृत वन है जहाँ सदाबहार वृक्षों के सघन जंगल हैं। यहाँ सुंदरी नामक पेड़ अधिकता से उगते हैं।
गंगा का अपवाह क्षेत्र उत्तर में हिमालय की 700 मील लंबी श्रेणियों, दक्षिण में विंध्याचल पर्वत और पूर्व में बंगाल (अविभाजित) और ब्रह्मदेश को विभाजित करते वाली श्रेणियों द्वारा घिरा हुआ है। इसका क्षेत्रफल 4,32,480 वर्ग मील है।
इसकी ढाल लगभग समान है। सर्वाधिक ढाल (औसत 6 प्रति मील) इलाहाबाद और वाराणसी के बीच में है। वाराणसी ओर कलकत्ता के बीच में औसत ढाल 4 से 5 तथा कलकत्ता से समुद्र तक 1 से 2 प्रति मील है। समय समय पर नदी की धारा परिवर्तित होती रहती है और कभी-कभी नई धारा कई मील दूर होती है। प्राचीन काल के कितने ही ध्वस्त नगर इसके प्रमाण हैं।
नदी की घाटी उपजाऊ एवं घनी जनसंख्यावाली है। भारत के कुछ बड़े नगर, जैसे कलकत्ता, हबड़ा, पटना, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, आदि इसी नदी के किनारे स्थित हैं। व्यापारिक दृष्टि से गंगा का महत्व पहले की अपेक्षा अब कम हो गया है। इसका अधिक जल सिंचाई के लिए प्रयुक्त होता है। इसके लिए नदी से दो प्रमुख नहरें निकाली गई हैं। ऊपरी गंगा नहर और निचली गंगा नहर, जिसका उद्गम स्थल हरिद्वार में है। ये उत्तर प्रदेश में सिंचाई की दो प्रमुख सदाबाही प्रणालियाँ हैं। इस नदी पर छह रेलपुल क्रमश: गढ़मुक्तेश्वर, कानपुर, वाराणसी, प्रयाग, मोकामा और हाबड़ा (हुगली पर) हैं। (रा. प्र. सिं.; प. ला. गु.)
धार्मिक महत्व-गंगा का जो भौगोलिक महत्व है वह तो है ही, भारत निवासी अधिकांश लोगों की दृष्टि में उसका धार्मिक महत्व भी है। वह भारतवर्ष का राष्ट्रीय महातीर्थ है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो महत्व गीता को प्राप्त है वही धर्म के क्षेत्र में गंगा का है। उसे यह महत्व पुराणकाल में ही प्राप्त हुआ है। उससे पूर्व यद्यपि गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में दो स्थलों (10।75।5; 6।45।31) में उपलब्ध है तथापि उनमें उनके किसी महत्व की चर्चा नहीं है। उन दिनों आर्यो का मुख्य निवास पंजाब में सिंधु और सरस्वती नदी के काँठे में था इस कारण वे गंगा के नाम से परिचित होते हुए भी उसके महत्व से अपरिचित रहे। ऋग्वेदोत्तर काल में वे जब गंगा-यमुना के अंतर्वेदी प्रदेश में आए तो उन्होंने स्वाभाविक रूप से शतपथ ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक में गंगा की विशेष चर्चा की और पुराणों में तो गंगा की महत्ता की चर्चा जितनी हुई है उतनी किसी अन्य नदी की नहीं। पुराणों के मतानुसार पृथिवी के सर्व तीर्थों में गंगा प्रधान हैं। गंगा में मृत्यु होने से मनुष्य ही नहीं, निकृष्ट, कीट पतंग तक भी मोक्ष प्राप्त करते हैं। गंगा के दर्शन करने से ज्ञान, ऐश्वर्य, आयु, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि प्राप्त होता है। गंगा का जल स्पर्श करने से ब्रह्महत्या, गोहत्या, गुरुहत्या आदि के समस्त पाप छूट जाते हैं। सिंह को देखकर जिस प्रकार मृगादि पलायित होते हैं उसी प्रकार गंगास्नान निरत व्यक्ति को देखकर यमदूत भी भय खाते हैं। गंगा में अज्ञान में भी स्नान करने से सर्व पाप नष्ट होते हैं, ज्ञानपूर्वक स्नान करने पर मुक्ति प्राप्त होती है। गंगा की मृत्तिका सिर पर धारण करने से मनुष्य तेजशाली होता है; आदि आदि। इस विश्वास के फलस्वरूप लोग गंगा को माता के नाम से अभिहित करते हैं और पर्वो के अवसर पर दूर दूर से गंगास्नान करने आते हैं। काशी और प्रयाग में गंगास्नान का विशेष महत्व है। फलस्वरूप प्राय: सभी नगरों के गंगातट पर घाट बने हुए हैं। मृत्युपरांत गंगातट पर शवदाह भी मोक्ष अथवा स्वर्गप्राप्ति में सहायक माना जाता है। आसन्न मृत्यु जानकर बहुत से लोग वाराणसी आकर रहने लगते हैं।
गंगा की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार गंगा मनोरमा अथवा मैना के गर्भ से जन्मी हिमालय की कन्या हैं। देवगण ने किसी कारण गंगा का अपहरण कर लिया और स्वर्ग ले गए। तब से ब्रह्मा के कमंडलु में रहने लगीं। कृत्तिवास रामायण के अनुसार देवगण उन्हें शिव से विवाह कराने के निमित्त ले गए थे। जब मैना ने गंगा को घर से गायब देखा तो उसे जलमयी होने का शाप दे दिया।
उधर सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया और दिग्विजय के निमित्त अश्व छूटा। उस अश्व के राक्षार्थ उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। इंद्र ने यज्ञ को विध्वंस करने के उद्देश्य से यज्ञ के अश्व को कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। सगरपुत्र अश्व ढूंढ़ते हुए आश्रम में पहुंचे। कपिल मुनि ध्यानावस्थित थे। राजकुमारों ने उत्पात करना आरंभ किया तब मुनि ने उन्हें भस्म होने का शाप दे दिया और वे सब भस्म हो गए। सगर का पौत्र उनको खोजता हुआ मुनि के आश्रम में में पहुँचा और जब उसे वहां सारी बातें ज्ञात हुई तो उसने कपिल मुनि से अनुनय विनय की। मुनि ने प्रसन्न होकर कहा कि स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाओ और उनके जल को सगरपुत्रों की राख पर छिड़को तब उनका उद्धार होगा। निदान अंशुमान ने गंगा को भूतल पर लाने के लिए हिमालय पर जाकर तप करना आरंभ किया। किंतु उन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। उनके पुत्र दिलीप ने भी प्रयास किया पर वे भी सफल नहीं हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ ने तप कर ब्रह्मा को संतुष्ट किया। ब्रह्मा देवगण सहित भगीरथ के पास आए। भगीरथ ने उनसे अपनी मनोकामना प्रकट की और ब्रह्मा ने गंगा को देना स्वीकार कर लिया और गंगा भी पृथिवी पर आने को राजी हो गई। किंतु उनके प्रवाह का वेग असाधारण था अत: आवश्यक था कि कोई बीच में उन्हें रोक ले अन्यथा वे सीधे पाताल में चली जाएँगी। तब भगीरथ ने शिव को प्रसन्न कर उन्हें गंगा को अपने ऊपर धारण करने के लिए राजी किया और गंगा शिव जी के जटा जूट पर गिरकर उसमें समा गई। तब शिव ने अपनी जटा खोलकर उन्हें भूमि पर छोड़ा और वे विंदुसरोवर में गिरीं। सरोवर में गिरने से उनकी सात धाराएँ हुई। ्ह्रादिनी, पावनी और नलिनी नाम की तीन धाराएँ पूर्व की ओर और वंक्षु, सीता और सिंधु नामक धाराएँ पश्चिम की ओर बह निकलीं। सातवीं धारा भगीरथ की बनाई हुई राह से चली इस कारण उसका नाम भागीरथी पड़ा। उनके जल के छीटों से सगरपुत्रों का उद्धार हुआ।
गंगा का एक नाम जाह्नवी हैं। इस संबंध में एक उपकथा रामायण और विष्णुपुराण में उपलब्ध होती है। भगीरथ पर चढ़कर आगे आगे चलने लगे और गंगा उनका अनुगमन करती हुई प्रबल वेग से चली। उनके इस प्रबल वेग के कारण मार्ग में पड़नेवाले ग्राम, नगर, वन, उपवन डूबने और बहने लगे तथा जह्नु ऋषि की यज्ञशाला भी डूब गई। इस प्रकार उनके यज्ञ में विध्न पड़ गया। ऋषि ने जब यह देखा तो अपने योग बल से गंगा को पी गए। इसे देखकर मनुष्य, देव सभी व्याकुल हो उठे और उन्होंने ऋषि से गंगा को मुक्त कर देने के लिए अनुनय विनय किया। तब ऋषि ने अपने कर्णरध्रं से गंगा को निकाल दिया। इस कारण गंगा को जह्नुसुता और जाह्नवी कहते हैं।
भागवत पुराण में गंगा संबंधी एक अन्य आख्यान है। लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा विष्णु की पत्नियां थीं। वे तीनों उनके निकट ही रहती थीं। एक दिन गंगा किसी कारण विष्णु को एकटक निहारने लगी। भगवान इसे देख मुस्करा पड़े। यह देख सरस्वती सौतियाडाह के कारण जल भुन गई और विष्णु को खरी खोटी कहने लगीं। विष्णु ने चुपचाप खिसक जाने में ही कुशल समझी। गंगा और सरस्वती दोनों उलझ पड़ीं। पद्मा मध्यस्थ बनकर दोनों के कलह को शांत करने गई। परिणाम उल्टा निकला। सरस्वती ने पद्मा को शाप दे दिया-नदी रूप धारण कर पापियों के आवास मर्त्यलोक में रहो। गंगा से यह देखा नहीं गया। वे बोल उठीं-जिस तरह निर्दोष पद्मा को सरस्वती ने शाप दिया है उसी तरह उसे भी शाप लगे। उसे भी मर्त्यलोक जाकर पापराशि ग्रहण करनी पड़े। तब इसी प्रकार सरस्वती ने भी गंगा को पाप का फल भोगने का शाप दिया। इस प्रकार तीनों नदी बन कर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई। इसी के क्रम में विष्णु के वचन के माध्यम से भगीरथवाली कथा भी इस पुराण में जोड़ दी गई है।
एक अन्य पौराणिक कथा है कि गंगा और गौरी हिमालय की दो कन्याएँ थीं। गंगा ज्येष्ठ और गौरी कनिष्ठ थीं। जिस तरह गौरी ने शिव को प्राप्त करने की आकांक्षा की थी उसी तरह की आकांक्षा गंगा को भी थी। किंतु गंगा कुछ गर्विष्ठ थीं। जिस समय प्रलय से सारा संसार डूब गया उस समय गंगा किसी प्रकार बची रह गई। उन्होंने अपने गर्व में अपने भीगे केश झाड़े। उस समय उनके केश का एक बाल टूटकर कैलाश पर तपरत शिव के शरीर पर जा गिरा। इससे शिव क्रुद्ध हुए और उसे पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दिया। शाप सुनकर गंगा बहुत घबराई और शिव से अनुनय विनय करने लगीं। तब शिव ने कहा कि पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद ही मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करूँगा। इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ और वे शंकर की भार्या बनीं। पार्वती के मन में सौत के भाव जागे और वह गंगा को तरह-तरह से त्रास देने लगीं। तब गंगा ने शिव से शिकायत की। शिव ने उन्हें अपनी जटा में छिपा लिया। गंगा और पार्वती के इस सौत भाव की कथा महाराष्ट्र में विशेष प्रचलित है और इसका वर्णन वहां के लोकगीतों में मिलता है।
गंगा की मूर्ति-भारतीय कला में गंगा की कल्पना का विशद मूर्तन हुआ है। गंगा में मकर और यमुना में कच्छप (कछुआ) अधिक संख्या में मिलते हैं। अत: मूर्तिकारों ने इन दोनों का अंकन क्रमश: मकरवाहिनी और कच्छपवाहिनी घटधारिणी नारी के रूप में किया है। इन दोनों के प्राकृतिक (भौगोलिक) स्वरूप को कलाकारों ने विदिशा (मध्य प्रदेश) के निकट स्थित उदयगिरि पहाड़ी में कोरे गए लयणों में से एक की दीवार पर सजीव रूप से मूर्त किया है। दो जलधाराएँ दो भिन्न दिशाओं से आकर एक स्थान पर एकाकार होती हैं। इन दोनों जलधाराओं के बीच में गंगा और यमुना की अभिव्यक्ति के लिए उपर्युक्त वर्णित रूप में मकरवाहिनी और कच्छपवाहिनी नारी का अंकन हुआ है। गंगा और यमुना दोनों को नदी देवता का पद प्राप्त है किंतु उनका मूर्तन देवमंदिरों के द्वारों के द्वारपाल के स्थान पर ही पाया जाता है। इस रूप का आरंभ गुप्तकाल (चौथी शती ई.) से आरंभ होता है और बहुत बाद तक चलता रहता है। आरंभ में अकेले गंगा की ही कल्पना उद्भूत हुई जान पड़ती है। उदयगिरि के लयण द्वारों के दोनों ओर केवल मकरवाहिनी वृक्षिकाओं (वृक्ष पकड़कर खड़ी नारी) का ही अंकन हुआ है। कच्छपवाहिनी की कल्पना परवर्ती वास्तुओं में ही देखने को मिलती है। (परमेश्वरीलाल गुप्त)
इस नदी को संसार के अनेक पर्वतशिखरों-नंदा देवी, गुरला मांधाता, धौलागिरि, गोसाईथांन, कंचनजंगा और एवरेस्ट की पिघली हुई बर्फ से जल प्राप्त होता है। इस नदी का प्रसवण क्षेत्र वस्तुत: यामुन (बंदरपूँछ) से लेकर नंदादेवी तक विस्तृत है और यह नदी अनेक नदियों से मिलकर बनी है। इस कारण इस क्षेत्र को प्राचीनकाल में सप्तगंगम कहा करते थे। इसके पूर्व पश्चिम दो भाग हैं। पूर्वी क्षेत्र में बदरीनाथ
तक यह विष्णुगंगा कही जाती है और पश्चिमी क्षेत्र में द्रोणागिरि के किनारे धौला गंगा की धारा है। यह धारा जोशी मठ के निकट विष्णु गंगा में मिलती है और तब तह संयुक्त धारा अलकनंदा कही जाती है इसके आगे नंदप्रयाग में मंदाकिनी आकर अलकनंदा कही जाती है। इसके आगे नंदप्रयाग में मंदाकिनी आकर अलकनंदा में मिलती है और कर्णप्रयाग में पिंडरगंगा का मिलन होता है। तदनंतर रूद्रप्रयाग में गंगोत्री से निकलनेवाली भागीरथी और अलकनंदा का संगम होता है। और तब इसके आगे इन सभी धाराओं के संयोग से बनी धारा गंगा कहलाती है। ऋषिकेश क्षेत्र से होकर सुखी स्थान के निकट यह मैदान में प्रवेश करती है और दक्षिण-पश्चिम हरिद्वार की ओर, जो अति प्राचीन और पवित्र स्थान है, मुड़ जाती है। इसके बाद देहरादून, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर और फर्रूखाबाद जिलों में टेढ़ी मेढ़ी बहती है। फर्रूखाबाद जिले में रामगंगा इसमें आकर मिलती है। और तब आगे बढ़ने पर इलाहाबाद में यमुना आकर मिलती है। कदाचित पुराकाल में यहीं एक सरस्वती नाम की तीसरी नदी भी मिलती थी जिसका अब पता नहीं है। इस कारण यह स्थान त्रिवेणी संगम के नाम से प्रख्यात है। हिमालय से लेकर गंगा-युमना के संगम तक का सारा भूभाग प्राचीन काल में अंतर्वेद के नाम से प्रख्यात था। यह प्रदेश धन धान्य से समृद्ध और वैदिक संस्कृति का केंद्र रहा है।
प्रयाग से दक्षिण-पूर्व से पूर्व को बहती मिर्जापुर से होती हुई वाराणसी नगरी में प्रवेश करती है यहाँ इसके किनारे सुंदर घाटों का दृश्य बहुत ही आकर्षक और अनुपम है। ऐसा दृश्य संसार में अन्यत्र किसी नदी का नहीं मिलता। आगे जाने पर इसमें गोमती मिल जाती है। इसके बाद यह गाजीपुर जिले से होती हुई बिहार राज्य में प्रवेश करती है। यहां उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर बलिया जिले में घाघरा नदी इसमें मिलती है। घाघरा गंगा का संगम बदलता रहता है। बिहार में प्रवेश करने के कुछ दूर बाद दक्षिण से सोन आकर इसमें मिल जाती है। पटना के सम्मुख नेपाल से निकली हुई गंडक नदी इससे मिल जाती है। पूर्व में कोसी से मिलने के बाद राजमहल की पहाड़ियों के किनारे किनारे बहती प्राचीन गौड़ नगर को छूती हुई पूर्वमुखी हो गई है। किंतु राजमहल से लगभग 20 मील पहले यह दो धाराओं में बँट गई है। एक धारा मुर्शिदाबाद, बहरामपुर, नदिय, कालना, हुगली, चंदननगर होती हुई पश्चिम-दक्षिण की ओर बढ़कर बंगाल की खाड़ी में जा गिरती है। यही हुगली कही जाती है किंतु इस धारा को इस भूभाग के निवासी गंगा या भागीरथी कहते हैं। दूसरी धारा, जिसे मूल धारा कहना अधिक उचित होगा, अपने फूटने के स्थान से आगे पद्मा कहलाती है। और वह पाबना होती हुई गोआलंद पहुँचती है। गोआलंद के निकट इसमें ब्रह्मपुत्र की यमुना नामक धारा आकर मिलती है। यह मूल धारा ब्रह्मपुत्र के साथ मिलकर मेघना कही जाती है और वह नोआखाली के निकट समुद्र में गिरती है। वस्तुत: यही गंगा है और भूगोल ग्रंथों में इसे ही गंगा कहा गया है। इस प्रकार अपने उद्गम से लेकर मुहाने तक गंगा 1557 मील लंबी है।
इन दोनों धाराओं और समुद्र की रेखा के बीच जो त्रिकोणात्मक मुखभूमि (डेल्टा) है उसका क्षेत्रफल 28,080 वर्ग मील है। इन दोनों धाराओं के बीच सागरतट की लंबाई सागरतीर्थ से चट्टग्राम (चटगाँव) तक 370 मील के लगभग है। इस मुखभूमि में इन दो धाराओं के बीच उद्गम क्षेत्र के समान ही नौधाराएँ हैं जो अलग अलग सागर में गिरती हैं और उन सबके अपने नाम हैं। यथा-गंगा (मेघना), ब्रह्मपुत्र, हरिणहाट, पुस्फर, मुर्जाटा (कागा), बड़पुंग, मलिंजु, रायमंगल (युमना), हुगली।
ये संयुक्त नदियां बाढ़ में 18,00,000 घन फुट पानी का प्रस्राव (Disharge) प्रति सेकंड करती हैं, जो मिसीसिपी के उच्चतम प्रस्राव से भी अधिक है। व्यापार के लिये गंगा की सर्वप्रमुख डेल्टायी शाखा हुगली है। इसके मुहाने से लगभग 90 मील की दूरी पर स्थित कलकत्ता प्रमुख व्यावसायिक नगर एवं पत्तन है। नदी के मुहाने पर सुंदरवन का प्रसिद्ध एवं विस्तृत वन है जहाँ सदाबहार वृक्षों के सघन जंगल हैं। यहाँ सुंदरी नामक पेड़ अधिकता से उगते हैं।
गंगा का अपवाह क्षेत्र उत्तर में हिमालय की 700 मील लंबी श्रेणियों, दक्षिण में विंध्याचल पर्वत और पूर्व में बंगाल (अविभाजित) और ब्रह्मदेश को विभाजित करते वाली श्रेणियों द्वारा घिरा हुआ है। इसका क्षेत्रफल 4,32,480 वर्ग मील है।
इसकी ढाल लगभग समान है। सर्वाधिक ढाल (औसत 6 प्रति मील) इलाहाबाद और वाराणसी के बीच में है। वाराणसी ओर कलकत्ता के बीच में औसत ढाल 4 से 5 तथा कलकत्ता से समुद्र तक 1 से 2 प्रति मील है। समय समय पर नदी की धारा परिवर्तित होती रहती है और कभी-कभी नई धारा कई मील दूर होती है। प्राचीन काल के कितने ही ध्वस्त नगर इसके प्रमाण हैं।
नदी की घाटी उपजाऊ एवं घनी जनसंख्यावाली है। भारत के कुछ बड़े नगर, जैसे कलकत्ता, हबड़ा, पटना, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, आदि इसी नदी के किनारे स्थित हैं। व्यापारिक दृष्टि से गंगा का महत्व पहले की अपेक्षा अब कम हो गया है। इसका अधिक जल सिंचाई के लिए प्रयुक्त होता है। इसके लिए नदी से दो प्रमुख नहरें निकाली गई हैं। ऊपरी गंगा नहर और निचली गंगा नहर, जिसका उद्गम स्थल हरिद्वार में है। ये उत्तर प्रदेश में सिंचाई की दो प्रमुख सदाबाही प्रणालियाँ हैं। इस नदी पर छह रेलपुल क्रमश: गढ़मुक्तेश्वर, कानपुर, वाराणसी, प्रयाग, मोकामा और हाबड़ा (हुगली पर) हैं। (रा. प्र. सिं.; प. ला. गु.)
धार्मिक महत्व-गंगा का जो भौगोलिक महत्व है वह तो है ही, भारत निवासी अधिकांश लोगों की दृष्टि में उसका धार्मिक महत्व भी है। वह भारतवर्ष का राष्ट्रीय महातीर्थ है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो महत्व गीता को प्राप्त है वही धर्म के क्षेत्र में गंगा का है। उसे यह महत्व पुराणकाल में ही प्राप्त हुआ है। उससे पूर्व यद्यपि गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में दो स्थलों (10।75।5; 6।45।31) में उपलब्ध है तथापि उनमें उनके किसी महत्व की चर्चा नहीं है। उन दिनों आर्यो का मुख्य निवास पंजाब में सिंधु और सरस्वती नदी के काँठे में था इस कारण वे गंगा के नाम से परिचित होते हुए भी उसके महत्व से अपरिचित रहे। ऋग्वेदोत्तर काल में वे जब गंगा-यमुना के अंतर्वेदी प्रदेश में आए तो उन्होंने स्वाभाविक रूप से शतपथ ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक में गंगा की विशेष चर्चा की और पुराणों में तो गंगा की महत्ता की चर्चा जितनी हुई है उतनी किसी अन्य नदी की नहीं। पुराणों के मतानुसार पृथिवी के सर्व तीर्थों में गंगा प्रधान हैं। गंगा में मृत्यु होने से मनुष्य ही नहीं, निकृष्ट, कीट पतंग तक भी मोक्ष प्राप्त करते हैं। गंगा के दर्शन करने से ज्ञान, ऐश्वर्य, आयु, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि प्राप्त होता है। गंगा का जल स्पर्श करने से ब्रह्महत्या, गोहत्या, गुरुहत्या आदि के समस्त पाप छूट जाते हैं। सिंह को देखकर जिस प्रकार मृगादि पलायित होते हैं उसी प्रकार गंगास्नान निरत व्यक्ति को देखकर यमदूत भी भय खाते हैं। गंगा में अज्ञान में भी स्नान करने से सर्व पाप नष्ट होते हैं, ज्ञानपूर्वक स्नान करने पर मुक्ति प्राप्त होती है। गंगा की मृत्तिका सिर पर धारण करने से मनुष्य तेजशाली होता है; आदि आदि। इस विश्वास के फलस्वरूप लोग गंगा को माता के नाम से अभिहित करते हैं और पर्वो के अवसर पर दूर दूर से गंगास्नान करने आते हैं। काशी और प्रयाग में गंगास्नान का विशेष महत्व है। फलस्वरूप प्राय: सभी नगरों के गंगातट पर घाट बने हुए हैं। मृत्युपरांत गंगातट पर शवदाह भी मोक्ष अथवा स्वर्गप्राप्ति में सहायक माना जाता है। आसन्न मृत्यु जानकर बहुत से लोग वाराणसी आकर रहने लगते हैं।
गंगा की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार गंगा मनोरमा अथवा मैना के गर्भ से जन्मी हिमालय की कन्या हैं। देवगण ने किसी कारण गंगा का अपहरण कर लिया और स्वर्ग ले गए। तब से ब्रह्मा के कमंडलु में रहने लगीं। कृत्तिवास रामायण के अनुसार देवगण उन्हें शिव से विवाह कराने के निमित्त ले गए थे। जब मैना ने गंगा को घर से गायब देखा तो उसे जलमयी होने का शाप दे दिया।
उधर सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया और दिग्विजय के निमित्त अश्व छूटा। उस अश्व के राक्षार्थ उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। इंद्र ने यज्ञ को विध्वंस करने के उद्देश्य से यज्ञ के अश्व को कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। सगरपुत्र अश्व ढूंढ़ते हुए आश्रम में पहुंचे। कपिल मुनि ध्यानावस्थित थे। राजकुमारों ने उत्पात करना आरंभ किया तब मुनि ने उन्हें भस्म होने का शाप दे दिया और वे सब भस्म हो गए। सगर का पौत्र उनको खोजता हुआ मुनि के आश्रम में में पहुँचा और जब उसे वहां सारी बातें ज्ञात हुई तो उसने कपिल मुनि से अनुनय विनय की। मुनि ने प्रसन्न होकर कहा कि स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाओ और उनके जल को सगरपुत्रों की राख पर छिड़को तब उनका उद्धार होगा। निदान अंशुमान ने गंगा को भूतल पर लाने के लिए हिमालय पर जाकर तप करना आरंभ किया। किंतु उन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। उनके पुत्र दिलीप ने भी प्रयास किया पर वे भी सफल नहीं हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ ने तप कर ब्रह्मा को संतुष्ट किया। ब्रह्मा देवगण सहित भगीरथ के पास आए। भगीरथ ने उनसे अपनी मनोकामना प्रकट की और ब्रह्मा ने गंगा को देना स्वीकार कर लिया और गंगा भी पृथिवी पर आने को राजी हो गई। किंतु उनके प्रवाह का वेग असाधारण था अत: आवश्यक था कि कोई बीच में उन्हें रोक ले अन्यथा वे सीधे पाताल में चली जाएँगी। तब भगीरथ ने शिव को प्रसन्न कर उन्हें गंगा को अपने ऊपर धारण करने के लिए राजी किया और गंगा शिव जी के जटा जूट पर गिरकर उसमें समा गई। तब शिव ने अपनी जटा खोलकर उन्हें भूमि पर छोड़ा और वे विंदुसरोवर में गिरीं। सरोवर में गिरने से उनकी सात धाराएँ हुई। ्ह्रादिनी, पावनी और नलिनी नाम की तीन धाराएँ पूर्व की ओर और वंक्षु, सीता और सिंधु नामक धाराएँ पश्चिम की ओर बह निकलीं। सातवीं धारा भगीरथ की बनाई हुई राह से चली इस कारण उसका नाम भागीरथी पड़ा। उनके जल के छीटों से सगरपुत्रों का उद्धार हुआ।
गंगा का एक नाम जाह्नवी हैं। इस संबंध में एक उपकथा रामायण और विष्णुपुराण में उपलब्ध होती है। भगीरथ पर चढ़कर आगे आगे चलने लगे और गंगा उनका अनुगमन करती हुई प्रबल वेग से चली। उनके इस प्रबल वेग के कारण मार्ग में पड़नेवाले ग्राम, नगर, वन, उपवन डूबने और बहने लगे तथा जह्नु ऋषि की यज्ञशाला भी डूब गई। इस प्रकार उनके यज्ञ में विध्न पड़ गया। ऋषि ने जब यह देखा तो अपने योग बल से गंगा को पी गए। इसे देखकर मनुष्य, देव सभी व्याकुल हो उठे और उन्होंने ऋषि से गंगा को मुक्त कर देने के लिए अनुनय विनय किया। तब ऋषि ने अपने कर्णरध्रं से गंगा को निकाल दिया। इस कारण गंगा को जह्नुसुता और जाह्नवी कहते हैं।
भागवत पुराण में गंगा संबंधी एक अन्य आख्यान है। लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा विष्णु की पत्नियां थीं। वे तीनों उनके निकट ही रहती थीं। एक दिन गंगा किसी कारण विष्णु को एकटक निहारने लगी। भगवान इसे देख मुस्करा पड़े। यह देख सरस्वती सौतियाडाह के कारण जल भुन गई और विष्णु को खरी खोटी कहने लगीं। विष्णु ने चुपचाप खिसक जाने में ही कुशल समझी। गंगा और सरस्वती दोनों उलझ पड़ीं। पद्मा मध्यस्थ बनकर दोनों के कलह को शांत करने गई। परिणाम उल्टा निकला। सरस्वती ने पद्मा को शाप दे दिया-नदी रूप धारण कर पापियों के आवास मर्त्यलोक में रहो। गंगा से यह देखा नहीं गया। वे बोल उठीं-जिस तरह निर्दोष पद्मा को सरस्वती ने शाप दिया है उसी तरह उसे भी शाप लगे। उसे भी मर्त्यलोक जाकर पापराशि ग्रहण करनी पड़े। तब इसी प्रकार सरस्वती ने भी गंगा को पाप का फल भोगने का शाप दिया। इस प्रकार तीनों नदी बन कर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई। इसी के क्रम में विष्णु के वचन के माध्यम से भगीरथवाली कथा भी इस पुराण में जोड़ दी गई है।
एक अन्य पौराणिक कथा है कि गंगा और गौरी हिमालय की दो कन्याएँ थीं। गंगा ज्येष्ठ और गौरी कनिष्ठ थीं। जिस तरह गौरी ने शिव को प्राप्त करने की आकांक्षा की थी उसी तरह की आकांक्षा गंगा को भी थी। किंतु गंगा कुछ गर्विष्ठ थीं। जिस समय प्रलय से सारा संसार डूब गया उस समय गंगा किसी प्रकार बची रह गई। उन्होंने अपने गर्व में अपने भीगे केश झाड़े। उस समय उनके केश का एक बाल टूटकर कैलाश पर तपरत शिव के शरीर पर जा गिरा। इससे शिव क्रुद्ध हुए और उसे पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दिया। शाप सुनकर गंगा बहुत घबराई और शिव से अनुनय विनय करने लगीं। तब शिव ने कहा कि पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद ही मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करूँगा। इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ और वे शंकर की भार्या बनीं। पार्वती के मन में सौत के भाव जागे और वह गंगा को तरह-तरह से त्रास देने लगीं। तब गंगा ने शिव से शिकायत की। शिव ने उन्हें अपनी जटा में छिपा लिया। गंगा और पार्वती के इस सौत भाव की कथा महाराष्ट्र में विशेष प्रचलित है और इसका वर्णन वहां के लोकगीतों में मिलता है।
गंगा की मूर्ति-भारतीय कला में गंगा की कल्पना का विशद मूर्तन हुआ है। गंगा में मकर और यमुना में कच्छप (कछुआ) अधिक संख्या में मिलते हैं। अत: मूर्तिकारों ने इन दोनों का अंकन क्रमश: मकरवाहिनी और कच्छपवाहिनी घटधारिणी नारी के रूप में किया है। इन दोनों के प्राकृतिक (भौगोलिक) स्वरूप को कलाकारों ने विदिशा (मध्य प्रदेश) के निकट स्थित उदयगिरि पहाड़ी में कोरे गए लयणों में से एक की दीवार पर सजीव रूप से मूर्त किया है। दो जलधाराएँ दो भिन्न दिशाओं से आकर एक स्थान पर एकाकार होती हैं। इन दोनों जलधाराओं के बीच में गंगा और यमुना की अभिव्यक्ति के लिए उपर्युक्त वर्णित रूप में मकरवाहिनी और कच्छपवाहिनी नारी का अंकन हुआ है। गंगा और यमुना दोनों को नदी देवता का पद प्राप्त है किंतु उनका मूर्तन देवमंदिरों के द्वारों के द्वारपाल के स्थान पर ही पाया जाता है। इस रूप का आरंभ गुप्तकाल (चौथी शती ई.) से आरंभ होता है और बहुत बाद तक चलता रहता है। आरंभ में अकेले गंगा की ही कल्पना उद्भूत हुई जान पड़ती है। उदयगिरि के लयण द्वारों के दोनों ओर केवल मकरवाहिनी वृक्षिकाओं (वृक्ष पकड़कर खड़ी नारी) का ही अंकन हुआ है। कच्छपवाहिनी की कल्पना परवर्ती वास्तुओं में ही देखने को मिलती है। (परमेश्वरीलाल गुप्त)
Hindi Title
गंगा
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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