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कादम्बिनी, मई 2015
‘गोमती के किनारे’ नाम से उस दौर की महान अभिनेत्री मीना कुमारी को लेकर एक फिल्म बनाई थी। इस फिल्म की पूरी कहानी का ताना-बाना गंगा नदी को केन्द्र में रखकर बुना गया था। नदी और सिनेमा का जो रिश्ता रहा वह कुछ अलग ही रहा है।
नदी का ताल्लुक महज सिनेमा से नहीं, इसका फलक बहुत विराट है। इसका ताल्लुक तो इनसान के पूरे जीवन से है। नदी सम्पूर्ण मनुष्यता को सुख देती है। नदी का पानी खेतों में उगी फसलों को नवजीवन देता है। खेतों से ही अन्न और सब्जियाँ आती हैं जिनसे जीवन चलता है।
हिन्दुस्तान तो वैसे भी नदियों का देश है गंगा नदी की महानता कुछ ऐसी है कि यह खेतों को और इनसानों को तो जीवन देती ही है। इनसान के मरने के बाद भी उसकी अस्थियाँ और राख इसी में प्रवाहित की जाती है। गंगा में न जाने देश की कितनी महानतम हस्तियों की अस्थियाँ और राख प्रवाहित की गई हैं।
महानतम लोगों की ही बात क्यों करें? आम आदमी भी तो अपने परिजनों और प्रियजनों की मौत के बाद उनकी अस्थियाँ और राख गंगा में ही प्रवाहित करता है। मैंने उस जमाने की नामचीन अभिनेत्री मीना कुमारी को लेकर- ‘गोमती के किनारे’ फिल्म बनाई थी। इस फिल्म का केन्द्र बिन्दु है गंगा नदी। फिल्म की कहानी के बीज गंगा नदी में छिपे हैं। फिल्म का सब्जेक्ट ही गंगा नदी से निकलकर आता है।
नदी किनारे एक मन्दिर था और इसी मन्दिर से कहानी का ताना-बाना जुड़ा था। मन्दिर से ही कहानी का एक नया मोड़ शुरू होता है।
मैंने फिल्म में दिखाया था कि गंगा कैसे एक बाँझ स्त्री को पुत्र देती है, फिल्म में गंगा नदी की महिमा को ग्लोरीफाई किया था। गंगा मेरी फिल्म के लिए एक प्रेरणा बन गई। आप जरा हिन्दू माइथालाॅजी में जाइए। हमारी धरती ने कृष्ण से बड़ा महानायक पैदा नहीं किया। देखिए यमुना किनारे ही राधा और कृष्ण का प्रेम पनपता है। उनके जीवन की सारी लीलाएँ यमुना किनारे ही हैं। उनका सारा कर्मक्षेत्र यमुना के आसपास ही है।
जहाँ तक हिन्दी सिनेमा और नदी का ताल्लुक है तो देखिए उस दौर के कितने शायरों ने नदियों को केन्द्र में रखकर कितने सुन्दर गीत रचे हैं। सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फिल्म ‘मिलन’ को याद करिए। इस फिल्म में नदी में ही नाव पर इतना मधुर गीत- ‘सावन का महीना पवन करे शोर जियरा रे झूमे ऐसे जैसे वन में नाचे मोर,’ फिलमाया गया है। महान फिल्मकार बिमल राय की ‘मधुमति’ में कविराज शैलेन्द्र के इस गीत- ‘सुहाना सफर और ये मौसम हसी’ के इस टुकड़े - ‘ये गोरी नदियों का चलना उछलके जैसे अल्हड़ चले पिय से मिलके...’ को सुनें तो कवि की प्रेरणास्रोत नजर आती है - नदी। नदी ने गीत में एक नई ताजगी भर दी है।
बैजूबावरा के गीत और संगीत को देखिए। संगीतकार नौशाद ने कैसे गीतों को सजाया है अपने संगीत से। ‘तू गंगा की मौज मैं जमना का धारा...,’ तो नदी कितनी इंस्पायर करती है एक गीतकार और संगीतकार को। बैजू बावरा की फिल्म इसकी एक बहुत ही खूबसूरत मिसाल है।
बहती नदी का पानी और झरने से गिरता पानी किसी के भी हृदय को आहलादित और रोमांचित कर देता है। अगर कोई शायर या फिल्ममेकर उससे रूबरू हो रहा है तो क्या कहने। उसकी क्रिएटीविटी खिल उठती है नदी और झरने के सान्निध्य में।
नदी की बात चल रही है तो मुझे याद आ रही है सुनील दत्त साहब की। मैं और दत्त साहब बद्रीनाथ धाम की यात्रा के लिए साथ आए थे। काफी पुराना वाकया है। बद्रीनाथ धाम के दर्शन के बाद दत्त साहब ने मुझसे कहा कि, “चल इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम पर हो आते हैं।” तो चल दिए हम दोनों त्रिवेणी संगम की यात्रा पर। गंगा-यमुना और सरस्वती नदी को इस त्रिवेणी को देखने पहुँचे तो दोनों चले गए संगम के दूसरे छोर पर। इतना अच्छा लगा कि दत्त साहब कहने लगे पाँच मिनट और रूकते हैं सावन यहाँ पर। मैं भी त्रिवेणी के किनारे उस दूसरे छोर पर एक अलग-सी मस्ती में खो गया। अब दोनों की ये हालत कि पाँच-पाँच मिनट करते-करते आधा घण्टा हो गया वहाँ ठहरे-ठहरे। दोनों का मन ही न करे कि वहाँ से टलें। तब दत्त साहब ने कहा सावन चल। मन तो नहीं कर रहा यहाँ से जाने का, पर नहीं गए तो यहीं साधु बन जाएँगे और धूनी रमानी पड़ेगी। उस दिन ‘गंगा-यमुना और सरस्वती’ की उस त्रिवेणी पर शिद्दत से महसूस हुई नदियों की हस्ती।
नदी का बहता पानी मनुष्य को प्रेरणा देता है चलते रहने की। नदी सिम्बल है सतत प्रवहमान बने रहने की। यही पानी जब रूक जाता है, तो एक तालाब में तब्दील हो जाता है और इसका पानी संड़ाध मारने लगता है। राकेश रोशन की फिल्म- ‘कहो न प्यार है’ के लिए जब ‘प्यार की कश्ती में लहरों की मस्ती में...’ लिखा तो नदी ने ही इंस्पायर किया इस गीत को रचने के लिए। अब मैं नदी पर जितना कहूँ, कम होगा। मेरी क्रिएटीविटी का स्रोत है नदी।
(लेखक जाने-माने फिल्मकार हैं)
नदी का ताल्लुक महज सिनेमा से नहीं, इसका फलक बहुत विराट है। इसका ताल्लुक तो इनसान के पूरे जीवन से है। नदी सम्पूर्ण मनुष्यता को सुख देती है। नदी का पानी खेतों में उगी फसलों को नवजीवन देता है। खेतों से ही अन्न और सब्जियाँ आती हैं जिनसे जीवन चलता है।
हिन्दुस्तान तो वैसे भी नदियों का देश है गंगा नदी की महानता कुछ ऐसी है कि यह खेतों को और इनसानों को तो जीवन देती ही है। इनसान के मरने के बाद भी उसकी अस्थियाँ और राख इसी में प्रवाहित की जाती है। गंगा में न जाने देश की कितनी महानतम हस्तियों की अस्थियाँ और राख प्रवाहित की गई हैं।
महानतम लोगों की ही बात क्यों करें? आम आदमी भी तो अपने परिजनों और प्रियजनों की मौत के बाद उनकी अस्थियाँ और राख गंगा में ही प्रवाहित करता है। मैंने उस जमाने की नामचीन अभिनेत्री मीना कुमारी को लेकर- ‘गोमती के किनारे’ फिल्म बनाई थी। इस फिल्म का केन्द्र बिन्दु है गंगा नदी। फिल्म की कहानी के बीज गंगा नदी में छिपे हैं। फिल्म का सब्जेक्ट ही गंगा नदी से निकलकर आता है।
नदी किनारे एक मन्दिर था और इसी मन्दिर से कहानी का ताना-बाना जुड़ा था। मन्दिर से ही कहानी का एक नया मोड़ शुरू होता है।
मैंने फिल्म में दिखाया था कि गंगा कैसे एक बाँझ स्त्री को पुत्र देती है, फिल्म में गंगा नदी की महिमा को ग्लोरीफाई किया था। गंगा मेरी फिल्म के लिए एक प्रेरणा बन गई। आप जरा हिन्दू माइथालाॅजी में जाइए। हमारी धरती ने कृष्ण से बड़ा महानायक पैदा नहीं किया। देखिए यमुना किनारे ही राधा और कृष्ण का प्रेम पनपता है। उनके जीवन की सारी लीलाएँ यमुना किनारे ही हैं। उनका सारा कर्मक्षेत्र यमुना के आसपास ही है।
जहाँ तक हिन्दी सिनेमा और नदी का ताल्लुक है तो देखिए उस दौर के कितने शायरों ने नदियों को केन्द्र में रखकर कितने सुन्दर गीत रचे हैं। सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फिल्म ‘मिलन’ को याद करिए। इस फिल्म में नदी में ही नाव पर इतना मधुर गीत- ‘सावन का महीना पवन करे शोर जियरा रे झूमे ऐसे जैसे वन में नाचे मोर,’ फिलमाया गया है। महान फिल्मकार बिमल राय की ‘मधुमति’ में कविराज शैलेन्द्र के इस गीत- ‘सुहाना सफर और ये मौसम हसी’ के इस टुकड़े - ‘ये गोरी नदियों का चलना उछलके जैसे अल्हड़ चले पिय से मिलके...’ को सुनें तो कवि की प्रेरणास्रोत नजर आती है - नदी। नदी ने गीत में एक नई ताजगी भर दी है।
बैजूबावरा के गीत और संगीत को देखिए। संगीतकार नौशाद ने कैसे गीतों को सजाया है अपने संगीत से। ‘तू गंगा की मौज मैं जमना का धारा...,’ तो नदी कितनी इंस्पायर करती है एक गीतकार और संगीतकार को। बैजू बावरा की फिल्म इसकी एक बहुत ही खूबसूरत मिसाल है।
बहती नदी का पानी और झरने से गिरता पानी किसी के भी हृदय को आहलादित और रोमांचित कर देता है। अगर कोई शायर या फिल्ममेकर उससे रूबरू हो रहा है तो क्या कहने। उसकी क्रिएटीविटी खिल उठती है नदी और झरने के सान्निध्य में।
नदी की बात चल रही है तो मुझे याद आ रही है सुनील दत्त साहब की। मैं और दत्त साहब बद्रीनाथ धाम की यात्रा के लिए साथ आए थे। काफी पुराना वाकया है। बद्रीनाथ धाम के दर्शन के बाद दत्त साहब ने मुझसे कहा कि, “चल इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम पर हो आते हैं।” तो चल दिए हम दोनों त्रिवेणी संगम की यात्रा पर। गंगा-यमुना और सरस्वती नदी को इस त्रिवेणी को देखने पहुँचे तो दोनों चले गए संगम के दूसरे छोर पर। इतना अच्छा लगा कि दत्त साहब कहने लगे पाँच मिनट और रूकते हैं सावन यहाँ पर। मैं भी त्रिवेणी के किनारे उस दूसरे छोर पर एक अलग-सी मस्ती में खो गया। अब दोनों की ये हालत कि पाँच-पाँच मिनट करते-करते आधा घण्टा हो गया वहाँ ठहरे-ठहरे। दोनों का मन ही न करे कि वहाँ से टलें। तब दत्त साहब ने कहा सावन चल। मन तो नहीं कर रहा यहाँ से जाने का, पर नहीं गए तो यहीं साधु बन जाएँगे और धूनी रमानी पड़ेगी। उस दिन ‘गंगा-यमुना और सरस्वती’ की उस त्रिवेणी पर शिद्दत से महसूस हुई नदियों की हस्ती।
नदी का बहता पानी मनुष्य को प्रेरणा देता है चलते रहने की। नदी सिम्बल है सतत प्रवहमान बने रहने की। यही पानी जब रूक जाता है, तो एक तालाब में तब्दील हो जाता है और इसका पानी संड़ाध मारने लगता है। राकेश रोशन की फिल्म- ‘कहो न प्यार है’ के लिए जब ‘प्यार की कश्ती में लहरों की मस्ती में...’ लिखा तो नदी ने ही इंस्पायर किया इस गीत को रचने के लिए। अब मैं नदी पर जितना कहूँ, कम होगा। मेरी क्रिएटीविटी का स्रोत है नदी।
(लेखक जाने-माने फिल्मकार हैं)