पानी से बाजार पैसा कमा रहा है, तो अब सरकारें भी कमाएंगी। मारा जाएगा गरीब आदमी और रही बात मध्यमवर्ग की, तो वह टीवी कैमरे पर आकर सिर्फ रोएगा। बहस करेगा और जाकर सो जाएगा। पार्षद बस्ती में टैंकर भिजवा कर अपना बैनर लगवा देगा। पानी संकट से ऐसे निबटेंगे, तो यह संकट कभी दूर नहीं होगा।
झारखंड की राजधानी रांची में पानी पर टैक्स लगा है। सर्दी के मौसम में पानी का संकट यह याद दिलाने के लिए काफी है कि जल संकट गर्मी की देन नहीं है। रांची के तीनों बांधों की सफाई नहीं हुई है। गाद भर गई है। सूखे के कारण स्थिति गंभीर हुई है। लिहाजा, राज्य सरकार ने केबिनेट की बैठक बुलाकर प्रस्ताव पारित किया कि सार्वजनिक नलों से पानी लेने पर पचास पैसे या एक रुपया प्रति बाल्टी की दर से शुल्क वसूला जाएगा, जिसका इस्तेमाल नलों के रख-रखाव और नल ठीक करने वालों के वेतन में होगा। सिर्फ बारह लाख की आबादी का बोझ रांची उठाने की स्थिति में नहीं है, तो इसके लिए रांची के कर्णधार ही जिम्मेदार हैं। राजधानी बनने के बाद जहां-तहां तालाबों को भर कर नए-नए अपार्टमेंट बने। जल प्रबंधन और संरक्षण का कोई इंतजाम नहीं हुआ। सरकार ने भी नहीं किया और जनता ने भी चिन्ता नहीं की। नतीजा अब पानी पर राशन लगा दिया गया है।
कई इलाकों में पानी हफ्ते में तीन या चार दिनों के बाद ही आया करेगा, लेकिन क्या यह संकट का समाधान है? इस तरह के कदम पहले भी उठाए जाते रहे हैं। कुछ साल पहले इंदौर में भी जल संकट के वक्त राशनिंग हुई थी। देवास में पाइप लाइनों पर पुलिस का पहरा लगाना पड़ा था, लेकिन स्थाई इंतजाम क्या किए गए? जल के इस्तेमाल और संरक्षण को लेकर शहरी नागरिक टैक्स देने पर रोने धोने या चुपचाप दे देने के अलावा क्या करता रहा है? उसी इंदौर में एलआईजी कॉलोनी के लोगों ने जल संरक्षण कर पानी संकट से खुद को बचा लिया था। सवाल है कि बाकी इंदौर या बाकी रांची या जयपुर ने ऐसा क्यों नहीं किया? जबकि पानी तो सबको चाहिए। रांची में जल संकट से बचने के लिए सरकार ने जो कदम उठाए हैं, उससे एक बार फिर जाहिर होता है कि हमारी सरकारों के पास गंभीर समस्याओं के लिए कोई दृष्टि नहीं है। नगरपालिका के एक सौ सत्तर नलों पर एक रुपए का प्रति बाल्टी टैक्स लगाकर आप क्या कर लेंगे? कितना वसूल लेंगे। गरीबों को तो पानी वैसे भी कम मिलता है। उन पर यह आरोप लगाना कि वे पानी बर्बाद करते हैं, ठीक नहीं है। गौर कीजिएगा, रांची में पाइप लाइनों में रिसाव के कारण तीस प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है। क्या इसके लिए गरीब लोग जिम्मेदार हैं? जिन अमीरों ने जमीन के भीतर बोरवेल लगाए हैं, उन पर सरकार क्यों नहीं टैक्स लगाती है? बोरवेल को क्यों प्राइवेट माना जाता है? साफ है नीति और नीयत, दोनों में ही खोट है।
हिन्दुस्तान के कई शहरों से सार्वजनिक नल गायब हो चुके हैं। यहां तक कि रेलवे प्लेटफार्म से भी। बोतल बंद पानी वाली कंपनियां पानी कहां से ला रही हैं। क्या सरकार इन पर अलग से वॉटर लेवी लगा रही है? पानी टैक्स अगर जलसंकट का समाधान है, तो टैक्स हर उस स्रोत पर लगना चाहिए, जहां से पानी का इस्तेमाल होता है और बाजार में बेचा जाता है। जल संकट के कारण किस जल संसाधन मंत्री ने इस्तीफा दिया है? दरअसल, हम इस समस्या के लिए किसी को नैतिक रूप से जिम्मेदार मानने का साहस ही नहीं जुटा पाते हैं। कारण यह है कि इस संकट में जनता से लेकर नेता तक सब अपराधी हैं।
देश के तमाम शहरों में अंधाधुंध अपार्टमेंट बन रहे हैं। तालाबों का अतिक्रमण हो रहा है। दिल्ली में ही सैंकड़ों तालाब थे। सब गायब हो चुके हैं। ऊपर से वर्षा जल संचय का अभियान खोखला साबित हुआ है। नागरिक इच्छा शक्ति ही नहीं है। दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के लोगों ने कभी मिलकर इस समस्या के लिए आन्दोलन नहीं चलाया। पैसा है तो हजार दो हजार रुपए में टैंकर मंगा कर तात्कालिक समाधान कर लिया, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? मैं एक ऐसे अपार्टमेंट में जाता रहा हूं, जहां स्वीमिंग पूल है। वहां लोग पार्टी के लिए सोसायटी को पैसा देकर सर्दी के दिनों में पूल भर देते हैं। पैसे आने पर हमारा मध्यमवर्ग इतना लापरवाह हो जाएगा, पता नहीं था। अव्वल तो सरकारों को किसी भी अपार्टमेंट में स्वीमिंग पूल की इजाजत नहीं देनी चाहिए, लेकिन सब ले रहे हैं। कोई विरोध भी नहीं कर रहा है। इतना ही नहीं, एक अपार्टमेंट के सभी फ्लैट में पानी साफ करने के यंत्र लगे हैं। ये यंत्र सोसायटी गेट के बाहर ही बिकते हैं। हर फ्लैट वाला वॉटर प्यूरीफायर पर छह से बारह हजार रुपए खर्च करता है। ऊपर से सालाना रख-रखाव के लिए बारह तेरह सौ रुपए भी। पैसा देकर जल संकट से मुक्ति पा लेता है, लेकिन गरीब आदमी ज्यादा मारा जा रहा है। दिल्ली में एक रिक्शेवाले ने मुझे बताया कि एक बोतल पानी भरने के लिए उसे दिन में चार से पांच बार दो किलोमीटर की फेरी लगानी पड़ती है।
पानी से बाजार पैसा कमा रहा है, तो अब सरकारें भी कमाएंगी। मारा जाएगा गरीब आदमी और रही बात मध्यमवर्ग की, तो वह टीवी कैमरे पर आकर सिर्फ रोएगा। बहस करेगा और जाकर सो जाएगा। पार्षद बस्ती में टैंकर भिजवा कर अपना बैनर लगवा देगा। पानी संकट से ऐसे निबटेंगे, तो यह संकट कभी दूर नहीं होगा। बिना नागरिक पहल के न तो इसका समाधान होगा न सरकारों पर दबाव बनेगा।
लेखक जाने-माने टीवी पत्रकार व एंकर