गृह

Submitted by Hindi on Wed, 08/10/2011 - 16:55
गृह मानव ने अपने निवास के लिए घर बनाना कब और कैसे प्रारंभ किया, इसकी कल्पना मात्र की जा सकती है। गृह मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है, अत: मानव सभ्यता का इतिहास ही ‘घर’ की कहानी है और सभ्यता के विभिन्न सोपानों पर स्थित विभिन्न जातियों के गृहों को देखकर उन सभी अवस्थाओं का अनुमान किया जा सकता है जिनसे उस स्थान की कोई अन्य जाति पार हो चुकी होगी। स्पष्ट है कि पाषाणकाल में, कम से कम समशीतोष्ण प्रदेशों में तो अवश्य, मनुष्य प्राकृतिक गुफाओं में ही रहता था। उस समय भी उसने उन्हें सजाने के प्रयत्न किए होंगे, जैसा कि फ्रांस और उत्तरी स्पेन में कहीं कहीं पाई जानेवाली गुफाओं के भित्तिचित्रों से प्रकट होता है। यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वन्य जातियों ने गर्म देशों में झोपड़ी जैसी कोई चीज जरूर बनाई होगी। कुछ आदिम जातियाँ अब भी झोपड़ियाँ बनाती हैं। अमरीका की ‘इंडियन’ जाति गुंबदनुमा ढाँचे पर चमड़ा लगाकर अपनी ‘विगवाम’ नामक झोपड़ी बनाती है। दक्षिणी भारत के टोडा आदिवासियों की बाँस और सरपत की लंबी गुंबदनुमा झोपड़ी का भी प्राय: यही रूप होता है।

धीरे-धीरे गुफावासियों ने अनुभव किया होगा कि गुफा के आगे कुछ पत्थर (दीवार की भाँति) रखकर और मध्यवर्ती स्थान पर लकड़ी या चमड़े की छत सी बनाकर गुफा को और बड़ी तथा आरामदेह बनाया जा सकता है। संसार के विभिन्न भागों में ऐसी ‘विकसित’ गुफाओं में धीरे धीरे और भी ‘सुधार’ होते रहे। इस प्रकार झोपड़ियों में आज के लकड़ी के मकान का तथा गुफाओं में आधुनिक पक्के मकानों का बीजरूप मिलता है। प्रारंभ में शायद एक ही कमरा होता था, किंतु जैसे जैसे सभ्यता फैली जीवन जटिलतर होता गया, निवास के और भाग विभाग होने लगे। इसके लिए अनेक गोल झोपड़ियों को पास पास एक ही घेरे के भीतर बनाया जाने लगा। ऐसी ही झोपड़ियों के, जो शायद घास फूस और कभी कभी कच्ची ईटोंं की भी हुआ करती थीं, फर्श और नीवों के अवशेष अनेक स्थानों पर मिले हैं, जिन्हें उत्तर पाषाणयुगीन बताया जाता है।

ऐसी अवस्था संसार के विभिन्न भागों में भिन्न भिन्न समयों पर थी। यूनान, मिस्र और रोम में सभ्यता का उदय सबसे पहले हुआ माना जाता है। वहाँ पाषाणकाल 20वीं 30वीं शती ई. पू. कूता जाता है। पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार भारत में 10वीं 15वीं शती ई. पू. में आर्यों ने आक्रमण किया। उस समय वे उत्तरपाषाण काल से गुजर रहे थे। तथा झोपड़ियों या गुफागृहों में रहते थे। किंतु हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में प्राप्त सुनिविष्ट विशाल नगरों के अवशेषों ने उन्हें यह मानने को बाध्य कर दिया है कि भारत में भी 20वीं 30वीं (या 40वीं) शती ई. पू. में उत्कृष्ट कोटि की सभ्यता विद्यमान थी।

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और सिंधुघाटी की अन्य पुराकालीन नगरियाँ बड़े बड़े व्यापारियों की बस्तियाँ थीं, जो नागरिक जीवन और भौतिक सुविधाओं के प्रति जागरूक रहते हुए उच्च कोटि की सामाजिकता का निर्वाह करते थे। उनके सादे और प्रयोजनात्मक भवन प्राय: निवास, गोदाम, स्नानागार, या कुएँ होते थे। बड़े महल या मंदिर होने के कोई चिह्न नहीं मिलते। नालियों की व्यवस्था ऐसी उच्च कोटि की थी, जैसी अनेक आधुनिक भारतीय शहरों में भी नहीं पाई जाती। दीवारों में से ईटों के निकास बढ़ा बढ़ाकर डाटें बनाई जाती थीं। भारत के अन्य भागों में भी शायद उस समय पत्थर के बड़े बड़े खंभों पर बड़ी बड़ी शिलाएँ रखकर कृत्रिम गुफागृह बनाए जाते थे; और यह भी माना जा सकता है कि स्थानीय लकड़ी की, आदिकालीन स्वरूप की वास्तुकला भी विद्यमान थी।

वैदिक साहित्य में वर्णित प्रसंगों से स्पष्ट है कि उस समय ईटं, पत्थर, और लकड़ी का प्रयोग सामान्य तथा कलापूर्ण भवननिर्माण के लिए होता था। बौद्ध धर्म का प्रसार जब उत्तर पश्चिम (गांधार) की ओर हुआ तो तद्देशीय उत्तर-पुरा-कालीन संस्कृति के संपर्क में आने से धार्मिक तथा अन्य भवनों के निर्माण पर पश्चिमी प्रभाव पड़ा, जिसकी छाप कश्मीर की मध्यकालीन वास्तुकला पर भी दिखाई पड़ती है। यूनानी (डोरिक) पद्धति की प्रतीक चतुर्मखी तोरणावली और स्तंभशीर्ष प्रयुक्त होने लगे। संधिबंध के लिए मसाला (गारा या चूना) तथा डावेलों (खूंटियों या कीलों) का प्रयोग भी आरंभ हुआ। इससे पहले की भारतीय निर्माणकला परंपरागत, सूखी चिनाई तक ही सीमित थी, जहाँ सभी रद्दे एक दूसरे पर बिना मसाले के ही रखे जाते थे और भार सीधे नीचे की ओर ही पड़ता था।गुप्तकाल (320-600 ई.) में देश भर में निर्माणशक्ति के अनेक स्रोत फूट निकले और भारतीय वास्तुकला, जिसका चरम विकास गुफागृहों (अजंता, इलोरा आदि) या स्तूपों (साँची आदि) के निर्माण में पहुँच चुका था, सुंदर स्तंभों से अलंकृत चिपटी छतोंवाले चौकोर मंदिरों को रूप देने लगी। कभी कभी छत के ऊपर एक छोटी कोठरी भी बनाई जाने लगी। जो बाद में दक्षिण के मंदिरों में शिखर के रूप में विकसित हुई।

10-13 शती ई. के मंदिरनिर्माण के महायुग की यूरोप के समसामयिक रोमनेस्क और गॉथिक युगों से तुलना की जा सकती है। उत्तरी या आर्य-पद्धति का जोर ऊँचाई की ओर था, जिससे खजुराहो (मध्यप्रदेश) और भुवनेश्वर (उड़ीसा) की प्रभावशाली कृतियाँ प्रकट हुई। दक्षिणी या द्रविड़ पद्धति का जोर क्षैतिज विस्तार की ओर था, जिससे मुख्य मंदिरों में स्तंभबहुल मंडप तथा अनेक गोपुरों से युक्त विशाल घेरोंवाले प्रांगण सम्मिलित किए गए। गृहनिर्माण के लिए विकसित निर्माणकला का प्रयोग राजपूताना के राजमहलों और सांमतों के निवासों में मिलता है, जहाँ विशाल भवन भीतर बाहर से बिलकुल सादे हैं, किंतु खिड़कियों, द्वारों, छज्जों, गवाक्षों और शिखरों में सुंदर कारीगरी की हुई है। घरों के मुखभाग को नीचे से ऊपर तक अलंकृत करनेवाला अहमदाबाद का लकड़ी की खुदाई का काम गुजराती कला की विशिष्टता है।

तोरण और गुंबद (द्रं. गुंबद) का प्रयोग मुसलमानी कला की देन है, जिसने हिंदू कला को अपने साँचे में ढाल लिया। अकबर ने दोनों के एकीकरण का महाप्रयास किया। जहाँगीर काल में लाल पत्थर और संगमरमर का सम्मिलित प्रयोग हुआ, जो शाहजहाँ (1627-58 ई.) के लाल किला (दिल्ली) और ताजमहल (आगरा) के रूप में मानो परी महल ही धरती पर उतार लाया। मुसलमानी कला की विशेषता विशाल उद्यान, जालशय, जलसूत्र (जो महलों के बीच में लहराते थे) और ऊँचे दरवाजे हैं।

यूनान, मिस्र और रोम की सभ्यता भी तद्देशीय निर्माणपद्धति को प्रभावित करती हुई विकसित हुई। नासास में 15वीं शती ई. पू. के महलों के खंडहर मिले हैं, जिनमें लकड़ी का प्रयोग हुआ प्रतीत होता है। मिस्र के देर-अल्‌-बाहरी के मंदिर तथा बेनी हसन के मकबरे 30 वीं शती ई. पू. के बने कूते जाते हैं। तेल-अस-सुल्तान में प्राप्त घरों और मंदिरों के अवशेष ‘जेरिको’ नामक नगर के माने जाते हैं, जिसे इसराइलियों ने संभवत: 14 वीं शती ई. पू. के आक्रमण करके नष्ट कर दिया था। मरा सागर के उत्तर में जॉर्डन घाटी में एक नगर का पता लगा है, जो पूर्व-ताम्र-काल (25 वीं से 19 वीं शती ई. पू.) का समझा जाता है। अलजीरिया में रोमन सेनानियों को बसाने के लिए लगभग पहली शती ई. में परंपरागत रोमन शैली में निर्मित घरों के अवशेष मिलते हैं। ईरान की राजधानी ‘तेजीफन’ में, जो सन्‌ 637 ई. में बुरी तरह नष्ट हो गई थी, ऊँची और चौड़ी डाटदार छतें भी बनने लगी थीं। यूनानी शैली में एशियाई शैली की छाप भी स्पष्ट दिखाई देती है।

किंतु इन सबसे उन देशों के जनसाधारण के घरों पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता। संभवत: पश्चिम में भी कला का विकास गिरजाघरों और धनिकों के महलों तक ही हुआ। किंतु महान्‌ औद्योगिक क्रांति के साथ साथ पाश्चात्य जगत में, विशेषकर कसबों और नगरों में, गृह निर्माण शैली में भी क्रांति आई। द्रुत गति से नए नगर बसे, द्रुततर गति से उनकी आबादी बढ़ी तथा जलसंभरण, शौचाल्य और प्रकाश संबंधी नवीन सुविधाओं के कारण जीवनस्तर भी उठा। इन सभी ने अपना प्रभाव दिखाया और आवास समस्या सामने आई। सरकारों ने योजनाएँ बनाईं, नियम बनाए और न्यूनतम स्तर निर्धारित किए। फलत: गगनचुंबी इमारतें, जिनमें जनसामान्य के आवास की भी व्यवस्था है, प्रकट हुई। बड़े बड़े महलों के स्थान पर सस्ते और छोटे, किंतु सुविधाओं से युक्त, घर बनने लगे।

भारत में अंग्रेजों के आने पर राजधानियों में विशाल महल और कार्यालय आदि बने, जिनमें पौर्वात्य और पाश्चात्य कला का सुंदर सम्मिश्रण मिलता है। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात्‌ सर्वतोमुखी औद्योगिक विकास के साथ सामान्य घर भी बनाए जाने लगे। ऊँची इमारतें बनीं तथा श्रमिकों और ग्रामीणों के लिए घर बनाने के सरकारी प्रयास होने लगे। प्रत्येक प्रांत में सरकार ने गृहनिर्माण के लिये ऋण योजना आरम्भ की है, जिसके अंतर्गत छोटी किस्तों में ऋणभुगतान की व्यवस्था है। थोड़ी आयवालों के लिए दो कमरों के एक आदर्श गृह का प्रारूप चित्र 2 या 3 में दिखाया है।

एशिया में अब भी शताब्दियों पुरानी शैलियाँ अपनाई जा रही हैं। स्तंभों से घिरे आँगन और पटी छतवाला मोरक्को का आधुनिक गृह प्राचीन रोम और सीरिया की आँगनवाली शैली का ही वंशज है। बाहरी और भीतरी (हरम) दो भागों में घर का विभाजन रोम की प्राचीन परंपरा की अनुकृति है। मिस्र और टर्की में अलबत्ता खुले आँगन रखने की प्रथा उठती जा रही है, किंतु वहाँ के गठे हुए अभिकल्पवाले घरों में भी प्राय: केंद्र में एक बड़ा कक्ष होता है, जिसमें फव्वारा रखना पसंद किया जाता है। यह भी जलाशययुक्त खुले आँगन का प्रतिरूप ही लगता है।

प्रत्येक स्थान की गृह-निर्माण पद्धति स्थानीय परिस्थितियों, यथा प्राकृतिक दशा, जलवायु, उपलब्ध साधन सामग्री तथा निवासियों की आर्थिक क्षमता से निर्देंशित होती है। भूकंपों द्वारा हानि से बचने के लिए जापानी कागज का अधिक प्रयोग करते हैं। खिसकाई जा सकनेवाली अंतर्भित्तियाँ (पर्दे) और लकड़ी का अधिक प्रयोग इनकी विशेषता है। ये घर को सुघड़, सुखद, शानदार, और चित्ताकर्षक बनाते हैं। इसके विपरीत चीन में आँगन रखने की परिपाटी अब भी है। स्तंभों से युक्त दालान तथा तुलयदर्शी बड़े कक्ष प्राचीनता का वातावरण बनाए रखते हैं। आबादी घनी होने के कारण लोग नदियों और समुद्र में भी नावों पर घर बनाकर स्थायी रूप से रहते हैं। खिरगीज़ तथा रूसी स्टेपों में चरवाहे घास की खोज में इधर उधर घूमते रहते हैं, अत: अस्थायी डेरों में ही जीवन बिताते हैं। मंगोलियावाले भी प्राय: खाल के डेरों में ही रहते हैं, पूर्वी द्वीपसमूह में निरंतर वर्षा, सर्दी, सड़ी गर्मी, भाँति भाँति के मक्खी मच्छर, और विषुवतीय वनों के हिंसक जीवों से बचने के लिए पेड़ों पर ही झोपड़ियाँ बनाई जाती हैं। अरब के सभ्य लोग मरूद्यानों या नदियों के पास कच्चे घर बनाकर रहते हैं। अफ्रीका के घास के मैदानों के ज़ूलू लोग गोलार्ध के आकार की झोपड़ी बनाकर, ऊपर सिरे पर धुआँ निकलने के लिए छेद छोड़ देते हैं।

सं. ग्रं.-मानसार, वास्तुशास्त्र; समरांगण सूत्रधार (भोज); ए. ए. मैक्डॉनेल : इंडियाज़ पास्ट तथा पी. एम. आवरसेल : एंशिएंट इंडिया। (विश्वंभर प्रसाद गुप्त)

गृहनिर्माण के सामान


प्राचीन समय से ही संसार के अनेक भागों में विविध प्रकार की शिलाएँ भवननिर्माण के कार्यों में आती रहीं हैं। भारत भी उन कतिपय देशों में हे जो इस कार्य में सहस्रों वर्षों से निपुण रहे हैं और आज भी विभिन्न प्रकार के पत्थरों से निर्मित्त अनेक भवन हमारी सभ्यता और संस्कृति का संदेश दे रहे हैं। मध्यकाल एवं आधुनिक काल में भी अनेक भवन इन पत्थरों से बनाए गए, जो सुंदरता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

भवननिर्माण में प्रयुक्त शिलाओं में कुछ विशेषताएँ होनी आवश्यक हैं, उदाहरणार्थ ऋतुक्षरण रोकने की क्षमता, खनन में सुगमता, वर्ण एवं सुंदरता आदि। निर्माणशिलाओं में निम्नांकित मुख्य है :

बलुआ पत्थर-


यह पत्थर मुख्य रूप से विंध्य पर्वतमाला में प्राप्त होता है। इसके इतने विशाल स्रोत हैं तथा यह इतनी अधिक सुविधा से मिल जाता है कि अनेक कार्यों में इसका उपयोग सहज ही संभव है। विंध्य पर्वतमाला का बलुआ पत्थर समान आकार के सूक्ष्म कणों से निर्मित है तथा इसकी बनावट (texture) भी शिलाओं में लगभग नियमित तथा समान रहती हैं। यह लाल, पीले तथा भूरे आदि अनेक वर्णों में प्राप्य है। अनेक स्थलों पर इसके खननकेंद्र हैं, जहाँ से यह देश के विभिन्न भागों में भवननिर्माण कार्यों में उपयोग के लिए वितरित किया जाता है। मध्यकालीन तथा अर्वाचीन अनेक उत्कृष्ट भवनों का निर्माण इस पत्थर से किया गया है। भारत में उत्खनित सभी पत्थरों में इसका स्थान सर्वोच्च है।


भारत में चूना पत्थर भी देश के अनेक भागों में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। कुछ समय पूर्व तक इसकी माँग अधिक नहीं थी, किंतु गत कुछ ही वर्षों में खपत इतनी अधिक बढ़ी है कि अनेक कार्यों में विभिन्न प्रकार के चूना पत्थरों का विशेष उपयोग होने के कारण इस क्षेत्र में पर्याप्त अन्वेषण की आवश्यकता हुई। उत्तम वर्ग का चूना पत्थर आजकल लोह तथा इस्पात उद्योग में द्रावक (flux) के रूप में, अनेक रासायनिक कार्यों में, विरंजन चूर्ण, सोडा क्षार तथा कैल्सियम कार्बाइड आदि के निर्माण में एवं शक्कर और वस्त्रोद्योग में, प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त सीमेंट वर्ग के चूना पत्थरों को विशाल बाँध योजनाओं के समीप भी स्थित करना पड़ता है। इन अनेक उपयोगों के कारण चूना पत्थर के विशाल निक्षेप देश के अनेक भागों में उत्खनित हुए हैं तथा अनेक पर खनन कार्य किया जा रहा है। जिन प्रदेशों में चूना पत्थर का खनन मुख्यत: होता है उनमें उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, मद्रास, महाराष्ट्र तथा सौराष्ट्र सम्मिलित हैं। भारतीय भूतात्विक सर्वक्षण के अन्वेषणों के आधार पर सीमेंट के अनेक कारखाने स्थापित किए गए हैं तथा अनेक का निर्माण कार्य चल रहा है।

रासायनिक वर्ग का चूना पत्थर, जिसकी खपत आजकल अधिकाधिक वृद्धि पर है, उत्तरप्रदेश के देहरादून तथा मिर्जापुर, मध्य प्रदेश के जबलपुर, मद्रास के तिनेवेली जिले, सौराष्ट्र के पोरबंदर तथा जूनागढ़ एवं असम की खासी पहाड़ियों में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।

सीमेंट उद्योग-


वर्तमान तथा भविष्य में आवश्यक सीमेंट के लिये भारत में मूल कच्चा माल (चूना पत्थर, जिप्सम, बाक्साइट, लैटराइट, मिट्टी तथा कोयला) पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। आजकल सीमेंट चूना पत्थर तथा मृत्तिका, अथवा शेल के अत्यंत सूक्ष्म पिसे हुए मिश्रण द्वारा, जिसमें दोनों अवयवों का अनुपात सदैव समान रखा जाता है, निर्मित होता है। मिश्रित पदार्थ, जो पंकक (slurry) के रूप में होता है, प्रारंभिक द्रवण (incipient fusion) तक, इस्पात के 8-10 फुट व्यास की लंबी, रंभ के आकार की भट्ठियों में तप्त किया जाता है। इन भट्ठियों में भीतर की ओर उष्मारोधी पदार्थों की ईटेंं लगी होती है तथा भट्ठियाँ स्वयं ही एक ओर को थोड़ी झुकी रहती हैं, जिससे मिश्रण धीरे धीरे सर्वाधिक संतप्त भाग की ओर बढ़े। इस संतप्त भाग को नियमित रूप से तप्त करने के लिए चूर्णित कोयला तथा निस्तप्त पदार्थों से निकलने वाली गैसों के जलने से उत्पन्न उष्मा का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार तप्त मिश्रण को जिप्सम के चूर्ण की उपयुक्त मात्रा के साथ मिलाकर ‘बाल एवं ट ्यूब चक्की’ (Ball end Tube Mills) में अवकृत किया जाता है। सूक्ष्म चूर्ण के रूप में इसी को ‘सीमेंट’ कहते हैं।

भारत में सीमेंट के कारखाने अपने कार्य में देशी चूना पत्थर का प्रयोग करते हैं। परिवहन सुविधा को दृष्टि में रखते हुए देश में सीमेंट के कुछ नवीन कारखाने स्थापित करने के प्रयत्न हो रहे हैं।

जिप्सम-


गत कई वर्षों से भारत में जिप्सम की खपत दिन पर दिन बढ़ रही है। सिंदरी खाद संयंत्र स्थापित होने के पूर्व जिप्सम के उत्पादन का अर्धांश केवल सीमेंट उद्योग में प्रयुक्त होता था। सन्‌ 1948 से त्रावंकोर में एक खाद संयंत्र ने ऐमोनियम सल्फेट का उत्पादन मध्यम स्तर पर प्रारंभ कर दिया। इसी प्रकार 31 अक्टूबर, सन्‌ 1951 से सिंदरी के खाद संयंत्र में भी ऐमोनियम सल्फेट का उत्पादन प्रारंभ हुआ, जिसमें प्रति दिन 1500-2000 टन जिप्सम की आवश्यकता होती है।

भारत विभाजन से पूर्व पश्चिमी पंजाब में लवणश्रृंखला ही जिप्सम का मुख्य स्रोत समझी जाती थी, किंतु इसके पश्चात यह भाग पाकिस्तान में चला गया तथा भारत को अन्य स्रोतों की आवश्यकता का अनुभव हुआ, जो बढ़ती हुई जिप्सम की खपत को पूरा कर सकें। परिणामस्वरूप भारतीय भूविज्ञान सर्वेक्षण ने राजस्थान, मद्रास तथा सौराष्ट्र में जिप्सम के निक्षेपों का विस्तृत अध्ययन प्रारंभ कर दिया।

राजस्थान के जिप्सम निक्षेप जिप्साइट (Gypsite) के रूप में बीकानेर तथा जोधपुर में पाए जाते हैं। इन निक्षेपों में जमसर का निक्षेप सर्वाधिक विशाल तथा महत्वपूर्ण है और यह स्रोत आजकल सिंदरी के खाद संयंत्र की आवश्यकतापूर्ति करता है। मद्रास के तिरुचिरपल्ली जिले के अंतर्गत क्रिटेशियस शिलाओं (Cretaceous rocks) की अनियमित पट्टिकाओं (Veins) में जिप्सम मिला है।

सौराष्ट्र में मृत्तिकाओं तथा अवमृद (marls) में तृतीयक युग के ‘गज’ चूनापत्थरों के आधार के समीप जिप्सम के प्राप्तिस्थान हैं। विशालतम निक्षेपों में, जो हलर जिले में खाड़ी के समीप मिले हैं, 25 लाख टन जिप्सम की मात्रा होने का अनुमान है।

कुछ विशाल निक्षेप हिमालय के कतिपय भागों, जैसे कश्मीर, सिक्किम, तथा भूटान एवं भारत के अन्य भागों में प्राप्त हुए हैं। कश्मीर के निक्षेप तो अत्यंत आशाजनक हैं, यद्यपि परिवहन के अभाव के कारण इनका उपयोग अभी निकट भविष्य में संभव नहीं है, तथापि सुनियोजित कार्यक्रम के पश्चात ये निक्षेप अत्यंत लाभप्रद होंगे, इसमें संदेह नहीं।

संगमरमर-


प्राचीन, मध्यकालीन एवं अर्वाचीन काल में भारत में अनेक भव्य भवन संगमरमर से निर्मित हुए। यद्यपि भारत में अनेक स्थानों पर संगमरमर प्राप्त होता है, तथापि उत्तरी पश्चिमी भारत का संगमरमर अपने गुणों में अद्वितीय है। नागौर जिले में मकराना नामक स्थान का संगमरमर अत्यंत सुंदर होता है, जो आगरा स्थित ताजमहल के निर्माण में प्रयुक्त हुआ था। राजस्थान के अनेक भागों में विभिन्न वर्णों एवं विभिन्न आकार के कणों द्वारा निर्मित्त संगमरमर प्राप्त होता है। इसके प्राप्तिस्थान जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, तथा अलवर आदि हैं।

मद्रास के कोयंबूटर तथा मैसूर के चितालद्रुग और मैसूर जिलों में भूरे श्वेत वर्ण का संगमरमर मिलता है। कुछ निक्षेप सेलम, मदुराई तिरुनेलवेली जिलों में भी हैं। मध्य प्रदेश के जबलपुर, बेतूल और छिदवाड़ा तथा महाराष्ट्र के नागपुर तथा सिवनी जिलों में भी संगमरमर के उपयोगी निक्षेप प्राप्त हुए है। बड़ौदा से सुंदर हरा, गुलाबी तथा श्वेत, रीवाकंठ से काला, आंध्र में कुर्नूल जिले से पीत-हरा तथा पीला एवं कृष्णा तथा गुंटूर जिलों की नारंगी विरचनाओं से लेकर पीत-समुद्रीहरा आदि वर्णों तक के संगमरमर मिले हैं।

स्लेट पत्थर-


बाह्य हिमालय के कुमाऊँ, गढ़वाल, काँगड़ा तथा चंबा आदि में स्लेट पत्थर का खनन किया जाता है तथा इसको घरों की छतों के निर्माणकार्य में प्रयोग किया जाता है। धोलाधर श्रृंखला का स्लेट पत्थर अत्यंत उपयोगी है तथा विविध आकारों में प्राप्त होता है। यहाँ स्लेट के पत्थर पूर्णतया शुद्ध सिलिकीय शिला (siliceous rock) के रूप में मिलता है, जिसका वर्ण पीला भूरा है। काँगड़ा घाटी स्थित पंजाब के धर्मशाला जिले में कुनपारा नामक स्थान पर स्लेट का खनन होता है। हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की चिचोट तहसील में तथा पांडोह के समीप भी स्लेट पत्थर निकाला जाता है। पूर्वी पंजाब के गुड़गाँव जिले में रेवाड़ी के पास भी खनन कार्य किया जाता है। कुछ स्लेट पत्थर बिहार के सिंहभूम और मुंगेर जिलों में भी हैं, किंतु इनका अधिक उपयोग नहीं होता। आंध्र के कुर्नूल जिले में मरकापुर नामक स्थान पर स्कूल स्लेट का खनन किया जाता है। नेल्लोर जिले में भी स्लेट के कुछ निक्षेप हैं।

विभिन्न वर्गों का स्लेट पत्थर महाराष्ट्र, कश्मीर, मध्य प्रदेश, मैसूर तथा असम आदि प्रदेशों में प्राप्त होता है।

भवननिर्माण के अन्य पत्थर-


ग्रैनाइट, बेसाल्ट, चारनोकाइट तथा अन्य अनेक शिलाएँ भारत के विभिन्न भागों से मिलती हैं तथा सुविधानुसार खनन स्थानों के समीप के क्षेत्रों में ही इनका प्रयोग भवन निर्माण के कार्यों में किया जाता है। (विद्यासागर दुबे)

गृहप्रबंध के कई अंग हैं :


1.

मकान का प्रबंध-


आजकल घरों का आकार अपेक्षाकृत छोटा हो गया है। पहले साधारणत: घर बहुत बड़े बड़े हुआ करते थे। उनमें मनमाना स्थान प्राप्त किया जा सकता था। शहरों में तो अब छोटे घर ही अधिक बनने लगे हैं इनका प्रबंध करने में कुछ अधिक सुविधा होती है, परंतु अधिकतम सूझ बूझ की आवश्यकता होती है। घर में अच्छी मात्रा में वस्तुएँ रखने के स्थानों का प्रबंध रहना चाहिए। दीवारों में ताखे और अलमारियाँ बना देनी चाहिए। जिस स्थान पर जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उन्हें उसके पास ही रखना चाहिए। रसोई घर में टाँड़ या ताखे बरतनों के रखने के काम में आ सकते हैं। दीवार से लगाकर बनाने से बीच का स्थान बचा रहता है। दीवार में बनी अलमारी में अन्न और मसाले इत्यादि रखे जा सकते हैं। कोयला, लकड़ी इत्यादि का सबसे अच्छा स्थान सीढ़ियों के नीचे कोठरी बनाकर प्राप्त किया जा सकता है। स्नानघर में छोटे ताखे हों तो उनमें साबुन इत्यादि रखे जा सकते हैं। अच्छी मात्रा में लगी खूँटियाँ कपड़े टाँगने के काम में आ सकती हैं। सोने के कमरे की पूरी दीवार में आलमारी हो तो कपड़े रखने और टाँगने की सुविधा होती है। नीचे दराज देकर, विशेष प्रकार के पलंग बना लिए जायें तो वे दराज फालतू बिस्तर रखने के काम में आ सकती हैं। अलमारी के पल्लों के भीतरी भाग में छोटी कीलें गाड़कर पतली डोरी बाँध लें तो वे टाई टाँगने के काम में आ सकती है। कपड़े टाँगने की घोड़ी के नीचे तख्ता लगा लें, तो जूतों को स्थान मिल सकता है। भंडारघर में कई टाँड बना लेने से बहुत सामान रखा जा सकता है।

घर में प्रत्येक कार्य कलाप के लिए अलग अलग व्यवस्था रहनी चाहिए। भोजन बनाने का कमरा, अर्थात्‌ रसोईघर, सोने का कमरा, बैठने का कमरा इत्यादि अलग अलग हों तो विशेष सुविधा होती है। कम कमरे हो तो, रसोई घर में ही भोजन करने के स्थान का तथा बैठने के कमरे में बच्चों के पढ़ने एवं अन्य सदस्यों के लिखने पढ़ने के स्थान का प्रबंध मेज लगाकर आसानी से किया जा सकता है। शौचालय एवं स्नानागार एक ही स्थान पर बनाए जा सकते हैं। शौचालय में फ्लश हो तो सर्वोत्तम है। रसोईघर में ही बर्तन रखने के लिए टाँड बना लेना चाहिए। दीवार में खूंटियां लगाकर चमचे, कलछियाँ इत्यादि टाँगी जा सकती हैं। यदि अलग से भंडारघर न बनाया जा सकता हो तो दीवार में ऊँचे खानों की अलमारी बनाकर टिनों में बंद करके अन्न, मसाले इत्यादि रखे जा सकते हैं।

मकान का फर्श पक्का होना आवश्यक है इससे सील से रक्षा होती है। मोज़ेइक के फर्श अधिक सुंदर एवं स्वच्छ होते हैं। आगँन का फर्श खुरदरे सीमेंट का हो तो काई नहीं लगती। नालियाँ पक्की होनी चाहिए, नहीं तो पानी चारों ओर बहता है।

मकान की भीतरी सजावट स्थान एवं आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिए। सजावट में प्रकाश एवं रंगों के चुनाव को प्रधानता देनी चाहिए। अँधेरे कमरे की दीवारों पर हलका या सफेद रंग करना उचित है, अन्यथा कमरा और भी अँधेरा तथा छोटा दिखाई पड़ता है। मेज कुर्सी आदि साजसज्जा कमरों की नाप के अनुसार होनी चाहिए और उन्हें इस प्रकार लगाना चाहिए कि अधिक से अधिक स्थान रिक्त रहे। कमरों के फर्श यदि मोज़ेइक या सीमेंट के चिकने बने हों तो उनपर दरी या कालीन बिछाने की आवश्यकता नही है। मेजें इस प्रकार की हों कि उनपर अधिक से अधिक सामान रखा जा सकें। आवश्यकता से अधिक साजसज्जा नहीं रहनी चाहिए। जिस वस्तु का जहाँ अधिक उपयोग हो उसे वहीं रखना चाहिए। सजावट सादी हो सकती है और भड़कीली भी, परंतु वह घर के अनुकूल होनी चाहिए। आर्थिक दृष्टि से और उपयोगिता की दृष्टि से साजसज्जा चुननी चाहिए। केवल धन के प्रदर्शन के लिए कमरे की माप का ध्यान न रखते हुए सामान की भीड़ लगाना कमरे को दुकान का रूप देना है। अत: इस बत का ध्यान रखने हुए सजावट करनी चाहिए कि हमें घर में रहना है और सुविधापूर्वक रहना है। परदे धूप, चमक, ठंड इत्यादि से रक्षा करने के लिए होने चाहिए। एतदर्थ गहरे रंग के मोटे कपड़े उपयोगी होते हैं। कमरे की दीवारों के रंगों से मेल खाते रंगों के परदे, कुर्सियों की खोलियाँ, गद्दियाँ और मेजपोश हों तो सुरुचि के परिचायक होते हैं।

2.

सफाई का प्रबंध-


सफाई के आवश्यक साधन निम्नांकित हैं :

झाडू-झाडू फर्श की सफाई के लिए प्रयोग में लाई जाती है। झाडू नारियल की सींक, सिरकी, ताड़ के पत्ते या फूल की होती है। नारियल की सींक की झाडू पक्के एवं कठोर फर्श और दरी के लिए अच्छी होती है। फूल की झाडू चिकने फर्शों के लिए अच्छी होती है। सिरकी की झाडू कच्चे फर्श के लिए अधिक सुविधाजनक होती है। वैकुअम क्लीनर बिजली से चलते हैं और बड़ी अच्छी सफाई करते हैं।

बुरुश-


बुरुश छोटे और लंबे हत्थों के होते हैं। इनसे सब प्रकार के फर्श झाड़े जा सकते हैं। लंबे हत्थों के बुरुश से खड़े होकर काम किया जा सकता है, जो अधिक सुविधाजनक होता है। बुरुश कड़े ओर नरम दोनों प्रकार के रेशों के होते हैं। कालीन साफ करने के बुरुश नरम रेशे के होने चाहिए।

पोछना (Mop)-


लंबे हत्थे के नीचे लकड़ी का तख्ता लगाकर उसमें मोटा कपड़ा या लंबे मोटे सूत जड़ दिए जाते हैं। मोज़ेइक के, या अन्य चिकने फर्श, इससे पोंछे जाते हैं। छोटे फर्श हों तो बड़ा बोरा भिगोकर भी काम चलाया जा सकता है।

झाड़न-


मोटे सूती कपड़े की झाड़न झाड़ पोंछ के काम आती है। नरम कपड़े की झाड़नें अच्छी होती हैं। चमकदार फर्नीचर इनसे पोछने से उसपर लकीरें इत्यादि नहीं पड़ती। रोएँ झड़नेवाला कपड़ा भी अच्छा नहीं होता। पानी इत्यादि पोंछने की झाड़न मोटी और पानी सोखनेवाली होनी चाहिए।

शेमॉय का चमड़ा


(Chamois leather)-यह काच, चाँदी और पालिशदार धातुओं को साफ करने के काम आता है। इसे प्रयोग में लाने से इनकी चमक बनी रहती है।

(3) सफाई के उपकरण-


सफाई के उपकरण निम्नांकित हैं :

साबुन-


साबुन की टिकियाँ होती हैं। चूरा भी होता है। तरल रूप में भी होता है। साबुन बहुत उपयोगी पदार्थ है। शरीर, कपड़े, बर्तन इत्यादि सब कुछ इससे साफ किया जा सकता है।

अम्ल-


नींबू, सिरका, आम, इमली, ऑक्सैलिक अम्ल, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, ये सब खटाइयाँ आवश्यकतानुसार काम में आती हे। इनसे धातु के बर्तन के दाग इत्यादि साफ किए जाते हैं।

क्षारीय पदार्थ-


सुहागा, सोडा, ऐमोनिया और चूना।

तेल-


मिट्टी का तेल, पेट्रोल, अलसी का तेल, तारपीन का तेल। मिट्टी का तेल प्राय: मशीनों के भाग एवं कपड़े पर लगे चिकनाई वाले दागों को साफ करने के काम में आता है। पेट्रोल कपड़ों की सूखी धुलाई के काम में आता है। शेष दोनों से पालिशदार वस्तुएँ साफ की जाती है।

(4) वस्तुओं की सफाई :


बर्तनों की सफाई-


ऐल्यूमिनियम के बर्तनों को साबुन के पानी से धोना चाहिए। यदि ठीक से साफ न हों तो नीबू रगड़कर गरम पानी से धो देना चाहिए। पीतल और ताँबे के बरतन गरम राख से रगड़कर माँज लेना चाहिए। दाग पड़े हों तो खटाई से रगड़कर छुड़ा देने चाहिए। पीतल के हैंडल इत्यादि ब्रासो से साफ होते हैं जरमन सिलवर के बर्तन चोकर अथवा साबुन के पानी से अच्छे साफ होते हैं। चाँदी के बर्तन भी चोकर या साबुन के पानी से साफ करके तुरंत नरम कपड़े से पोंछ देने चाहिए। काच और चीनी के बर्तन गरम पानी एवं साबुन के विलयन या सोडे के विलयन से साफ करने चाहिए।

कपड़ों की सफाई-


सूती कपड़े साधारण, कपड़े धोनेवाले साबुन से रगड़कर ठंढे पानी से धो डालने चाहिए, फिर किसी बर्तन में उन्हें उबाल लेना चाहिए, रंगीन कपड़े नहीं उबालने चाहिए, फिर कुछ कलफ और नील लगाकर उन्हें सुखा लेना और उन पर इस्तरी कर लेनी चाहिए। ऊनी और रेशमी कपड़े लक्स साबुन के ठंडे विलयन में कुछ देर डुबो देने चाहिए और हाथ से दबाकर उन्हें फिर निकाल लेना चाहिए। फिर पानी से धोकर साबुन छुड़ा दिया जाए। छाया में सुखाना चाहिए। धोने से पहले दाग छुड़ा दें।

फर्नीचर की सफाई-


अलसी के तेल अथवा स्पिरिट से साफ करना चाहिए। इससे चमक आती है।

गंदगी की सफाई-


कूड़ा एक जगह जमा करके या तो जला देना चाहिए अथवा उसे नियत स्थान पर रख देना चाहिए जहाँ से नगरपालिका के कर्मचारी उठा ले जाते हैं। जला देने से अच्छी सफाई हो जाती है। नालियों एवं शौचालयों को प्रतिदिन धोकर फ़िनाइल डाल देना चाहिए। पीने के पानी की गंदगी उबालकर छान लेने से ठीक हो जाती है। पोटाश परमैंगेनेट के विलयन से तरकारी, फल इत्यादि को धोकर साफ कर लिया जाता है।

(5) भोजन का प्रबंध-


भोजन का प्रबंध मुख्यतया स्वास्थ्य की दृष्टि से करना उचित है। शरीर की आवश्यकताओं के आधार पर भोजन का चुनाव करना चाहिए।

प्रोटीन एवं खनिज लवणों से युक्त पदार्थ शरीर के तंतुओं को बनाने वाले पदार्थ हैं तथा इस कार्य के लिए आवश्यक हैं। प्रोटीन दूध, पनीर, अंडे, मांस, मछली, दाल, चना, गेहूं, ज्वार, बाजरा, सूखे मेवों, मूंगफली एवं शाकों में पाया जाता है। खनिज लवण दूध, दही, मठा, अंडा, दाल, चना, फल एवं पत्तेदार तरकारियों में पाए जाते हैं।

आहार से हमें तंतुओं के बनाने के अतिरिक्त शरीर में ऊर्जा प्राप्त होती है तथा रोगों से शरीर की रक्षा होती है। विभिन्न आहारों से विभिन्न कार्य होते हैं। देखें 'आहार और आहार विद्या'।

(4) व्यय का प्रबंध-


आय सीमित होने पर व्यय संबंधी प्रबंध कठिन हो जाता है। व्यय का विभाजन आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। सीमित आय में सबसे पहले मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं पर व्यय करना चाहिए। ये आवश्यकताएँ घर, भोजन और वस्त्र हैं। इनके बाद शिक्षा एवं चिकित्सा संबंध व्यय हैं। इन बातों की पूर्ति हो जाए तब कुछ आराम देनेवाली आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान देना उचित है। विलास संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति का स्थान अंत में आता है। कुछ न कुछ बचत करने की चेष्टा करनी चाहिए। विभिन्न मदों के लिए सामान्य रूप से एक बजट बना लेना चाहिए। आजकल प्रति दिन बढ़ती महंगाई में आय व्यय का संतुलन बिठाना कठिन हो रहा है फिर भी एक कामचलाऊ बजट अपनी आवश्यकताओं के अनुसार बनाया जा सकता है। (रामकुमार.)

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गृह


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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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