गृहयोजना

Submitted by Hindi on Wed, 08/10/2011 - 17:09
गृहयोजना मानव की तीन मौलिक आवश्यकताओं में भोजन और वस्त्र के अतिरिक्त आवास भी है। समुचित निवासस्थान का मानव के स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अत: रहने के लिए पर्याप्त संख्या में मकानों की आवश्यकता सपष्ट है। ये पर्याप्त सुखप्रद, स्वास्थ्यप्रद और सामुदायिक जीवन संबंधी अनिवार्य सुविधाओं से भी युक्त होने चाहिए।

भारत के इतिहास में अति प्राचीन काल से ही समुचित वासव्यवस्था का महत्व का अनुभव किया गया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष प्रमाणित करते हैं कि सिंधु-घाटी-सभ्यता इस दिशा में अत्यधिक विकसित थी। सर जान मार्शल का मत है कि 'हमारी जानकारी में प्रागैतिहासिक मिस्र, मेसोपोटेमिया या पश्चिमी एश्याि के अन्य किसी भी स्थान में ऐसा कुछ नहीं है जिसकी मोहनजोदड़ो के नागरिकों के विशाल भवनों एवं सुनिर्मित स्नानागारों से तुलना की जा सके। एशिया के इन देशों में धन और बुद्धि का अबाध उपयोग देवताओं के लिए भव्य मंदिर तथा राजाओं के लिए प्रसाद और स्मारक आदि बनाने में अधिकांश हुआ। शेष जनता को मिट्टी के तुच्छ घरों से ही संतोष करना पड़ता था, किंतु सिंधु घाटी में इसके विपरीत सुंदरतम भवन वे हैं जो नागरिकों की सुविधा के लिए निर्मित हुए'।

मकान भट्ठी में पकाई हुई ईटों के बनते थे। मध्यम श्रेणी के घर में साधारण्तया एक आँगन, दो या तीन शयनकक्ष, एक पाकशाला, एक स्नानकक्ष और एक भांडार होता था। जब कि संपन्न व्यक्तियों के मकानों में कुछ अधिक कमरे, प्राय: अतिथियों के लिए, हुआ करते थे। इन मकानों में से कुछ दुमंजिले भी हैं। श्रमिकों के घर समांतर पंक्तियों में बनते थे और उनमें काफी बड़े कमरे औैर आँगन हुआ करते थे। पानी निकालने के लिए बसितयों में सुनियोजित भूगर्भ-नाली-व्यवस्था भी थी। ये सब तत्कालीन उत्तम नगरनियोजन एवं उत्कृष्ट गृह-निर्माण-कला के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

दुर्भाग्य से भारत में आजकल वासव्यवस्था संतोषजनक नहीं है। यद्यपि भारतीय देहातों में वायु और प्रकाश अबाध रूप से उपलब्ध हैं, तथापि लोगों ने इस प्राकृतिक देन का लाभ नहीं उठाया है। वे अँधेरी और सघन बस्तियों में बने जनसंकुल घरों में रहते हैं। नगरों तथा औद्योगिक बस्तियों की दशा और भी शोचनीय है। बहुत से उद्योग बिना किसी योजना के बढ़ते रहे और नगर अव्यवस्थित ढ़ंग से फैलते गए। फलत: आज खुली हवा के प्रवेश से रहित जीर्ण शीर्ण झोपड़ों और निम्न स्तर के मकानों में अपार भीड़ भाड़ को आश्रय देने वाली असंख्य गंदी बस्तियाँ हैं, जहाँ प्राय: जल और प्रकाश जैसी सामान्य अनिवार्य सुविधाएँ भी नहीं हैं। बड़े औद्योगिक नगरों के विषय में यह विशेष रूप से सत्य है।

जनसंख्या में द्रुत गति से वृद्धि होने से गत कुछ वर्षों में दिशा विशेष चिंताजनक हो गई है, साथ ही गाँवों में रोजगार की सुविधा के अभाव एवं नगरों में उद्योग और व्यापार की वृद्धि के कारण भी जनसमुदाय देहात से शहरों की ओर खिंचा। सन्‌ 1947 ई. में भारत के विभाजन के फलस्वरूप शरणार्थियों का बड़ी संख्या में आगम हुआ, जिससे वासव्यवस्था की समस्या और भी जटिल हो गई। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से आए हुए विस्थापित व्यक्तियों की संख्या लगभग 79 लाख थी, जिसका अधिकांश नगरों में ही बसने के लिए प्रयत्नशील रहा।

आवास सुविधाओं के विस्तार में मुख्य कठिनाइयाँ, जो गत कुछ वर्षों में सामने आई हैं, निम्नलिखित हैं;

1. तेजी से फैलते हुए नगरों में आवश्यकतानुसार निर्माण के लिए विकसित स्थल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होता:
2. निजी तौर पर लोग प्राय: महँगे मकान ही बनाना चाहते हैं, जिससे अधिक किराया प्राप्त हो; निम्न मध्यम तथा मध्यम वर्ग की आवश्यकताओं की ओर की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता :
3. गृहनिर्माण के लिए आर्थिक सहायता देनेवाली पर्याप्त संस्थाएँ नहीं हैं, केवल सरकार अब कुछ सहायता देने लगी है;
4. सरकारी गृह-निर्माण-योजना की प्रगति अपेक्षाकृत बहुत कम हुई है;
5. उपलब्ध स्थानीय सामग्री के अनुरूप निर्माण के मानक निर्धारित करने कम मात्रा में उपलब्ध सामग्री का आर्थिक दृष्टि से संगत उपयोग करने तथा निर्माणव्यय में साधारणतया पर्याप्त कमी करने के उद्देश्य से निर्माणसामग्री तथा निर्माणविधियों संबंधी गवेषणा की आवश्यकता है।
6. अनेक राज्यसरकारें वासव्यवस्था की विस्तृत योजनाओं को हाथ में लेने अथवा उनमें सहायता देने के लिए, भली भाँति संनद्ध नही हैं।

आर्थिक स्थिति, राजस्व और दूसरी राष्ट्रीय योजनाओं की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार इन समस्याओं को सुलझाकर वासव्यवस्था में सुधार के लिए भरसक प्रयत्नशील है। (श्री कृष्ण सक्सेना.)

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