गति विज्ञान

Submitted by Hindi on Wed, 08/10/2011 - 15:31
गति विज्ञान प्रयुक्त गणित की यह शाखा पिंडों की गति से तथा इन गतियों को नियमित करनेवाले बलों से संबद्ध है। गतिविज्ञान को दो भागों में अंतिर्विभक्त किया जा सकता है। पहला शुद्धगतिकी (Kinematics), जिसमें माप तथा यथातथ्य चित्रण की दृष्टि से गति का अध्ययन किया जाता है, तथा दूसरा बलगतिकी (Kinetics)अथवा वास्तविक गति विज्ञान, जो कारणों अथवा गतिनियमों से संबद्ध है।

व्यापक दृष्टि से दोनों दृष्टिकोण संभव हैं। पहला गति विज्ञान को ऐसे विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करता है जिसका निर्माण परीक्षण की प्रक्रियाओं (प्रयोगों) के आधार पर तथ्योपस्थापन (आगम, अनुमान) द्वारा हुआ है। तदनुसार गति विज्ञान में गतिनियम यूक्लिड के स्वयंसिद्धों का स्थान ग्रहण करते हैं। दावा यह है कि प्रयोगों द्वारा इन नियमों की परीक्षा की जा सकती है, परंतु यह भी निश्चित है कि व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कोई सैद्धांतिक नियम यथातथ्य रूप में प्रकाशित नहीं हो पाता है। इन नियमों को प्रमाणित कर सकने में व्यावहारिक कठिनाइयों के अतिरिक्त कुछ तर्कविषयक बाधाएँ भी हैं, जो इस स्थिति को दूषित अथवा त्रुटिपूर्ण बना देती हैं। इन कठिनाइयों का परिहार किया जा सकता है, यदि हम दूसरा दृष्टिकोण अपनाएँ। उक्तदृष्टिकोण के अनुसार गतिविज्ञान शुद्ध अमूर्त विज्ञान है, जिसके समस्त नियम कुछ आधारभूत कल्पनाओं से निकाल जा सकते हैं।

गतिविज्ञान में ध्येय यह होता है कि समुचित निर्देशांक कुलक के मानों और उनके परिवर्तन की दरों द्वारा किसी परस्पर क्रियाशील पिडसमुदाय की गति और उसकी संस्थिति (कनफ़िगरेशन, Configuration) का विवरण दिया जा सके। प्रेक्षित अनुभुति (फ़ेनॉमेना Phenomena) के वर्णनार्थ उपयुक्त समीकरणों की रचना में गणितज्ञों ने बल, द्रव्यमान, जड़ता तथा स्वप्रेरण (सेल्फ़ इंडक्शन Self-induction) का प्रयोग मुक्त गतिशील निकायों के संबंध में किया है। दो भिन्न निकायों के बीच के बलों के वर्णन के लिए घर्षणात्मक और विक्षेपी संज्ञाएँ प्रयुक्त होती हैं, जो आकर्षण और प्रतिकर्षण से भिन्न हैं। संपर्कजन्य बलों को पृष्ठबलों की और दूरवर्ती क्रिया को पिंडदलों की संज्ञा दी जाती है। पृथ्वी के घूर्णनजन्य बल को ऋतु वैज्ञानिक विक्षेपी बल और विशिष्ट प्रकार के घूर्णनजन्य बल को, चाहे वह पृथ्वी के घूर्णन के कारण न भी हो, अपकेंद्र (सेंट्रिफ्य़ुगल Centrifugal) बल कहते है।

कई एक पिंडों की समस्या-


तीन पिंडों की गतिकी (dynamical) समस्या की जटिलता का आभास तब हुआ जब सन्‌ 1743-50 में आलेक्सी क्लेरो (Alexis C.Clairaut) ने सूर्य और पृथ्वी के आकर्षण के वशीभूत चंद्रमा की गति पर अपनी खोजों की ओर 18 वीं शताब्दी के महान्‌ गणितज्ञ ग्रहों की क्षुब्ध गतियों और चाद्र सिद्धांत की गवेषणा में बहुत समय तक जुटे रहे। इसके फलस्वरूप वैश्लेषिक गतिविज्ञान (ऐनालिटिकल डाइनैमिक्स, Analytical Dinamics) जैसे बृहत्‌ विषय का विकास हुआ, जिसमें अब प्राक्षेपिकी, (बैलिस्टिक्स Ballistics) खगोलीय बलविज्ञान (सिलेश्चैल मिकैनिक्स Celestial Mechanics), कण गतिविज्ञान, दृढ़ गतिविज्ञान, और कंपन सिद्धांत का समावेश है। संघटन में आकुंचन और प्रभरण की जटिल प्रक्रियाओं की छानबीन से बचने के लिए यह सरलकारी कल्पना की गई है कि संघटनकारी पिंडों में क्षणिक संपर्क होता है और गति की एक व्यवस्था से दूसरी में परिवर्तन असतत होता है। इस कल्पना पर जब न्यूटन ने गपने गति नियमों को लगाया तो ऐसे समीकरण प्राप्त हुए जिनमें केवल अवस्थितत्वपद विद्यमान थे और जो यह प्रकट करते थे कि प्रत्येक पिंड संघटन से पूर्व और उसके पश्चात्‌ एक समान वेग से चलता है। (देखें बलविज्ञान)।

कण गतिविज्ञान-


इस विषय में यह सरलकारी कल्पना है कि कम से कम एक पिंड अन्य पिंडों में से एक की अपेक्षा इतना छोटा है कि उसे द्रव्यबिंदु, अर्थात्‌ कण, माना जा सकता है। गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव में प्रक्षेप्य की गति इस कल्पना का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसका दूसरा उदाहरण तब मिला जब केप्लर ने 17 वीं शताब्दी के आरंभ में ग्रहीय गति के तीन नियम खोजे और न्यूटन ने अपने गति समीकरणों को हल कर उनकी व्युत्पत्ति दी। वस्तुत: उसका क्षेत्रफल का नियम अब कोणीय संवेग अविनाशिता के सिद्धांत के नाम से सुविदित है। दोलक गति की समस्या एक दूसरी महत्वपूर्ण समस्या थी और हाइगन ने निरोध को लगाकर जब गति को वस्तुत: समकालिक बनाया तो गणितज्ञों द्वारा गुरूत्व के वशीभूत कण की निरूद्ध गति के अध्ययन का सूत्रपात्र हुआ। निदेशक के रूप में पृष्ठों और चक्रज आदि वक्रो का विशेष अध्ययन किया गया। चक्रज ही द्रुततम उतार का वक्र निकला। इन खोजों के फलस्वरूप गणितज्ञों की रूचि लघुतम की समस्याओं की ओर हुई और फ़र्मा (Fermat) ने लघुतम समय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया तथा मोपरट्वी (Maupertius) ने लघुतम क्रिया के सिद्धांत का। इन्हें आयलर (Euler) और लाग्रांज्ह (Legranage) ने विशद रूप से समझा और अंत में हैमिल्टन ने एक विशद रूप से समझा और अंत में हैमिल्टन ने एक विशालतर विधि में इनका समावेश किया।

कंपन सिद्धांत-


तीसरी महत्वपूर्ण सरलकारी कल्पना ब्रुक टेलर ने सन्‌ 1715 के लगभग यह की कि तनी हुई डोर के कंपन का विवेचन लघु-दोलन-सिद्धांत द्वारा किया जा सकता है। इस विधि से आवर्तगति के लिए उसने एकघात अवकल समीकरण की उद्भावना की, जिसे छोर संबंधी समुचित प्रतिबधा के साथ हल करने पर विभिन्न, संभव कंपनरूप मिलते है। इस विश्लेषण का जाहन बरनुली (Johann Bernoulli) ने बड़े मन से अध्ययन किया और उसने लघु दालन के व्यापक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस उसके बाद उसके पुत्र डेनियल और दो शिष्यों, आयलर तथा मापरट्वी, इन तीनों ने मिलकर विकसित किया। समान अंतरालों पर भारित भारहीन डोर की प्रसिद्ध समस्या कणों की संख्या और कंपन से मुक्त रूपों की सख्या में संबंध स्थापित करने में अत्यंत सहायक सिद्ध हुई। जब डोर एक नियम बिंदु से लटकी हुई ऊर्ध्वाधर स्थिति में कंपन करती है तब मिश्र दोलक बन जाती है और भारों की संख्या अनंत होने पर इसके कंपन भारयुक्त श्रृखंला के हो जाते है। जोज़ेफ लुई लाग्रांज ने सन्‌ 1788 में लिखित अपनी मिकैनिक ऐनालिटिक में इस समस्या का विस्तृत विवेचन किया है। इसी प्रकार का विश्लेषण ध्वनिक, वैद्युत और यांत्रिक छत्रों (फ़िल्टर्स filters) के लिये व्यवहृत किया गया है। लघु-दोलन-सिद्धांत का उपयोग इंजनों के लिये कंपन अवमंदकों के अध्ययन में और ईषाओं (Shaft) के ऐंठनात्मक दोलनों के अध्ययन में किया गया है।

अपरिवर्ती गति-


सन्‌ 1738 में डैनिएल बरनुली ने चौथी महत्वपूर्ण सरलकारी कल्पना द्रव्य की अपरिवर्ती गति के अध्ययन में की। धारारेखा के अनुदिश वेग, घनत्व और दाब में जो संबंध उसने दिया वह वस्तुत: ऊर्जा अविनाशिता के सिद्धांत की पुनरूक्ति जैसी है। अपरिवर्ती घूर्णनवाले गुरूत्वपूर्ण द्रव का व्यवहार मैकलोरिन (Maclaurin सन्‌ 1742) के ज्वार-भाटा-सिद्धांत में और क्लेरो (Clairaut सन्‌ 1743) के पृथ्वी के आकार विषयक सिद्धांतों में हुआ है।

दृढ़ गतिविज्ञान-


सन्‌ 1743 में बेंजामिन रॉबिज की न्यू प्रिंसिपुल्स ऑव गनरी के प्रकाशन से घूर्णनकारी प्रक्षेप के गतिविज्ञान में रुचि उत्पन्न हुई। तभी डिलैंबर्ट ने अपनी ट्रेट डिनैमिक में आभासी कर्म का सिद्धांत दिया है जो अब तक उसके नाम से प्रसिद्ध है (देखें बलविज्ञान)। इसके अनुसार दृढ़ पिंड के प्रत्येक लघु अंश को एक गतियुक्त निकाय माना जाता है, जिसका अपना द्रव्य मान और अपने गतिसमीकरण होते हैं। सभी अंशों के समीकरणों को जोड़ने पर आंतरिक बल कट जाते है और फलत: संपूर्ण पिंड के गतिसमीकरणों में केवल जड़ता के पद और पृष्ठ तथा पिंडबलों के परिणामी विद्यमान रहते हैं। घूर्णनकारी गतिसमीकरणों में निर्देशाक्षों के सापेक्ष जड़ताघूर्ण और निर्देश-समतल-युग्मों के सापेक्ष जड़ता-गुणनफल वाले पद रहते है। मुख्य पक्ष चुनने से ये गुणनफल शून्य हो जाते हैं और तब आयलर समीकरण मिलते है, जिनका उपयोग जलयानु, रेलइंजन, वायुयान और गुब्बारे (balloon) के गतिविज्ञान में प्रमुख है। कालमापी (chronometer) और घूर्णदर्शी (gyroscope) का निर्माण भी इन्ही समीकरणों का परिणाम है।

लाग्रांज समीकरण-


लघु दोलन सिद्धांत में वलफलन V को विभव ऊर्जा माना जाता है, जो संतुलन की अवस्था में, जिसमें व्यापकीकृत निर्देशांको Q1, Q2....Qn के मान शून्य लिए जाते हैं, लघुतम और शून्य रहता है। क्षुब्ध अवस्था में V संनिकटत: Q1, Q2....Qn के एक घन द्विघात रूप से निरूपित होता है और गतिज ऊर्जा T व्यापकीकृत निर्देशांको के परिवर्तन में समघात द्विघात रूप होता है। लाग्रांज ने बताया कि व्यापकीकृत निर्देशांकों में गतिसमीकरण वे ही है, जो विचरण कलन द्वारा राशि L=T_V के समय समाकल से प्राप्त की जा सकती हैं। L को गतिज विभव भी कहते हैं। कभी कभी L की महत्वपूर्ण भौतिक सार्थकता होती है। उदाहरणत: क्लैश (सन्‌ 1853) के द्रव-गति- विज्ञान में विचरण सिद्धांतों पर खोजों में L दाब समाकल है। यदि कण पृष्ठ

x=f (Q,Q2), y=g (Q,Q2), z=h (Q1, Q2) पर चलने को निबद्ध है, तो प्राचलों Q, Q2 को व्यापकीकृत निर्देशांक माना जा सकता है, जिनकी संख्या 3 से घटकर2 रह गई। अब क्योंकि V केवल x,y,z पर आश्रित है और T Q1, Q2 का द्विघात फलन है, जिसमें गुणांक Q1,Q2 पर आश्रित हैं, लांग्राज के समीकरण d/dt (L/qr)_L/qr=O, r=1,2

मिलते हैं। यहाँ कण और पृष्ठ से एक युग्मत निकाय बनता हैं, किंतु पृष्ठ को इतने अधिक द्रव्यमान का मान लिया जाता है कि उसकी गति की उपेक्षा की जा सके।

क्षोभ और स्थायित्व-


सन्‌ 1770-1810 तक लाप्लास ने खगोलीय बलविज्ञान, ज्वारभाटों और मंडल के स्थायित्व पर गवेषणा करके गति विज्ञान को समृद्ध किया। उसने प्राणेदित दोलनसिद्धांत को, उसमें निकाय के स्वभावत: अवमंदन को मिलाकर, परिवर्धित किया और उसे संरचना (Structara) सिद्धांत तथा वैद्युत्‌ परिपथों के सिद्धांत से उपयोगी बनाया। ध्वनिविज्ञान में यह परिवर्धित सिद्धांत अनुनादक (Resonator)और अनुरणन (गुंजन) सिद्धांत का आधार हैं। वैश्लेषिक गति, विज्ञान, हैमिल्टन के वैध समीकरण, हैमिल्टन जैकौबी के आंशिक अवकल समीकरण, प्रथमत: सुरक्षा का सिद्धांत, मिश्रित समीकरण, ्ह्रासमान निकायों तथा परिवर्तनशील द्रव्यमान के पिंडों के बारे में जानकारी के लिए संदर्भ में उल्लिखित पुस्तकें देखें।

सं.ग्रं-जी. जूस : थ्योरेटिकल फ़िजिक्स (लंदन, 1934); डब्ल्यू. एफ. ऑसगुड : मिकैनिक्स (न्यूयॉर्क, 1937); लॉर्ड केल्विन और पी. जी. टेट : नैचुरल फ़िलॉसफ़ ी (कैंब्रिज, 1912); एच. लैंब : डाइनैमिक्स, हायर मिकैनिक्स, हाइड्रोडाइनैमिक्स (कैंब्रिज 1914,1920,1924); ई. जे. राउथ : रिजिड डाइनैमिक्स ऐंड डाइनैमिक्स ऑव ए पार्टिकल (कैंब्रिज, 1898); ई. टी. ह्विटेकर : ऐनालिटिकल डाइनैमिक्स (न्यूयॉर्क, 1945); जी. डी. बिरखोफ : डाइनैमिक्स सिस्टम्स (न्यूयॉर्क, 1927); आर. एफ. डीमेल : मिकैनिक्स ऑव द जाइरोस्कोप (न्यूयॉर्क, 1930); एल. बेरस्टो :ऐप्लाइड एयरोडाइनैमिक्स (लंदन, 1939); एल. एम. मिलने टामसन : थ्योरेटिकल हाइड्रोडाइनैमिक्स (लंदन, 1938); सी. आर. फ्रेबर्ग और ई. एन. केप्लर : एयरक्राफ्ट वाइब्रेशन ऐंड फ्लटर (न्यूयॉर्क,1943); एच. सी. प्लूमर : डाइनैमिकल ऐस्ट्रॉनोमी (कैंब्रिज, 1918); ए. विंटनर :सिलेश्चल मिकैनिंक्स (प्रिंसटन, 1941); आर. सी. टालमन : प्रिंसिपुल्स ऑव स्टैटिस्टिकली मिकैनिक्स (ऑक्सफोर्ड, 1938)। (हरिश्चंद्र गुप्त)

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गति विज्ञान


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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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