गया, बोधगया

Submitted by Hindi on Wed, 08/10/2011 - 15:43
गया, बोधगया गया नगर से सात मील दक्षिण स्थित प्रख्यात बौद्ध तीर्थ। यहाँ गौतम ने बुद्धत्व प्राप्त किया था। बुद्ध के समय यह उरुवेला नामक ग्राम मात्र था। इसके निकट बुद्ध ने एक पीपल के वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर संबोधि प्राप्त की थी। उरुवेला में वहाँ के ग्रामणी की पत्नी सुजाता या नंदवला का दिया हुआ पायस खाकर बुद्ध ने अपना कई दिन का उपवास भंग किया था और वे इस परिणाम पर पहुँचे थे कि काया को उपवासादि से क्लेश पहुँचाकर मनुष्य सर्वोच्च सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता। बुद्ध के पश्चात्‌ गया का नाम संबोधि भी पड़ गया था जैसा कि अशोक के एक अभिलेख से ज्ञात होता है। मौर्य सम्राट् ने इस स्थान की पावन यात्रा अपने राज्यकाल के 10वें वर्ष में की थी। चीनी यात्री फाह्यान 4 थी सदी ई. में तथा युवान्‌च्वांग 7वीं सदी में गया आए थे। इन्होंने इस स्थान पर अशोक के बनवाए हुए विशाल मंदिर का उल्लेख किया है। जनरल कनिंघम तथा अन्य पुरातत्वविदों ने गया में विस्तृत उत्खनन कार्य किया था किंतु खुदाई में अशोक के मंदिर के कोई चिह्न नहीं मिल सके हैं। कहा जाता है, यह मंदिर 7वीं सदी तक विद्यमान था। वर्तमान मंदिर काफी समय बाद बना किंतु जिस स्थान पर यह बना है वह अवश्य ही बहुत प्राचीन है, क्योंकि इसके पास ही शुंगकालीन (द्वितीय शताब्दी ई. पू.) वेष्टनी (रेलिंग) बनी हुई है। यह मंदिर नौ तलों मे स्तूपाकार बना है। इसकी ऊँचाई 160 फुट और चौड़ाई 60 फुट है। फर्ग्युसन का विचार था कि नौतला मंदिर बनवाने की प्रथा, जो चीन तथा बौद्ध धर्म से प्रभावित अन्य देशों में प्रचलित थी वह मूलरूप से इसी मंदिर की परंपरा की अनुकृति थी (हिस्ट्री ऑव इंडियन ऐंड ईस्टर्न आर्कीटेचर, जिल्द 1 पृ. 79)।

13वीं सदी के आरंभ में जब बिहार पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ तब अवश्य ही यह मंदिर भी विध्वंस किया गया होगा। इससे पहले ही हिंदु धर्म के पुनरुत्थान के साथ ही बौद्ध मंदिर का महत्व समाप्तप्राय हो चला था। सिंहल के बौद्ध इतिहास ग्रंथ महावंश में वर्णित है कि 6ठी सदी में सिंहेलनरेश महानामन्‌ ने गया के बुद्ध मंदिर का जीर्णोद्वारा करवाया था।

कहा जाता है, मूल बोधिद्रम अथवा पीपल के वृक्ष को गौड़ नरेश शशांक ने, जो महाराज हर्षवर्धन (606-636 ई.) का समकालीन था, अधिकांश रूप से नष्ट कर दिया था। संभवत: वर्तमान वृक्ष मूलवृक्ष का ही वंशज है। इसी वृक्ष की एक शाखा अशोक की पुत्री संघमित्रा ने सिंहलदेश के नगर अनुराधापुर में ले जाकर लगाई थी। यह वृक्ष वहाँ पर अभी तक स्थित है और इसी की एक टहनी वर्तमान सारनाथ में उसके पुनरुत्थान के समय कुछ वर्ष पूर्व, आरोपित की गई थी।

महाभारत के वनपर्व (84,83) में गया में स्थित एक अक्षयवट का उल्लेख है, जिसे पितरों के लिए किए जानेवाले सभी पुण्यकर्मों को अक्षय कर देनेवाला माना गया है। स्यात्‌ यह वृक्ष (वट, पीपल या बरगद) बौद्धों का संबोधि वृक्ष ही है, जिसे हिंदूधर्म के पुनरुज्जीवनकाल में हिंदुओं ने अपनाकर अपने धर्म से संबंधित मान लिया होगा। बौद्ध साहित्य में फल्गु की सहायक नदी वर्तमान निलांजना को नैरंजना कहा गया है-स्नातो नैरांजनातीरादुत्ततार शनै: कृश: (बुद्धचरित्‌ 12, 108)। यह नदी गया से दक्षिण की ओर तीन मील दूर महाना या फल्गु में जाकर मिल जाती है। (विजयेंद्र कुमार माथुर)

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