घाघरा-विवाद

Submitted by Hindi on Tue, 04/17/2012 - 16:32
Author
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र
Source
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'

चम्पारण और तिरहुत में टूटे तटबंधों के बीच सरकार ने जब नदी पर 12,500 रुपयों की लागत से बनाये जाने वाले स्लुइट गेट के लिए स्वीकृति दी तब इंजीनियरों का गुस्सा उबाल पर था क्योंकि इस स्लुइस गेट से अपेक्षा थी कि उससे हो कर नदी का अतिरिक्त पानी बाहर कर दिया जायेगा। यह अतिरिक्त पानी जहां निचले इलाकों में जाकर इकट्ठा हो जाता वहीं बाहर से नदी में जाने वाले पानी के स्वाभाविक प्रवाह में बाधा डालता।

जहां एक ओर बाढ़ नियंत्रण की किसी बहस में कोसी छाई रहती थी वहीं तटबंधों के बीच बंधी गंडक द्वारा तबाही के किस्से इंजीनियरों को मजबूर कर रहे थे कि वह बाढ़ नियंत्रण के लिए कम से कम तटबंधों की वकालत तो न करें। उधर सारण जिले में घाघरा नदी में 1890 में एक बार बुरी तरह बाढ़ आई और वहां स्थानीय लोगों ने तटबंधों के निर्माण की बात उठाई। सरकार ने तुरन्त कोई फैसला न करके विभाग के दो वरिष्ठ इंजीनियरों - बकले और ऑडलिंग को यह काम सौंपा। दोनों अधिकारियों ने नदी का सर्वेक्षण किया और इस बात की संभावना तलाशी कि तटबंधों के निर्माण से कुछ डुब्बे इलाकों को क्या बाढ़ से आंशिक सुरक्षा दी जा सकती है? इन दोनों इंजीनियरों की सिफारिश पर लाट साहब ने घाघरा पर किसी भी सरकारी महकमें के माध्यम से नदी पर प्रस्तावित तटबंधों के निर्माण को नकार दिया।

उन्होंने इस बात की जरूर छूट दी कि अगर आवेदक अपने खर्चे पर और अपने जोखिम पर कोई तटबंध बनाते हैं तो सरकार इसमें अड़चन नहीं डालेगी। लाट साहब, सर चार्ल्स इलियट, ने जब घाघरा पर तटबंधों को सरकार द्वारा तटबंध बनवाने से मनाही कर दी तब उनकी सबसे ज्यादा जय-जयकार इंजीनियरों ने की थी। ‘‘ हमें इस बात की खुशी है कि इतने महत्वपूर्ण सवाल का इतना गहराई से अध्ययन हुआ। यह अध्ययन प्रभावित लोगों को हर हालत में राहत पहुंचाने की नीयत से किया गया था। सर चार्ल्स इलियट ने अध्ययन की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है जिन्हें जिम्मेदार पेशेवर सलाहकारों ने तैयार किया था। सर चार्ल्स इलियट ने अपनी सरकार के जरिये एक ऐसे काम के लिए मनाही की है जिनके निर्माण में तो कोई जोखिम नहीं है पर उससे कोई फायदा होगा इस पर शक है। फिर भी उन्होंने आवेदकों को अपने खर्चें और अपने जोखिम पर निर्माण की छूट दे दी है जो कि आवेदकों का हक बनता है।’’

उधर चम्पारण और तिरहुत में टूटे तटबंधों के बीच सरकार ने जब नदी पर 12,500 रुपयों की लागत से बनाये जाने वाले स्लुइट गेट के लिए स्वीकृति दी तब इंजीनियरों का गुस्सा उबाल पर था क्योंकि इस स्लुइस गेट से अपेक्षा थी कि उससे हो कर नदी का अतिरिक्त पानी बाहर कर दिया जायेगा। यह अतिरिक्त पानी जहां निचले इलाकों में जाकर इकट्ठा हो जाता वहीं बाहर से नदी में जाने वाले पानी के स्वाभाविक प्रवाह में बाधा डालता। इससे एक साफ-सुथरे और स्वच्छ इलाके में मलेरिया की शुरुआत होती। घाघरा तटबंध के प्रस्तावों को ध्वस्त करने का हवाला देते हुये यह कहा गया कि, ‘‘क्या सरकार के जिम्मेदार सलाहकारों को इस तरह की धाराओं की कार्यप्रणाली मालूम नहीं हैं? यह काम क्या बाहरी गैर-जिम्मेदार लोगों का है कि उन्हें बतायें कि वह इस बात का अध्ययन करें कि प्रकृति किस तरह काम करती है और यह कि प्राकृतिक नियमों के साथ बेवजह टकराव का बदला वह किसी न किसी तरह जरूर लेगी।”