जल की उत्पत्ति
भारतीय संस्कृति की यह मान्यता सुविदित है कि मानव शरीर पाँच तत्वों का बना हुआ है। “पाँच तत्व का पींजरा तामे पंछी पौन” यह उक्ति प्रसिद्ध है। ये पाँच तत्व है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इन्हें पंचभूत भी कहते हैं क्योंकि ये वे तत्व हैं जिनसे सारी सृष्टि की रचना हुई है।1
आसीदिद तमोभूतम प्रज्ञातमलक्षणम।
अप्रतर्क्यमविज्ञेय प्रसुप्तमिव सर्वत। 7।
ततः स्वयं भूर्भगगवान व्यक्तो व्यंजयत्रिदम।
महा भूतादि वृतौजाः प्रादुरासीत्रमोनुदः। 8।
(भावार्थ - पहले यह संसार तम, अंधकार रूपी प्रकृति से घिरा था। इसमें कुछ भी प्रत्यक्ष ज्ञात नहीं था जिससे तर्क द्वारा लक्षण स्थिर किए जा सके। सभी तरफ अज्ञान और शून्य अवस्था के नाश करने वाले लक्षण सृष्टि की सामर्थ्य से युक्त स्वयंभू भगवान महा भूतादि पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु पंच तत्वों का प्रकाश करते हुए प्रकट हुए)
वेदकाल से लेकर आज तक जल का यह महत्त्व शास्त्रों और काव्यों में प्रतिफलित होता आया है। शास्त्रों में प्रसिद्ध है कि अव्याकृत ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना करनी चाही तो सबसे पहले उसने जल में सृष्टि का बीजवपन किया2 जल को नारा भी कहा गया है क्योंकि वह नर (ईश्वर) की सन्तान है व नारा (जल) ईश्वर का प्रथम आश्रय स्थल है, इसलिये ईश्वर को नारायण कहते हैं3। ऋग्वेद में वरुण देवता के साथ आपका उल्लेख हुआ है और इसी आप से सृष्टि की रचना हुई है। इसी प्रकार इन्द्र को आकाश, पृथ्वी, जल, व पर्वत का राजा माना है। इन्द्र के लिये कहा गया है कि वृत्र का वध करके वह आप (जल) को मुक्त कराता है4।
महाकवि कालिदास भी ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के मंगलाचरण में सबसे पहले जल का ही स्मरण करते हैं ‘‘या सृष्टिः स्रष्टुराधा’’ कालिदास के अनुसार अष्टशिव की पहली मूर्ति जल स्वरूप है जो सृष्टि का भी प्रथम तत्व है। विज्ञान के अनुसार जल से ही जीवन के तत्व पैदा हुए, जलचर प्राणी व उभयचर फिर स्थलचर इसमें मनुष्य भी आते हैं। संस्कृत में वेदकाल में जल शब्द का प्रयोग कहीं नहीं मिलता है। वेद जल को आपः कहकर पुकारते हैं और हमेशा बहुवचन में ही उल्लेख करते हैं। आप में जो तत्व समाविष्ट बताये गये हैं, गोपथ उपनिषद में “आपो भृग्वगिरो रूपमापो भृग्वगिरोमय’’ में लिखकर यह बताया गया है कि जल तत्व तो सूक्ष्म तत्वों का संघात है जिन्हें भृगु और अंगिरा कहा गया एक दृष्टि से इन्हें अग्नि और सोम का रूप भी माना जा सकता है। भृगु सोम तत्व है और अंगिरा अग्नि तत्व है। आधुनिक विज्ञान में हाइड्रोजन के दो अंश और ऑक्सीजन का एक अंश जल में बताया गया है, वे ही भृगु और अंगिरा हैं।5 चारों वेदों को क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य और आप तत्व का प्रतीक मानने वाले विद्वान ऋग्वेद को अग्नि का, यजुर्वेद को वायु का, सामवेद को आदित्य का और अथर्ववेद को आप (जल) का रूप मानते हैं। शतपथ ब्राह्मण की स्थापना यह है कि जल से फेन, मृदा, सिकता, शर्करा, अश्मा, अयः और हिरण्य बनते हुए पृथ्वी का उद्गम होता है। ये तत्व इसी क्रम से उद्भूत होते हैं इन्हें ही आठ वसु भी कहा जा सकता है।6
संस्कृत में जल के जो नाम मिलते हैं उनमें उसे “जीवन भुवन, वनम’’ कहा गया है। जीवन में, ब्रह्माण्ड में और हमारे परिवेश में जल मूल तत्व के रूप में व्याप्त है। वैश्विक दर्शन पुराना दर्शन है जिसका दृष्टिकोण द्रव्यवादी है। द्रव्यों का विवेचन करते हुए वह नौ द्रव्यों पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन को मानता है।7 यहाँ जल का विवेचन करते हुए वह स्पष्ट करता है कि जल दो तरह का होता है नित्य और अनित्य। हम जिसे जल के रूप में इस्तेमाल करते हैं वह स्थूल द्रव्य अनित्य जल है जबकि नित्य जल अर्थात आप सूक्ष्म तत्व के रूप में विश्व में व्याप्त है। इस प्रकार इन्द्रियगभय भूतों को जिन्हें पंचभूत कहा जाता है। जल को पंचभूत समुदाय के सदस्य के रूप में जगह देते हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि मानव शरीर में सर्वाधिक मात्रा यदि किसी तत्व की है तो वह जल है। आयुर्वेद के अनुसार भी हमारे शरीर में रस, रक्त, मांस, भेद, अस्थि, मज्जा और शुक ये सात धातुएँ हैं जो शरीर को धारण करती हैं। इनमें जल का अंश कुल मिलाकर 70 प्रतिशत है। पाँच तत्वों के पिंजरे में ही प्राण और आत्मा सुरक्षित रहते हैं। प्राण निकलते ही वे विघटित होने लगते हैं और शरीर के पाँचों तत्व पंचतत्व में मिल जाते हैं। इसी को कहते हैं पंचतत्व को प्राप्त होना कहते हैं और इसलिये शरीर के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व जल है।
2. जल वर्णना विज्ञान का इतिहास
प्रकृति की इस अनुपम निधि को सहेजकर रखने का प्रयास प्रारम्भ से ही किया जाता रहा है। जब से मानव में चेतना का संचार हुआ है उसने जल संचयन के नित नूतन उपक्रम स्थापित किए हैं। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं8 और रचित ग्रंथों में भी जल के महत्त्व को विभिन्न ढंगों से दर्शाया गया है। मिश्र के लोग9 नील नदी के जल प्लावन से परिचित थे उन्होंने नील नदी से छोटी बड़ी नहरों की ऐसी सुन्दर व्यवस्था अपने देश में बना रखी थी कि बाढ़ का पानी बर्बाद न हो पाता था और भूमि को भी सींच-सींच कर अत्यन्त उपजाऊ बनाता रहता था। मिश्र के बारहवे राजवंश के राजा अमेनेम हेट तृतीय ने फ्युम नामक स्थान में बीस मील लम्बे बाँध से घेरकर एक ऐसी झील बनाई जिसमें सिंचाई के लिये पानी इकट्ठा किया जाता था10 अनेक मिश्री तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ईसा से 300 वर्ष पूर्व वहाँ के निवासी जल के प्रभावों को जानते थे तथा उन्होंने जल घड़ी का आविष्कार किया था।11
ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में ही बलुचिस्तान के किसान ने बरसाती पानी घेरना और सिंचाई में उसका प्रयोग करना शुरू कर दिया था। कंकड़ पत्थर से बने ऐसे बाँध बलुचिस्तान और कच्छ में मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता (3250 ई. पूर्व-2750 ई.पूर्व) में पानी एकत्र करने के लिये तालाब व कुओं की परम्परा विकसित हो गयी थी। सिन्धुघाटी सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थान धोलावीरा में मानसून के पानी को संचित करने वाले अनेक जलाशय थे व जल निकासी की व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी। खुदाई में ऐसे कुएँ मिले हैं जिनकी चौड़ाई दो फीट से सात फीट है। सार्वजनिक कुओं के अतिरिक्त लोग अपने घरों में व्यक्तिगत उपयोग के लिये भी कुएँ बनाते थे। मोहनजोदड़ो के विस्तृत स्नानागार में कई कमरे और एक ईटों का तालाब मिला है। 39 फीट लम्बे, 23 फीट चौड़े व 8 फीट गहरे इस तालाब की दीवारें बहुत मजबूत हैं और इसमें नीचे उतरने के लिये सीढ़ियाँ बनी हैं। समीप के ईटों से बने कुआें से तालाब के नलों को भर दिया जाता था।12
ऋग्वेद में सिचाई प्रायः नहरों द्वारा होने का उल्लेख है। कूप तथा अवट (खोदकर बने हुए गड्ढे) का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है। चक्र की सहायता से कूप से पानी निकाला जाता था तथा नालियों द्वारा खेतों तक पहुँचाया जाता था।13 वैदिक काल में कृषि वर्षा पर निर्भर थी। सिंचाई के लिये वर्षा और कूप के पानी के अतिरिक्त नहरों से भी सिंचाई की जाती थी।14 अष्टाध्यायी में वर्षा और प्रावर्षा (वर्षाकाल) का उल्लेख हुआ है। वर्षा न होने से अवग्रह (सूखा) पड़ जाता था इसी कारण समाज ने सिंचाई हेतु कुआें की व्यवस्था कर रखी थी। कुआें का जल भी सिंचाई के काम आता था, अनेक स्थलों पर नहरें (कुल्याएँ) भी बना ली गयी थी।
मनुस्मृति में भी कुओं और प्याऊ का अस्तित्त्व प्रकाश में आया है। राजा के द्वारा कुएँ की रस्सी, पीने का पात्र व प्याऊ को नष्ट करने पर दण्ड देने का भी उल्लेख है।15 जल संचय करके सिंचाई करने वाली प्रणालियाँ की मौजूदगी का पता ई.पू. तीसरी सदी में लिखे कौटिल्य के ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ से भी चलता है। लोगों को बरसात के चरित्र, मिट्टी के भेद और सिंचाई तकनीकों का पता था। राजा भी इस काम में मदद करता था पर इन्हें बनाने, चलाने और रखवाली का काम गाँव वाले खुद करते थे। इस मामले में गड़बड़ करने वाले को सजा मिलती थी।
ढ़लवा पहाड़ या जमीन पर गिरने वाले पानी को दूर स्थित कुँओं तक लाकर उनका संग्रह और उपयोग करना प्राचीन काल में जल-तकनीक संबंधी सबसे महत्त्वपूर्ण खोजों में एक था। 300 ई.पू. तक यह विधि भारत में भी प्रयुक्त होने लगी थी। “विभाग प्रमुखों के कार्य’’ नामक अध्याय में कौटिल्य ने लिखा हैः- उपयोग से सिंचाई व्यवस्थाओं का निर्माण करना चाहिए। इन व्यवस्थाओं का निर्माण करने वालों को उसे भूमि, अच्छा रास्ता, वृक्ष तथा उपकरणों आदि से सहायता करनी चाहिए अगर कोई सिंचाई के काम में भाग नहीं लेता है तो उसके श्रमिकों तथा बैलों आदि को उसके बदले काम में लगाना चाहिए और उसे व्यय वहन करना चाहिए। परन्तु उसे सिंचाई व्यवस्था का कोई भी लाभ नहीं मिलना चाहिए। सिंचाई व्यवस्था के अधीन मछलियों, बत्तखों और हरी सब्जियों पर राजा का स्वामित्व होना चाहिए। न्यायाधीशों से सम्बन्धित एक अध्याय में उन्होंने लिखा हैः- अगर जलाशय, नहर या पानी जमाव के कारण किसी के खेत या बीज को क्षति पहुँचती है तो उसे क्षति के अनुपात में क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए। अगर जल जमाव, उद्यान या बाँध के कारण दोहरी क्षति हो तो दोगुनी क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए। ऊँचाई पर बने तालाब से जिस खेत को पानी मिलता है उसमें उसके बाद उससे नीचे बने तालाब के पानी से बाढ़ नहीं आनी चाहिए। ऊपर की सतह पर बने तालाब को नीचे की सतह पर बने तालाब में पानी भरने से रोकना नहीं चाहिए, बशर्ते यह तीन साल के प्रयोग में नहीं लाया जा रहा हो। इस व्यवस्था के उल्लंघन के लिये दण्ड, हिंसा और तालाब खाली करने पर मिलने वाले दण्ड जैसा ही हो। पाँच साल से प्रयोग में लायी जा रही जल व्यवस्था का स्वामित्व का लोप हो जायेगा, बशर्ते स्वामी किसी खास कष्ट में न हो। जब नए तालाब और बाँध बनाए जाते हैं तो उस पर पाँच वर्षों के लिये कर मुक्ति दी जावेगी। नष्ट या परित्यक्त तालाब या बाँध के लिये तीन वर्षों के लिये और सूखी खेती पर पुनः खेती करने के लिये दो वर्षों के लिये कर मुक्ति दी जावेगी। खेती को बंधक रखा जा सकता है या बेचा जा सकता है। नदी या तालाब से नहर बनाने वाले लोग खेतों, उद्यानों बगीचों की सिंचाई के बदले में होने वाली पैदावार का एक हिस्सा ले सकते है और जो लोग इनका उपयोग पट्टे, किराये पर या हिस्सेदारी की एवज में करते है या इसका अधिकार हासिल करके करते हैं उन्हें इनकी मरम्मत वगैरह भी करवानी होगी। मरम्मत न कराने पर दण्ड क्षति का दोगुना भरना पड़ेगा। बारी से पहले बाँध का पानी छोड़ने का दण्ड भरना होगा और दूसरे की बारी आने पर लापरवाही से उसका पानी रोकने पर भी इतना ही दण्ड होगा’’।
प्रथा के उल्लंघन पर एक अध्याय में कौटिल्य ने लिखा है कि अगर कोई उपयोग में आये पारम्परिक जलस्रोत का उपयोग रोकता है या ऐसा नया जलस्रोत बनाता है जिसका पारम्परिक कामों के लिये उपयोग न किया जा सके तो हिंसा के जो न्यूनतम दण्ड निर्धारित हैं वह उस पर लगाए जाएँगे। ऐसा ही दण्ड दूसरों की भूमि पर बाँध, कुँआ, पवित्र स्थल, उद्यान या मन्दिर बनाने वाले को दिया जायेगा। अगर कोई व्यक्ति स्वयं या दूसरों के माध्यम से किसी परमार्थिक जल व्यवस्था को बंधक रखता है या बेचता है तो हिंसा के लिये निर्धारित मध्यम दण्ड दिया जायेगा और गवाहों को अधिकतम दण्ड जायेगा परन्तु वह जल व्यवस्था नष्ट या परिव्यक्त नहीं होनी चाहिए। स्वामी की अनुपस्थिति में ग्रामीण जन और परमार्थी जन उसकी मरम्मत कराएँगे। कौटिल्य ने एक शब्द का प्रयोग किया है आधार परिवाह के द्रोपभग्या यानि ‘‘जलागार की नहरों से सिंचित खेतों का उपयोग’’।
जल संचय व्यवस्था के लिये मूल पाठ में कई शब्दों का प्रयोग किया गया है :-
पानी जमा करने के लिये | सेत |
नहर के लिये | परिवह |
तालाब के लिये | तातक |
नदी जल के लिये | नदययतना |
नदी पर बने बाँध के लिये | निबंधयतन |
कुओं के लिये | खट |
प्राकृतिक झरने या जल बहाव वाला | सेत सहोदक |
नहरों से लाए गये पानी से बना जलाशय | आहहयौदक |
चन्द्रगुप्त मौर्य के समय (321-297 ई.पू.) भारतीय किसान बाँध, तालाब और अन्य सिंचाई साधनों का निर्माण करने लगा था और उन पर नजर रखने वाले अधिकारी भी तब तक वजूद में आ गए थे। अर्थशास्त्र में सिंचाई के अनेक साधनों का उल्लेख मिलता है।16
1. नदी, सर, तड़ाग और कूप द्वारा सिंचाई।
2. डोल या चरस द्वारा कुएँ से पानी निकालकर सिंचाई।
3. बैलों द्वारा सींचे जाने वाले रहट या चरस द्वारा कुएँ से सिंचाई।
4. बाँध बनाकर नहरों द्वारा सिंचाई।
5. वायु द्वारा संचालित चक्की द्वारा सिंचाई।
मेगस्थनीज अपनी पुस्तक “इण्डिका” में कहता है कि सिंचाई की और राज्य का विशेष ध्यान था। कुछ अधिकारियों का काम भूमि को नापना और उन पर छोटी नालियों का निरीक्षण करना था जिनमें होकर पानी सिंचाई की नहरों में जाता था जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अपना सही भाग मिल सके।
प्राचीन काल से ही भारतीय शासक नहर, तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ जलाशय इत्यादि के निर्माण का दायित्व वहन करते थे। महाक्षत्रप प्रथम रुद्रदामन की जूनागढ प्रशस्ति (150 ई.) से ज्ञात होता है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने गिरनार में एक झील का निर्माण करवाया था। उसमें से अशोक ने नहरें निकलवायी थी, जिसका बाँध भारी वर्षा के कारण टूट गया और उससे चौबीस हाथ लम्बी, इतनी ही चौड़ी और पचहत्तर हाथ गहरी दरार बन गयी और झील का सारा पानी बह गया तब रुद्रादामन ने व्यक्तिगत कोष से धन देकर अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में बाँध की फिर से मरम्मत करवायी और उससे तिगुना मजबूत बाँध बनवा दिया।17 सिंचाई की सुविधा के लिये चन्द्रगुप्त मोर्य के काल में सौराष्ट्र प्रान्त में सुर्दशन झील का निर्माण उसके राज्यपाल पुष्यगुप्त वैष्य ने आरम्भ करवाया था तथा अशोक के राज्यपाल तुशस्प ने इसे पूरा करवाया था।
जूनागढ़ अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल (455-467 ई.) में भी भारी वर्षा के कारण ऐतिहासिक सुर्दशन झील का बाँध टूट गया। इस कष्ट के निवारणार्थ सौराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पणदत्र के पुत्र चक्रपालित ने जो गिरनार नगर का नगरपति था ने दो माह के भीतर ही बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था।18 मौर्य काल में सिंचाई की चार विधियों हाथ द्वारा, कन्धों पर पानी ले जाकर, मशीन द्वारा तथा नदियों तालाबों से पानी निकालकर सिंचाई करने का उल्लेख है। भूमि का अधिकांश भाग सिंचित था। कुछ पदाधिकारी नदियों का प्रबन्ध रखते थे ताकि उनसे पानी ठीक से नहरों द्वारा खेतों को पहुँचाया जा सके। हर्षवर्धन के शासन काल (606-647 ई.) में कृषि के लिये सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। ‘हर्षचरित’ में सिंचाई के साधन के रूप में ’तुलायन्त्र’ (जलपम्प) का उल्लेख मिलता है।19 चाहमान नरेश अर्णोराज ने आनासागर झील तथा उसके पुत्र बीसलदेव ने विशालसर नामक तालाब खुदवाया था। चंदेल तथा परमार शासकों के काल में महोबा और धारा नगरी में अनेक झीलों का निर्माण करवाया था। परमारवंश में धारा नगरी के विद्वान शासक भोज (1011-1046 ई.) ने भोपाल के दक्षिण पूर्व में 250 वर्गमील लम्बी एक झील का निर्माण करवाया था जो भोजसर के नाम से प्रसिद्ध है। इस काल में कृषक राज्य की भूमि की सिंचाई के लिये जल के भाग के रूप में कर देते थे जिसे उदक भाग कहा गया है।20
दक्षिण भारत के चोल शासकों ने कृषकों को पानी उपलब्ध कराने के लिये कावेरी नदी के तट पर कई बाँधों का निर्माण करवाया था। लेखों में कलिनगै, बाहूर, कुलय, चोलवारिधि आदि कई तालाबों का उल्लेख प्राप्त होता है। चोलों द्वारा श्रीरंगम टापू के नीचे बनवाया गया बाँध सबसे महत्त्वपूर्ण था जिसकी लम्बाई 1240 मीटर तथा चौड़ाई लगभग 20 मीटर थी। उस समय ग्राम सभा का एक मुख्य कार्य तालाबों का निर्माण तथा उसकी व्यवस्था देखना था। इसके लिये ग्राम सभाआें के अन्तर्गत सिंचाई समितियाँ बनी हुई थी। राजेन्द्र चोल के समय में गंगैकोण्डचोलपुरम में एक तालाब खुदवाया गया था। कल्याणी के चालुक्यों के समय में चेब्रोल (गुन्टुर जिला) में एक बड़े तालाब का निर्माण करवाया गया था। चैत्यतटाक, भीमसमुद्रतटाक का उल्लेख भी मिलता है। कदम्बवंश के राजा काकुत्सवर्मा के समय में हाटूर के पास तालाब व बीजापुर जिले के मेन्टूर में रटट सरोवर था। पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन ने महेन्द्रवाड़ि में एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया था। कल्हण की ‘राजतरंगिनी’ में कश्मीर के 12वीं सदी का इतिहास लिखा है, उसमें व्यवस्थित सिंचाई प्रणाली, डल और आचर झील के आस पास के निर्माणों और नदी नहर बनाने का विवरण है।21
प्राचीन साहित्य तथा लेखों में जलाशयों के लिये वापी और तटाक शब्द मिलते हैं। वापी से तात्पर्य छोटे जलकुण्ड से है जबकि तटाक बड़े जलाशय का धोतक है। वापी बावड़ी का संस्कृत रूप भी है। वास्तुशास्त्र के प्रतिष्ठित ग्रंथों में उत्तर भारत के समरांगण सूत्रधार, अपराजित पृच्छा, राजबल्लभ वास्तुसार तथा दक्षिण भारत के मानसार, मयमत और विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र से वापी एवं उनके निर्माण सम्बन्धित जानकारी मिलती है।
अपराजित पृच्छा के अध्याय 74 में बावड़ियों के 4 प्रकार बताये गये हैं -
1. नन्दा - जिसमें एक प्रवेश द्वार व तीन कूट हों ऐसी बावड़ी मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। (1+3)
2. भद्रा - दो द्वार व षट कूट वाली बावड़ी सुन्दर होती है। (2+6)
3. जया - देवी देवताओं के लिये भी दुर्लभ बावड़ी जया में तीन द्वार तथा नौ कूट होते हैं। (3+9)
4. सर्वतोमुख - चार द्वारों वाली बावड़ी में बारह सूर्य कूट होते हैं। (4+12)
विश्वकर्मा का ‘वास्तुशास्त्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जो वापी के निर्माण सम्बन्धी विस्तृत जानकारी देता है। इसके तैतीसवें अध्याय में वापी की विशेषताओं का वर्णन मिलता है। “कहते हैं कि परीक्षा के पश्चात जिस भूमि में मीठे पानी की स्थिति हो वहीं वापी का निर्माण करना चाहिए। वापी चतुरस, वर्तुल, दीर्घ बनायी जाती है। इसका नाप तीन, चार, पाँच, छः या दस कुण्ड तक होता है। वापी में प्रवेश के लिये एक दो या चार द्वार होते है। इसके तल के मध्य का नाप दस हाथ हो और गहराई भी पानी के नीचे दस हाथ की ही हो। इसके ऊपर दीवार बनायी जावें जो ईंट अथवा पत्थर की हो। पानी की सतह पर एक दण्ड का चोकोर खुला आँगन हो जिसके ऊपर की ओर सीढ़ियाँ बने और इन्ही सीढ़ियों पर खम्भों के सहारे चबूतरे बने। यहाँ वास्तुशास्त्र का लेखक युक्ति पर अधिक जोर देता है। पाद सोपान सीढ़ियाँ और स्तम्भों से बावड़ी टिकाऊ व मजबूत होती हैं सुन्दर दिखती हैं। मुख मण्डप व मुख्य द्वार में कपाट लगे हों ताकि बच्चे गिरे नहीं। यदि वापी का आकार गोल हो तो पंक्ति घुमावदार, भुजंग आवेन्टन आकृति (सर्प की कुण्डली जैसी) होनी चाहिए। यदि वापी का आकार गोल नहीं है तो सूत्र पंक्ति बने अर्थात सीधी सीढ़ियाँ हो व तीन किनारों पर घटि यन्त्र रहट लगा हो जिससे पानी निकाला जाये। चारों ओर आंगन हो जिसमें देवमूर्तियाँ बनी हो। राधिका बिम्बों में वरूण आदि देवताओं की मूर्तियाँ बने जिनके दर्शन कर लोग पुण्य लाभ प्राप्त कर सके’’।
राजस्थान में प्राचीन समय के अभिलेखों, लेखों व प्रशस्तियों में भी जलस्रोतों, नहरों, कुओं, बावड़ियाँ, तालाबों का उल्लेख मिलता है। जलस्रोतों से सम्बन्धित शिलालेख तालाबों, बावड़ियों के बीच गढ़ी हुई शिलाआें पर बहुधा मिलते हैं। इनकी भाषा संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी, फारसी तथा उर्दू में समय के अनुकूल प्रयुक्त हुई है। इनमें गद्य व पद्य दोनों का समावेश दिखायी देता है।
जोधपुर नगर के निकट मण्डोर नामक स्थान के पहाड़ी ढ़ाल में एक बावड़ी है। जिसमें आयताकार शिला भाग पर 685 ई. का एक शिलालेख उत्कीर्ण हैं। इसमें इसको बनवाने वाले चणक के पुत्र माधू ब्राह्मण की सूचना प्राप्त होती है।
ऊँ नमः शिवाय......सर्वाम्भसामधिपति........श्री मत्सुधाधवल हेमविभान
वर्ती देवः सदा जयति पाशधर........रेय वापी निपानभिव............स
यशसा चखा न संवत्सर शतेशु सप्तसु द्वाचत्वरिशााधिकेषु योतेसु।22
चित्तौड़ के पास मानमोरी स्थान पर मानसरोवर झील के तट पर एक स्तम्भ खुदा हुआ मिला है। इस लेख में पहले समुद्र व तालाब का वर्णन करते हुए अमृत मंथन तथा उसके सम्बन्ध में कर का उल्लेख किया गया है। चित्तौड़ के शासक मानमोरी ने मानसरोवर नामक सुन्दर झील का निर्माण करवाया था। जिससे उस समय के समाज में धार्मिक भावना से सरोवरों का निर्माण करवाना लोकोपकारी कार्यां को प्रधानता देना अनुमानित होता है।23
बसन्तगढ़ (सिरोही) में लाहण बावड़ी पर 1042 ई. की एक प्रशस्ति खुदी हुई है इसमें लाहिणी नाम की रानी का वर्णन है जिसने पुण्यार्थ इस बावड़ी का निर्माण करवाया था।
‘‘तद्वदाख्ये नगरे वनेऽस्मिन बहुप्रसादान कृतवान वसिष्ठः।
प्राकार वप्रोषवनेस्तडार्गेः प्रासाद वेश्मैः सुधनेः सदुर्गेः”।।24
बाली के बोलमाता के मन्दिर के सभा मण्डल के एक स्तम्भ पर पाषाण खण्ड के भाग पर 1143 ई. का लेख उत्कीर्ण है। इस 6 पंक्तियों वाले लेख में नागरी लिपि व संस्कृत भाषा प्रयुक्त की गई है। यह लेख महाराजाधिराज जयसिंह देव के काल का है इसमें देवी पूजन निर्मित चार द्रम (कर) दिये जाने का उल्लेख है। प्रत्येक अरहट से एक-एक द्रम दिये जाने का आदेश दिया गया है। स्पष्टत अरहट जैसे कृत्रिम साधन भी सिंचाई के लिये प्रयुक्त किये जाते थे।
श्री जय सिंह देव कल्याण विजयराज्येपादधोपजीवि
महाराजा श्री आश्वके .......सीत्कभरिया बोहड़ामहिमा
प्रभृति अरहट प्रति प्रदत द्रां ‘‘1”
शासक तेजपाल के द्वारा बनवाए गये आबू पर देलवाड़ा गाँव के नेमीनाथ के मन्दिर में लगाई गई 1230 ई. की प्रशस्ति में उसके व भाई वस्तुपाल के द्वारा अपने प्रभाव क्षेत्र के गाँव में बावड़ियाँ, कुएँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशालाएँ आदि का निर्माण व उनका जीर्णोद्धार करवाए जाने का उल्लेख है।
भतेन भातृयुगेन या प्रतिपुर ग्रामाध्वशैलस्थलं।
वापीकूपनिपान काननसरः प्रासाद सत्रादिकाः।।
धर्मस्थान परंपरा न व तराचक्रेथ जीर्णोद्धृता।
तत्संख्यापिनबुध्यते यदि परं तद्वेदिनी मेदिन25
चित्तौड़ के निकट घाघसा गाँव की एक बावड़ी में 1265 ई. का महारावल तेज सिंह के समय का लेख लगा हुआ था, जिसे डॉ. ओझा ने वहाँ से हटाकर उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित किया है। 28 पंक्तियाँ और 33 श्लोक वाले इस लेख में डीडू वंश के रत्न द्वारा उक्त बावड़ी का निर्माण करवाने का उल्लेख मिलता है।26 इसी प्रकार एक शिलालेख बुद्धपद्र (बुटड़ा) गाँव की एक बावड़ी में लगा हुआ था, जहाँ से उसे जोधपुर के दरबार हॉल में ले जाकर सुरक्षित किया गया था। इस लेख की 18वीं व 19वीं पंक्ति में 1283 ई. को रूपा देवी द्वारा बनवाई गई बावड़ी की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। इस लेख की विशेषता यह है कि राजाओं की भाँति उस युग में सामन्त परिवार की स्त्रियाँ भी जनहित के लिये बावड़ियाँ बनवाती थीं और उसको एक सामाजिक और धार्मिक महत्त्व दिया जाता था।
भतनियुक्त श्री जाषादिपञ्चप प्रतिपतावेव काले
वर्तमाने देव्य श्री रूपादेव्या वापिकायाम् प्रतिष्ठता27
बड़ौदा के तालाब के पास एक विशाल शिवालय में पत्थर की कुंडी पर 1292 ई. के उत्कीर्ण एक लेख से ज्ञात होता है कि महाराज कुल श्री वीरसिंह देव के विजय राज्य काल में उक्त कुण्डी बनाई गयी। मूल लेख का अक्षान्तर निम्न प्रकार से हैं।
‘‘सन 1349 वर्षे वैशाख सुदि 3 शनौ महाराजकुल श्री वीरसिंह देव
कल्याण विजयराज्ये महाप्रधान पंच श्री वामण प्रतिपतौ........।”28
सिरोही के वधीणा ग्राम में शान्तिनाथ मन्दिर में वर्णित लेख में सोलंकियों ने सामूहिक रूप से ग्राम व खेत और कुएँ के हिसाब से मन्दिर के निमित कुछ अनुदान की व्यवस्था की। इस लेख में सेई शब्द सेर के तोल के लिये तथा ढीवड़ा कुएँ के लिये और अरहट रहट के लिये प्रयुक्त किए गये हैं।
‘‘संवत 1359 वर्षे वैशाख शुदि 10 शनि दिने.....
लदेशे वाधसीण ग्रामे महाराज श्री सामंत सिंह देवकल्याण विजयराज्ये वर्तमानें सोल-षाभट पु. रजर सोलंगागदेव पु अंगद.....
अरहट प्रति गोधूम स. 4 ढ़ीवड़ा प्रति गोधूम सेई 2 तथा धूलिया ग्रामे......
श्री शांतिनाथ देवस्य यात्रा महोत्सव निमित दत्ता।”29
अलवर जिले की माचेड़ी की बावली वाले 1382 ई. के शिलालेख में पाया गया है कि सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में माचेड़ी पर बड़गुजर वंश के राजा आसलदेव के पुत्र महाराजधिराज गोगदेव का राज्य था। इस बावड़ी का निर्माण खंडेलवाल महाजन कुटुंब ने करवाया था।30
डूंगरपुर राज्य के डेसा गाँव की बावड़ी का एक शिलालेख राजपूताना म्यूजियम अजमेर में सुरक्षित है। उसमें लिखा है कि गुहिलोत वंशी राजा भचुंड के पौत्र और डूंगर सिंह के पुत्र रावल कर्मसिंह की भार्या माणक देवी ने 1396 ई. को यह वापी बनवाई।
भस्वस्ति श्री नृपविक्रमसमयातीत सम्वत 1453 वर्षे शाके 1318
प्रर्वतमाने कार्तिकमासे कृष्ण पक्षे सप्तम्या तिथो सोमवासरे रोहिणी .......
त्सुतराउलकर्मसिंह भार्याबाई श्री माणिक दे तथा इयं वापी कारापिता।31
श्रृंड्डी ऋषि शिलालेख 1428 ई. का एकलिंगजी से 6 मील दक्षिण पूर्व में श्रृंड्डी ऋषि नामक स्थान में तिबारे में लगा हुआ है। 1428 ई. का यह लेख मोकल के समय का है जिसने अपने धार्मिक गुरू की आज्ञा से अपनी पत्नी गोराम्बिका की मुक्ति के लिये श्रृंड्डी ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुण्ड बनवाया ओर उसकी प्रतिष्ठा की।32 डुंगरपुर की बीलिया गाँव की एक बावड़ी का 1448 ई. का निर्माण रावल सोमदास की राणी सुरत्राणदे ने करवाकर इस पर प्रशस्ति को लगवाया। इससे राज परिवार की स्त्रियों का लोकोपकारी कार्यों में रुचि लेना प्रकट होता है।33 बीकानेर से 15 मील पश्चिम में कोडमदेसर नामक गाँव के एक स्तम्भ पर 1459 ई. भाद्रपद शुक्ला सोमवार का लेख है। यह प्राचीन लेख तालाब के पूर्व की ओर भैरव की मूर्ति के निकट के कीर्ति स्तम्भ के दोनों ओर खुदा हुआ है। कीर्ति स्तम्भ लाल पत्थर का है, इसके चारों ओर देवी देवताओं की मूर्तियाँ खुदी हैं। इस लेख से प्रमाणित होता है कि राव रिणमल के पुत्र राव जोधा ने यहाँ एक तालाब खुदवाया और अपनी माता कोड़मदे के निमित कीर्ति स्तम्भ की स्थापना की।34 चित्तौड़ के श्री एकलिंगजी के मन्दिर के दक्षिण द्वार की ताक में 1488 ई. की एक प्रशस्ति उस समय लगायी गयी थी जबकि महाराणा रणमल ने उक्त मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाया। इसमें महाराणा कुंभा द्वारा दुर्ग में जनहित के लिये रामकुण्ड का निर्माण व क्षेत्रसिंह ने ताड़ागों का निर्माण करवाया। रायमल ने भी इसी तरह रामशंकर तथा समयासंकट नामक तालाब बनवाये।35
जोधपुर के हीराबाड़ी के राव मालदेव के समय के लेख से ऐसी प्रसिद्धी है कि जब राव जी की सेना ने नागौर विजय के उपरान्त इधर उधर गाँवों को लूटना आरम्भ किया, उस समय सेनापति जेता का मुकाम हीरावाड़ी नामक स्थान में था उसके प्रभाव के कारण वहाँ शान्ति बनी रही। इससे प्रभावित होकर वहाँ के प्रमुख व्यक्तियों ने सेनापति को पन्द्रह हजार रुपयों की थैली भेंट की जिसका उपयोग एक बावड़ी बनाने में किया गया जो रजलानी गाँव के निकट है। इस बावली के लेख से यह भी सूचना मिलती है कि इस बावड़ी को बनाने का कार्य 1507 ई. को प्रारम्भ किया गया था। इसके निर्माण कार्य पर 151 कारीगर एवं 161 पुरूष एवं 221 स्त्रियाँ मजदूर लगाये गये थे। इस लेख से सम्पूर्ण कार्य में 121111 फदिए खर्च होना पाया जाता है। फदिए का मूल्य उन दिनों एक रूपये के 8 फदिए के बराबर थे। इस लेख में बावड़ी बनाने में जो सामान लगा उसकी सूची जैसे सूत, लोहा, गाड़ियाँ, सन, पोस्त, 11121 मन दूसरा नाज मजदूरों के लिये का उल्लेख है।
“इति श्री विक्रमायीत साके 1440 संवत 1597 व्रषे वदि 15 दिन रउवारे
राजश्री मालदेवराः राठड़ रावारा बावड़ी रा कमठण उधरता राजी
श्री रिणमल राठवड़ गेत्रे (गौत्रे) तत् पुत्र राजी अखैरात सूतन राजश्री
पंचायण पंचायण सूत न राजश्री जेताजी बावड़ रा कमट (ठा) ऊँधता’’।36
सादड़ी स्थित एक बावड़ी के दाहिनी भाग के दीवार पर लगे 1597 ई. के लेख से ओसवाल जाति के कावड़िया गोत्र के भारमल की स्त्री कपूरा द्वारा अपने पुत्र ताराचन्द की स्मृति में इस तारावर नामी तीर्थ स्थान पर बावड़ी का निर्माण करवाने का उल्लेख है।37 आमेर के 1611 ई. के लेख में आमेर व मुगल शासक जहाँगीर की निकटता का बोध होता है। इसमें कछवाह वंश के मान सिंह द्वारा जमवारामगढ में विभिन्न प्रकार वाले दुर्ग कुआें और बाग के निर्माण को वर्णित किया गया है।
श्री महाराजाधिराज मानसिंह नरेन्द्र कारित रामगढ प्राकराख्य
दुर्ग्ग कुपारा मोप शोभित तत्र परमपवित्र ......नुसारिण।38
उदयपुर के जगनाथराय के मन्दिर के सभा मण्डल में जाने वाले भाग के दोनों तरफ श्याम पत्थर पर 1551 ई. की उत्कीर्ण प्रशस्ति में महाराणा जगतसिंह द्वारा पिछोला के तालाब में मोहन मन्दिर बनवाने व रूपसागर तालाब के निर्माण का उल्लेख है।39
भवाणा गाँव के दक्षिण की ओर 1660 ई. की बावड़ी में उल्लेख है कि महाराणा राजसिंह ने पारड़ा गाँव में सुन्दर बावड़ी बनाने के उपलक्ष्य में बीसलनगरा नागर ब्राह्मण व्यास बलभद्र गोपाल के पुत्र गोविन्दराम व्यास को भवाणा गाँव में 75 बीघा भूमि दान की। इसमें महाराणा की उदार नीति व जनोपयोगी कार्यों की ओर रुचि प्रकट होती है।40
बेड़वास गाँव की सराय के पास वाली बावड़ी में सीढ़ियाँ उतरते हुए दाहिनी तरफ की ताक में लगी हुई महाराणा राजसिंह प्रथम के समय 1668 ई. की प्रशस्ति में बावड़ी का वर्णन ‘‘वीर विनोद” में इस प्रकार उद्धृत किया गया है।
“ग्राम बेड़वास तीरे बावड़ी नाम नंदा पथरे माथे करावी संवत 1725 वर्षे शाके 1590 प्रर्वतपामने उतरायण गते श्री सुर्य बसन्त कृतो वैशाख मासे शुक्ल पक्षे 6 षष्ठी तिथो सौम वासरे पुण्य नक्षत्रे तद्विने श्री बावरी री प्रतिष्ठ हुई। बावड़ी तीरे बाग 1 बीघा 13 रो कराव्यो संवत 1730 वर्षे चैत्र बदी 9 शुके दिन महाराणा जी श्री राजसिंह जी उदयपुर थी तालाब राजसमंद पधारता बावड़ी आवे उभा रहे बावड़ी रो पाणी मंगावे अरोगे हुक्म कीधो पाणी निपट अव्वल है।’’41
उदयपुर में देबारी के पास त्रिमुखी बावड़ी में लगी प्रशस्ति से यह ज्ञात होता है कि इसे महाराणा राज सिंह की राणी रामरसदे ने 1675 ई. माघ शुक्ला द्वितीया गुरूवार में देबारी के पास जया नाम की बावड़ी बनवाई इसको अब त्रिमुखी बावड़ी कहते हैं। इस बावड़ी को बनवाने में धार्मिक भावना रही है परन्तु इसमें देबारी के दरवाजे के किवाड़ के बनवाने के उल्लेख से उसकी सैनिक उपयोगिता भी प्रमाणित होती है। औरंगजेब के युद्ध में बावड़ी और द्वार के किवाड़ों ने सुरक्षा के साधन का काम किया था। सम्पूर्ण प्रशस्ति में 60 श्लोक हैं। इसका प्रशस्तिकार रणछोड़ भट तथा मुख्य शिल्पी नाथू गोड़ था। इस प्रशस्ति में संस्कृत व मेवाड़ी भाषा का मिला जुला प्रयोग किया गया है।
भदहबारी महाघट्टे शालाश्लष्टे विशंकटे
जयावहा जयानाम्नी वापी पाप प्रणाशिनी
भसहस्त्रै रूप्यमुद्राणा चतुविशति संमित
एकाग्रेः पूर्णता प्राप्तंवापी कार्य महाद्भुत।42
उदयपुर की 1675 ई. राजसिंह के समय की राज प्रशस्ति कुल 25 श्याम रंग के पाषाणों पर उत्कीर्ण है जो औसतन 3 गुणा 2 बटा आधा के आकार में है। ये पाषाण पट्टिकाएँ राजसमुद्र झील की नौ चौकियों की पाल के ताकों में लगी हुई हैं। झील का उपयोग गाँवों में सिंचाई के लिये किया जाता था। इनमें प्रयुक्त भाषा संस्कृत है जिसे पद्य में लिखा गया है। इस प्रशस्ति का रचयिता रणछोड़ भट्ट था, जो तेलंग ब्राह्मण था। प्रशस्ति से यह मालूम होता है कि राजसमुद्र का निर्माण दुष्काल के समय श्रमिकों के लिये काम निकालने के लिये कराया गया था और इसे बनाने में पुरे 15 वर्ष लगे थे। इस तालाब को बनाने के लिये लाहौर गुजरात, सूरत आदि स्थानों से भी कारीगर बुलाए गये थे। मुख्य शिल्पी को महाराणा ने पच्चीस हजार रुपये दिये थे। इसके निर्माण कार्य में दस लाख सतावन हजार छः सौ आठ रुपये व्यय हुए यह भी इससे विदित है।43
जनासागर की प्रशस्ति भी महाराणा राजसिंह के समय की है। इसमें दिया हुआ काल 1677 ई. है, जो जनासागर के निरीक्षण का काल है। इस तालाब को महाराणा ने अपनी माता जनादे (कर्मति) के नाम से उदयपुर से पश्चिम के बड़ी गाँव के पास बनवाया था। तालाब के धार्मिक कार्य में एक लाख उन्नसठ हजार रूपये व्यय हुए। प्रशस्तिकार ऐसे गहरे तालाब बनाने की गतिविधि के सम्बन्ध में वर्णन करता है कि पहले तालाब की पाल की नींव खोदी गई जिसको ‘‘पाव लेना” कहते हैं। फिर उस पर सीसा डाला गया तथा नींव को शुद्ध किया गया। 15 गज का आसार उस पर बनवाया गया। इस तालाब को सिंचाई के काम में प्रयोग लिया जाता था और यह कार्य महाराणा के समय की आगे आने वाली युद्ध स्थिति के सम्बन्ध में था। इस निर्माण कार्य का शिल्पी गजधर सुधार सगराम पुत्र नाथू था व प्रशस्तिकार कृष्ण भट्ट का पुत्र लक्ष्मीनाथ तथा लेखक उसका भाई भास्कर भट्ट था। ‘‘दोयलाखइगसठहजार रुपिया तलावरी प्रतिष्ठा हुई जदी रुपारी तुलां कीधी ग्राम गलूंड चितौड़ तिरा ग्राम देवपुर थामलातीरा प्रोहित श्री गरीबदासजी है आधार करे भथा किधो तलावरी पालरो पांवले ने रवाडा खोधा सिसोफेरे ने नीम सोधेन गज 15 आसार कीधा कमठाणारा गजधर सुतार सगराम सुत नाथू तेन कोठारी 1785 वर्षे।
‘‘दात्रीदानव्रजस्या प्रियरिपु निधने पार्वती वोग्रभावा,
दीने नित्य दयालुनृपमु कट जगतसिंह राणा प्रियासीत्
‘‘बड़ीग्रामस्य निकटे तत्कासारस्य राजतः
जना सागर ईत्येवं प्रसिद्वि स्सभजायत”44
इन्द्रगढ़ से लगभग ढ़ाई मील की दूरी पर जलाशय के कुछ भग्नावशेष मिले हैं। उसकी दीवार पर उत्कीर्ण 1701 ई. के एक लेख में वर्णित है कि चौहान राजा सिरदारसिंह के राज्य काल में गौड़, ब्राह्मण राय रामचन्द्र द्वारा उक्त कुण्ड का निर्माण करवाया गया45 1715 ई. की प्रशस्ति गुर्जर बावड़ी की प्रशस्ति के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी श्लोकबद्ध प्रशस्ति हैं। इसमें उल्लेखित हैं कि मेवाड़ वंश के राजा जयसिंह ने इन्द्रसरोवर का निर्माण करवाया इसके अलावा इसमें संग्रामसिंह द्वितीय की धाय भीला के द्वारा सदाशिव के मन्दिर एवं एक बावड़ी के निर्माण कराने का उल्लेख है। इनकी प्रतिष्ठा के समय में एक बड़े यज्ञ का आयोजन भी किया गया था। प्रस्तुत प्रशस्ति से साधारण समाज के व्यक्तियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेना प्रमाणित होता है।46
बीकानेर के कोलायत तीर्थ स्थल से प्राप्त लेख में उस समय के महाराज सुजानसिंह के द्वारा कपिल तीर्थ पर घाट के निर्माण कराए जाने का उल्लेख है। यह लेख क्रमांक 37/222 से बीकानेर के राजकीय संग्राहालय में सुरक्षित है इसमें संस्कृत में 12 पंक्तियाँ हैं।
“दुर्लभ तं तीर्थप्रवर नमामि वरद त्रैलोक्य सपूजित
महाराजधिराज श्री सुजानसिंहाना श्री कपिल तीर्थे
घाटस्य प्रारम्भ कृतः स चिरस्थायी भूयात्’’47
उदयपुर से दो मील की दूरी पर गोर्वधनविलास नामक गाँव में माना धाय भाई के कुण्ड की 1742 ई. की प्रशस्ति है। इससे चन्द्र कुवरी जिसका विवाह सवाईसिंह के साथ हुआ था की गुर्जर जाति की धाय भीला के पुत्र माना धाय भाई के द्वारा कुण्ड और बाग बनाये जाने का उल्लेख है। यह प्रशस्ति धाय भाइयों की समृद्धि तथा राजमान्यता के विकास पर प्रकाश डालती है।
“संवत 1765 वर्षे ज्येष्ठ मासे शुक्ल पक्षे 11 दिने गूर्जर जाति वास उदयपुर झांझाजी सुत नाथाजी तत्पुत्र तेजाजी, तत्पुत्र केशवदास जी, तत्पुत्र रिचंजीवी धाय भाई जी श्रीमान जी कुंडवाड़ी तथा सारी जायगा बधाई कुंडरी खुदाई, कुमठाणों तथा व्याव वृद्धरा समस्त रुपीया 45101 लगाया”48 बांसवाड़े के राज तालाब पर 1755 ई. के दो शिलालेख हैं जिसमें स्थानीय लोगों द्वारा सार्वजनिक कल्याण कार्य में हाथ बँटाने एवं आंभ्यन्तर नागर जाति के सम्मुख एवं ज्ञानी रंगेश्वर द्वारा राजतालाब पर एक घाट का निर्माण करवाने का उल्लेख है। केवल 501 रुपये में घाट का निर्माण होना उस समय की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालता हैं।49 इसी प्रकार बांसवाड़ा में ही सांगड़ौदा की बावली का 1801 ई. के लेख में जन साधारण द्वारा सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेकर कोठारीनाथ जी अमर चन्द जी, शोभाचन्द्र और उम्मेदवाई द्वारा उपयुक्त बावड़ी का निर्माण करवाया जाना उल्लेखित है50 एवं इसी जिले के फतेहपुर की बावड़ी का 1803 ई. का लेख अंकित करता है कि बडनगरा जाति के नागर ब्राह्मण पंचोली प्रभाकरण ने बावड़ी को बनवाया।51
डुंगरपुर के उदयवाव की वापी की 1879 ई. की प्रशस्ति में, महारावल उदयसिंह द्वारा वापी बनाने और उसकी विचारशीलता एवं दानशीलता आदि का प्रशंसात्मक वर्णन है।52 बांसवाड़ा के विजयवाव की बावड़ी 1906 ई. को महारावल विजयसिंह द्वारा बनवाये जाने का उल्लेख है।53
जल का महत्त्व
जल प्रकृति का अलभ्य, अनुपम और एक ऐसी संजीवनी संपदा है जिसके हर कण में प्राणदायिनी शक्ति है। जहाँ जल है वहाँ जीवन है, प्राण हैं और स्पंदन है, गति है, सृष्टि है और जल जन जीवन का मूलाधार है। जहाँ जल नहीं है वहाँ जीवन भी नहीं है सब निष्प्राण और निश्चेष्ट है। जल प्रकृति का अलौकिक वरदान स्वरूप मानव, प्राणी तथा वनस्पति सभी के लिये अनिवार्य होने के साथ-साथ ही अपरिहार्य है। इसलिये संस्कृत ग्रन्थों में जल को जीवन माना गया है। ऋग्वेद के 49 वें सूक्त के एक मंत्र में कहा गया है कि :-
“या आपो दिव्या उत वा सर्वन्ति खनित्रिमा उत वा याः स्वयन्जाः।
समुद्रार्था याः शुचय पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु’’। ।।ऋग्वेद।।
‘‘जो दिव्य जल आकाश से वृष्टि के द्वारा प्राप्त होता है जो नदियों में सदा गमनशील है खोदकर जो कुएँ आदि से निकाला जाता है और जो स्वयं स्रोतों के द्वारा प्रवाहित होकर पवित्रता बिखेरते हुए समुद्र की ओर जाता है वो दिव्यतायुक्त पवित्र जल हमारी रक्षा करे।”
अथर्ववेद के सूक्त 6 के चौथे मंत्र में जल की महत्ता के बारे में कहा गया है कि सुखे प्रान्त रेगिस्तान का जल हमारे लिये कल्याणकारी हो। जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिये सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख शान्ति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।54
प्राचीन ग्रंथों में स्वीकार किया गया है कि जल सृष्टि के प्रारम्भ में भी था। इसी कारण संसार में जीवन का विकास संभव हो सका। जिस प्रकार जीवित रहने के लिये प्राणों का महत्त्व है, उसी प्रकार विकास में जल की अनिवार्यता रही है। आज का सम्पूर्ण प्राणी जगत जल का ही विकसित रूप माना जा सकता है। मनुष्य शरीर का 70-75 प्रतिशत भाग जल से ही निर्मित है, जल जमीन पर पैदा होने वाली वनस्पतियों को लवण, खनिज, पोषक तत्व उर्वरक आदि पदार्थों को उन तक पहुँचाता है।55 जल विधाता की प्रथम सृष्टि है। विधाता ने सृष्टि की रचना करते समय सबसे पहले जल बनाया फिर उसमें जीवन पैदा किया। इसी विधाता की हम जिन षोडश उपचारों से पूजा करते हैं। ये उपचार अधिकांश जल से ही सम्पन्न होते हैं। इनमें पाध (जल से परे होना या धुलाना) अर्घ्य (हाथ में देकर या जल समर्पित कर सम्मान देना) आचमनीय (पीने के लिये जल) स्नानीय (स्नान के लिये जल) तथा नैवेध के समय छह बार जल देना (समर्पित नैवेध), नैवेध के नीचे पोतना लगाकर तथा पात्र के चारों ओर जल की धारा से स्नान पवित्र कर प्रारम्भ में एक अंजलि जल से ‘‘अपोशन” मध्य में जल का पीने हेतु समर्पण, अन्त में ‘‘उतरापोशन” फिर हस्त प्रक्षालन, मुख प्रक्षालन के लिये जल प्रदान इस प्रकार छह बार जल छोड़ना आदि जल से ही सम्पन्न होते हैं। अन्त में पहले दीपक, शंख या अन्य किसी पात्र के जल से आरती अवश्य की जाती है। फिर उस जल से छींटे दिये जाते हैं। दो देवता तो सर्वाधिक जल प्रेमी माने जाते हैं। सूर्य को सारा देश घर में, नदियों में, तीर्थों में जल से ही अर्घ्य देता है।56 इसी प्रकार भगवान शिव जलधारा से प्रसन्न होते हैं -‘‘जलधारा प्रियः शिवः।” ‘सहस्र घट’ स्नान करवाना सबसे बड़ा शिव पूजा कार्य माना जाता है। इस प्रकार देव पूजा में जल की विशिष्ठ भूमिका है। हमारे यहाँ जीवन को सुसंस्कृत करने हेतु गृहस्थाश्रम में जिन सोलह संस्कारों का विधान है, इनमें प्रत्येक संस्कार में जल की भूमिका रहती है। जन्म से मरण तक इन्हें जल ही आकार देता है।57 यज्ञों के आयोजन में जल की अनिवार्य भूमिका रही है। वेदों में कहा गया है कि जल देवता हर प्रकार से पवित्र करके तृप्ति सहित प्राणियों में प्रसन्नता भरते हैं। वे जलदेव यज्ञ में पधारते हैं इसलिये नदियों के निरन्तर प्रवाह के लिये यज्ञ करते रहें।58 अनेक प्रकार के पात्रों को स्वच्छ करके उनमें अलग-अलग तरह से अलग-अलग प्रकार के जलों का संधारण यज्ञ पद्धतियों में मिलता है इन पात्रों को प्रणीता प्रोक्षणी पूर्णपात्र आदि नाम दिया जाकर उनका उपयोग निर्धारित किया गया है।59
जिस प्रकार समस्त संस्कारों को जल ही पवित्र बनाता है उसी प्रकार भारत के सारे तीर्थों को जल ही तीर्थ बनाता है। प्रायः सभी तीर्थ किसी नदी या समुद्र के किनारे स्थापित है। देव नदी गंगा के उद्गम स्थल से लेकर समुद्र से संगम के स्थल तक सैकड़ों तीर्थ बने हुए हैं। उनकी महिमा उनके जल से ही है। जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम और द्वारका समुद्र तट पर हैं तो बद्रीनाथ गंगा के तट पर है। देश के विशाल कुम्भ मेले प्रयाग व हरिद्वार में गंगा किनारे, नासिक में गोदावरी एवं उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे लगते हैं। उनका प्रमुख धार्मिक कार्य शाही स्नान ही है। इनकी महिमा जल की महिमा पर ही आधारित है। यहाँ नदियाँ पूजनीय रही हैं, जल (समुद्र) भारत को तीन ओर से घेरे हुए है अतः जल हमारे लिये जीवन शक्ति के साथ ही राष्ट्रीय एकता का आधार रहा है। जल में औषधि की शक्ति है, स्नान व पान आदि के द्वारा यह जल औषधि के रूप में सभी रोगों को दूर करता है।60 इसलिये प्रत्येक औषधी को जल के साथ प्रयुक्त करने से उसका उचित रीति से गुण एवं लाभ प्राप्त किया जाता रहा है।61 यजुर्वेद के मंत्र में जल का दृष्टि से सम्बन्ध होने से दर्शन शक्ति देने का आह्वान किया गया है।62 बाबरनामा में उल्लेख है कि हिन्दुस्तान के लोग एक प्याले के समान छोटा सा बर्तन रखते हैं। उसके पैंदे में एक छोटा सा सुराख होता है घड़ियाल अथवा घंटा बजाने वाले उस सुराख वाले बरतन में जल भर देते हैं और फिर प्याले के भर जाने का इन्तजार करते हैं जब वह भर जाता है तो समझ लेते हैं कि एक घड़ी हो गयी है। उस समय वे घड़ियाल अथवा घंटे पर चोट मारते हैं। इस प्रकार समय निर्धारण में भी जल का अत्यधिक महत्त्व रहा है।63
प्राचीन भारतीयों ने जल को देव माना है।64 विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के किनारे पनपी हैं।65 जिस सभ्यता के पास जितनी अधिक जल सम्पदा थी वह उतनी ही शक्तिशाली मानी गई। जल की अपार उपलब्धियों ने कृषि व व्यापार को विस्तार दिया है जिससे सुख साधन व सुविधाएँ बढ़ी। सुविधा सम्पन्न सभ्यताएँ कला, संगीत, साहित्य और नृत्य के विकास में जुड़ गई। जिससे वह देश या राज्य सब तरह से सम्पन्न हो गया 15वीं व 16वीं सदी की चित्रकला और स्थापत्य में जल का महत्त्व नदी, बलखाती रेखाओं की आकृति द्वारा बनायी गई है। जिसमें कहीं-कहीं मछलियाँ या कमल तैरते हुए दिखाये गये हैं तथा बादल गोलाकार बनाये गये हैं। जल देखने, तैरने, नौकावहन, मछली पकड़ने, के साथ ही चित्रकारों, कवियों के लिये भी उपयोगी एवं मनोरंजन देने वाला साधन है।66
सभ्यताओं के विकास ने मनुष्य को जल के प्रति सचेत किया है और बूँद-बूँद के संरक्षण के लिये नदी, सरोवर, बाँध और झरनों आदि के प्रति सकारात्मक बर्ताव करने का रहस्य समझाया है। नदी के वेग को मुट्ठी में बाँध कर ऊर्जा के अक्षय स्रोत तलाशे हैं। जन्म से मरण तक मानव के प्रत्येक वैयक्तिक और सामाजिक कार्यों में जल अनिवार्य है। जल से भरे कुंभ का दान, प्याऊ लगवाकर प्यासों को जल पिलवाना, कुएँ बावड़ी खुदवाकर जल संग्रहण के स्रोत बनवाना, पशुओं की प्यास बुझाने हेतु खेली व पक्षियों के लिये पेड़ों पर परिन्डे बंधवाना सदियों से पुण्य का कार्य माने जाते रहे हैं।67
विकास में जल की अनिवार्यता रही है। आज का सम्पूर्ण प्राणी जगत जल का ही विकसित रूप माना जा सकता है। वायु के बाद जल का सबसे अधिक महत्त्व है। मानव जीवन की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति चाहे घरेलू, सैनिक, औद्योगिक, कृषि अथवा परिवहन सुविधा हो, जल द्वारा ही संभव है। जल का सर्वाधिक उपयोग 70 प्रतिशत सिंचाई कार्यां में किया जाता है। सतही जल का उपयोग नहरों एवं तालाबों द्वारा एवं भूजल का उपयोग उत्स्रुत कुआें तथा नलकूपों द्वारा किया जाता है। जल की उपलब्धता के अभाव में कृषि क्षेत्र में भी सूखा प्रतिरोधक फसलें उगायी जा सकती हैं। परन्तु धान और चाय आदि की फसल के लिये जितने जल की आवश्यकता होती है उससे कम अथवा उसके स्थान पर अन्य वस्तु की आपूर्ति कर फसल उत्पादन करना संभव नहीं है।68 कुल शुद्ध जल का 23 प्रतिशत भाग उद्योगों में उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि अधिकांश उद्योग जलस्रोतों के निकट स्थापित किए जाते हैं। उद्योगों में जल का उपयोग भाप बनाने, भाप के संघनन, रसायनों विलयन, वस्त्रों के धुलाई, रंगाई, छपाई, तापमान नियन्त्रण के लिये कोयला, धुलाई, चमड़ा शोधन, रंगाई, कागज की लुगदी, अम्ल एवं क्षार बनाने में होता है। कारखानों को चलाने के लिये ईंधन के रूप में कई वस्तुओं का उपयोग किया जाता है परन्तु जल के स्थान पर कोई दूसरी वस्तु उपयोगी नहीं है। यह पीने सफाई, स्नानघर, नगर निर्माण, विद्युत निर्माण, व्यापार वाणिज्य आदि सभी में उपयोगी है। जल तापक्रम नियंत्रण के लिये बहुत उपयोगी है। वर्तमान युग में कूलर, कोल्ड स्टोरेज में जल ही महत्त्वपूर्ण घटक है।
सुरक्षा में भी जल का उपयोग किया जाता रहा है। ज्वालामुखी एवं अन्य भूकम्पनीय क्षेत्रों में जल गरम एवं खनिज युक्त होता है। इस प्रकार के जल को गरम जल एवं रोगनाशक होने से औषधि कहा गया है।69 वायुमण्डल वर्ष भर पवनों, आँधियों और तूफानों से उड़े धूल मिट्टी के कणों से दूषित हो जाता है। स्थल भागों सरोवर, झीलों और नदियों में स्थिर जल विभिन्न प्रकार से प्रदूषित हो जाता है। वर्षा ऋतु हमारे स्थल, जल और वायुमण्डल में व्याप्त सभी प्रकार की प्रदूषित करने वाले तत्वों को स्वच्छ बनाने की एकमात्र ऋतु है।70 इसलिये बाबरनामा में बरसात के पानी बरसने के समय भारत की वायु को अत्यन्त उत्तम बताया है।71 इस ऋतु में स्थल की सारी गन्दगी नदियों के जल के साथ बहकर समुद्र में चली जाती है। जल की विलेयता के गुण से ही समुद्र में प्रदूषित पदार्थ पहुँच पाते हैं अन्यथा स्थल मण्डल में प्रदूषित पदार्थों के कारण जीवन असंभव हो जाता। वर्षा के समय यही जल पुनः स्वच्छ होकर स्थल मण्डल पर पहुँचता है। इस प्रकार जल प्रदूषण निवारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।
जल मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं में सर्वप्रथम है। यह एक ऐसी वस्तु है जिसके स्थान पर कोई अन्य वस्तु आसानी से प्रयुक्त नहीं की जा सकती है। जल संसार का विलक्षण रसायन है। यदि इसमें ये विलक्षणताएँ नहीं होती तो संसार में कहीं भी जीवन नहीं होता। जल अपनी उपयोगिता के कारण एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है।72 वैज्ञानिकों ने आज के वैज्ञानिक युग के महान तरल पदार्थ जल, जो हाइड्रोजन के दो अणुओं और ऑक्सीजन के एक अणु से बना यौगिक है, को महत्त्वपूर्ण तत्व माना है।
जल के प्रकार
भारत में विश्व के कुल जल संसाधनों का 5 प्रतिशत भाग है। देश में कम से कम 1.6 कि.मी. लम्बाई की लगभग 10360 नदियाँ हैं जिनमें औसत वार्षिक प्रवाह 1869 अरब घन किलोमीटर है परन्तु भौगोलिक दृष्टि से अनेक बाधाओं और विषम वितरण के कारण केवल 690 अरब घन कि.मी. 32 प्रतिशत सतही जल का उपयोग हो पाता है।
1. सतही जल
जमीन के ऊपर रहने वाला जल सतही जल कहलाता है। बड़े-बड़े सर-सरोवर, झरने, तालाब, पोखर, नदियाँ तथा समुद्र सभी इसके उदाहरण हैं। पृथ्वी की सतह पर 104 करोड़ क्यूबिक कि.मी. जल है। 97 प्रतिशत जल समुद्र में खारा है। शेष 3 प्रतिशत मीठे पानी का 87 प्रतिशत जल ध्रुवीय बर्फ के रूप में हैं और 23 प्रतिशत जल पर विश्व की सर्म्पूण जनसंख्या आश्रित है। सतही जल का अधिकांश भाग नदियों में बहता है। इसका सर्वाधिक प्रवाह सिन्धु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र में है, जो कुल प्रवाह का 60 प्रतिशत है जो कि बहुत से भाग को हरा-भरा बनाये रखती हैं, परन्तु भूमि की स्थलाकृति व अन्य कारणों से भारत का पश्चिमी शुष्क भाग, जो थार का मरुस्थल है, में कोई सदावाही नदी नहीं बहती है। हालाँकि यहाँ पर कृत्रिम रूप से बनायी गई इन्दिरा गाँधीनहर इसके बहुत से भाग में जल पहुँचाती है। सतही जल दो प्रकार के स्रोतों से मिलता है।
1. प्राकृतिकः- झरने, प्राकृतिक सरोवर, कुण्ड, समुद्र आदि
2. जलाशय जो मानव निर्मित होते हैं।
स्थायी जल की आपूर्ति एवं कृषि, पेयजल, व्यापार वाणिज्य तथा पशुपालन के लिये जलाशय निर्माण की आवश्यकता को प्राचीन काल में ही महसूस कर लिया गया था और इसी को ध्यान में रखते हुए यहाँ के शासकों ने जल संसाधनों को प्राथमिकता देते हुए उनके निर्माण पर बहुत धन व्यय किया।
2. भूमिगत जल
पृथ्वीतल के नीचे स्थित किसी भूगर्भिक स्तर की सभी रिक्तियों में विद्यमान जल को भूजल कहते हैं। भूजल शैल छिद्रों एवं दरारों में मिलता है। यह वर्षा की मात्रा एवं गति, वर्षा के समय वाष्पीकरण की मात्रा, तापमान, भूमि का ढाल, वायु की शुष्कता, वनस्पति आवरण तथा मृदा की जल अवशोषण क्षमता से नियन्त्रित होता है। प्रकृति में उपलब्ध कुल जल संसाधन का 0.58 प्रतिशत भूमिगत जल है तथा सम्पूर्ण जलीय राशि के शुद्ध जलीय भाग का 22.21 प्रतिशत है, जो भूसतह से 4 किलोमीटर की गहराई तक स्थित है।73 भूजल के विकास कार्यों का विवरण प्राचीन काल में मिलता रहा है। ओल्ड टेस्टामेन्ट में भूजल, झरनों एवं कुओं के अनेक विवरण मिलते हैं। फारस एवं मिस्र में मिलने वाली भूमिगत जल सुरंगों का विवरण 80 ई. पूर्व रोलमन ने दिया है। होमर, थेल्स एवं प्लेटो ने झरनों की उत्पत्ति समुद्री जल से बतायी है। उन्होंने बताया है कि समुद्री जल पर्वतों के नीचे भूमिगत जल मार्गों से प्रवाहित होकर आता है। भूजल की उत्पत्ति मुख्यतः तीन स्रोतों से मानी गयी हैं। प्रथम, आकाशीय या वर्षा जल जो भूजल का प्रमुख स्रोत है। यह वर्षा एवं हिम के रूप में प्राप्त होता है और भू-सतह से शैल संधियों, छिद्रों व दरारों से रिसकर नीचे स्थित अपारगम्य शैलों पर भूजल के रूप में संग्रहित होता है। दूसरा सागरों व झीलों में जमा अवसादी शैलों के छिद्रों तथा सुराखों में उपस्थित रहता है। तीसरा मेग्मा जल जो ज्वालामुखी क्रिया के कारण तृप्त मेग्मा शैलों में प्रवेश करते समय संघनित होकर जल में परिवर्तित होकर भूमिगत हो जाता है। चक्रपाणि मिश्र के “विश्ववल्लभ’’ में भूमिगत जल स्रोतों का पता लगाने की विधियाँ बताई है। मिट्टियाँ, चट्टानों तथा वनस्पतियों का निरीक्षण कर भूमिगत जल का पता लगाए जाने का उल्लेख इतिहास में मिलता है।74
3. वर्षा जल
वर्षा जल में वायु की प्रमुख भूमिका होती है। वायु ही जल ग्रहण करती है, एक स्थान से सुदूर प्रदेश पर ले जाती है उसे परिपक्व करती है और गर्भ को मरूत नामक वायु विसर्जित करती है। इन्हीं चार परिस्थितियों को आदान-पातन-पचन-विर्सजन कहा गया है।75 भूमि गर्मी से तपती है और उसके बढ़ते तापमान के कारण हवा का दबाव लगातार कम होता जाता है। उधर समुद्र से अधिक भार वाली हवा अपने साथ समुद्र की नमी बटोरकर कम दबाव वाले भाग की तरफ उड़ चलती है, इसी को मानसून कहते हैं। विश्व में प्रत्येक वर्ष बादल बनकर उठने वाले जल में से 85 प्रतिशत समुद्रों पर ही बरस जाता है प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्षा जल्दी होने की प्रार्थना की गई है। वराहमिहिर ने ‘वृहतसंहिता’ में मौसम के विषय में अनेक भविष्यवाणियाँ लिखी हैं जिनमें किन परिस्थितियों में कम और अधिक वर्षा होने के बारे में बताया गया है।76 सम्राट अशोक ने भूमि साफ करने के उद्देश्य से जंगलों को जलाना सर्वथा वर्जित कर दिया था। प्राकृतिक साधनों को बचाये रखने के लिये यह सर्वथा आवश्यक था।77 ‘बाबरनामा’ में मौसम के बारे में लिखा है कि हिन्दुस्तान में बरसात के दिनों में कभी-कभी लगातार आठ-आठ दिनों तक पानी बरसना बन्द नहीं होता है। दिन में दस पन्द्रह बार पानी बरसने से सर्वत्र जल ही दिखायी देता है। छोटी-छोटी नदियाँ अधिक जल के कारण जोर-जोर से बहने लगती हैं। तालाब जल से भर जाते हैं, यहाँ देश में बरसात का असर सभी मौसमों पर पड़ता है। बरसात न होने पर सूखा पड़ता है और यहाँ के निवासियों के भूखे मरने की नौबत आ जाती है।
राजस्थान की जल संरक्षण की पारम्परिक विधियाँ (संरचनाएँ)
राजस्थान एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है जहाँ वर्ष भर प्रवाहित होने वाली नदियाँ नहीं हैं। राजस्थान की औसत वर्षा 52 से 60 सेमी. है। राजस्थान में भारत का 10.4 प्रतिशत भू-भाग होने पर भी यहाँ देश में उपलब्ध जल का केवल एक प्रतिशत हिस्सा उपलब्ध होता है।78
राजस्थान में कभी समुद्री लहरें उठती थी, लेकिन काल की लहरों ने उस विशाल समुद्र को सुखा दिया। आज विशाल समुद्री लहरों की जगह रेत का समुद्र है परन्तु प्रकृति की इस अनुपम निधि जल को सहेजकर रखने का प्रयास प्रारम्भ से ही किया जाता रहा है। राजस्थान में यद्यपि मानसून की हवाएँ दो तरफ से आती हैं लेकिन जब वे रास्ते में द्रविड़ होती राजस्थान पहुँचती हैं तो इतना कुछ पानी नहीं बचता कि राजस्थान की धरती को तृप्त कर सके। परन्तु राजस्थान के लोगों ने वर्षा के अमृत कणों को सहेजकर रखने के तरीके खोजे और फिर सुनियोजित ढंग से बून्दों का संग्रह करने के लिये गाँव व घरों में कुण्डी, टांका, बावड़ी आदि बनाकर उसका वर्ष भर के लिये उपयोग किया। वर्षा के इस उपलब्ध जल को तीन रूपों में बाँटा गया है। पहला पालर का पानी सीधे बरसात से मिलता है। यह धरातल पर बहता है जिसे नदी, तालाब आदि में संचित किया जा सकता है, जो प्राकृतिक पानी का सबसे शुद्ध रूप है। दूसरा पाताल का पानी कहलाता है जिसे कुएँ बनाकर निकाला जाता है। तीसरा पानी पाताल और पालर के बीच का है। ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा का माप इसी पानी से होता है। जितना अगुंल पानी धरातल में समाएँ उस दिन उतनी अंगुल वर्षा मानी जाती है। विभिन्न स्थानों पर वर्षा जल का संरक्षण वहाँ की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, वार्षिक औसत वर्षा, भूजल की गहराई एवं गुणवत्ता के आधार पर अलग-अलग पारस्परिक तरीकों से किया जाता है।
जल संरक्षण की भण्डारण संरचनाओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-वर्षा जल आधारित एवं भूजल आधारित। वर्षा जल आधारित संरचनाओं में टांका, नाड़ी, जोहड़, खड़ीन, तालाब आदि आते हैं। भूमिगत जल आधारित संरचनाओं में कुँई तथा बावड़ी मुख्य है।
यजुर्वेद के अध्याय 18 के मंत्र 38 में वर्णन है कि -
1. कूप कार्य के अन्तर्गत वे सब कार्य आते हैं जिनमें पृथ्वी पर स्थित जल को हम अपने उपयोग में लेने में समर्थ होते हैं।
2. अवट कार्यः इसमें बाँध, जलाशय इत्यादि का निर्माण कार्य किया जाता है। जल संग्रह होने से इसका आवश्यकतानुसार उपयोग करने में हम समर्थ होते हैं।
राजस्थान में जल संचय की परम्परागत विधियाँ उच्च स्तर की रही हैं। इनके विकास में राज्य की धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रमुख योगदान है। यहाँ प्रकृति और संस्कृति दोनों एक दूसरे से संसजित रही है। जल के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण के कारण ही प्राकृतिक जल स्रोतों को पूजा जाता है। ऐसा नहीं है कि इनके निर्माण में, राजाओं, महाराजाओं, सेठ, साहूकारों अथवा समर्थ लोगों का ही अवदान रहा हो बल्कि ऐसे उदाहरण भी हैं जब लोगों ने अच्छे कार्य की स्मृति या किसी संकल्प के फलस्वरूप निजी तौर पर इनका निर्माण कराया है। पारम्परिक विधियों से खेती की सिंचाई, पीने का पानी और जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा किया गया है। राज्य में निम्नलिखित पारम्परिक जल संरचनाएँ हैं :-
टांका
वर्षा जल को पीने के उपयोग में लाने के लिये थार मरुस्थल में टांका निर्माण की पुरानी परम्परा रही है। इनका निर्माण खेती, घरों, गढ़ों तथा किलों में वर्षा जल के संग्रहण हेतु किया जाता रहा है। टांका प्रायः गोल आकार के बनाते हैं परन्तु हवेलियों तथा किलों में चोकोर टांके भी बनाये गये हैं। खेत में टांका ढ़लान पर बनाया जाता है जिससे पानी आसानी से टांके में जा सके। घरों के पास ऊँची जगह टांका बनाया जाता है ताकि आस-पास का गंदा पानी उसमें नहीं जाए। टांके में घरों की छतों से वर्षा का पानी एकत्रित किया जाता है। जिस घर की जितनी बड़ी छत उसी अनुपात में उसका उतना ही बड़ा टांका। हरेक छत बहुत ही हल्की सी ढाल लिये रहती है। ढाल के मुँह की तरफ एक साफ सुथरी नाली बनाई जाती है।
नाली के सामने ही पानी के साथ आ सकने वाले कचरे को रोकने का प्रबंध किया जाता है, इससे पानी छनकर नीचे टांके में जमा हो जाता है। 10-12 सदस्यों के परिवार का टांका प्रायः पन्द्रह-बीस हाथ गहरा और उतना ही लम्बा चौड़ा रखा जाता है। गर्मी के दिनों में टांकों की सफाई, धुलाई, भीतर से की जाती है। भीतर उतरने के लिये छोटी-छोटी सीढ़ियाँ और तल पर खमाड़िया बनाई जाती, ताकि गाद को आसानी से हटा सके।
खेतों में 10 हजार से 20 हजार लीटर क्षमता का टांका बनाने का प्रचलन रहा है। इसमें संग्रहित जल का उपयोग खेत में काम करते समय पीने के लिये किया जाता है। टांकों में जल खुला नहीं रखा जाता। इस पर छत बनाने में अधिकतर पत्थर की पट्टियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिये छत समतल बनाते हैं। जहाँ पत्थर की पट्टियाँ उपलब्ध नहीं होती हैं वहाँ ईटों के प्रयोग से गोलाकार छत बनाई जाती है। छत में एक ढ़क्कन का प्रावधान जल की निकासी हेतु रखते हैं। गरीब तबके के लोग ऊपर से खुला टांका भी बनाते हैं और सूखी झाड़ियों और टहनियों से इस टांके को इस प्रकार ढकते हैं कि वाष्पीकरण कम से कम हो और टांके में बच्चे या जानवर गिरे नहीं। आजकल तीस हजार से चालीस हजार लीटर क्षमता के टांके का निर्माण भी किया जाने लगा है जिससे आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई भी की जा सके। बरसात के मौसम में टांकों के पानी का उपयोग कम किया जाता है तथा खाली होने पर इन्हें नाड़ी या तालाब से भर दिया जाता है और पानी गर्मी के मौसम के लिये सुरक्षित रखा जाता हैं।79
टांके के लघु रूप को कुण्डी कहते हैं। यह एक सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है इसका निर्माण अधिकांश जगह मिट्टी व सीमेन्ट से किया जाता है। मरुस्थल का भूजल लवणीय होने के कारण पीने के अयोग्य होता है। इसलिये वर्षा जल का संग्रह इन कुण्डों में किया जाता है।80 ‘‘बहता पानी निर्मला” की कहावत इन कुण्डियों से ही सार्थक होती है। यह कुंडियाँ निजी व पंचायत द्वारा सामुदायिक भी बनाई जाती हैं। जिनका प्रयोग एक या दो गाँव करते हैं। बड़ी कुंडियों की चार दीवारी में प्रवेश के लिये दरवाजा होता है। इसके सामने प्रायः दो खुले हौज होते हैं, एक छोटा एवं एक बड़ा। इनकी ऊँचाई भी कम रखी जाती है ये हौज ‘‘खेल थाला” ‘‘हावड़ों” या ‘‘डबरा” कहलाते हैं। इनके आस-पास से गुजरने वाले भेड़, बकरियाँ, ऊँट व गायों के लिये पानी भरकर रखा जाता है। कुण्डियाँ आँगन व जगह के आकार के अनुसार बनायी जाती है। पानी के रिसाव को रोकने के लिये अन्दर से चिनाई अच्छी तरह से करते हैं। जिस आँगन में बरसाती पानी को एकत्रित किया जाता है, वह आगोर या पायतान कहलाते हैं। जिसका अर्थ है बटोरना। पायतान को वर्ष पर्यन्त साफ सुथरा रखा जाता है। पायतान से बहकर पानी इंडु (सुराखों) से होता हुआ अन्दर प्रवेश करता है। इनके मुहाने पर जाली लगी होती है ताकि कचरा एवं वृक्षों की पत्तियाँ अन्दर प्रवेश न कर सके। कुण्डी के अगारे का तल पानी के साथ कटकर न जाए इस कारण इसका निर्माण स्थानीय तौर पर उपलब्ध माद, मोरम, राख एवं बजरी आदि से किया जाता है। कुण्डी 40 से 50 फीट गहरी होती है इनके ऊपर गुम्बद बनाया जाता है जिससे पानी निकालने के लिये तीन-चार सीढ़ियाँ बनाकर ऊपर मीनारनुमा ढ़ेकली बनायी जाती है जिससे पानी खींचकर निकाला जाता है। गाँवों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर भी कुंडियाँ बनायी जाती हैं।81
नाड़ी
नाड़ी एक प्रकार का पोखर होती है, जिसमें वर्षा जल संचित होता है।82 इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 10 से 100 हेक्टेयर तक होता है तथा इसकी गहराई 3 से 12 मीटर तक होती है।83 राजस्थान में सर्वप्रथम पक्की नाड़ी निर्माण का विवरण सन 1520 ई. में मिला है, जो राव जोधाजी ने जोधपुर के निकट एक नाड़ी बनवाई थी। पश्चिमी राजस्थान में लगभग प्रत्येक गाँव में एक नाड़ी अवश्य ही मिलती है। नाड़ी बनाते समय बरसाती पानी की मात्रा एवं जलसंग्रहण क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही जलगृह का चुनाव करते हैं। इनमें संचित पानी इनकी क्षमता के अनुसार चलता है। नाड़ी का निर्माण करने वाले स्थान से उसका आगोर एवं जल निकास तय होता है। इनका जलग्रहण क्षेत्र (आगोर) भी बड़ा होता है। रेतीले मैदानी क्षेत्रों में नाड़ियाँ 3 से 12 मीटर गहरी होती हैं। बड़े आगोर व कम रिसाव वाली नाड़ियों में जल 2 से 8 माह तक भरा रहने के कारण ये जंगली जानवरों तथा प्रवासी पक्षियों की शरणस्थली बन जाती हैं। पानी की आवक पूरी नहीं हो, पानी को रोक लेने के लिये जगह भी छोटी हो तो वहाँ नाड़ी बना ली जाती है। रेत की छोटी पहाड़ी, थली या छोटे से मगरे के आगोर से बहुत ही थोड़ी मात्रा में बहने वाले पानी को नाड़ी बर्बाद होने से बचाती है। नाड़ी मिट्टी की बनी होने के बावजूद दो सौ से चार सौ साल पुरानी नाड़ियाँ भी मिल जाती हैं। नाड़ियों में पानी महीने-डेढ़ महीने से सात-आठ महीने तक भी रुका रहता है। छोटे से छोटे गाँव में एक से अधिक नाड़ियाँ मिलती हैं। मरू भूमि में बसे गाँवों में इनकी संख्या 10-12 भी हो सकती है। जैसलमेर में पालीवालों के ऐतिहासिक चौरासी गाँवों में 700 से अधिक नाड़ियाँ या उनके चिह्न आज भी देखे जाते हैं।
नागौर, बाड़मेर व जैसलमेर में पानी की कुल आवश्यकताओं में से 37.06 प्रतिशत नाड़ियों द्वारा पूरी की जाती है। प्रत्येक गाँव में रहने वाली जनसंख्या तथा भौगोलिक परिवेश के अनुसार एक या अधिक नाड़ियों का निर्माण किया जाता है। एक समय उपरान्त इसमें गाद भरने से संचय क्षमता घट जाती है, जिसके लिये इसकी समय-मसय पर खुदाई की जाती हैं। कई छोटी नाड़ियों की जल क्षमता बढ़ाने हेतु एक या दो ओर से पक्की दीवार बना दी जाती हैं।
जोहड़ या टोबा
नाड़ी के समान आकृति वाला जल संग्रह केन्द्र टोबा कहलाता है। टोबा का आगोर (कलेवर, जलग्रहण क्षेत्र) नाड़ी से अधिक गहरा होता है। इस प्रकार थार के रेगिस्तान में टोबा एक महत्त्वपूर्ण पारम्परिक जल स्रोत हैं। सघन संरचना वाली भूमि जिसमें पानी का रिसाव कम होता है टोबा निर्माण हेतु उपयुक्त स्थान माना जाता है।84 इनकी पाल पत्थरों की पक्की होती है। इनमें एक छोटा सा घाट एवं सीढ़ियाँ होती हैं। पानी में उतरने के लिये पाँच सात छोटी सीढ़ियों से लेकर महलनुमा छोटी सी इमारत भी खड़ी मिल सकती है।85 इनमें पानी सात आठ माह तक टिकता है। इनको सामूहिक रूप से पशुओं के पानी पीने एवं घास हेतु काम में लिया जाता है।86 मानसून के आगमन के साथ ही लोग सामूहिक रूप से टोबा के पास ढाणी बनाकर रहने लगते हैं। इन टोबाओं की देखभाल भी आपसी सहयोग से की जाती है।
इनकी समय पर खुदाई के साथ ही जलग्रहण क्षेत्र में उपयुक्त मात्रा में हरियाली विकसित की जाती है। कभी मौसम के विपरीत प्रभाव के कारण पानी कम रह जाने पर आपसी सहमति द्वारा टोबे का जल उपयोग में लाते हैं। इसके जल का उपयोग इसकी संचयन क्षमता के अनुसार 1 से 20 परिवार कर सकते हैं। टोबा संरक्षण के कार्य में पूर्व निर्धारित नियमों को मानना होता है तथा समय-समय पर टोबा की खुदाई करके पायतान (आगोर) को बढ़ाया जाता है इसको चौड़ा न करके गहरा किया जाता है ताकि पानी का वाष्पीकरण कम हो व अधिक संचय होता रहे। राजस्थान के कई भू भाग ऐसे हैं जहाँ भूजल एवं सतह पर बहने वाला जल वहाँ की जमीन में मौजूद भू-पट्टी के कारण खारा होता है ऐसे स्थानों पर खारी धरती से चार से पाँच फीट ऊपर उठे आगोर में वर्षा जल समेटकर मीठा जल देने वाले जोहड़ भी हैं।
खड़ीन
खड़ीन जल संरक्षण की पारम्परिक विधियों में बहुउद्देशीय व्यवस्था है। यह परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खड़ीन मुख्यतः जैसलमेर जिले का परम्परागत वर्षाजल संग्रहण स्रोत है। इसका विकास सर्वप्रथम 15वीं सदी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा किया गया था। खड़ीन के निर्माण हेतु राजा जमीन देता था जिसके बदले उपज का एक-चौथाई हिस्सा उन्हें दिया जाता था। इस प्रकार पालीवालों ने पूरे जैसलमेर में लगभग 500 छोटी बड़ी खड़ीनें विकसित कीं। जिनसे आज 12140 हेक्टेयर जमीन सिंचित की जाती है। खड़ीन मिट्टी का बना बाँधनुमा अस्थाई तालाब होता है जिसको किसी ढ़ालवाली भूमि के नीचे निर्मित करते हैं। इनके दो तरफ मिट्टी की पाल उठाकर तीसरी ओर पत्थर की मजबूत चादर लगाई जाती है। खड़ीन की यह पाल धोरा कहलाती है। धोरे की लम्बाई पानी की आवक के हिसाब से कम ज्यादा होती है। कई खड़ीन पाँच सात किलोमीटर तक चलती है। पाल सामान्यतः 1.5 मीटर से 3.5 मीटर तक ऊँची होती है। पानी की मात्रा अधिक होने पर यह खड़ीन भरकर अगले खड़ीन में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार यह पानी धीरे-धीरे सूखकर खड़ीन की भूमि में नमी छोड़ता रहता है जिसके बल पर फसलें उगाई जाती हैं। मरू प्रदशों में खड़ीन के आधार पर ही गेहूँ की खेती सम्भव है। खड़ीन की सहायता से सबसे शुष्क क्षेत्रों में भी कम से कम एक फसल ले ली जाती है। इनके निर्माण के समय भूमि एवं आस-पास की बनावट का ध्यान रखा जाता है। खड़ीन निर्माण हेतु तीव्र ढाल वाला चट्टानी पायतान और फसलें उगाने वाली मृदा का निर्माण मैदानी भाग में उपयुक्त माना गया है। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है उसे खड़ीन व इसे रोकने वाले बाँध को खड़ीन बाँध कहते हैं। खड़ीन का आकार व जलग्रहण क्षेत्र का निर्धारण ढलान, वर्षा की मात्रा, पायतान की स्थिति और मृदा की प्रवृत्ति के आधार पर ही तय किया जाता है। खड़ीन बाँधों को इस प्रकार बनाया जाता है कि पानी की आवक के हिसाब से ये टूट न पायें। अतः अतिरिक्त पानी को ऊपर से निकाल दिया जाता है, अधिक गहरे खड़ीनों में आवश्यकतानुसार पानी निकालने के लिये फाटक बना दिए जाते हैं। खड़ीन के इकट्ठे हुए जल का उपयोग अधिकतर पशुओं के लिये किया जाता है तथा पानी के सूखने पर वहाँ खेती भी की जाती है। वर्षा ऋतु समाप्त होने पर खड़ीन में संग्रहित जल जमीन में अन्तःसतह से निथर कर भूजल के स्तर को बढ़ाने में मदद करता है। शुष्क क्षेत्रों में पानी के प्रवाह की गति कम रहती है जब वर्षा तीव्र गति से होती है तो खड़ीन के ढ़ालों पर पानी तीव्रता से बहने लगता है जिसे ढाल या पायतन की प्रकृति प्रभावित करती है। इन ढालों से प्रभावित होने वाले जल का 50 से 60 प्रतिशत भाग भूमि में समा जाता है। शेष अन्तः स्पन्दन व वाष्पीकरण आदि द्वारा नष्ट हो जाता है। खड़ीनों द्वारा शुष्क प्रदेशों में बिना ज्यादा परिश्रम के फसलें ली जाती हैं। इसमें अधिक निराई-गुड़ाई, रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि खड़ीनों में बहकर आने वाला जल अपने साथ महीन एवं उर्वरक मृदा बहाकर लाता है जिनके पूर्व में स्थित मृदा में मिश्रित होने से उसकी संरचना परिवर्तित हो जाती है व अधिक उर्वर हो जाती है। खड़ीन पायतान क्षेत्रों में पशुओं द्वारा चराई होती रहती है जिससे पशुओं द्वारा विसरित गोबर एवं मूत्र भी उस मृदा को उर्वर बनाता है। इन खड़ीनों के पास कुआँ भी बनाया जाता है जिसमें खड़ीन से रिसकर पानी आता रहता है जिसका उपयोग पीने के लिये किया जाता है। जिस वर्ष वर्षा कम होती है एवं खड़ीन में संग्रहित पानी जल्दी सूखा जाता है उस वर्ष खरीफ में बाजरा, मोठ, ग्वार की फसलें होती हैं। आमतौर पर इन क्षेत्रों में रबी में चना, रायड़ा एवं गेहूँ की फसलें उगाई जाती हैं।87
तालाब
वर्षाजल को संचित करने में तालाब प्रमुख स्रोत रहा है। जल का आवक क्षेत्र विशाल हो तथा पानी रोक लेने की जगह भी अधिक मिल जाए तो ऐसी संरचना को तालाब या सरोवर कहते हैं। तालाब नाड़ी की अपेक्षा और अधिक क्षेत्र में फैला हुआ रहता है तथा कम गहराई वाला होता है। जल संग्रहण क्षेत्र से बहकर आगर (पेट) में भण्डारित होता है। इस आगर में भण्डारित जल की सुरक्षा के लिये पाल बनाई जाती है। अधिशेष जल की निकासी के लिये नेष्टा बनाया जाता है ताकि अधिशेष जल आगोर से निकलकर बाहर चला जाए और पाल को नुकसान नहीं हो। तालाब प्रायः पहाड़ियों के जल का संग्रहण करके ऐसे स्थल पर बनाया जाता है, जहाँ जल भण्डारण की संभावनाएँ हो और बंधा सुरक्षित रहे। प्राचीन समय के बने तालाबों में अनेक प्रकार की कलाकृतियाँ बनी हुई होती हैं। इन्हें हर प्रकार से रमणीक एवं दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाता है। इनमें अनेक प्रकार के भित्ति चित्र इनके बरामदों, तिब्बारों में बनाये जाते है।88 तालाबों की उचित देखभाल की जिम्मेदारी समाज पर होती है।
झीलें
राजस्थान में जल का परम्परागत ढंग से सर्वाधिक संचय झीलों में होता है। यहाँ पर विश्व प्रसिद्ध झीलें स्थित हैं जिनके निर्माण में राजा-महराजाओं, बनजारों एवं आम जनता का सम्मिलित योगदान रहा है। झीलों की विशाल क्षमता का अनुमान जोधपुर की लालसागर (1800 ई.) कैलाना (1872 ई.) तख्तसागर (1832 ई.) और उम्मेदसागर (1931 ई.) झीलों की विशालता से लगाया जा सकता है। जिनमें 70 करोड़ घन फीट जल संचय रहता है जो आठ लाख लोगों को आठ माह तक पर्याप्त है। मण्डोर पहाड़ियों का जल संचय करने के लिये बालसमन्द झील बनायी गयी है। इसी प्रकार उदयपुर में विश्व प्रसिद्ध झीलों जयसमन्द, उदयसागर, फतेहसागर, राजसमन्द, पिछोला झील में काफी मात्रा में जल संचय रहता है। पिछोला का आगार प्राकृतिक है जिसे सिसरमा नदी से जोड़ा गया है। अजमेर में नागपहाड़ के आस-पास का पानी अनासागर में संचित होता है। विश्व प्रसिद्ध पुष्कर झील का अस्तित्व धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत है।
इन झीलों से सिंचाई के लिये भी जल का उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त इनका पानी रिसकर बावड़ियों में पहुँचता है, जहाँ से इसका उपयोग पेयजल के रूप में करते हैं।
बावड़ी
राजस्थान में कुओं व सरोवर की तरह ही बावड़ी निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है।89 बावड़ी अथवा बाव का तात्पर्य एक विशेष प्रकार के जल स्थापत्य से है, जिसमें एक गहरा कुआँ अथवा कुण्ड होता है और पानी खींचकर निकालने के साथ ही पानी की सतह तक जाने के लिये सीढ़ियाँ भी बनी होती हैं। जो कई सतहों और मन्जिलों में बटी होती हैं।
इन पर अलंकृत द्वार, सुन्दर तोरण तथा देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं। यहाँ पर हड़प्पा युग की संस्कृति में बावड़ियाँ बनाई जाती थी। प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी निर्माण का उल्लेख प्रथम शताब्दी में मिलता है। विश्वकर्मा के वास्तुशात्र के अनुसार बावड़ियाँ चतुष्कोणीय, वर्तुल, गोल तथा दीर्घ होती हैं। इनके प्रवेश से मध्य भाग तक ईंटों अथवा पत्थरों का निर्माण कार्य होता है। इन बावड़ियों के आगे के एक आंगननुमा भाग के ठीक नीचे जल भरा हुआ होता है। आँगन से प्रथम तल तक सीढ़ियों, स्तम्भों तथा मेहराबों का निर्माण किया हुआ होता है। एक से अधिक मंजिलों में निर्मित कुण्डों और बावड़ियों में दरवाजे, सीढ़ियों की दीवारें तथा आलिये बने होते हैं जिसमें बेलबूंटों, झरोखों, मेहराबों एवं जल देवता कश्यप, मकर, भूदेवी, वराह, गंगा, विष्णू और दशावतार का चित्रण किया जाता है। बावड़ियों में पानी आने के प्रवेश द्वार भी छोड़े गये हैं ताकि चारों तरफ का बरसाती पानी इधर-उधर व्यर्थ बहने के बजाए इनमें समा सके जो बावड़ियाँ शहरी परकोटे के भीतर राजप्रसादों व किलों के इर्द-गिर्द बनी हुई हैं। जिनका उपयोग उस समय निर्माता परिवार की महिलाओं के स्नान इत्यादि निजी उपयोग के लिये होता था। अधिकतर बावड़ियाँ नगर द्वार के बाहर, सराय या धर्मशालाओं के पास व मन्दिरों के साथ बनाई जाती थी। जिसका लाभ यह था कि इन मार्गों पर जाने वाले व्यापारियों के माध्यम से वाणिज्यिक सूचनाएँ संचारित की जाती थी एवं यात्रीगण वहाँ रुककर स्नान, पूजा, भोजन आदि कर सकते थे। लोग पुण्यार्थ मन्दिर व बावड़ी बनाते थे इसके अलावा व्यापारियों व आमजन ने भी बावड़ियाँ बनाने में अपना योगदान दिया है। बावड़ी बनाने का लाभ यह था कि लोगों को जितने पानी की आवश्यकता होती थी उतने ही पानी का दोहन किया जाता था तथा लोग पानी को संरक्षित करते हुए विवेकपूर्ण उपयोग करते थे। ‘मेघदूत’ में कालिदास ने यक्ष द्वारा अपने घर में बावड़ी निर्माण का वर्णन किया है। बावड़ियाँ प्राचीन काल से वर्षा जल संचयन, पीने के पानी व सिंचाई के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत होने के साथ ही किसी भी निर्माता की भव्य और कलात्मक रुचि का परिचायक भी रही है।90
कुएँ
राजस्थान में कुओं की भी अपनी समृद्ध परम्परा रही है। कच्चे पक्के कुँओं के विविध रूप यहाँ देखने को मिलते हैं किन्तु पश्चिमी क्षेत्रों में कुएँ का अर्थ- ‘‘धरातल से पाताल में उतरना है।91” इन कुआें की नाप की भी अपनी अलग भाषा है। गाँव के लोग इनकी गहराई ‘‘हाथ” अथवा पुरूष, परस के आधार पर नापते हैं। पुरूष अपने दोनों हाथों को फैलाकर खड़ा हो जाता है तो उसकी एक हथेली के सिरे से दूसरी हथेली के सिरे तक की लम्बाई पुरूष अथवा परस कहलाती है। यह लम्बाई करीब पाँच फीट तक होती है। तीन सौ फीट गहरे कुएँ की लम्बाई साठ परस होने के कारण लोग इसे ‘‘साठी कुआँ” भी कहते हैं। चार चड़सों द्वारा चारों दिशाओं में एक साथ पानी खींचने वाले कुओं को चोतीना या चोलावा कहते हैं। पानी की सिंचाई क्षमता लाव (चड़स चमड़े का व चड़स खींचने की मोटी रस्सी जो सण से बनी होती है) से मानी जाती है। इसी तरफ दुलावा, तीलावा व चौलावा कुआँ होता है। यह कुएँ करीब 60 मीटर गहरे होते हैं और कभी भी नहीं सूखते हैं। इनमें पानी काफी शुद्ध और हमेशा रहता है। लोगों ने कुँओं के अलग-अलग नाम भी दिए हैं। सांझे के कुएँ में पानी भूतल के भण्डार से प्राप्त किया जाता है जो रिस-रिस कर जमीन के अन्दर जमा हो जाता है। सीर के कुएँ में जमीन के अन्दर स्थित जल, कुएँ में आकर खुलता है। कुएँ का व्यास भीतर बह रहे जल की मात्रा से तय होता है। राजस्थान के उन क्षेत्रों में जहाँ भू-जल बहुत गहरा नहीं है, वहाँ पूरी खुदाई हो जाने पर, स्रोत मिल जाने पर नीचे से चिणाई की जाती है। यह साधारण पत्थर और ईंट से बनी होती है। ऐसी चिणाई सीध यानी सीधी कहलाती है। जहाँ भू-जल बहुत गहरा है, वहाँ लगातार खुदाई करने से मिट्टी के धसने का खतरा होने के कारण कुँओं में ऊपर से नीचे की ओर चिणाई की जाती है। ऐसी उलटी चिणाई ऊँध कहलाती है, परन्तु जहाँ पानी और भी गहरा हो, ऐसे स्थानों में पत्थर के प्रत्येक टुकड़े को पास वाले टुकड़ों में गुटकों और फांस के सहारे दाँये-बाँये, उपर नीचे फसाया जाता है। इसे सूखी चिणाई कहते हैं। विभिन्न प्रकार के कुओं से अलग-अलग प्रकार की फसलों की खेती की जाती है। कुएँ से पानी निकालने के साधन जिसे चड़स के नाम से जाना जाता है, को तैयार करने के लिये सबसे उत्तम चमड़े का प्रयोग किया जाता है। जिससे करीब 360 अलग-अलग प्रकार के जोड़ होते हैं। कुएँ से पानी निकालने के बर्तन को खटारी कहा जाता है। कुएँ की बनावट सकड़ी और गहरी है तो उसे कुँई के आधार पर चौलाई कुँई कहते हैं।
कुँई और डाईकेरियान
कुँई पश्चिमी राजस्थान के लोगों के कौशल का एक और उदाहरण हैं। कुँई जिन्हें कहीं-कहीं बेरी भी कहा जाता है, अक्सर तालाब के पास बनायी जाती है, जिसमें तालाब का रिसता हुआ पानी जमा होता है। इस प्रकार पानी की बर्बादी कम से कम हो पाती है। आमतौर पर यह दस से बारह मीटर गहरी होती है और कच्ची ही रहती है। कुँई का मुँह छोटा रखा जाता है, जिसके तीन बड़े कारण हैं। रेत में जमा नमी से पानी की बूँदें बहुत धीरे-धीरे रिसती है। दिनभर में एक कुँई मुश्किल से इतना ही पानी जमा कर पाती है कि उससे दो तीन घड़े भर सके। कुँई के तल पर पानी की मात्रा इतनी कम होती है कि यदि कुँई का व्यास बड़ा हो तो कम मात्रा का पानी ज्यादा फैल जायेगा और तब उसे ऊपर निकालना सम्भव नहीं होगा। छोटे व्यास की कुँई में धीरे-धीरे रिस कर आ रहा पानी दो चार हाथ की ऊँचाई ले लेता है। इनका मुँह अक्सर लकड़ी के पटों से ढका होता है जिससे लोग या पशु गिर न जाएँ। आज भी बीकानेर की लूनकरनसर तहसील, जैसलमेर जिले में मोहनगढ़ और रामगढ़ के बीच तथा फलौदी जिले के गाँवों में कुईयाँ बड़ी संख्या में मौजूद हैं। कुँईयों का पानी बचाकर रखा जाता है और जब तालाब का पानी खत्म हो जाए तब इसका उपयोग किया जाता है।92 जल संसाधनों के अधिकतम संभव प्रयोग का स्थानीय ज्ञान एक आपात व्यवस्था डाईकेरियान में झलकता है। जिन्हें खेतों में खरीफ की फसल लेनी होती है वहाँ बरसाती पानी को घेरे रखने के लिये खेत की मेड़ें ऊँची कर दी जाती हैं। यह पानी जमीन में समा जाता है। फसल काटने के बाद खेत के बीच में छिछला कुँआ खोद देते हैं। जहाँ इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा हो जाता है। इसे फिर से काम में लिया जाता है।
झालरा
झलराओं का कोई जलस्रोत नहीं होता है। ये अपने से ऊँचाई पर स्थित तालाब या झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने के लिये उपयोग में नहीं आता है। उनका जल धार्मिक रीति रिवाजों को पूर्ण करने, सामूहिक स्नान व अन्य कार्यों हेतु उपयोग में आता है। झालराओं का आकार आयताकार होता है जिनके तीन ओर सीढ़ियाँ बनी होती हैं। इसी प्रकार का झालरा जोधपुर में 1660 में बना महामन्दिर झालरा था।93 अधिकांश जालराओं का प्रयोग बन्द हो गया है परन्तु इन झालराओं का वास्तुशिल्प अद्भुत प्रकार का होता है। जल संचय की दृष्टि से ये अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं।
पारम्परिक जल प्रणालियों की प्रासंगिकता
जल संचय और प्रबन्धन का चलन हमारे यहाँ सदियों पुराना है। जल संचय का सिद्धान्त यह है कि वर्षाजल को स्थानीय आवश्यकताओं और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार संचित किया जाए। इस क्रम में भूजल का भण्डार भी भरता जाता है और लोगों की घरेलु और सिंचाई सम्बन्धी आवश्यकताएँ पूरी होती रहती हैं। ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है कि ई.पूर्व. चौथी शताब्दी से ही देश के कई क्षेत्रों में छोटे-छोटे समुदाय जल संचय और वितरण की कारगर व्यवस्थाएँ करते रहे हैं। नंद के शासन में (363-321 ई.पू.) शासकों ने नहरें और समुदाय पर निर्भर सिंचाई प्रणालियाँ बनायी। मध्य भारत के गोड़ शासकों ने सिंचाई और जल आपूर्ति की न केवल बेहतर प्रणालियाँ बनाई बल्कि उनके रख-रखाव के लिये आवश्यक सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ भी विकसित की थी।
राजस्थान में खड़ीन, कुण्ड, नाड़ी, महाराष्ट्र में बंधारा और ताल, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश में बंधी, बिहार में आहर और पईन, हिमाचल में कुहल, तमिलनाडू में ईरी, केरल में सुरंगम, जम्मू क्षेत्र में काण्डी इलाके के पोखर, कर्नाटक में कट्टा पानी को सहजने और एक जगह से दूसरी जगह प्रवाहित करने के अति प्राचीन साधन थे जो आज भी इस्तेमाल में हैं। प्रदेश का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहाँ आधुनिक प्रणालियाँ भारी लागत की वजह से पहुँच ही नहीं सकती। इस हिस्से के लोग पीने के पानी, सिंचाई के लिये पारम्परिक प्रणालियों पर ही निर्भर है जबकि आधुनिक प्रणालियों के साथ समस्या यह है कि इन्होंने सरकार पर ग्रामीण सामुदायों की निर्भरता बढ़ा दी है और सरकारी एजेन्सियाँ लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में पूर्णतया सफल नहीं हो पाती हैं। पारम्परिक प्रणालियों में सस्ती, आसान तकनीक का प्रयोग होता है जिसे स्थानीय लोग भी आसानी से कारगर बनाये रख सकते हैं। ये व्यवस्थाएँ उस क्षेत्र की पारिस्थतिकी और संस्कृति की विशिष्ट देन होती हैं जिनमें उनका विकास होता है। पारम्परिक व्यवस्थाएँ न केवल काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं बल्कि उन्होंने स्थानीय जरूरतों को भी पर्यावरण से तालमेल रखते हुऐ पूरा किया है। यह प्राचीन व्यवस्थाएँ पारिस्थतिकीय संरक्षण पर जोर देती हैं। पारम्परिक व्यवस्थाओं को अन्नत काल में साझा मानवीय अनुभवों से लाभ पहुँचता रहा है और यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है।
संदर्भ
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राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में जल विरासत - 12वीं सदी से 18वीं सदी तक (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | हाड़ौती का भूगोल एवं इतिहास (Geography and history of Hadoti) |
2 | हाड़ौती क्षेत्र में जल का इतिहास एवं महत्त्व (History and significance of water in the Hadoti region) |
3 | हाड़ौती क्षेत्र में जल के ऐतिहासिक स्रोत (Historical sources of water in the Hadoti region) |
4 | हाड़ौती के प्रमुख जल संसाधन (Major water resources of Hadoti) |
5 | हाड़ौती के जलाशय निर्माण एवं तकनीक (Reservoir Construction & Techniques in the Hadoti region) |
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