एक तरफ हमारा तथा कथित विकसित समाज पर्यावरण को ताक पर रखकर प्लास्टिक के उपयोग में लगा हुआ है वही दूसरी ओर पन्नी व कचरा बीनने वाले बच्चों की तादाद भी बढ़ रही है। बालश्रम में लगे बच्चों की तो सरकार को ठीक से गिनती भी नहीं मालूम है और न ही इनके लिए कोई विकास नीति है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में ऐसे बच्चों के विकास के लिए काम करने की बातें तो कही जा रही है लेकिन बजट का अभाव देखकर लगता नहीं कि कुछ खास हो सकेगा।
ग्लोबल वार्मिंग व बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण का यदि सबसे अधिक किसी पर प्रभाव पड़ता है तो वे बच्चे हैं। पन्नी बीनते, बालश्रम करते और शहरी झुग्गी बस्तियों की अभावग्रस्त कठिन परिस्थितियों से जूझते बच्चों की बात करें या बड़ी संख्या में रेलवे प्लेटफार्म को अपना घर बना चुके बच्चों की, ये सब जिस तरह के पर्यावरण में जी रहे हैं उसे बेहतर तो कतई नहीं कहा जा सकता। ऐसे में बजाय इसके कि इन असुरक्षित बच्चों के हित में ठोस कारगत नीति बनायी जाये हम उल्टा उन्हें यह समझाने में लगे हैं कि यारा प्रदूषण उनकी वजह से ही फैला हुआ है इसलिए उन्हें पेड़ लगाना चाहिए और पानी बचाना चाहिए। यह बात ठीक उसी तरह से है जैसे अपना प्रदूषण कम करने के मामले में अमरीका व बड़े देशों का कहना कि हम अपने ऐसो आराम में तो कोई कटौती नहीं कर सकते लिहाजा कुछ धन लेकर जो देश पहले से ही कम प्रदूषण फैला रहे हैं वे ही उनके हिस्से का प्रदूषण कम कर लें।शहरी गरीबों के संदर्भ में यह पहलू भी किसी से छुपी नहीं है कि झुग्गी बस्तियों को खत्म कर शहर बनाने के पीछे कीमती जमीनों को हथियाने और व्यापार करने की मंशा ही प्रबल है इसलिए तो जेएनएनयूआरएम जैसी आवास योजनाओं में पर्यावरण नीतियों के विरूद्ध न सिर्फ आवास बनाये गये हैं बल्कि उसकी ज्यादातर लागत भी गरीबों से वसूली गयी है। जबकि दूसरे परियोजनाओं से विस्थापित या हटाये जाने पर सरकार को पुनर्वास नीतियों के तहत मुआवजा और नौकरी देनी होती है। फिलहाल गरीबों के लिए बनाये जा रहे कॉलोनियों में बच्चों के खेलने कूदने के मैदान भी गायब ही हैं। इसी तरह एक स्वयंसेवी अध्ययन के मुताविक मध्य प्रदेश के रेलवे प्लेटफार्म से जुड़े बच्चों की संख्या 22 हजार के आसपास बतायी गयी है। यहां नशा, असुरक्षा कुपोषण व कमजोरी के शिकार असुरक्षित बच्चों ने प्लेटफार्म को ही अपना घर बना रखा है या यू कहें कि वे यहां जीने को बेबस हैं।
इस संदर्भ में कुछ एनजीओ द्वारा किये जा रहे प्रयासों के अलावा सरकार व रेलवे की ऐसी कोई नीति नहीं जो इन बच्चों को सुरक्षा प्रदान कर सके। बच्चों के लिए सुरक्षित वातावरण न मिलने का ही नातीजा है कि बड़ी संख्या में प्रदेश से बच्चे गायब हो रहे हैं। भोपाल शहर की सरकारी आंगनवाड़ियां न सिर्फ किराये के मकानों में चल रही है बल्कि वहां बच्चों के बैठने की सुरक्षित जगह भी नहीं के बराबर है। तमाम सरकारी प्रयासों के सरकारी आंगनवाड़ी भवन 50 प्रतिशत भी नहीं दिखायी पड़ते। यही हाल सरकारी स्कूलों का भी है जहां कचरे के ढेर, गंदे नाले के बहाव और बदबू के बीच नौनिहालों का विकास हो रहा है। पीने के पानी के लिए हर दूसरे दिन खासकर बेटियों को टैंकर के इंतजार में खड़े रहना पड़ रहा है।
कुछ ऐसी ही कठिन परिस्थिति दूसरे के घरों में झाड़ू, पोछा ,बर्तन करने जाती नाबालिग बालिकाओं की है। बढ़ते शहरीकरण के बीच कामकाजी बच्चियों की संख्या दिन व दिन बढ़ती जा रही है वही 0 से 14 साल में ही उन्हें शिक्षा से दूर रहकर मानसिक व शरीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है। एक तरफ हमारा तथा कथित विकसित समाज पर्यावरण को ताक पर रखकर प्लास्टिक के उपयोग में लगा हुआ है वही दूसरी ओर पन्नी व कचरा बीनने वाले बच्चों की तादाद भी बढ़ रही है। बालश्रम में लगे बच्चों की तो सरकार को ठीक से गिनती भी नहीं मालूम है और न ही इनके लिए कोई विकास नीति है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में ऐसे बच्चों के विकास के लिए काम करने की बातें तो कही जा रही है लेकिन बजट का अभाव देखकर लगता नहीं कि कुछ खास हो सकेगा। इन सब पहलुओं पर गौर करें तो पता चलता है कि तेजी से बढ़ते शहरीकरण के बीच हमारा ध्यान बच्चों के पर्यावरणीय अधिकारों की तरफ कम ही रहा है।
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