हिमनदयुग पृथ्वी के आरंभ से अब तक के काल को भूवैज्ञानिक आधार पर कई युगों में विभाजित किया गया है। इनमें प्लाइस्टोसीन या अत्यंत नूतनयुग को हिमनदयुग या हिमयुग के नाम से भी संबोधित करते हैं। इस युग में पृथ्वी का बहुत बड़ा भाग हिम से ढका था। पिछले सहस्रों वर्षों में अधिकांश हिम पिघल गया और बहुत सी हिमचादरें लुप्त हो गई हैं। ध्रुव प्रदेशों के अतिरिक्त केवल कुछ ही भागों में हिमस्तर दिखाई देता है। भूवैज्ञानिकों ने ज्ञात किया है। कि प्लाइस्टोसीनयुग में शीतोष्ण कटिबंध व उष्ण कटिबंध के बहुत से भाग हिमाच्छादित थे। इन्हें इन भागों में हिमनदों की उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं। इन स्थानों पर गोलाश्म मृत्तिका (प्रस्तरयुक्त चिकनी मिट्टी) तथा हिमानियों का मलवा दिखाई देता है। साथ ही हिमानीय प्रदेशों के अमिट च्ह्रि जैसे हिमानी के मार्ग की चट्टानों का चिकना होना, उनपर बहुत सी खरोचों के निशान पड़े रहना, शिलाओं पर धारियाँ होना आदि विद्यमान हैं। हिमानीय प्रदेशों की घाटियाँ अंग्रेजी के अक्षर 'यू' के आकार की होती हैं तथा इनमें हिम भेडपीठ शैल (Roches mountonnees) तथा हिमजगह्वर (Cirgua) रचनाएँ देखने को मिलती हैं। अनियत गोलाश्म अर्थात् अनाथ शिलाखंड की उपस्थिति भी हिमानीय प्रदेशों की पहचान है। ये वे शिलाखंड हैं जिनका उस क्षेत्र की शिलाओं से कोई संबंध नहीं है, ये ते हिमनद के साथ एक लंबी यात्रा करते हुए आते हैं और हिम पिघलने पर अर्थात् हिमनद के लोप होने पर वहीं रह जाते हैं।
हिमनदयुग का विस्तार- उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर भू-विज्ञानियों ने यह तथ्य स्थापित किया है कि प्लास्टोसीनयुग में यूरोप, अमरीका, अंटार्कटिका और हिमालय का लगभग 205 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र हिमचादरों से ढका था। उत्तरी अमरीका में मुख्यत: तीन हिमकेंद्रों लैब्रोडोर, कीवाटिन और कौरडिलेरियन से चारों दिशाओं में हिम का प्रवाह हुआ जिसने लगभग 102 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र को ढक लिया। यहाँ हिम की मोटाई लगभग दो मील थी। उत्तरी यूरोप में हिम का प्रवाह स्केंडिनेविया प्रदेश से दक्षिण पश्चिम दिशा में हुआ जिससे इंग्लैंड, जर्मनी और रूस के बहुत से भाग बर्फ से ढक गए, इसी प्रकार भारत के भी अधिकांश भाग इस युग में हिम से आच्छादित थे।
प्लाइस्टोसीन हिमनदयुग के जो प्रमाण हमारे देश में मिले हैं उनमें हिमालयक्षेत्र से प्राप्त प्रमाण पुष्ट और प्रभावशाली हैं। हिमालय के विस्तृत क्षेत्र में हिमानियों का मलबा मिलता है, नदियों की घाटियों में हिमोढयुक्त मलबे की पर्तें दिखाई देती देती हैं तथा स्थान स्थान पर, जैसे पुटवार में, अनियत गोलाश्म भी मिले हैं। प्रायद्वीपीय भारत में भी हिमनदयुग के प्रमाण मिले हैं, पर यह प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष हैं। नीलगिरि पर्वत, अन्नामलाई और शिवराई पर्वत शिखरों में शीत जलवायु की वनस्पतियाँ एवं जीवाश्म मिले हैं। पारसनाथ की पहाड़ियों तथा अरावली पर्वत में वनस्पतियों के अवशेष मिले हैं जो अब हिमालय पर्वत में उगती हैं। यह परोक्ष प्रमाण इस बात के द्योतक हैं कि उस समय इन भागों की जलवायु आज की जलवायु से भिन्न थी।
हिमनदयुग का वर्गीकरण- विस्तृत अध्ययन कर भूवैज्ञानिकों ने ज्ञात किया है कि हिमानियाँ कई बार आगे की ओर अग्रसर हुई हैं और कई बार पीछे की ओर हटी हैं। उन्होंने यूरोप में प्लाइस्टोसीन युग में चार हिमकालों (हिमयुगों) तथा चार अंतर्हिमकालों की स्थापना की है। हिमकालों के स्पष्ट प्रमाण क्रमश: आल्प्स में गुंज, मिंडल रिस और वुर्म नदियों की घाटियों में मिले हैं अत: इन चारों हिमकलों को गुंज हिमकाल, मिंडल हिमकाल और बुर्म हिमकाल की संज्ञा दी गई है। इनमें गुंज हिमकाल सबसे पहला है, उसके बाद मिंडल हिमकाल, फिर रिस हिमकाल और सबसे अंत में वुर्म हिमकाल का आगमन हुआ। इन हिमकलों के बीच का समय, जब हिम का सकुंचन हुआ, अंतर्हिमकाल कहलाता है। सर्वप्रथम आदिमानव की उत्पत्ति गुंज और मिंडल हिमकालों के बीच आँकी गई हैं। विश्व के अन्य भागों, जैसे अमरीका आदि में भी, इन चारों हिमकालों की स्थापना की पुष्टि हुई है। भारत में भी यूरोप के समकक्ष चारों हिमकालों के च्ह्रि मिले हैं। शिमला क्षेत्र में फैली पींजोरस्तर की चट्टानें गुंज हिमयुग के समकालीन हैं। ऊपरी कंग्लामरिट प्रस्तर शिलाएँ मिंडल हिमकाल के समकक्ष हैं। नर्मदा की जलोढक रिस हिमकाल के समकालीन आँकी गई हैं तथा पुटवार की लोयस एवं रेत वर्मयुग के निक्षेपों के समकक्ष हैं। डीटेरा एवं पीहरसन नामक भूवैज्ञानिकों ने तो कश्मीर घाटी में पाँच हिमकालों की कल्पना की है।
नीचे की सारणी में प्लाइस्टोसीन हिमयुग की तुलनात्मक सारणी प्रस्तुत की गई है
अन्य हिमनद युग- यद्यपि प्लाइस्टोसीन युग को ही हिमनदयुग के नाम से संबोधित किया जाता है, तथापि भौमिक इतिहास के अन्य युगों में भी ऐसे प्रमाण मिले हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि पृथ्वी के बृहद् भाग इससे पूर्व भी कई बार हिमचादरों से ढँके थे। अब से लगभग 35 कराड़ वर्ष पूर्व कार्बनीयुग में अफ्रीका, भारत, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमरीका के बृहद् भाग हिमाच्छादित थे। अनुमानत: कार्बनीयुग में हिम का विस्तार प्लाइस्टोसीन युग की अपेक्षा कहीं अधिक था। कनाडा, दक्षिणी अफ्रीका और भारत में कैंब्रियनपूर्वकल्प की शिलाओं में गोलाशय मृत्तिका तथा हिमानियों की विद्यमानता के अन्य चित्र भी मिले हैं। किन्हीं किन्हीं क्षेत्रों में मध्यजीवकल्प तथा नवजीवकल्प से भी हिमस्तर के प्रमाण उपलब्ध हैं।
हिमावरण का कारण- हिमानियों की रचना के लिए आवश्यक है न्यून ताप तथा पर्याप्त हिमपात। हिमक्षेत्रों में हिमपात की मात्रा अधिक होती है और ग्रीष्म ऋतु का ताप उस हिम को पिघलाने में असमर्थं रहता है, अत: प्रति वर्ष हिम एकत्र होता रहता है। इस प्रकार निरंतर हिम के जमा होने से हिमानियों की रचना होती है। उपयुक्त वातावरण मिलने पर हिमानियों का आकार बढ़ता जाता है और यह बृहद् रूप धारण कर लेती हैं और पृथ्वी का एक बड़ा भाग बर्फ से ढँक जाता है।
जलवायु परिवर्तन, जल-थल-मंडलों की स्थिति से परिवर्तन, सूर्य की नर्मी का प्रभाव कम होना, ध्रुवों का अपने स्थान से पलायन, वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की बहुलता हिमावरण का मूल कारण है। यह पृथ्वी की निम्नलिखित गतियों पर निर्भर है घूर्णाक्ष का अयन (Precession of the axis of rotation), पृथ्वी के अक्ष की परिभ्रमणदिशा का कक्षा पर विचरण (Variation of inclination to the plane of orbit), भूकक्षा का अयन (Precession of the Earth's orbit)। इनका पृथक् पृथक् रूप में जलवायु पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु यदि सब एक साथ एक ही दिशा में प्रभावकारी होते हैं तो जलवायु में मूल परिवर्तन हो जाता है। उदाहरणार्थ जब कक्षा की उत्केंद्रता अधिक तथा अक्ष का झुकाव कम हो और पृथ्वी अपने कक्षामार्ग में सबसे अधिक दूरी पर हो तब उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म ऋतु में बहुत कम ताप उपलब्ध होगा। शरद ऋतु लंबी होगी तथा शीत अधिक होगा। इसके विपरीत कक्षा की लघु उत्केंद्रता तथा अक्ष का विपरीत दिशा में विवरण मृदुल जलवायु का प्रेरक है। खगोलात्मक आधार पर ग्रीष्म और शीत जलवायु का आवागमन लगभग एक लाख वर्षों के अंतराल पर होता है। प्लाइस्टोसीन युग में ज्ञान हिमकालों से मोटे तौर पर इसकी पुष्टि होती है। (महाराज नारायण मेहरोत्रा)
हिमनदयुग का विस्तार- उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर भू-विज्ञानियों ने यह तथ्य स्थापित किया है कि प्लास्टोसीनयुग में यूरोप, अमरीका, अंटार्कटिका और हिमालय का लगभग 205 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र हिमचादरों से ढका था। उत्तरी अमरीका में मुख्यत: तीन हिमकेंद्रों लैब्रोडोर, कीवाटिन और कौरडिलेरियन से चारों दिशाओं में हिम का प्रवाह हुआ जिसने लगभग 102 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र को ढक लिया। यहाँ हिम की मोटाई लगभग दो मील थी। उत्तरी यूरोप में हिम का प्रवाह स्केंडिनेविया प्रदेश से दक्षिण पश्चिम दिशा में हुआ जिससे इंग्लैंड, जर्मनी और रूस के बहुत से भाग बर्फ से ढक गए, इसी प्रकार भारत के भी अधिकांश भाग इस युग में हिम से आच्छादित थे।
प्लाइस्टोसीन हिमनदयुग के जो प्रमाण हमारे देश में मिले हैं उनमें हिमालयक्षेत्र से प्राप्त प्रमाण पुष्ट और प्रभावशाली हैं। हिमालय के विस्तृत क्षेत्र में हिमानियों का मलबा मिलता है, नदियों की घाटियों में हिमोढयुक्त मलबे की पर्तें दिखाई देती देती हैं तथा स्थान स्थान पर, जैसे पुटवार में, अनियत गोलाश्म भी मिले हैं। प्रायद्वीपीय भारत में भी हिमनदयुग के प्रमाण मिले हैं, पर यह प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष हैं। नीलगिरि पर्वत, अन्नामलाई और शिवराई पर्वत शिखरों में शीत जलवायु की वनस्पतियाँ एवं जीवाश्म मिले हैं। पारसनाथ की पहाड़ियों तथा अरावली पर्वत में वनस्पतियों के अवशेष मिले हैं जो अब हिमालय पर्वत में उगती हैं। यह परोक्ष प्रमाण इस बात के द्योतक हैं कि उस समय इन भागों की जलवायु आज की जलवायु से भिन्न थी।
हिमनदयुग का वर्गीकरण- विस्तृत अध्ययन कर भूवैज्ञानिकों ने ज्ञात किया है कि हिमानियाँ कई बार आगे की ओर अग्रसर हुई हैं और कई बार पीछे की ओर हटी हैं। उन्होंने यूरोप में प्लाइस्टोसीन युग में चार हिमकालों (हिमयुगों) तथा चार अंतर्हिमकालों की स्थापना की है। हिमकालों के स्पष्ट प्रमाण क्रमश: आल्प्स में गुंज, मिंडल रिस और वुर्म नदियों की घाटियों में मिले हैं अत: इन चारों हिमकलों को गुंज हिमकाल, मिंडल हिमकाल और बुर्म हिमकाल की संज्ञा दी गई है। इनमें गुंज हिमकाल सबसे पहला है, उसके बाद मिंडल हिमकाल, फिर रिस हिमकाल और सबसे अंत में वुर्म हिमकाल का आगमन हुआ। इन हिमकलों के बीच का समय, जब हिम का सकुंचन हुआ, अंतर्हिमकाल कहलाता है। सर्वप्रथम आदिमानव की उत्पत्ति गुंज और मिंडल हिमकालों के बीच आँकी गई हैं। विश्व के अन्य भागों, जैसे अमरीका आदि में भी, इन चारों हिमकालों की स्थापना की पुष्टि हुई है। भारत में भी यूरोप के समकक्ष चारों हिमकालों के च्ह्रि मिले हैं। शिमला क्षेत्र में फैली पींजोरस्तर की चट्टानें गुंज हिमयुग के समकालीन हैं। ऊपरी कंग्लामरिट प्रस्तर शिलाएँ मिंडल हिमकाल के समकक्ष हैं। नर्मदा की जलोढक रिस हिमकाल के समकालीन आँकी गई हैं तथा पुटवार की लोयस एवं रेत वर्मयुग के निक्षेपों के समकक्ष हैं। डीटेरा एवं पीहरसन नामक भूवैज्ञानिकों ने तो कश्मीर घाटी में पाँच हिमकालों की कल्पना की है।
नीचे की सारणी में प्लाइस्टोसीन हिमयुग की तुलनात्मक सारणी प्रस्तुत की गई है
भारत | आल्प्स | जर्मनी | उत्तरी अमरीका | वर्ष पूर्व (मिलान-कोविच के अनुसार) |
पुटवार लोयस और रेत नर्मदा की जलोढ ऊपरी प्रस्तर कंग्लामरिट पींजोर स्तर | वुर्म हिमकाल अंतर्हिम काल रिसहिमकाल अंतर्हिम काल मिंडेल हिमकाल अंतर्हिम काल गुंजहिमका | वाइशेल हिमकाल जालेहिमकाल एल्सटर हिमकाल | विस्कौंसिन हिमकाल इलिनायिन हिमकाल कंसान हिमकाल नेब्रास्कन हिमकाल | 2000 144000 1830000 306000 429000 478000 543000 592000 |
अन्य हिमनद युग- यद्यपि प्लाइस्टोसीन युग को ही हिमनदयुग के नाम से संबोधित किया जाता है, तथापि भौमिक इतिहास के अन्य युगों में भी ऐसे प्रमाण मिले हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि पृथ्वी के बृहद् भाग इससे पूर्व भी कई बार हिमचादरों से ढँके थे। अब से लगभग 35 कराड़ वर्ष पूर्व कार्बनीयुग में अफ्रीका, भारत, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमरीका के बृहद् भाग हिमाच्छादित थे। अनुमानत: कार्बनीयुग में हिम का विस्तार प्लाइस्टोसीन युग की अपेक्षा कहीं अधिक था। कनाडा, दक्षिणी अफ्रीका और भारत में कैंब्रियनपूर्वकल्प की शिलाओं में गोलाशय मृत्तिका तथा हिमानियों की विद्यमानता के अन्य चित्र भी मिले हैं। किन्हीं किन्हीं क्षेत्रों में मध्यजीवकल्प तथा नवजीवकल्प से भी हिमस्तर के प्रमाण उपलब्ध हैं।
हिमावरण का कारण- हिमानियों की रचना के लिए आवश्यक है न्यून ताप तथा पर्याप्त हिमपात। हिमक्षेत्रों में हिमपात की मात्रा अधिक होती है और ग्रीष्म ऋतु का ताप उस हिम को पिघलाने में असमर्थं रहता है, अत: प्रति वर्ष हिम एकत्र होता रहता है। इस प्रकार निरंतर हिम के जमा होने से हिमानियों की रचना होती है। उपयुक्त वातावरण मिलने पर हिमानियों का आकार बढ़ता जाता है और यह बृहद् रूप धारण कर लेती हैं और पृथ्वी का एक बड़ा भाग बर्फ से ढँक जाता है।
जलवायु परिवर्तन, जल-थल-मंडलों की स्थिति से परिवर्तन, सूर्य की नर्मी का प्रभाव कम होना, ध्रुवों का अपने स्थान से पलायन, वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की बहुलता हिमावरण का मूल कारण है। यह पृथ्वी की निम्नलिखित गतियों पर निर्भर है घूर्णाक्ष का अयन (Precession of the axis of rotation), पृथ्वी के अक्ष की परिभ्रमणदिशा का कक्षा पर विचरण (Variation of inclination to the plane of orbit), भूकक्षा का अयन (Precession of the Earth's orbit)। इनका पृथक् पृथक् रूप में जलवायु पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु यदि सब एक साथ एक ही दिशा में प्रभावकारी होते हैं तो जलवायु में मूल परिवर्तन हो जाता है। उदाहरणार्थ जब कक्षा की उत्केंद्रता अधिक तथा अक्ष का झुकाव कम हो और पृथ्वी अपने कक्षामार्ग में सबसे अधिक दूरी पर हो तब उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म ऋतु में बहुत कम ताप उपलब्ध होगा। शरद ऋतु लंबी होगी तथा शीत अधिक होगा। इसके विपरीत कक्षा की लघु उत्केंद्रता तथा अक्ष का विपरीत दिशा में विवरण मृदुल जलवायु का प्रेरक है। खगोलात्मक आधार पर ग्रीष्म और शीत जलवायु का आवागमन लगभग एक लाख वर्षों के अंतराल पर होता है। प्लाइस्टोसीन युग में ज्ञान हिमकालों से मोटे तौर पर इसकी पुष्टि होती है। (महाराज नारायण मेहरोत्रा)
Hindi Title
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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