प्रकृति ने नदियों को बनाते, बहाते समय देश-प्रदेश नहीं देखे थे। लेकिन अब देश-प्रदेश अपनी नदियों के टुकड़े कर रहे हैं। कावेरी का विवाद तो कटुता की सभी सीमाएं पार कर गया है। यह झगड़ा आज का नहीं, सौ बरस पुराना है। लेकिन नया है इस कटु प्रसंग में सख्य, सहयोग और संवाद का प्रयास। इसे बता रहे हैं महादेवन रामस्वामि।
विश्व की सभी महान नदियां मानव-जाति की अनेक सुविख्यात सभ्यताओं की जन्म-भूमि रही हैं। इन नदियों के किनारे उभरी और विकसित हुई इन सभ्यताओं का अस्तित्व बस नदी से जुड़ा रहा है। नदी ने उन्हें दैनिक जीवन की आवश्यकताओं के लिए जल प्रदान किया है। पीने का पानी, निस्तार के लिए पानी, सिंचाई के लिए पानी, पशुओं के लिए पानी, ऊर्जा के लिए पानी क्या नहीं दिया इनने। नदी पर नाव द्वारा प्रयाण करके उन्होंने अपनी आसपास की दुनिया के बारे में जाना और अन्य क्षेत्रों, पास और दूर के समाजों के साथ संबंध बनाया। मौसम व समय के अनुसार बदलती नदी की प्रणाली को आधार बनाकर इन सभ्यताओं ने अपनी जीवन-शैली, अपने रीति-रिवाज, लोक-कथाओं व मान्यताओं को ऐसे सुंदर तरीके से रचाया कि नदी का प्रवाह जीवन के हर काम में उनका मार्गदर्शक बन गया।लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि आज इन्हीं नदियों को दिव्य देन के रूप में देखने समझने के बजाय तरह-तरह की लालच, प्रदूषण और विवादों में परिवर्तित कर दिया है। यह प्रकृति के प्रति हमारे बदलते दृष्टिकोण के कारण हुआ है। मानव एक ऐसा दानव बन गया है जो समस्त सृष्टि को गुलाम बना उसे अपनी मन-मर्जी से चलाना और बदलना चाहता है। लेकिन अब इसके दुष्परिणाम सर्वत्र दिखने लगे हैं। जहां एक संबंध टूटा, वहां न जाने कितने अन्य संबंध बिखरने लग जाते हैं। जहां मनुष्य ने प्रकृति से लड़ाई शुरू की, वहां मनुष्य की मनुष्य से लड़ाई भी प्रारंभ हुई।
सन् 1894 में उस समय के मैसूर राज्य ने अपने क्षेत्र में तालाबों इत्यादि पर कुछ काम करना चाहा तो मद्रास प्रेसिडेन्सी ने इस पर आपत्ति जताई। तमिल लोगों में तब यह बात फैल गई कि उनकी सदियों पुरानी सिंचित खेती-बाड़ी की स्वस्थ, सुन्दर प्रथाओं पर इन कामों का बुरा असर होगा।
गांधीजी की कई साल पहले कही हुई बात आज के जन-जीवन के हर पहलू में, हर क्षेत्र और हर काम में सच साबित हो रही है कि सृष्टि हर व्यक्ति की जरूरतों को पूरा कर सकती है लेकिन वह किसी भी एक व्यक्ति के लोभ को संतुष्ट नहीं कर सकती। सर्वनाश की ओर तेजी से बढ़ती हम सब की इस कहानी में कुछ-कुछ जगह आशा की हल्की किरणें भी नजर आती हैं।बिगड़ते संबंधों को फिर से स्थापित करने तथा अपने जल संसाधनों को एक संतुलित, टिकाऊ तरीके से प्रयोग करने का एक ऐसा अनोखा व आशाजनक प्रयास है ‘कावेरी परिवार’। कावेरी हमारे देश की सप्त-सिंधुओं में से एक मानी जाती है। कर्नाटक तथा केरल से निकलते इसके अनेक स्रोत एक-दूसरे में मिलकर एक विशाल जल-धारा का रूप लेते हैं। फिर यह कर्नाटक और तमिलनाडु की विशाल भूमि से गुजरती हुई बंगाल की खाड़ी में शामिल हो जाती है। इस दौरान यह पुदुचेरी के दक्षिणी इलाके कारैकाल को भी छूती है।
475 किलोमीटर की लंबाई वाली यह नदी 72,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को मापती है। कावेरी उतनी ही पुण्यकारी मानी जाती है, जितनी कि गंगाजी। खासकर हम दक्षिण के लोगों की भावनाएं इससे बहुत ही गूढ़ रूप से जुड़ी रही थीं। जैसे-जैसे अधिक लाभ उठाने के नाम पर, आधुनिक विकास के नाम पर चिरकाल से चलते आ रहे संतुलित संबंधों पर प्रहार हुआ तो विवाद भी उभरने लगे।
कावेरी विवाद का इतिहास थोड़ा पुराना है। शुरुआत तो एक बहुत ही छोटी-सी बात से हुई थी। सन् 1894 में उस समय के मैसूर राज्य ने अपने क्षेत्र में तालाबों इत्यादि पर कुछ काम करना चाहा तो मद्रास प्रेसिडेन्सी ने इस पर आपत्ति जताई। तमिल लोगों में तब यह बात फैल गई कि उनकी सदियों पुरानी सिंचित खेती-बाड़ी की स्वस्थ, सुन्दर प्रथाओं पर इन कामों का बुरा असर होगा। यहां यह भी कहा जाना चाहिए कि बड़े स्तर पर सिंचित कृषि और उससे जुड़ी ‘आधुनिक विकास’ की कहानी में कर्नाटक या (तब का मैसूर) जरा देर से आने वाला पात्र रहा है। हालांकि यह भी सच है कि उसने इस रास्ते पर कदम जरूर देरी से रखा, पर पिछले बीस-तीस वर्षों में उसने इसे बड़ी तेजी से नापा है। उसकी चाल दौड़ में बदल गई है।
वापस लौटें सन् 1894 में। आपसी विचार-विमर्श व वार्तालाप से यह मामला कुछ समय के लिए निपट गया था। पर कुछ साल बाद जब दोनों क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बांध, जलाशय इत्यादि बनाने की चर्चा फिर से होने लगी, विशेष रूप से कृष्णराजसागर बांध तथा मेटूर जलाशय, तब दोनों पक्षों के बीच तनाव फिर से भड़क उठा। दूर दिल्ली की मध्यस्थता की मदद मिलने के बाद भी दोनों पक्ष किसी तरह के समझौते पर नहीं पहुंच पाए। मामला तब सात समंदर पार लंदन तक पहुंचा। भारत पर उस समय अंग्रेजी शासन था। वहां से तो बस यही आदेश आया कि आपस में समझौता करो। दोनों पक्ष गुलाम जो ठहरे। आदेश मिलने पर भला और क्या करते। दोनों मुख्य पात्र दुबारा मिले और सन् 1924 का समझौता हो गया। पर दोनों ही प्रांतों में और अधिक विकास करने की कामना कहिए या लालच के जग जाने से इस समझौते के आधार पर चलते रहना मुश्किल साबित होता गया। देश के दक्षिण में पड़ोसी से मित्रता का आदेश जितनी दूरी तय कर लंदन से आया, उतनी दूरी अपने आंगन में नहीं तय कर पाया। अगले सौ बरस तक यह मामला ऐसा ही उलझा पड़ा रहा। बीच में देश आजाद भी हो गया पर दोनों पक्षों के बीच पानी का विवाद कटुता, परस्पर अविश्वास की जंजीरों में ही जकड़ा रहा।
कावेरी का पानी आखिर अनंत तो नहीं है, वह तो सीमित है। उसका किसी भी प्रकार का बंटवारा हो, उसमें दोनों प्रदेशों को असीम विकास की मृगतृष्णा को समझदारी से त्याग कर यथार्थ से समझौता तो करना ही पड़ेगा। यह अहसास भी है कि ऐसा करना कोई दुखद बात नहीं होगी, क्योंकि बड़े बांध इत्यादि के निर्माण को छोड़कर जल संचयन जैसे कई अन्य व्यावहारिक विकल्प हैं, जिनसे वर्तमान स्थिति के मुकाबिले उतने ही पानी से कहीं अधिक लाभ पाया जा सकता है, और यह सब परस्पर हित व संबंध की नजर से ज्यादा फायदेमंद होंगे।
इस बीच तमिलनाडु सरकार ने उच्चतम न्यायालय से आग्रह किया कि समस्या समझौते से नहीं सुलझ रही है और इसलिए अब तो इसका न्यायिक समाधान होना चाहिए। आखिरकार सन् 1990 में उच्चतम न्यायालय के आदेश पर कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व पुदुचेरी के बीच कावेरी नदी के जल के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए एक ‘ट्रिब्युनल’ की घोषणा कर दी गई। ट्रिब्युनल ने सन् 1991 में अपना अंतरिम आदेश घोषित किया। इसमें उसने तमिलनाडु के किसानों के अनुरोध को ध्यान में रखते हुए इस विचाराधीन विषय में उन्हें अस्थायी रूप से राहत देने की कोशिश की। इस पर कर्नाटक में इसका तीव्र विरोध हुआ और वहां तमिलों के खिलाफ हिंसात्मक घटनाएं घटीं। हालांकि यह मात्र एक अंतरिम आदेश था, पर कर्नाटक के लोगों को लगा कि ट्रिब्युनल ने एकऐतिहासिक अन्याय पर कानूनी मुहर लगा दी है। उधर तमिलनाडु में भी इन सब बातों की प्रतिक्रिया उग्र रूप धारण करने लगी। दोनों प्रदेशों के आपसी संबंध अपने न्यूनतम स्तर पर गिर गए थे। और यह प्रांतीय विवाद भारतीय संविधान के ढांचे को ही हिलाने लगा।
खुशकिस्मती से यह उग्र रूप फिर कुछ शांत हुआ। सन् 1991 में फैली हिंसा दुबारा नहीं भड़की पर आने वाले सालों में वातावरण तो तनावपूर्ण ही बना रहा। दोनों प्रदेशों के बीच संबंध अक्सर बेहद नाजुक हो जाते और भंगुर नजर आते रहे। पांच में से चार सालों के दौरान जब दोनों राज्यों की भूमि पर पर्याप्त मात्रा में बारिश हुई तो कुल मिलाकर सब ठीक-सा ही रहा। पर कम बारिश के सालों में हर वक्त ऐसा लगता रहा कि अब फिर से एक महासंग्राम छिड़ जाने की आशंका है।
फरवरी 2007 में ट्रिब्युनल ने अपना अंतिम निर्णय घोषित किया। पर दोनों ही प्रदेशों ने उसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया है। दोनों ने ही ट्रिब्युनल के तौर-तरीकों के तहत उसके इस आदेश के स्पष्टीकरण हेतु अपनी-अपनी ओर से याचिकाएं भेजी हैं। साथ-साथ उन्होंने उच्चतम न्यायालय में भी ‘स्पेशल लीव पेटिशन’ दर्ज की है। इन सभी याचिकाओं पर ट्रिब्युनल व कोर्ट द्वारा कोई निर्णय अभी तक लिया नहीं गया है। कुल मिलाकर कानूनी स्तर पर मामला लटका हुआ है। इस सब में केरल व पुदुचेरी के लिए भी कोई स्पष्ट समाधान नहीं हो सका है। हालांकि ये दो पक्ष इस समस्या से उस हद तक प्रभावित नहीं हैं जितना कि दोनों मुख्य पक्ष कर्नाटक और तमिलनाडु हैं। दो मुख्य और दो गौण पक्ष चारों ही न्याय के दरवाजे पर बैठे हैं बस।
आज स्थिति यह है कि इस असमंजस से सभी पक्ष व्याकुल हैं। दो मुख्य पक्ष कर्नाटक तथा तमिलनाडु, दोनों ही प्रदेशों में इस विषय पर सही जानकारी रखने वाले लोगों को भीतर ही भीतर साफ मालूम है कि कावेरी का पानी आखिर अनंत तो नहीं है, वह तो सीमित है, उसका किसी भी प्रकार का बंटवारा हो, उसमें दोनों प्रदेशों को असीम विकास की मृगतृष्णा को समझदारी से त्याग कर यथार्थ से समझौता तो करना ही पड़ेगा। यह अहसास भी है कि ऐसा करना कोई दुखद बात नहीं होगी, क्योंकि बड़े बांध इत्यादि के निर्माण को छोड़कर जल संचयन जैसे कई अन्य व्यावहारिक विकल्प हैं, जिनसे वर्तमान स्थिति के मुकाबिले उतने ही पानी से कहीं अधिक लाभ पाया जा सकता है, और यह सब परस्पर हित व संबंध की नजर से ज्यादा फायदेमंद होंगे। पर आज दोनों प्रदेशों में इस विषय को लेकर इतनी कटुता, अविश्वास का वातावरण है कि कोई यदि ऐसा खुलकर सार्वजनिक सभा में या अखबारों पत्रिकाओं में कहे, तो उसे अपने-अपने प्रदेश के हित के विषय में गद्दार बता दिया जाएगा। इस मुद्दे पर प्रदेश में और उनके बीच राजनीति का खेल कुछ ऐसा ही खेला जा रहा है। दोनों ही जगह लोग भड़काए जा रहे हैं और विषय का असली स्वरूप उनके सामने नहीं रखा जा रहा है।
यह तो हुई गतिरोध और विवाद की पृष्ठभूमि। इसी पृष्ठभूमि में अमन और परस्पर समझ का बीज बोने के प्रयासों का भी एक अपना इतिहास है। 1991-92 में जब माहौल बहुत बुरी तरह से बिगड़ गया था तब कई समाज-सेवकों व बुद्धिजीवियों ने इस जटिल समस्या को किसी दूसरे तरीके से सुलझाने के रास्ते खोजने शुरू किए। मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के स्वर्गीय डा. एसगुहन ने इस दिशा में पहल की। उनकी अगुआई में अनेक स्थानों पर सार्वजनिक सभाएं आयोजित की गईं, जहां दोनों प्रदेशों से व समाज के अलग-अलग क्षेत्रों से समस्या पर गौर करने की इच्छा रखने वाले लोग एकत्रित हुए और उन सभी ने खुले मन से एक-दूसरे की बातों व मुद्दों को सुनने और समझने की कोशिश की। इसका प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे अखबारों व पत्रिकाओं में इस नए आयाम के बारे में कुछ थोड़ा-थोड़ा जिक्र भी होने लगा। अब तक दोनों प्रदेशों के अखबारों,
पत्रिकाओं, टी.वी. आदि में एक तरह की जो अघोषित सेंसरशिप-सी लगी थी, वह कुछ ढीली पड़ने लगी थी। लेकिन अफसोस कि शुरू की ये कोशिशें रफ्तार नहीं पकड़ पाईं और डा. गुहन का अकाल निधन हो जाने पर ऐसा लगा जैसे कि उनकी यह सदिच्छा, सद्भाव, समभाव भी अपनी आखिरी सांस ले चुका है।
पर यह तो हम सबका सद्भाव ही था कि ऐसा नहीं हो पाया। यह मात्र एक शुरुआत थी और इसके महत्व का सही अनुमान समाज को आने वाले सालों में दिखने वाला था। केन्द्र सरकार में लंबे समय तक जल-संसाधन सचिव रह चुके श्री रामस्वामि आर. अय्यर ने सन् 2002 में बेंगलुरू में बुद्धिजीवियों व तकनीकी विशेषज्ञों की एक बैठक आयोजित की। इस विषय पर प्रकाश डालने के लिए उन्होंने भी अखबारों-पत्रिकाओं में कई लेख लिखे। इन सब प्रयासों ने समस्या को राजनीति व कोर्ट-कचहरी के भयानक दलदल से निकालकर उसे विवेक के खुले आंगन में रखने की चेष्टा की।
आज से करीब 6 वर्ष पहले सन् 2003 में जनकराजनजी ने कावेरी पर प्रयास शुरू किए। उन्होंने कावेरी नदी द्रोणी के किसानों की पहली बड़ी बैठक आयोजित की। इसमें कर्नाटक तथा तमिलनाडु के किसान अपने बीच खड़े किए गए सारे झगड़ों को अलग रखकर पहली बार सद्भावना और मैत्री के वातावरण में एक दूसरे से मिले। इस अनोखे मेल का मनोभाव यह था कि हम दोनों कावेरी मां के बेटे-बेटी हैं। इसी दौरान समाधान प्रयास के लिए कावेरी परिवार जैसा सुंदर शीर्षक भी पहले लोगों के मनों में, फिर कागजों में भी अपनाया जाने लगा।
इन सभी प्रारंभिक प्रयासों की बुनियाद पर रचाया जाने वाला था कावेरी परिवार। पर वह अब भी एक ऐसी विभूति की प्रतीक्षा कर रहा था जो कि इस समस्या के समाधान को अपना ध्येय समझ उसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करें।डा.एस.जनकराजन के रूप में यह सज्जन सामने आए। और यह उचित ही था कि वे भी उसी संस्था, एम.आई.डी.एस. से जुड़े थे, जहां से इस कहानी की शुरुआत हुई थी। कावेरी की समस्या पर अपना ध्यान लगाने से पहले उन्होंने पालार नदी द्रोणी में कुछ ऐसा ही काम शुरू किया था। इसमें उन्होंने उस नदी के जल के उपयोग से सरोकार रखने वाले दोनों किनारों पर बसे सभी पणधारियों को संगठित किया। उन सबके बीच नदी से जुड़ी हर बात पर, हरेक विवाद पर आपसी संवाद प्रारंभ करवाया। यह प्रयास यद्यपि कावेरी की तुलना में बहुत छोटे पैमाने का था, फिर भी इससे उत्पन्न हुए अनुभव उनके लिए कावेरी समस्या से जूझने में बहुत लाभप्रद रहे।
आज से करीब 6 वर्ष पहले सन् 2003 में जनकराजनजी ने कावेरी पर प्रयास शुरू किए। उन्होंने कावेरी नदी द्रोणी के किसानों की पहली बड़ी बैठक आयोजित की। इसमें कर्नाटक तथा तमिलनाडु के किसान अपने बीच खड़े किए गए सारे झगड़ों को अलग रखकर पहली बार सद्भावना और मैत्री के वातावरण में एक दूसरे से मिले। इस अनोखे मेल का मनोभाव यह था कि हम दोनों कावेरी मां के बेटे-बेटी हैं।
इसी दौरान समाधान प्रयास के लिए कावेरी परिवार जैसा सुंदर शीर्षक भी पहले लोगों के मनों में, फिर कागजों में भी अपनाया जाने लगा।
कई साल बीत चुके हैं और इस बीच दोनों प्रदेशों के इन कृषकों के लिए कावेरी के जल की उपलब्धि के चित्र में समय और मौसम के अनुसार वही रूपांतर आते रहे हैं जो पहले से आते रहे थे, पर उनकी आपसी मैत्री वैसी ही बनी रही है, यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण प्राप्ति है। यह परिवार हर बार अपने विवादों को ताक पर रखकर कई बार बेंगलुरू, चेन्नई तथा इन महानगरों के अलावा दोनों प्रदेशों के अन्य छोटे शहरों में भी एकत्रित हुआ है। यहां किसानों की आवाज को प्राथमिकता दी गई है। डा. जनकराजन तथा प्रो. रामस्वामि अय्यर जैसे अन्य शुभचिंतकों व विशेषज्ञों ने भी इस प्रक्रिया में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाई हैं।
इन बैठकों के बाद दोनों प्रदेशों के किसान एक दूसरे के गांव भी गए हैं, जिससे उन्हें एक दूसरे की कृषि व जल संबंधी आवश्यकताओं तथा समस्याओं का प्रत्यक्ष रूप से अहसास हुआ है। राजनैतिक स्तर पर कावेरी विवाद अब भी काफी हद तक कठोरता कट्टरता और प्रांतीय स्वार्थीपन की संकीर्ण भाषा में संचालित किया जा रहा है, फिर भी प्रभावित होने वाले किसानों के बीच, मतभेद होते हुए भी कावेरी नदी की पौराणिक सुसंस्कृत सभ्यता की मिठास और सुगंध आज एक बार फिर उठ चली है।
आज राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस सुंदर व अद्भुत प्रयास की चर्चा भी होने लगी है। दोनों प्रदेशों में बाहर से कई पर्यवेक्षक और जिज्ञासु इस अनूठे आंदोलन को देखने समझने आ चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के यूनेस्को के द्वितीय ‘वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट’ के पृष्ठों में भी जल संसाधनों के सदुपयोग को एक सहभागी कर्तव्य बताते हुए, उदाहरण के रूप में ‘कावेरी परिवार’ का जिक्र किया गया है।
कानूनी प्रक्रिया फिलहाल अनिश्चित काल तक लटके जा रही है। एक-न-एक दिन सरकार को भी अंततः इस पर गौर करके कुछ निर्णय लेने ही पड़ेंगे। क्या कावेरी परिवार के सदस्यों के बीच यह सख्य, सहयोग और संवाद उस निर्णय के आ जाने के बाद भी बुलंद रहेगा? शायद इसका अनुमान लगाना इस वक्त संभव नहीं है। शायद यह हम सबका दायित्व बनता है कि हम इस प्रयास को और मजबूत व कारगर बनाने में अपना योगदान दें और देश, बल्कि समस्त विश्व के समक्ष इसे एक आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करें। निश्चित रूप से, यदि गांधीजी आज हमारे बीच होते तो वे यही कहते, यही करते।
युवा महादेवन रामस्वामि सामाजिक विषयों पर प्रेरक फिल्में बनाते हैं। मातृभाषा तमिल, कामकाजी भाषा अंग्रेजी होते हुए भी यह उनका हिन्दी में लिखा गया पहला लेख है।
यहां गांधी मार्ग का अंक भी संलग्न है, जिनको प्रिंट संस्करण पढ़ना हो, वे डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं।