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मासानोबू फुकूओका पर लिखी गई पुस्तक 'द वन स्ट्रा रेवोल्यूशन'
बिना हल से जुते खेतों में फसलें लगाना हमें खेती के आदिम तरीके की तरफ लौटना नजर आ सकता है। लेकिन पिछले बरसों के दौरान विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं तथा देश भर में फैले कृषि परीक्षण केंद्रों में यह प्रमाणित किया जा चुका है कि यह विधि प्रचलित सभी विधियों से ज्यादा सफल तथा कार्यप्रभावी है।
अपने काम को घड़ी भर रोक, मैं अपनी दरांती की लंबी मूठ के सहारे टिक कर, दूर पहाड़ियों की ओर तथा नीचे गांव को निहारता हूं। बड़ा अचरज होता है मुझे यह देखकर कि लोगों के विचार ऋतु-चक्र से भी ज्यादा तेजी से बदलने लगे हैं। प्राकृतिक-तरीके से खेती करने का मैंने यह जो रास्ता चुना है उसे पहले ही विज्ञान की दुःसाहसी प्रगति और आविष्कारों के विरुद्ध प्रतिक्रिया कहा गया। जब कि यहां देहात में आकर खेती करते हुए जो चीज मैं लोगों को बताने की कोशिश कर रहा हूं, वह यह है कि, मानवता को अभी कुछ पता नहीं है। चूंकि दुनिया इससे ठीक विपरीत दिशा में इतनी तेजी से बढ़ रही है कि लोगों को ऐसा लग सकता है कि मैं समय के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहा हूं। लेकिन मैं पूरे विश्वास के साथ मानता हूं कि मैं जिस राह पर चल रहा हूं वही सबसे समझदारी का रास्ता है।पिछले कुछ बरसों के दौरान प्राकृतिक खेती में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या काफी बढ़ी है। ऐसा लगता है कि वैज्ञानिक विकास की सीमा भी अब आ गई है, उसके बारे में गलत धारणाओं का अहसास लोगों को होने लगा है और उसके पुनर्मूल्यांकन की घड़ी आ गयी है। जिस चीज को अब तक पिछड़ापन या प्रागैतिहासिक माना जाता था उसे अब आधुनिक विज्ञान से आगे की चीज माना जाने लगा है। पहली बार तो यह बात कुछ अजीब सी लग सकती है, लेकिन मुझे वह जरा भी वैसी नहीं लगती।
मैंने हाल में ही इस बात की चर्चा क्योतो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आईनुमा से भी की। आज से एक हजार वर्ष पूर्व जापान में खेती बिना जुताई के की जाती थी। 300-400 वर्ष पहले तोलूगाता-युग में भी यही स्थिति रही। उसके बाद पहली बार उथली खेती की शुरुआत की गई। जापान में गहरी जुताई का आगमन पाश्चात्य खेती के आगमन से हुआ। मैंने उनसे कहा कि भविष्य की समस्याओं से निपटने के लिए आनेवाली पीढ़ियों को वापस गैर-जुताई विधियों की तरफ लौटना होगा।
बिना हल से जुते खेतों में फसलें लगाना हमें खेती के आदिम तरीके की तरफ लौटना नजर आ सकता है। लेकिन पिछले बरसों के दौरान विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं तथा देश भर में फैले कृषि परीक्षण केंद्रों में यह प्रमाणित किया जा चुका है कि यह विधि प्रचलित सभी विधियों से ज्यादा सफल तथा कार्यप्रभावी है। हालांकि खेती की यह विधि आधुनिक-विज्ञान को नकारती है। वह अब आधुनिक कृषि-विकास प्रक्रिया के सबसे अगले मोर्चे पर आ खड़ी हुई है।
मैंने सीधी बुआई - बिना जुताई के, बारी-बारी से खरीफ के अनाज और चावल की खेती की है विधि कृषि पत्रिकाओं में बीस बरस से भी पहले प्रकाशित की थी, और तब से अब तक उस बारे में कई बार छपता रहा है। आम जनता को रेडियो और टेलिविजन कार्यक्रमों से भी उसका पता चला, लेकिन किसी ने भी उस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। अब, लेकिन अचानक प्राकृतिक खेती जैसे फैशन में आ गई है। ढेर सारे पत्रकार, प्रोफेसर तथा तकनीकी अनुसंधान-कर्ता मेरे खेतों तथा पहाड़ी पर स्थित मेरी कुटिया में मुझे से मिलने आने लगे हैं।
भिन्न-भिन्न लोग इसे भिन्न-भिन्न कोणों से देखते हैं। अपने हिसाब से उसकी व्याख्या करते हैं और चले जाते हैं। किसी को यह खेती आदिम लगती है तो किसी को पिछड़ी हुई और कुछ को यह कृषि-उपलब्धियों का शिखर चूमती नजर आती है। तथा वे उसे भविष्य की सबसे बड़ी सफलता मानते हैं। आमतौर से लोगों को सिर्फ इस बात से मतलब है कि - यह विधि भविष्य की प्रगति का प्रतीक है या पुराने जमाने का पुनरागमन है। कुछ ही लोग इस तथ्य को ठीक से पकड़ पाते हैं कि – प्राकृतिक कृषि का उद्गम कृषि विकास के सनातन तथा अपरिवर्तनशील केंद्र से ही होता है।
लोग जिस प्रमाण में स्वयं को प्रकृति से दूर करते हैं उतने ही ज्यादा दूर वे, इस केंद्र से होते चले जाते हैं, लेकिन इसके साथ ही एक केंद्राभिमुखी प्रभाव अपने आपको अभिव्यक्त करता है, और उनमें प्रकृति की गोद में वापस लौटने की इच्छा बलवती होने लगती है। लेकिन यदि लोग सिर्फ प्रतिक्रिया के चक्कर में पड़कर, परिस्थितियों के अनुसार केवल बाएं या दाएं सरककर ही रह जाते हैं, तो उसका नतीजा और अधिक क्रियाओं के रूप में सामने आता है। उद्गम का स्थित केंद्र, जो सापेक्षता के नियमों के दायरे के बाहर होता है, उसकी तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता और वे उसकी ओर अनदेखी कर जाते हैं। मेरे विचार से तो ‘प्रकृति को वापस लौटने’ तथा प्रदूषण विरोधी गतिविधियां, भले ही वे कितनी ही प्रशंसनीय क्यों न हों, तो भी किसी वास्तविक हल की तरफ अग्रसर नहीं होतीं। यदि वे आज के इस अंधा-धुन्ध विकास की मात्र प्रतिक्रियाएँ होकर रह जाती हैं।
प्रकृति कभी नहीं बदलती, परंतु प्रकृति के प्रति हमारा नजरिया हर युग में हमेशा बदलता रहा है। कोई भी युग हो, कृषि के आदिम स्रोत के रूप में प्राकृतिक खेती का अस्तित्व हमेशा बना रहता है।