होली भारत ही समेत पूरे विश्व में धूमधाम से मनाई जाती है। यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें भाषा, जाति और धर्म का सभी दीवारें गिर जाती हैं।जो सही मायने में इसकी विशेषता को दर्शाता है। लेकिन इस आधुनिकता दौड़ में यह अब उतनी खूबसूरत नहीं रही है। दूसरे त्योहारों की तरह इस त्योहार पर भी साफ़ तौर से बाजारवाद का प्रभाव नजर आता है। मुनाफा कमाने की होड़ में रसायनिक रंग बहुतायत से बाजार में बेचे जा रहे हैं जिसका हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। आइए, देखते हैं कि आधुनिक होली हमारे पर्यावरण को किस तरह प्रभावित कर रही है तथा अपने पर्यावरण को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
पहले रंग बनाने के लिए रॉ मैटीरियल के रूप में रंग-बिरंगे फूलों का प्रयोग किया जाता था। अपने चिकित्सीय गुणों के कारण इन फूलों से बना रंग त्वचा को निखारने का काम करता था। लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे नगरों का विस्तार हुआ पेड़ों की संख्या में कमी आने लगी इसके साथ ही रंगों से जुड़े नफे-नुकसान की भी चर्चा होने लगी। फूलों से रंग बनाना मँहगा पड़ता, इसलिए नफे को ध्यान रखते हुए रंगों को बनाने के लिए रसायनिक प्रक्रिया का सहारा लिया जाने लगा। यह व्यापार की दृष्टि से तो मुनाफे का सौदा था, पर स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए अत्यन्त नुकसानदायक।
एक अध्ययन के अनुसार होली के रंगों को बनाने के लिए जिन जहरीले रसायनों का प्रयोग किया जाता है उनका स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसे काला रंग बनाने के लिए लेड ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता है जिससे किडनी फेल होने का खतरा होता है। इसी तरह हरा रंग कॉपर सल्फेट से बनता है इसका कुप्रभाव सीधा आँखों पर पड़ता है, जिसके कारण आँखों में एलर्जी, सूजन तथा व्यक्ति अस्थायी रूप से अंधा भी हो सकता है। लाल रंग मरक्यूरी सल्फाइट से बनता है, यह रसायन अत्यंत जहरीला होता है और इससे त्वचा का कैंसर हो सकता है।
सूखे रंगों से होली खेलने वाले प्रायः गुलाल का प्रयोग करते हैं। गुलाल मुख्यतः दो घटको सें मिलकर बनता है - कोलोरेंट जो जहरीला होता है और उसका आधार सिलिका या एस्बेसेटॉस हो सकता है, इन दोनों से ही स्वास्थ्य समस्याएं खड़ी हो सकती है। कोलोरेंट में हैवी मैटल होता है जिसके कारण अस्थमा हो सकता है, त्वचा में खुजली की शिकायत हो सकती है तथा यह आँखों पर भी विपरीत प्रभाव डालता है।
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इन दिनों दुकानदार सड़क के किनारे रंगों की दुकान सजा लेते हैं। इन दुकानदारों को इस बात की जानकारी नहीं होती कि ये रंग कहां और कैसे बनते हैं। ग्राहकों की जरूरत के हिसाब से पुड़िया बना कर ये रंग बेचते हैं। कभी-कभी ऐसे रंग भी बाजार में होली के रंगों के नाम पर बिक जाते हैं जिनके डिब्बों पर साफ तौर पर लिखा रहता है कि इनका प्रयोग केवल औद्योगिक उपयोग के लिए किया जा सकता है।
तो क्यों न इस बार होली में बाहर से रंग खरीदने के बजाय आप अपने घर पर इन रंगों को बनाएं। यह बहुत आसान है-
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रंग बनाने का तरीका
- पीला हल्दी और बेसन मिलाकर
- गेंदे या टेसू के फूलों को पानी में उबालकर
इसी तरह आप और रंग भी घर पर बना सकते हैं। और यदि आप घर पर रंग नहीं बना रहे हैं बाजार में खुले रंग की बजाय हर्बल रंग खरीदने की कोशिश करिए। रंग खरीदने से पहले आपके लिए यह जानना जरूरी है कि आप जो रंग खरीद रहे है, वह किन तत्त्वों से और कैसे बना है।
- गहरा गुलाबी चुकंदर को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर पानी में भिगो दीजिए। रात भर भीगने दीजिए और सुबह पानी छान लीजिए।
- लाल और संतरी रंग मेंहदी सुखाकर, पीस लीजिए और फिर इसको पानी में मिला दीजिए।
अब हरे पेड़ होते हैं होलिका में
होलिका दहन की परम्परा पर्यावरण के लिए दूसरी बड़ी समस्या है। अनुमानतः एक होली में लगभग सौ किलो लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। और ये होलिकादहन शहर में एक से अधिक स्थानों पर होते है तथा इसके आयोजकों का प्रयास होता है कि उनकी होली का आकार दूसरे की होली से बड़ा हो, इस प्रतिस्पर्द्धा में होलिकादहन के नाम पर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट दिया जाता है। हम होलिका दहन के विरोधी नहीं हैं, पर यदि हर चौराहे पर होलिका दहन करने के बजाय शहर में एक जगह होलिकादहन किया जाए तो इससे हमारी आस्था को भी ठेस नहीं लगेगी और पेड़ भी बच जाएंगे।
होली के दिन लोग जम कर रंग खेलते हैं और बाद में साबुन पानी की मदद से रंग छुड़ते हैं। इसमें सामान्य से तीन गुना अधिक पानी खर्च होता है। जानकारों का मानना है कि यदि हमने आज पानी की बर्बादी नहीं रोकी, तो हमारी भावी पीढ़ी होली का मजा नहीं ले सकेंगी। होली के मौसम में पानी एक-दूसरे जरूर डालिए, पर सीमित मात्रा में। देश में पानी की समस्या को देखते पानी बचाना बहुत जरूरी है, इसलिए पानी बर्बाद मत करिए। होली खेलने के लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करिए, इन्हें छुटाना आसान होता है। आप इको फ्रैंडली रंगों के साथ सूखी होली खेल कर भी पानी की बचत कर सकते हैं। होली खेलने के लिए गुब्बारों या प्लास्टिक की थैली का प्रयोग न करें, इससे दुर्घटना हो सकती है तथासाथ ही इसके कारण सड़क में चारो तरफ प्लास्टिक का कचरा फैल जाता। जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है।
एक सामाजिक पर्व होने के नाते यह किसी एक परिवार तक सीमित नहीं होता, इसलिए होली के कारण हमारे पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचे, इसकी जिम्मेदारी पूरे समाज पर आती है। इको फ्रैंडली होली का सपना तभी पूरा हो सकता जब समाज का प्रत्येक वर्ग जो इसे मनाता है इसमें अपना सहयोग दे। इसके लिए एक जन-जागरण अभियान की जरूरत है। लोगों को समझना होगा कि उनके थोड़े से प्रयास का पर्यावरण पर कितना अनुकूल असर पड़ता है। एक बार बात समझ में आने पर इस तरह के परिवर्तन के लिए उन्हें खुद को तैयार करना आसान हो जाएगा। हमारे लिए इको फ्रैंडली होली का विचार नया हो सकता है, पर अगर हम मथुरा-वृंदावन की होली देखें तो पाएंगे कि वहां होली गुलाल और फूलों की पंखुड़ियों से ही खेली जाती है। और इससे उनके त्योहार के आनंद में कोई कमी नहीं आती। वे ही नहीं वहां आने वाले विदेशी भी इस होली का आनंद उठाते हैं। तो दोस्तो, इस बार पर्यावरण और अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए इको फ्रैंडली होली का आनंद उठाइए। आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं।