इमली वनस्पति, शमीधान्यकुल (लेग्युमीनोसी), प्रजाति टैमेरिंडस इंडिका लिन्न। भारत का यह सर्वप्रिय पेड़ उष्ण भागों के वनों में स्वयं उत्पन्न होने के अतिरिक्त गाँवों और नगरों में बागों और कुंजों को वृक्षाच्छादित और शोभायमान बनाने के लिए बोया भी जाता है। बहुत सूखे और अत्यंत गरम स्थानों को छोड़कर अन्यत्र यह पेड़ सदा हरा रहनेवाला, ३० मीटर तक ऊँचा, ४.५ मीटर से भी अधिक गोलाईवाला और फैलावदार, घना शिखरयुक्त होता है। इसकी पत्तियाँ छोटी, १ सेंटीमीटर के लगभग लंबी और ५-१२.५ सेंटीमीटर लंबी एँठी के दोनों और १० से २० तक जुड़ी होती है। फूट छोटे, पीले और लाल धारियों के होते हैं। फली ७.५-२० सेंटीमीटर लंबी, १ सेंटीमीटर मोटी, २.५ सेंटीमीटर चौड़ी, कुरकुरे छिलके से ढकी होती हैं। पकी फलियों के भीतर कत्थई रंग का रेशेदार, खट्टा गूदा रहता है। नई पत्तियाँ मार्च अप्रैल में, फूल अप्रैल जून में और गुद्देदार फल फरवरी अप्रैल में निकल आते हैं। वृक्ष की छाल गहरा भूरा रंग लिए मोटी और बहुत फटी सी होती है। लकड़ी ठस और कड़ी होने के कारण धान की ओखली, तिलहन और ऊख पेरने के यंत्र, साजसज्जा का सामान तथा औजारों के दस्ते बनाने और खरीदने के काम में विशेषतया उपयुक्त होती है। फलियों के भीतर चमकदार खोलीवाले, चपटे और कड़े ३-१० बीज रहते हैं। बंदर इन फलियों को बहुत शौक से खाकर बीजों को इधर धर वनों में फेंककर इन पेड़ों के संवर्धन में सहायक होते हैं। इस पेड़े की पत्ती, फूल, फली की खोली, बीज, छाल, लकड़ी और जड़ का भारतीय ओषधों में उपयोग होता है। स्तंभक, रेचक, स्वादिष्ट, पाचक और टारटरिक अम्लप्रधान होने से इसकी फलियाँ सबसे अधिक आर्थिक महत्व की हैं। इस फलियों के गुद्दे का निरंतर उपयोग भारतीय खाद्य पदार्थो में विविध प्रकार से किया जाता है। वन अनुसंधानशाला, देहरादून, के रसायनज्ञों ने इमली के बीजों में से टी.के.पी. (टैमैरिंड सीड करनल पाउडर) नामक माड़ी बनाकर कपड़ा, सूत और पटसन के उद्योग की प्रशंसनीय सहायता की है।
सं.ग्रं.आर.एस.ट्रप : द सिलवीकल्चर ऑव इंडियन ट्रीज़, आक्सफोर्ड, भाग २, पृ. ३६२६६, १९२१; के.आर. कीर्तिकर और बी.डी.बसु : इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स, भाग २, पृ.८८७-९०। (स.)
आयुर्वेद में इमलीइमली को संस्कृत में अम्ल, तिंत्राणि, चिंचा इत्यादि, बँगला में तेंतुल, मराठी में चिंच, गुजराती में अमली, अंग्रेजी में टैमैरिंड तथा लैटिन में टैमैरिंडस इंडिका कहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इमली की पत्ती कर्ण, नेत्र और रक्त के रोग, सर्पदंश तथा शीतला (चेचक) में उपयोगी है। शीतला में पत्तियों और हल्दी से तैयार किया पेय दिया जाता है। पत्तियों के क्वाथ से पुराने नासूरों को धोने से लाभ होता है। इसके फूल कसैले, खट्टे और अग्निदीपक होते हैं तथा वात,कफ, और प्रमेह का नाश करते हैं। कच्ची इमली खट्टी, अग्निदीपक, मलरोधक, वातनाशक तथा गरम होती हैं, किंतु साथ ही साथ यह पित्तजनक, कफकारक तथा रक्त और रक्तपित्त को कुपित करनेवाली है।
पक्की इमली मधुर, हृदय को शक्तिदायक, दीपक, वस्तिशोधक तथा कृमिनाशक बताई गई है। इमली स्कर्वी को रोकने और दूर करने की मूल्यवान् ओषाधि है। इमली के बीजों के ऊपर का लाल छिलका अतिसार, रक्तातिसार तथा पेचिश की उत्तम ओषधि है। बीजों को उबाल और पीसकर बनाई गई पुल्टिस फोड़ों तथा प्रादाहिक सूजन में विशेष उपयोगी है। (भ.दा.व.)
सं.ग्रं.आर.एस.ट्रप : द सिलवीकल्चर ऑव इंडियन ट्रीज़, आक्सफोर्ड, भाग २, पृ. ३६२६६, १९२१; के.आर. कीर्तिकर और बी.डी.बसु : इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स, भाग २, पृ.८८७-९०। (स.)
आयुर्वेद में इमलीइमली को संस्कृत में अम्ल, तिंत्राणि, चिंचा इत्यादि, बँगला में तेंतुल, मराठी में चिंच, गुजराती में अमली, अंग्रेजी में टैमैरिंड तथा लैटिन में टैमैरिंडस इंडिका कहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इमली की पत्ती कर्ण, नेत्र और रक्त के रोग, सर्पदंश तथा शीतला (चेचक) में उपयोगी है। शीतला में पत्तियों और हल्दी से तैयार किया पेय दिया जाता है। पत्तियों के क्वाथ से पुराने नासूरों को धोने से लाभ होता है। इसके फूल कसैले, खट्टे और अग्निदीपक होते हैं तथा वात,कफ, और प्रमेह का नाश करते हैं। कच्ची इमली खट्टी, अग्निदीपक, मलरोधक, वातनाशक तथा गरम होती हैं, किंतु साथ ही साथ यह पित्तजनक, कफकारक तथा रक्त और रक्तपित्त को कुपित करनेवाली है।
पक्की इमली मधुर, हृदय को शक्तिदायक, दीपक, वस्तिशोधक तथा कृमिनाशक बताई गई है। इमली स्कर्वी को रोकने और दूर करने की मूल्यवान् ओषाधि है। इमली के बीजों के ऊपर का लाल छिलका अतिसार, रक्तातिसार तथा पेचिश की उत्तम ओषधि है। बीजों को उबाल और पीसकर बनाई गई पुल्टिस फोड़ों तथा प्रादाहिक सूजन में विशेष उपयोगी है। (भ.दा.व.)
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