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सर्वोदय प्रेस सर्विस, दिसम्बर 2015
इण्डिया एवं भारत के बीच की खाई अब विकराल रूप लेती जा रही है। सबसे दुखद बात तो यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें ‘इण्डिया’ के विकास के लिये ‘भारत’ को नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई हैं। विकास के नाम पर भारत के दलितों, जनजातियों एवं किसानों से उनकी उपजाऊ जमीनें कम्पनियों के लिये छीनकर उन्हें बेदखल किया जा रहा है। भारत सरकार नए-नए कानूनों एवं अध्यादेशों के माध्यम से उन्हें बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। मानव जीवन के सृष्टिकाल से ही मानव का अपने पर्यावरण के साथ अगाध सम्बन्ध है। मनुष्य अपनी जरूरत की चीजें पर्यावरण से लेता रहा है। वस्तुतः वह भी स्वयं प्रकृति का एक अंग है। परन्तु जब मानव सभ्यता स्थायी हुई और पहले समाज एवं बाद में सरकार नामक संस्थाओं का गठन शुरू हुआ तभी से मानव जीवन में दूसरे शक्तिशाली मानव की दखलअंदाजी भी प्रारम्भ हो गई।
भारत के सन्दर्भ में कहें तो आदिकाल से अंग्रेजों के आने तक प्राकृतिक संसाधनों की मालिकियत जनसमुदाय के हाथों में सुरक्षित रही। परन्तु अंग्रेजों के शासनकाल में सभी संसाधनों से धन वसूली की चाहत ने लोेगों से यह अधिकार छीन लिये।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद हालांकि संविधान में सिद्धान्त : संसाधनों पर जन-समुदाय को नियंत्रण दिया गया है परन्तु गैर संवैधानिक ढंग से सरकारों ने इन्हें अपने हाथों में रख लिया तथा इनके लूट की खुली छूट देशी एवं विदेशी कम्पनियों को दे दी है।
विकास एवं रोज़गार के नाम पर हमारे देश का एक वर्ग सरकारों के इन कुकृत्यों का समर्थक एवं पोषक बना हुआ है। तथाकथित विकास के इस दौर में देश के अन्दर स्पष्टतः दो देश दिख रहे हैं। इनमें से एक का नेतृत्व इसके 10-15 प्रतिशत लोग कर रहे हैं जो देश को ‘इण्डिया’ कहते हैं और जिन्होंने देश के 70-80 प्रतिशत संसाधनों पर कब्ज़ा कर रखा है।
यह देश भारत का शोषक है। दूसरे भाग में 85-90 प्रतिशत लोेग निवास करते हैं जो अपने देश को भारत के नाम से जानते हैं और जिनके हिस्से में देश के 20-30 प्रतिशत संसाधन आ पाते हैं। इसी भारत में शोषित समाज जिनमें किसान, कारीगर, एवं अन्य मेहनतकश ग्रामीण शामिल हैं, निवास करते हैं।
इण्डिया एवं भारत के बीच की खाई अब विकराल रूप लेती जा रही है। सबसे दुखद बात तो यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें ‘इण्डिया’ के विकास के लिये ‘भारत’ को नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई हैं। विकास के नाम पर भारत के दलितों, जनजातियों एवं किसानों से उनकी उपजाऊ जमीनें कम्पनियों के लिये छीनकर उन्हें बेदखल किया जा रहा है।
भारत सरकार नए-नए कानूनों एवं अध्यादेशों के माध्यम से उन्हें बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। कारपोरेट शक्तियों के हाथों देश के संसाधनों को बुरे तरीके से लुटवाया जा रहा है। आज का भारत एक तरह से इण्डिया का उपनिवेश बनकर रह गया है।
सौभाग्यवश इस लूट के खिलाफ संघर्ष करने वाले मुट्ठी भर लोग वास्तविक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि अपने संसाधनों की रक्षा करने वाले यह तमाम संघर्षशील लोग बिखरे हुए हैं। इन लोगों की स्थिति कबीले जैसी है।
प्रत्येक कबीला प्रमुख अपने आप को श्रेष्ठ तथा दूसरे नेतृत्व को कमतर समझता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि सभी बचाने वाले अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं जबकि संसाधनों को लूटने वाले एकजुट होकर आम जनता पर लगातार आक्रमण कर रहे हैं।
समय की पुकार है कि ऐसे तमाम संघर्षशील अपने-अपने कबीलों से बाहर निकलकर एकजुट हों तथा सभी प्राकृतिक संसाधनों जो जनसमुदाय के हैं, उनकी रक्षा एवं उस पर मालिकियत स्थापित करने के लिये साझा संघर्ष प्रारम्भ किया जाये।
भारत का संविधान (अनुच्छेद 39 बी) भी संसाधनों पर जनसमुदाय की मालिकियत की बात करता है। सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में (8 जुलाई 2013 दावा नं. दीवानी अपील 4549/2000) यहाँ तक कह दिया गया कि ज़मीन मालिक ही खनिज का मालिक है सरकारें नहीं। इतने स्पष्ट फैसले के बावजूद वर्तमान मोदी सरकार ने एक और कानून बनाकर खनिज लूट को बेतहाशा बढ़ाया गया है। अब तो रायल्टी के नाम पर देश को ठगा जा रहा है।
खनिजों पर मालिकियत की अनिवार्यता को समझने के लिये झारखण्ड में कोयला एवं सोना भण्डार को देख सकते हैं। अन्य खनिजों की लूट को शामिल कर दिया जाये तो यह लूट लगभग 1000 गुना हो जाएगी।
झारखण्ड सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ग्रीन कॉरिडोर’ के अनुसार झारखण्ड में सोने का भण्डार 72 मिलियन टन है यानी 7 करोड़ 20 लाख टन अर्थात 72 अरब किलोग्राम। अगर भारत की आबादी अगले दो वर्षाें में 144 करोड़ हो जाये तो भारत में प्रति व्यक्ति 50 किलोग्राम सोना भण्डार सिर्फ झारखण्ड में है।
यह भण्डार यहाँ की सरकार ने न्यूजीलैंड की दो कम्पनियों को खनन के लिये दिया है। इसी प्रकार झारखण्ड में कोयला का भण्डार है 69000 मिलियन टन जिसकी बाजार भाव 3000 रु. प्रति टन के हिसाब से कुल कीमत आती है 207 मिलियन रुपए। इसका अर्थ हुआ 2 करोड़ 7 लाख करोड़ रुपए। अर्थात झारखण्ड से सिर्फ कोयला मद में देश के एक व्यक्ति के हिस्से के एक लाख 65 हजार रु. कम्पनियों को दिये जा रहे हैं। इसी तरह समूचे देश की सम्पत्ति का ब्योरा लगाया जा सकता है।
अतएव संघर्ष के साथियों के बीच यह प्रश्न उठता है कि इस लूट को चुपचाप सहते रहें या इसके खिलाफ एकजुट होकर इसे रोकें तथा इन संसाधनों पर जनसमुदाय के स्वामित्व की दिशा में आगे बढ़ें। हमें अब मुआवजा तथा पुनर्वास के बहकावे से ऊपर उठना होगा। तभी भारत के 70-80 प्रतिशत जनता की भलाई हो पाएगी तथा उन्हें इज़्ज़त की जिन्दगी नसीब हो पाएगी अन्यथा वे उजड़ते रहेंगे और गुमनामी के अंधेरे में खोते रहेंगे।
अब वक्त आ गया है जब हम व्यक्तिवादी विचार त्यागकर अपने क्षेत्र व समूह के अलावा बाकी सबको भी साथ लेकर चलने का विचार अपनाकर समूचे देश के सुनहरे भविष्य सँवारने के लिये एक साथ कदम बढ़ाएँ।
भारत के सन्दर्भ में कहें तो आदिकाल से अंग्रेजों के आने तक प्राकृतिक संसाधनों की मालिकियत जनसमुदाय के हाथों में सुरक्षित रही। परन्तु अंग्रेजों के शासनकाल में सभी संसाधनों से धन वसूली की चाहत ने लोेगों से यह अधिकार छीन लिये।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद हालांकि संविधान में सिद्धान्त : संसाधनों पर जन-समुदाय को नियंत्रण दिया गया है परन्तु गैर संवैधानिक ढंग से सरकारों ने इन्हें अपने हाथों में रख लिया तथा इनके लूट की खुली छूट देशी एवं विदेशी कम्पनियों को दे दी है।
विकास एवं रोज़गार के नाम पर हमारे देश का एक वर्ग सरकारों के इन कुकृत्यों का समर्थक एवं पोषक बना हुआ है। तथाकथित विकास के इस दौर में देश के अन्दर स्पष्टतः दो देश दिख रहे हैं। इनमें से एक का नेतृत्व इसके 10-15 प्रतिशत लोग कर रहे हैं जो देश को ‘इण्डिया’ कहते हैं और जिन्होंने देश के 70-80 प्रतिशत संसाधनों पर कब्ज़ा कर रखा है।
यह देश भारत का शोषक है। दूसरे भाग में 85-90 प्रतिशत लोेग निवास करते हैं जो अपने देश को भारत के नाम से जानते हैं और जिनके हिस्से में देश के 20-30 प्रतिशत संसाधन आ पाते हैं। इसी भारत में शोषित समाज जिनमें किसान, कारीगर, एवं अन्य मेहनतकश ग्रामीण शामिल हैं, निवास करते हैं।
इण्डिया एवं भारत के बीच की खाई अब विकराल रूप लेती जा रही है। सबसे दुखद बात तो यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें ‘इण्डिया’ के विकास के लिये ‘भारत’ को नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई हैं। विकास के नाम पर भारत के दलितों, जनजातियों एवं किसानों से उनकी उपजाऊ जमीनें कम्पनियों के लिये छीनकर उन्हें बेदखल किया जा रहा है।
भारत सरकार नए-नए कानूनों एवं अध्यादेशों के माध्यम से उन्हें बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। कारपोरेट शक्तियों के हाथों देश के संसाधनों को बुरे तरीके से लुटवाया जा रहा है। आज का भारत एक तरह से इण्डिया का उपनिवेश बनकर रह गया है।
सौभाग्यवश इस लूट के खिलाफ संघर्ष करने वाले मुट्ठी भर लोग वास्तविक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि अपने संसाधनों की रक्षा करने वाले यह तमाम संघर्षशील लोग बिखरे हुए हैं। इन लोगों की स्थिति कबीले जैसी है।
प्रत्येक कबीला प्रमुख अपने आप को श्रेष्ठ तथा दूसरे नेतृत्व को कमतर समझता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि सभी बचाने वाले अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं जबकि संसाधनों को लूटने वाले एकजुट होकर आम जनता पर लगातार आक्रमण कर रहे हैं।
समय की पुकार है कि ऐसे तमाम संघर्षशील अपने-अपने कबीलों से बाहर निकलकर एकजुट हों तथा सभी प्राकृतिक संसाधनों जो जनसमुदाय के हैं, उनकी रक्षा एवं उस पर मालिकियत स्थापित करने के लिये साझा संघर्ष प्रारम्भ किया जाये।
भारत का संविधान (अनुच्छेद 39 बी) भी संसाधनों पर जनसमुदाय की मालिकियत की बात करता है। सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में (8 जुलाई 2013 दावा नं. दीवानी अपील 4549/2000) यहाँ तक कह दिया गया कि ज़मीन मालिक ही खनिज का मालिक है सरकारें नहीं। इतने स्पष्ट फैसले के बावजूद वर्तमान मोदी सरकार ने एक और कानून बनाकर खनिज लूट को बेतहाशा बढ़ाया गया है। अब तो रायल्टी के नाम पर देश को ठगा जा रहा है।
खनिजों पर मालिकियत की अनिवार्यता को समझने के लिये झारखण्ड में कोयला एवं सोना भण्डार को देख सकते हैं। अन्य खनिजों की लूट को शामिल कर दिया जाये तो यह लूट लगभग 1000 गुना हो जाएगी।
झारखण्ड सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ग्रीन कॉरिडोर’ के अनुसार झारखण्ड में सोने का भण्डार 72 मिलियन टन है यानी 7 करोड़ 20 लाख टन अर्थात 72 अरब किलोग्राम। अगर भारत की आबादी अगले दो वर्षाें में 144 करोड़ हो जाये तो भारत में प्रति व्यक्ति 50 किलोग्राम सोना भण्डार सिर्फ झारखण्ड में है।
यह भण्डार यहाँ की सरकार ने न्यूजीलैंड की दो कम्पनियों को खनन के लिये दिया है। इसी प्रकार झारखण्ड में कोयला का भण्डार है 69000 मिलियन टन जिसकी बाजार भाव 3000 रु. प्रति टन के हिसाब से कुल कीमत आती है 207 मिलियन रुपए। इसका अर्थ हुआ 2 करोड़ 7 लाख करोड़ रुपए। अर्थात झारखण्ड से सिर्फ कोयला मद में देश के एक व्यक्ति के हिस्से के एक लाख 65 हजार रु. कम्पनियों को दिये जा रहे हैं। इसी तरह समूचे देश की सम्पत्ति का ब्योरा लगाया जा सकता है।
अतएव संघर्ष के साथियों के बीच यह प्रश्न उठता है कि इस लूट को चुपचाप सहते रहें या इसके खिलाफ एकजुट होकर इसे रोकें तथा इन संसाधनों पर जनसमुदाय के स्वामित्व की दिशा में आगे बढ़ें। हमें अब मुआवजा तथा पुनर्वास के बहकावे से ऊपर उठना होगा। तभी भारत के 70-80 प्रतिशत जनता की भलाई हो पाएगी तथा उन्हें इज़्ज़त की जिन्दगी नसीब हो पाएगी अन्यथा वे उजड़ते रहेंगे और गुमनामी के अंधेरे में खोते रहेंगे।
अब वक्त आ गया है जब हम व्यक्तिवादी विचार त्यागकर अपने क्षेत्र व समूह के अलावा बाकी सबको भी साथ लेकर चलने का विचार अपनाकर समूचे देश के सुनहरे भविष्य सँवारने के लिये एक साथ कदम बढ़ाएँ।