इंस्टिट्यूशन ऑव इंजीनियर्स (इंडिया) भारत में इंजीनियरी विज्ञान के विकास के लिए एक संस्था की आवश्यकता समझकर ३ जनवरी, १९१९ को प्रस्तावित 'भारतीय इंजीनियर समाज' (इंडियन सोसाइटी ऑव इंजीनियर्स) के लिए टामस हालैंड की अध्यक्षता में कलकत्ते में एक संघटन समिति बनाई गई। सन् १९१३ के भारतीय कंपनी अधिनियम के अंतर्गत १३ सितंबर, १९२० को इस समाज का जन्म इंस्टिट्यूशन ऑव इंजीनियर्स (इंडिया) (भारतीय इंजिनियर्स संस्था) के नए नाम से मद्रास (चेन्नई) में हुआ। फिर २३ फरवरी, १९२१ को इसका उद्घाटन बड़े समारोह से कलकत्ता नगर में भारत के वाइसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड द्वारा किया गया। नवजात संस्था को सुदृढ़ बनाने का काम धीरे धीरे होता रहा।
तदनंतर स्थानीय संस्थाओं का जन्म होने लगा। सन् १९२० में जहाँ इस संस्था की सदस्यसंख्या केवल १३८ थी वहाँ सन् १९२६ में हजार पार कर गई। सन् १९२१ से संस्था ने एक त्रैमासिक पत्रिका निकालना आरंभ किया और जून, १९२३ से एक त्रैमासिक बुलेटिन (विवरणपत्रिका) भी उसके साथ निकलने लगा। सन् १९२८ से इस संस्था ने अपनी ऐसोशिएट मेंबरशिप (सहयोगी सदस्यता) के लिए परीक्षाएँ लेनी आरंभ कीं, जिनका स्तर सरकार ने इंजीनियरी कालेज की बी. एस. सी. डिग्री के बराबर माना।
१९ दिसंबर, १९३० को तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन ने इसके अपने निजी भवन का शिलान्यास ८, गोखले मार्ग, कलकत्ता में किया। १ जनवरी, १९३२ को संस्था का कार्यालय नई इमारत में चला आया। ९ सितंबर, १९३५ को सम्राट् पंचम जार्ज ने इसके संबंध में एक राजकीय घोषणपत्र स्वीकार किया। घोषणापत्र के द्वितीय अनुच्छेद में इस संस्था के कर्त्तव्य संक्षेप में इस प्रकार बताए गए हैं :
''जिन लक्ष्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भारतीय इंजीनियर संस्था की स्थापना की जा रही है, वे हैं इंजीनियरी तथा इंजीनियरी विज्ञान के सामान्य विकास को बढ़ाना, भारत में उनको कार्यान्वित करना तथा इस संस्था से संबद्ध व्यक्तियों एवं सदस्यों को इंजीनियरी संबंधी विषयों पर सूचना प्राप्त करने एवं विचारों का आदन-प्रदान करने में सुविधाएँ देना।''
इस संस्था की शाखाएँ धीरे धीरे देश भर में फैलने लगीं। समय पर मैसूर, हैदराबाद, लंदन, पंजाब और बंबई में इसके केंद्र खुले। मई, १९४३ से एसोशिएट मेंबरशिप की परीक्षाएँ वर्ष में दो बार ली जाने लगीं। प्राविधिक कार्यों के लिए सन् १९४४ में इसके चार बड़े विभाग स्थापित किए गए। सिविल, मिकैनिकल (यांत्रिक), इलेक्ट्रिकल (वैद्युत) और जेनरल (सामान्य) इंजीनियरी। प्रत्येक विभाग के लिए अलग अलग अध्यक्ष तीन वर्ष की अवधि के लिए निर्वाचित किए जाने लगे।सन् १९४५ में कलकत्ते में इसकी रजत जयंती मनाई गई। सन् १९४७ में बिहार, मध्यप्रांत, सिंध, बलूचिस्तान और तिरुवांकुर, इन चार स्थानों में नए केंद्र खुले। भारत के राज्यपुनर्गठन के पश्चात् अब प्रत्येक राज्य में एक केंद्र खोला जा रहा है।
प्रशासनसंस्था का प्रशासन एक परिषद् करती है, जिसका प्रधान संस्था का अध्यक्ष होता है। परिषद् की सहायता के लिए तीन मुख्य स्थायी समितियाँ हैं : (क) वित्त समिति (इसी के साथ १९५२ में प्रशासन समिति सम्मिलित कर दी गई), (ख) आवेदनपत्र समिति और (ग) परीक्षा समिति। प्रधान कार्यालय का प्रशासन सचिव करता है। सचिव ही इस संस्था का वरिष्ठ अधिकारी होता है।
सदस्यतासदस्य मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं : (क) कॉर्पोरेट (आंगिक) और (ख) नॉन-कॉर्पोरेट (निरांगिक)। पहले में सदस्यों एवं सहयोगी सदस्यों की गणना की जाती है। द्वितीय प्रकार के सदस्यों में आदरणीय सदस्य, बंधु (कंपैनियन), स्नातक, छात्र, संबद्ध सदस्य और सहायक (सब्स्क्राइबर)की गणना होती है। प्रथम प्रकार के सदस्य राजकीय घोषणापत्र के अनुसार 'चार्टर्ड इंजीनियर' संज्ञा के अधिकारी हैं। प्रथम प्रकार की सदस्यता के लिए आवेदक की योग्यता मुख्यत: निम्नलिखित बातों पर निर्धारित की जाती है : समुचित सामान्य एवं इंजीनियरी शिक्षा का प्रमाण ; इंजीनियर रूप में समुचित व्यावहारिक प्रशिक्षण; एक ऐसे पद पर होना जिसमें इंजीनियर के रूप में उत्तरदायित्व हो और साथ ही व्यक्तिगत ईमानदारी। सन् '५७-५८' के अंत तक सदस्यों की संख्या २० हजार से अधिक हो चुकी थी, जिसमें प्रथम प्रकार के सदस्यों की संख्या ६,७२३ और छात्रों की १२,८०७ थी।
परीक्षाएँइस संस्था की ओर से वर्ष में दो बार परीक्षाएँ ली जाती हैंएक मई महीने में और दूसरी नवंबर महीने में। एक परीक्षा छात्रों के लिए होती है और दूसरी सहयोगी सदस्यता के लिए। संघ लोक सेवा आयोग (यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन) ने सहयोगी सदस्यता परीक्षा को अच्छी इंजीनियरी डिग्री परीक्षा के समकक्ष मान्यता दे रखी है। इतना ही नहीं, जिन विश्वविद्यालयों की उपाधियों तथा अन्यान्य डिप्लोमाओं को संस्था अपनी सहयोगी सदस्यता के लिए मान्यता प्रदान करती है उन्हीं को संघ लोक सेवा आयोग केंद्रीय सरकार की इंजीनियरी सेवाओं के लिए उपयुक्त मानता है। अधिकतर राज्य सरकारें तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाएँ भी ऐसा ही करती हैं। नई उपाधि अथवा डिप्लोमा को मान्यता प्रदान करने के लिए संस्था ने निम्नलिखित कार्यविधि स्थिर कर रखी है। पहले विश्वविद्यालय अथवा संस्था के अधिकारी की ओर से मान्यता के लिए आवेदनपत्र आता है। तदनंतर परिषद् एक समिति नियुक्त करती है जो शिक्षास्थान पर जाकर पाठ्यक्रम का स्तर और उसकी उपयुक्तता, परीक्षाएँ, अध्यापक, साधन एवं अन्यान्य सुविधाओं की जाँच कर अपनी रिपोर्ट परिषद् को देती है। उसके बाद ही परिषद् मान्यता संबंधी अपना निर्णय देती है।
प्रकाशन'जर्नल' और 'बुलेटिन' संस्था के मुख्य प्रकाशन हैं, जो मई, १९५५ से मासिक हो गए हैं। जर्नल के पहले अंक में सिविल और सामान्य इंजीनियरी के लेख होते है और दूसरे में यांत्रिक और विद्युत इंजीनियरी के। ये लेख संबंधित विभाग के अध्यक्ष की स्वीकृति पर छापे जाते हैं और इनसे देश में इंजीनियरी की प्रत्येक शाखा की प्रगति क आभास मिलता है। सितंबर, १९४९ में जर्नल में एक हिंदी विभाग भी खोला गया, जो अब सुदृढ़ हो गया है।
'बुलेटिन' का प्रकाशन १९३९ में बंद कर दिया गया था, किंतु १९५१ से वह फिर प्रकाशित हो रहा है। इस पत्रिका में सामन्य लेख, संस्था की गतिविधियों का लेखा लोखा, संपादकीय टिप्पणियाँ आदि प्रकाशित होती हैं। इसके अलावा समय-समय पर संस्था की ओर से विभिन्न विषयों पर पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित की जाती हैं। इस प्रकार प्रकाशन का कार्य नियमित रूप से चलता रहता है। प्रतिवर्ष जर्नल में प्रकाशित उत्कृष्ट लेखों के लेखकों को पारितोषिक भी दिए जाते हैं।
अन्यान्य संस्थाओं में प्रतिनिधित्वइस संस्था का एक लक्ष्य यह भी है कि यह उन विश्वविद्यालयों एवं अन्यान्य शिक्षाधिकारियों से सहयोग करे जो इंजीनियर की शिक्षा को गति प्रदान करने में संलग्न रहते हैं। विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षासंस्थाओं की प्रबंध समितियों में भी इसका प्रतिनिधित्व है। यह संस्था 'कान्फ़रेंस ऑव इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूशंस ऑव द कॉमनवेल्थ' से भी संबद्ध है।
वार्षिक अधिवेशनप्रत्येक स्थानीय केंद्र का वार्षिक अधिवेशन दिसंबर मास में होता है। मुख्य संस्था का वार्षिक अधिवेशन बारी-बारी से प्रत्येक केंद्र में, उसके निमंत्रण पर, जनवरी या फरवरी मास में होता है, जिसमें सारे देश के सब प्रकार के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जर्नल में प्रकाशित महत्वपूर्ण लेखों पर बाद विवाद होता है। संस्था प्राचीन संस्कृत बाङ्मय के वास्तुशास्त्र संबंधी मुद्रित और हस्तलिखित ग्रंथों और उससे संबंधित अर्वाचीन साहित्य का संग्रह भी नागपुर केंद्र में कर रही है।
इस प्रकार यह संस्था देश के विविध इंजीनियरी व्यवसायों में लगे इंजीनियरों को एक सामाजिक संगठन में बांधकर इंजीनियरी विज्ञान के विकास का भरसक प्रयत्न करती है। (बा.कृ.शे.)
तदनंतर स्थानीय संस्थाओं का जन्म होने लगा। सन् १९२० में जहाँ इस संस्था की सदस्यसंख्या केवल १३८ थी वहाँ सन् १९२६ में हजार पार कर गई। सन् १९२१ से संस्था ने एक त्रैमासिक पत्रिका निकालना आरंभ किया और जून, १९२३ से एक त्रैमासिक बुलेटिन (विवरणपत्रिका) भी उसके साथ निकलने लगा। सन् १९२८ से इस संस्था ने अपनी ऐसोशिएट मेंबरशिप (सहयोगी सदस्यता) के लिए परीक्षाएँ लेनी आरंभ कीं, जिनका स्तर सरकार ने इंजीनियरी कालेज की बी. एस. सी. डिग्री के बराबर माना।
१९ दिसंबर, १९३० को तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन ने इसके अपने निजी भवन का शिलान्यास ८, गोखले मार्ग, कलकत्ता में किया। १ जनवरी, १९३२ को संस्था का कार्यालय नई इमारत में चला आया। ९ सितंबर, १९३५ को सम्राट् पंचम जार्ज ने इसके संबंध में एक राजकीय घोषणपत्र स्वीकार किया। घोषणापत्र के द्वितीय अनुच्छेद में इस संस्था के कर्त्तव्य संक्षेप में इस प्रकार बताए गए हैं :
''जिन लक्ष्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भारतीय इंजीनियर संस्था की स्थापना की जा रही है, वे हैं इंजीनियरी तथा इंजीनियरी विज्ञान के सामान्य विकास को बढ़ाना, भारत में उनको कार्यान्वित करना तथा इस संस्था से संबद्ध व्यक्तियों एवं सदस्यों को इंजीनियरी संबंधी विषयों पर सूचना प्राप्त करने एवं विचारों का आदन-प्रदान करने में सुविधाएँ देना।''
इस संस्था की शाखाएँ धीरे धीरे देश भर में फैलने लगीं। समय पर मैसूर, हैदराबाद, लंदन, पंजाब और बंबई में इसके केंद्र खुले। मई, १९४३ से एसोशिएट मेंबरशिप की परीक्षाएँ वर्ष में दो बार ली जाने लगीं। प्राविधिक कार्यों के लिए सन् १९४४ में इसके चार बड़े विभाग स्थापित किए गए। सिविल, मिकैनिकल (यांत्रिक), इलेक्ट्रिकल (वैद्युत) और जेनरल (सामान्य) इंजीनियरी। प्रत्येक विभाग के लिए अलग अलग अध्यक्ष तीन वर्ष की अवधि के लिए निर्वाचित किए जाने लगे।सन् १९४५ में कलकत्ते में इसकी रजत जयंती मनाई गई। सन् १९४७ में बिहार, मध्यप्रांत, सिंध, बलूचिस्तान और तिरुवांकुर, इन चार स्थानों में नए केंद्र खुले। भारत के राज्यपुनर्गठन के पश्चात् अब प्रत्येक राज्य में एक केंद्र खोला जा रहा है।
प्रशासनसंस्था का प्रशासन एक परिषद् करती है, जिसका प्रधान संस्था का अध्यक्ष होता है। परिषद् की सहायता के लिए तीन मुख्य स्थायी समितियाँ हैं : (क) वित्त समिति (इसी के साथ १९५२ में प्रशासन समिति सम्मिलित कर दी गई), (ख) आवेदनपत्र समिति और (ग) परीक्षा समिति। प्रधान कार्यालय का प्रशासन सचिव करता है। सचिव ही इस संस्था का वरिष्ठ अधिकारी होता है।
सदस्यतासदस्य मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं : (क) कॉर्पोरेट (आंगिक) और (ख) नॉन-कॉर्पोरेट (निरांगिक)। पहले में सदस्यों एवं सहयोगी सदस्यों की गणना की जाती है। द्वितीय प्रकार के सदस्यों में आदरणीय सदस्य, बंधु (कंपैनियन), स्नातक, छात्र, संबद्ध सदस्य और सहायक (सब्स्क्राइबर)की गणना होती है। प्रथम प्रकार के सदस्य राजकीय घोषणापत्र के अनुसार 'चार्टर्ड इंजीनियर' संज्ञा के अधिकारी हैं। प्रथम प्रकार की सदस्यता के लिए आवेदक की योग्यता मुख्यत: निम्नलिखित बातों पर निर्धारित की जाती है : समुचित सामान्य एवं इंजीनियरी शिक्षा का प्रमाण ; इंजीनियर रूप में समुचित व्यावहारिक प्रशिक्षण; एक ऐसे पद पर होना जिसमें इंजीनियर के रूप में उत्तरदायित्व हो और साथ ही व्यक्तिगत ईमानदारी। सन् '५७-५८' के अंत तक सदस्यों की संख्या २० हजार से अधिक हो चुकी थी, जिसमें प्रथम प्रकार के सदस्यों की संख्या ६,७२३ और छात्रों की १२,८०७ थी।
परीक्षाएँइस संस्था की ओर से वर्ष में दो बार परीक्षाएँ ली जाती हैंएक मई महीने में और दूसरी नवंबर महीने में। एक परीक्षा छात्रों के लिए होती है और दूसरी सहयोगी सदस्यता के लिए। संघ लोक सेवा आयोग (यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन) ने सहयोगी सदस्यता परीक्षा को अच्छी इंजीनियरी डिग्री परीक्षा के समकक्ष मान्यता दे रखी है। इतना ही नहीं, जिन विश्वविद्यालयों की उपाधियों तथा अन्यान्य डिप्लोमाओं को संस्था अपनी सहयोगी सदस्यता के लिए मान्यता प्रदान करती है उन्हीं को संघ लोक सेवा आयोग केंद्रीय सरकार की इंजीनियरी सेवाओं के लिए उपयुक्त मानता है। अधिकतर राज्य सरकारें तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाएँ भी ऐसा ही करती हैं। नई उपाधि अथवा डिप्लोमा को मान्यता प्रदान करने के लिए संस्था ने निम्नलिखित कार्यविधि स्थिर कर रखी है। पहले विश्वविद्यालय अथवा संस्था के अधिकारी की ओर से मान्यता के लिए आवेदनपत्र आता है। तदनंतर परिषद् एक समिति नियुक्त करती है जो शिक्षास्थान पर जाकर पाठ्यक्रम का स्तर और उसकी उपयुक्तता, परीक्षाएँ, अध्यापक, साधन एवं अन्यान्य सुविधाओं की जाँच कर अपनी रिपोर्ट परिषद् को देती है। उसके बाद ही परिषद् मान्यता संबंधी अपना निर्णय देती है।
प्रकाशन'जर्नल' और 'बुलेटिन' संस्था के मुख्य प्रकाशन हैं, जो मई, १९५५ से मासिक हो गए हैं। जर्नल के पहले अंक में सिविल और सामान्य इंजीनियरी के लेख होते है और दूसरे में यांत्रिक और विद्युत इंजीनियरी के। ये लेख संबंधित विभाग के अध्यक्ष की स्वीकृति पर छापे जाते हैं और इनसे देश में इंजीनियरी की प्रत्येक शाखा की प्रगति क आभास मिलता है। सितंबर, १९४९ में जर्नल में एक हिंदी विभाग भी खोला गया, जो अब सुदृढ़ हो गया है।
'बुलेटिन' का प्रकाशन १९३९ में बंद कर दिया गया था, किंतु १९५१ से वह फिर प्रकाशित हो रहा है। इस पत्रिका में सामन्य लेख, संस्था की गतिविधियों का लेखा लोखा, संपादकीय टिप्पणियाँ आदि प्रकाशित होती हैं। इसके अलावा समय-समय पर संस्था की ओर से विभिन्न विषयों पर पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित की जाती हैं। इस प्रकार प्रकाशन का कार्य नियमित रूप से चलता रहता है। प्रतिवर्ष जर्नल में प्रकाशित उत्कृष्ट लेखों के लेखकों को पारितोषिक भी दिए जाते हैं।
अन्यान्य संस्थाओं में प्रतिनिधित्वइस संस्था का एक लक्ष्य यह भी है कि यह उन विश्वविद्यालयों एवं अन्यान्य शिक्षाधिकारियों से सहयोग करे जो इंजीनियर की शिक्षा को गति प्रदान करने में संलग्न रहते हैं। विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षासंस्थाओं की प्रबंध समितियों में भी इसका प्रतिनिधित्व है। यह संस्था 'कान्फ़रेंस ऑव इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूशंस ऑव द कॉमनवेल्थ' से भी संबद्ध है।
वार्षिक अधिवेशनप्रत्येक स्थानीय केंद्र का वार्षिक अधिवेशन दिसंबर मास में होता है। मुख्य संस्था का वार्षिक अधिवेशन बारी-बारी से प्रत्येक केंद्र में, उसके निमंत्रण पर, जनवरी या फरवरी मास में होता है, जिसमें सारे देश के सब प्रकार के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जर्नल में प्रकाशित महत्वपूर्ण लेखों पर बाद विवाद होता है। संस्था प्राचीन संस्कृत बाङ्मय के वास्तुशास्त्र संबंधी मुद्रित और हस्तलिखित ग्रंथों और उससे संबंधित अर्वाचीन साहित्य का संग्रह भी नागपुर केंद्र में कर रही है।
इस प्रकार यह संस्था देश के विविध इंजीनियरी व्यवसायों में लगे इंजीनियरों को एक सामाजिक संगठन में बांधकर इंजीनियरी विज्ञान के विकास का भरसक प्रयत्न करती है। (बा.कृ.शे.)
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