इसलिए बंजर हो रही उपजाऊ जमीन

Submitted by Hindi on Mon, 07/01/2013 - 11:48
Source
दैनिक भास्कर (ईपेपर), 01 जुलाई 2013
भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल, नहरों से होने वाले जल प्लावन के साथ-साथ ईंट निर्माण और बिजलीघरों से निकलने वाली राख भी उपजाऊ मिट्टी निगल रहे हैं। मिट्टी की ईंट बनाने वाले देशों में दूसरे नंबर पर रहने वाले भारत में हर साल लगभग 265 अरब ईंटें बनती हैं। इन ईंटों को बनाने में 54 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी इस्तेमाल की जाती है। नतीजतन हर साल उपजाऊ जमीन का 50 हजार एकड़ रकबा हमेशा के लिए परती में तब्दील हो जाता है। पानी को लेकर तीसरा विश्व युद्ध छिड़ने और तेल खत्म होने की भविष्यवाणियां तो अक्सर की जाती हैं लेकिन अरबों लोगों का पेट भरने वाली मिट्टी पर मंडराते संकट की चर्चा यदाकदा ही होती है। मिट्टी की जीवंतता और संपन्नता का प्रमाण इससे मिलता है कि एक मुट्ठी मिट्टी अपने भीतर हजारों केचुएं, बैक्टीरिया, फंगस और अन्य सूक्ष्म जीवों को समेटे रहती है।

मिट्टी के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस मिट्टी की दो सेंटीमीटर मोटी परत बनने में 500 साल लग जाते हैं वह महज कुछ ही सेकेंडों में नष्ट हो जाती है। इसके बावजूद हर साल 1.2 करोड़ हेक्टेयर उपजाऊ मिट्टी बंजर में तब्दील होती जा रही है। इस मिट्टी से दो करोड़ टन खाद्यान्न पैदा किया जा सकता है। अपरदन के चलते पिछले 40 वर्षों में धरती की 30 फीसदी उपजाऊ मिट्टी अनुत्पादक बन चुकी है। विशेषज्ञों के मुताबिक यदि इस प्रवृत्ति को रोका नहीं गया तो दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरना असंभव हो जाएगा। गौरतलब है कि जिस रफ्तार से दुनिया की आबादी और लोगों की क्रय क्षमता बढ़ रही है उसे देखते हुए 2050 में 2006 की तुलना में 60 फीसदी अधिक अनाज की जरूरत पड़ेगी। मिट्टी अपरदन के साथ-साथ शहरों का फैलाव भी उपजाऊ मिट्टी के लिए काल बन गया है। गौरतलब है कि शहरी आबादी में 10 लाख की बढ़ोतरी 40,000 हेक्टेयर कृषि भूमि को निगल जाती है। एक अन्य अनुमान के मुताबिक औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण दुनिया में हर साल करीब 24 अरब टन उपजाऊ मिट्टी नष्ट हो रही है।

मिट्टी अपरदन का सीधा संबंध ग्लोबल वार्मिंग से भी है क्योंकि अपरदन से मिट्टी में समाहित कार्बन निकलकर वायुमंडल में मिल जाता है। जब एक पौधा उगता है तो वह वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड खींचकर ऑक्सीजन देता है। पौधों के सूखने पर उसमें समाहित कार्बन डाई ऑक्साइड मिट्टी में मिल जाती है। स्पष्ट है कार्बन भंडारण की सबसे सुरक्षित जगह है मिट्टी। मिट्टी को 1.5 फीसदी कार्बन की जरूरत होती है। कार्बन से परिपूर्ण मिट्टी सूखे जैसे मौसमी उतार-चढ़ाव को सफलतापूर्वक झेल लेती है। लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश मिट्टी में 30 से 60 फीसदी तक कार्बन की कमी है।

भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल, नहरों से होने वाले जल प्लावन के साथ-साथ ईंट निर्माण और बिजलीघरों से निकलने वाली राख भी उपजाऊ मिट्टी निगल रहे हैं। मिट्टी की ईंट बनाने वाले देशों में दूसरे नंबर पर रहने वाले भारत में हर साल लगभग 265 अरब ईंटें बनती हैं। इन ईंटों को बनाने में 54 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी इस्तेमाल की जाती है। नतीजतन हर साल उपजाऊ जमीन का 50 हजार एकड़ रकबा हमेशा के लिए परती में तब्दील हो जाता है। इस प्रकार लोगों को छत मुहैया कराने वाली ईंट देश की उपजाऊ मिट्टी को बंजर बना रही है। देश के निर्माण क्षेत्र में ईंट की मांग लगातार बढ़ रही है। ऐसे में आने वाले समय में यह समस्या और गंभीर होगी। इसी को देखते हुए विशेषज्ञ ईंट निर्माण में नई तकनीक के इस्तेमाल करने का सुझाव दे रहे हैं।

ईंट निर्माण की भांति तापीय बिजलीघरों से निकलने वाली राख (फ्लाई एश) भी बिजलीघरों के आसपास की हजारों एकड़ उपजाऊ मिट्टी को दफन कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक देश के बिजलीघरों में इस्तेमाल होने वाले कोयले से हर साल 17 करोड़ टन राख निकलती है। इसी को देखते हुए वैज्ञानिक बिजलीघरों की राख से ईंट बनाने का सुझाव दे रहे हैं। इससे न सिर्फ प्रदूषण की समस्या कम होगी बल्कि ईंट के लिए मिट्टी की मांग में भी कमी आएगी। सबसे बढ़कर इस राख से बनने वाली ईंट की क्वालिटी भी बेहतर मानी गई है। इन बहुआयामी लाभों के बावजूद अब तक कुल फ्लाई एश का सिर्फ 6.3 फीसदी ही ईंट निर्माण में इस्तेमाल हो रहा है। सरकार ने 2009 से ही ताप बिजलीघरों के सौ किलोमीटर के दायरे में सभी निर्माण कार्यों में फ्लाई एश का इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया है लेकिन अब तक इसे सीमित सफलता मिली है। उपजाऊ मिट्टी के बंजर बनने की तेज रफ्तार के बावजूद परती जमीन को खेती लायक बनाने के लिए मिली केंद्रीय मदद का उपयोग करने में ज्यादातर राज्य फिसड्डी साबित हुए हैं। स्पष्ट है आने वाले दिनों में खाद्य सुरक्षा के लिए दुनिया को मिट्टी संरक्षण के एक नए मोर्चे पर जूझना पड़ेगा।

लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं।