जैविक विविधता का सिमटता दायरा

Submitted by admin on Sat, 05/03/2014 - 10:07
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चरखा फीचर्स, मई 2014
परंपरा से जैविक विविधता की एक समृद्ध विरासत हमें मिली है। इसे सहेजना और अगली पीढ़ी को सौंपना हमारी नैतिक जिम्मेवारी है। हमें यह भी सोचना है कि इस घुड़दौड़ से कहीं हमारी जमीन ही बंजर न हो जाए। धरती से सब कुछ एक साथ निचोड़ लेने की होड़, हमें आज दो रोटी अधिक भले ही दे दे, कल निश्चित रूप से भुखमरी ही देगी। सपाट शब्दों में कहा जाए तो यह आने वाले पीढ़ी के साथ डकैती है, वह पीढ़ी जो अभी आई ही नहीं और उसे हम लूट रहे हैं। दशकों तक दक्षिण बिहार के किसानों को कथित आधुनिक खेती की तकनीक अपनाए जाने की प्रेरणा दी जाती रही, वहीं परंपरागत तकनीक और बीजों को पिछड़ा और अलाभकर बतलाते हुए छोड़ने की सलाह। पईन, पोखर, आहर, नाला की पंरपरागत व्यवस्था के बदले डीजल इंजन, पंप सेट लगवाने पर जोर दिया जाता रहा।

जैविक खेती के बदले रासायनिक खेती को प्रोत्साहित- प्रसारित किया जाता रहा और आज भी यह प्रक्रिया जारी है। परंपरागत बीजों और जैविक खाद के बदले हाइब्रीड बीज और रासायनिक खाद के प्रचार-प्रसार की आक्रामक रणनीतियां बनाई जाती रही, पर आज सच्चाई यह है कि मात्र तीन दशकों की इस आधुनिक खेती से अब दक्षिण बिहार के किसानों का दम घुटने लगा है। इस आधुनिक खेती से सामाजिक आर्थिक संरचना में आये बदलाव से इनकी सांसे उखड़ने लगी है।

आधुनिक खेती के कारण फूड हैबिट में आए बदलाव ने कई मुसीबतों को जन्म दिया है। किसानों पर कर्ज का बोझ निरतंर बढ़ता ही जा रहा है। अब किसानी सम्मान और स्वालंबन का पेशा नहीं रहा। इलाके के सजग किसान कहते हैं कि कथित आधुनिक खेती की ओर बढ़ने की रफ्तार यदि यही रही तो वह दिन दूर नहीं जब दक्षिण बिहार से भी सामूहिक आत्महत्या या आत्महत्या की खबरें आने लगेंगी। सबसे बड़ा सवाल तो मध्य बिहार की जैविक विविधता पर खड़ा हो गया है।

देसी बीज, मछलियों का लोप हो गया है, गांव -गांव, आहर-पोखर में सहजता से मिलने वाली बुल्ला, गरई, बहिरा गरई, औंधा, ईचना, पत्थल चटवा, धंधी, बोआरी, चलहवा, डोरी मछलियां अब खोजे नहीं मिलतीं। आहर-पोखर में अब सिर्फ रोहू, मांगुर पाले जा रही हैं।

किसानों का कहना है कि जिस आहर में मांगुर का बीज डाला जाता है, उसमें दूसरी मछलियां तो क्या मेढक-ढास भी पनप नहीं पाते। बड़े-बड़े मेंढक, ढास, सांप को भी मांगुर मछली चट कर जाती है और इसके कारण धान के खेतों में विचरण करते रहने वाली धामन, डोरवा, हरहोरवा आदि सांप समाप्त होते जा रहे हैं।

पीढ़ियों से प्रयोग में आने वाले देशी बीज, जिनके स्वाद का मुकाबला आज के हाईब्रीड बीज नहीं कर सकते, अब बड़े-बूढ़ों की स्मृतियों में ही शेष बचे हैं। साठी, सिरहठी, बलदेवा, चार सौ अठावन, जौंजिया, लौगिंया, कोदो, फुलभन्टवा, डुब्बा, पिअरवा, हल्दी मोहन, दूध ग्लास, भन्टवा, कारीबाक, शेरमार आदि देशी प्रजातियों का लोप हो चुका है।

धान की इन देशी प्रजातियों में न तो खाद की जरुरत होती थी और न ही कीटनाशकों की। बिल में रहने वाला, किसानों का मित्र माना जाता रहा केकड़ा भी अब दिखाई नहीं पड़ता। जबकि आज से दो दशक पूर्व तक इन केकड़ों से गरीब-गुरबा को कैल्शियम की प्राप्ति तो होती ही थी, मुंह का जायका भी बदलता था। पाली जा रही हाईब्रीड मछलियां मात्र कुछ सम्पन्न किसानों के लिए ही हैं।

गांव-समाज का स्थापित प्रभुत्वकारी समूह ही इसे आहर-पोखर में डालता है और खरीदने की सामर्थ भी रखता है, मछली अब खेत से सिमट कर आहर-पोखर में अटक गई है। जबकि आज से मात्र तीन दशक पूर्व तक, जब देशी प्रजाति की मछलियों का अस्तित्व था, मछलियां धान के खेतों में बिखरी रहती थीं, तब यह आम किसानों और भू-मजदूरों के लिए सहज उपलब्ध थीं। अब तो सीमांत किसानों और भू-मजदूरों के लिए आहर पोखर में पलने वाली हाईब्रीड मछलियां खाने की नहीं, देखने की चीज बन गई हैं।

दलित, सीमांत किसान और भू-मजदूर आज भी उन दिनों को याद कर रोमांचित होते हैं, जब खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता था और आहर-पोखर की कौन कहे, धान के खेतों में भी विभिन्न प्रकार की देशी मछलियां फैली रहती थीं जब मन चाहा पकड़ा और मुंह का जायका बदल लिया। जरुरत है इस कथित आधुनिक खेती की घुड़दौड़ से बाहर निकल पूरी परिस्थिति का सही सोच और समझ के साथ समग्र मूल्यांकन किया जाए।

क्योंकि सिर्फ अधिक और अधिक उपज ही हमारा उद्देश्य नहीं हो सकता। बोधगया भू-आन्दोलन के केन्द्र में रह कर इस इलाके के दलित भूमिहीनों के बीच तकरीबन 10 एकड़ जमीन का वितरण करवाने में सफल रहे कौशल गणेश आजाद कहते हैं कि इस कथित आधुनिक खेती से खाद्य सुरक्षा भी तो हासिल नहीं की जा सकी, 70 के दशक में जब हमारा आन्दोलन अपने चरम पर था तब गरीबी तो थी पर दलित-मुसहर कम से कम सड़ा मांस खाने को विवष नहीं थे, उन्हें अपने खेतों से ही पर्याप्त मछलियां मिल जाती थीं।

आज हालत यह है कि 2006-07 में मोहनपुर थाने के बोंगीया गांव के मुसहरों ने पेट की आग को शांत करने के लिए जमीन में गड़े हुए जानवर को दो दिन बाद निकाल कर खा लिया और इससे 14 दलितों की मौत हो गई, यह उनकी विवशता थी, कोई शौक से सड़ा-गला मांस तो नहीं खाता। 70 का दशक और आज की आधुनिक खेती में बेहतर कौन है, तब इन मुसहरों को कम से कम मड़ुआ, मकई तो मिलता था। खसारी का दाल ही सही, खाते तो थे, अब तो दाल इनके लिए एक सपना है, हमारा सारा जोर चावल ओर गेहूं पर केन्द्रित हो गया है। यही है आधुनिक खेती जिसमें खाद्य विवधता की पूरी तरह अनदेखी की गई।

परंपरा से जैविक विविधता की एक समृद्ध विरासत हमें मिली है। इसे सहेजना और अगली पीढ़ी को सौंपना हमारी नैतिक जिम्मेवारी है। हमें यह भी सोचना है कि इस घुड़दौड़ से कहीं हमारी जमीन ही बंजर न हो जाए। धरती से सब कुछ एक साथ निचोड़ लेने की होड़, हमें आज दो रोटी अधिक भले ही दे दे, कल निश्चित रूप से भुखमरी ही देगी।

सपाट शब्दों में कहा जाए तो यह आने वाले पीढ़ी के साथ डकैती है, वह पीढ़ी जो अभी आई ही नहीं और उसे हम लूट रहे हैं। आज तो हालात यह है कि बगैर रासायनिक खाद के खेती करने की सोच को ही एक दुःसाहस माना जा रहा है, ठीक यही हाल कीटनाशकों की है। इन कीटनाशकों का घातक प्रभाव चारों ओर साफ दिखाई दे रहा है।

अचम्भा भले ही लगे पर यह सच्चाई है कि पूरे दक्षिण बिहार में कौवे दिखलाई नहीं पड़ते, गिद्ध लगभग विलुप्त हो चुके हैं, कोयल की कूक सुने अरसा हो गया है और भी ना जाने कितने पंछी या तो अपना अस्तित्व खो दिया या यहां के भू-मजदूरों की तरह पलायन को विवश हो गए। आज से तीन दशक पूर्व की वह रंग-रंगेली दुनिया कहीं खो गई। आज हम अपनी ही जमीन पर खड़े हो उसका अस्तित्व खोज रहे हैं। पर वह है की खोजे नहीं मिलती, क्या अधिक उपज की इस अंधी दौड़ में हम अपना सब कुछ भूला जाएंगे या एक बार इस दौड़ से हटकर आत्मचिंतन, आत्ममूल्याकंन, पुर्नमूल्याकंन का जोखिम लेंगे?