जहाजी वाष्प इंजनों तथा टरबाइनों के सहायक संबंध और उपसाधित्र

Submitted by Hindi on Fri, 08/19/2011 - 11:34
जहाजी वाष्प इंजनों तथा टरबाइनों के सहायक संबंध और उपसाधित्र(Auxiliaries and accessories for steam engines and turbines)बॉयलर  20 वीं शताब्दी के प्रथम चरण तक जहाजी इंजनों को वाष्प देने के लिए अग्निनाल बायलरों का ही अधिकतर प्रयोग हुआ करता था, जिनमें स्कॉच (Scotch) सर्वोत्तम समझा जाता था और जलनाल बायलरों में विलकॉक्स-बैबकॉक (Wilcox Babcok) बायलर ही श्रेष्ठ समझा जाता था। अब जलनालिका बायलरों का प्रचार बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इनके द्वारा उच्च दाब का वाष्प विपुल मात्रा में बहुत ही थोड़े समय में प्राप्त किया जा सकता है। अब विलकॉक्स-बैवकॉक में भी बहुत सुधार हो गए हैं। इनके अतिरिक्त स्टलिंग (Stirling) बॉयलर, थॉरनिक्राप्ट (Thornycroft) बॉयलर, यारो (Yarrow) बॉयलर, ह्वाइटफॉस्टर (Whitefoster) बॉयलर आदि, जलनालिका बायलरों का जहाजी कामों में बहुत प्रयोग हुआ करता है (देखें बॉयलर)।

समुद्री पानी खारा होता है अत: उसका प्रयोग सीधा ही बॉयलरों में नहीं किया जा सकता और यह पीने के योग्य भी नहीं होता। जहाजों पर इस पानी को काम के योग्य बनाने के लिए आसवन यंत्र (distiller), उद्वाष्पक (evaporator) आदि उपसाधित्र लगाए जाते हैं। बॉयलर के भीतर पानी पहुँचाने के लिए विशेष प्रकार के भरणयंत्र (feed pump) और बॉयलर में प्रवेश करने के पहले ही उसे काफी गरम करने के लिए भरण तापक (feed heater) लगाए जाते हैं। इंजनों और टरबाइनों में प्रयोग करने के बाद वाष्प को वृथा न जाने देकर, उसे संघनित्रों में जमाकर तथा ठंढाकर पानी के रूप में फिर से प्रयोग के लायक बना लिया जाता है। आसवनयंत्र और उद्वाष्पक तो संघनित्र के पानी में होनेवाली कमी को ही पूरा करते हैं। खाद्य पदार्थों को पूरी यात्रा भर सुरक्षित रखने के लिए प्रशीतित्र (refrigerator) लगाए जाते हैं। संवातन (ventilation) तथा छोटे यंत्रोंपकरणों को अटकाव की जगहों पर चलाने के लिए वायुसंपीड़क (air compresser), प्रकाश के लिए विद्युदत्पादक यंत्र (डायनमो, dynamo), कर्ण गियर (steering gear) तथा क्रेनों के लिए द्रवचालित पंप (hydraulic pumps) आदि उपसाधित्रों के रूप में लगाए जाते हैं। बंदरगाहों पर पहुँचने पर मुय वाष्प इंजन बंद कर दिए जाते हैं। वहाँ जहाज को आगे पीछे चलाने तथा प्रकाश और मरम्मत के कामों के लिए छोटे डीज़ल और तेल इंजन लगाए जाते हैं।

जहाजों को चलाने के लिए अंतदर्हन इंजनों का उपयोग  घाट नौकाओं (ferries) और नदियों में चलनेवाली नौकाओं (river boats) के संचालन के लिए आजकल तेल और पेट्रोल इंजनों का अधिकतर प्रयोग होता है। समुद्र में चलनेवाले छोटे जहाज ऑटो साइकल के अनुसार काम करनेवाले डीज़ल इंजनों से चलाए जाते हैं। बहुत बड़े जहाज तो अब भी वाष्प इंजन और टरबाइनों से भी चलते हैं, क्योंकि डीज़ल जहाजों पर लगभग 5-6 डीज़ल इंजन मिलकर एक प्रणोदक धुरे को चला पाते हैं। डीज़ल इंजनों में एक ही सिलिंडर होता है, जो साधारणतया 1,000 अश्वशक्ति से अधिक का नहीं होता। आधुनिक प्रकार के अच्छे से अच्छे, विशेष प्रकार के, डीज़ल इंजन से भी प्रति सिलिंडर दो या ढाई हजार से अधिक अश्वशक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। यदि एक प्रणोदित्र के लिए पाँच डीज़ल इंजन भी एक साथ लगाए जाएँ तो वे हजार अश्वशक्ति ही प्राप्त होगी, जबकि एक आधुनिक प्रकार के बड़े जहाज को निरतर 70-80 हजार अश्वशक्ति की आवश्यकता हुआ करती है। इसलिए बहुत बड़े जहाजों का चलाने के लिए अब भी वाष्प इंजनों का ही प्रयोग किया जाता है। हाँ, उनपर छोटे मोटे कामों के लिए डीज़ल इंजनों से सहायता ली जा सकती है। बेशक, छोटे जहाजों के लिए डीज़ल इंजन सर्वथा उपयुक्त होते हैं, क्योंकि इनका प्रयोग करने से बॉयलर, कोयला, उद्वाष्पक, भरणजलतापक, भरण फिल्टर, भरणपंच और संघनित्रों की आवश्यकता नहीं रहती और उनसे बचा हुआ स्थान व्यापारिक माल लादने के काम में आ सकता है। थोड़ी सी जगह में ही पूरी यात्रा के लिए तेल भर कर रखा जा सकता है, डीज़ल इंजनों के चौगिर्द अच्छी सफाई रखी जा सकती है, क्योंकि वहाँ राख, कोयला और धुएँ का काम ही नहीं होता। फायरमैन जैसे कुशल कर्मचारियों की भी आवश्यकता नहीं रहती और एक ही चालक कई इंजनों को सँभाल सकता है, अत: वेतन में भी बचत हो जाती है।

कर्ण गियर और रडर (Steering gear and Rudder)  जहाजों तथा नौकाओं का कर्ण संचालन रडर के द्वारा होता है, जो स्टर्नपोस्ट (कुदास) के आधार पर लगा होता है। इसे चलाने के लिए छोटी नौकाओं में तो मोटर कार जैसे राडार के डंठल के ऊपरी सिरे पर हाथचर्खी लगा दी जाती है, लेकिन बड़े जहाजों में उसे चलाने के लिए छोटे इंजनों या जलशक्तिचालित यंत्रों की सहायता ली जाती है। रडर को घुमाने के लिए आवश्यक बल रडर के आकार, जहाज की रफ्तार और जहाज की अनुदैर्ध्य मध्यरेखा से रडर के पल्ले के कोण पर निर्भर करता है। उदाहरणत:, यदि कोई जहाज 15 नॉट प्रति घंटे की रफ्तार से चल रहा हो उसके रडर के पानी में डूबे हुए भाग का क्षेत्रफल 100 वर्ग फुट हो तथा मध्यरेखा से उसका कोण 30 हो तो गणित द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि उस रडर को घुमाने में 32,130 पाउंड का बल लगाना पड़ेगा, जो मानवीय सामर्थ्यं के बाहर की बात है। इस काम के लिए ब्राउन की हाइड्रॉलिक स्टियरिंग टेलिमोटर, हैरीसन का स्टियरिंग गियर (जिसमें दो छोटे छोटे वाष्प इंजनों का प्रयोग होता है), हेस्टी (Hastie) का स्टियरिंग गियर और हैले-शॉ मार्टिन्यू (Hele Shas Martinue) का हाइड्रॉलिक स्टियरिंग गियर आदि मुख्य हैं। चित्र 20. में जहाज के पीछे के भाग की थोड़ी सी खड़ी काट अनुदैर्ध्य दिशा में बनाकर उसमें हैरिसन के स्टीयरिंग गियर की प्रयुक्ति दिखाई गई है। छोटे वाष्प इंजनों के जोर से कुछ दंतचक्र चलकर रडर दंड के ऊपर लगे एक बड़े दंतचक्र को आवश्यकतानुसार घुमा देते हैं। उस चक्र को इच्छित जगह पर रोक रखने के लिए विशेष प्रकार की कमानी और क्लच ब्रेक आदि भी लगे होते हैं।

सं.ग्रं.  ए. ई. सीटप्‌ : ए मैन्युएल ऑव मैराइन इंजीनियरिंग; डब्ल्य. रिप्पर : स्टीम इंजन, थ्योरी ऐंड प्रैक्टिस।(ओकारनाथ शर्मा)

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संदर्भ
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