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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
क्या कभी बिहार सरकार यह भी बतायेगी कि बिहार की कुल 68.8 लाख हेक्टेयर जमीन में से 29 लाख हेक्टेयर की बाढ़ से सुरक्षा की जिम्मेवारी उसकी है मगर क्या बाकी 40 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर बसे लोगों से यह कहा जाय कि अब बाढ़ से आप खुद निपट लीजिए, हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं है और क्या वह उन इलाकों को चिह्नित करेगी जहाँ वह यह जिम्मेवारी लेने से मना करती है। इसके साथ ही अगर उस 29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर, जिसे सरकार अपनी तरफ से बाढ़ से सुरक्षित मानती है, बाढ़ से जान-माल का कोई नुकसान होता है तो क्या सरकार इसकी क्षतिपूर्ति करेगी?
इसके अलावा पूर्वकाल में बने जमीन्दारी और महाराजी तटबन्धों का अलग किस्सा है। जमीन्दारी उन्मूलन के साथ-साथ जमीन्दारों द्वारा नदियों पर बनाये गये तटबंध सरकार के अधीन आ गये और उसने उन्हें रेवेन्यू विभाग के जिम्मे दे दिया। इन तटबन्धों की हालत खराब रहा करती थी और रेवेन्यू विभाग के पास न तो उतने संसाधन थे और न ही इतनी तकनीकी क्षमता या इच्छा-शक्ति कि वह इनको सही हालत में रख सके। यह तटबंध हर बरसात में थोक के भाव टूटते थे और जनता उनसे तबाह होती थी। बिहार का जल-संसाधन विभाग इसे रेवेन्यू विभाग की जिम्मेवारी बता कर अपना दामन झाड़ लेता था और रेवेन्यू विभाग भी चुप्पी साध लेता था जबकि जनता पिसती रहती थी। 1998 की बाढ़ में बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी ने 125 स्थानों पर तटबंध टूटने की घटना और उसमें सरकार द्वारा बरती गई लापरवाही का मुद्दा उछाला और इसके लिए वह दरभंगा में धरने पर भी बैठे। सरकार ने प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से अपनी स्थिति स्पष्ट की कि, “...नदी की तेज धारा से तटबंध मात्र सात जगह टूटा है और सात-आठ स्थलों पर ग्रामीणों द्वारा निचले खेत को भरने, नदी में जल गिराने, निकासी हेतु तटबंध को काट दिया गया। एक सौ पच्चीस स्थलों पर तटबंध टूटने के कारण ही उत्तर बिहार में बाढ़ का प्रकोप है, सत्य से कोसों दूर है। ...सिंचाई विभाग मात्रा 29 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाने की जिम्मेवारी रखता है तथा महाराजी बांध, जमीन्दारी बांध, आहर, पइन को सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी सिंचाई विभाग की नहीं है।”प्रेस विज्ञप्ति में यह नहीं बताया गया कि अगर बाढ़ से बचाव की जिम्मेवारी जल-संसाधन विभाग की नहीं है तो फिर किसकी है। बिहार विधान सभा में ऐसे ही मुद्दे पर बहस करते हुए इस घटना से 32 साल पहले (14 सितम्बर 1966) विधायक पूर्णेन्दु नारायण सिंह ने ठीक यही आरोप लगाया था। उन्होंने कहा कि, “...सिंचाई और पावर मंत्री ने कहा कि 36 और 27 प्रतिशत एम्बैन्कमेन्ट में जो ब्रीच हुआ है उसके लिये वे जिम्मेवार हैं और बाकी की जिम्मेवारी वह नहीं लेते हैं। बाकी के लिये वे कहते हैं कि राजस्व विभाग, रिवर वैली प्रोजेक्ट, इरिगेशन डिपार्टमेन्ट और एग्रीकल्चर विभाग की जिम्मेवारी है। इस तरह कोई कोऑर्डिनेशन नहीं है। यह ठीक नहीं है। एक विभाग दूसरे विभाग के ऊपर जिम्मवारी फेंकता है तो इससे काम नहीं होगा। इसके लिये एक अलग विभाग होना चाहिए। बाढ़ नियंत्रण के जितने भी काम हों सबकी जिम्मेवारी इस विभाग की रहे।” जाहिर है कि सरकारें कुछ ज्यादा ही सुस्त हैं कि ऐसे छोटे-छोटे मसले तय करने में भी पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं। इस तरह से तटबंध कितनी जगह टूटा, उसके मोल-तोल की एक परम्परा पिछले लगभग 40 साल से तो बिहार में चल रही थी।
2006 में नितीश कुमार के नेतृत्व में गठित बिहार सरकार ने इतना काम जरूर किया कि जमींदारी और महाराजी तटबन्धों के रख-रखाव का काम औपचारिक रूप से जल संसाधन विभाग को सौंप दिया। इस पहल का परिणाम क्या निकलता है, यह समय बतायेगा।
जब जमीन्दारी खत्म कर दी गई तो उसकी सारी सम्पत्ति और जिम्मेवारी सरकार की हो गई फिर जिम्मेवारी से इतने वर्षों तक आँखें क्यों मोड़ी गईं? और अगर यह तटबंध रेवेन्यू विभाग के थे तो क्यों नहीं यह बात बरसात के पहले बताई जाती थी और क्यों जनता को यह नहीं बताया जाता था कि बाढ़ की स्थिति में अमुक-अमुक अफसर से सम्पर्क किया जाना चाहिए जो रेवेन्यू विभाग का है, यह जिम्मेवारी उसी की है। क्या कभी बिहार सरकार यह भी बतायेगी कि बिहार की कुल 68.8 लाख हेक्टेयर जमीन में से 29 लाख हेक्टेयर की बाढ़ से सुरक्षा की जिम्मेवारी उसकी है मगर क्या बाकी 40 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर बसे लोगों से यह कहा जाय कि अब बाढ़ से आप खुद निपट लीजिए, हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं है और क्या वह उन इलाकों को चिह्नित करेगी जहाँ वह यह जिम्मेवारी लेने से मना करती है। इसके साथ ही अगर उस 29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर, जिसे सरकार अपनी तरफ से बाढ़ से सुरक्षित मानती है, बाढ़ से जान-माल का कोई नुकसान होता है तो क्या सरकार इसकी क्षतिपूर्ति करेगी? इसका सीधा-सादा जवाब है कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है। सरकार अपनी रफ्तार से चलती है और जनता अपना समझे। सारा घटनाचक्र ‘वो तेरा काम है साकी, ये मेरा काम है साकी’ की तर्ज पर चलता है और भविष्य में भी चलता रहेगा।
बाढ़ के मसले पर मिथ्या प्रचार का यह हाल है कि 1994 से राज्य के जल-संसाधन मंत्री सार्वजनिक रूप से इस बात पर संतोष व्यक्त करते थे कि वह बाढ़ नियंत्रण के लिये राज्य की नदियों के किनारे तटबंध बनाने के काम में शामिल नहीं हैं। उधर उन्हीं के जल-संसाधन विभाग की उसी साल की वार्षिक रिपोर्ट में लिखा था कि, “... अब तक निर्मित तटबन्धों की कुल लम्बाई 3,465 किलोमीटर है, जिससे लगभग 29.28 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान होती है। 10 चालू तटबंध योजनाएं अभी निर्माणाधीन हैं। इनकी कुल प्रस्तावित लम्बाई 872.74 किलोमीटर है तथा लाभान्वित क्षेत्र 6,36,560 हेक्टेयर है। अब तक केवल 556.69 किलोमीटर लम्बाई में उनका निर्माण हुआ है जिससे 3,18,110 हेक्टेयर भूमि को आंशिक सुरक्षा मिल रही है। निधि के अभाव में इन्हें पूरा करने में कठिनाई हो रही है।”
अब यह तय करना मुश्किल है कि इनमें से किस खबर पर विश्वास किया जाये। उस पर जो मंत्री महोदय सार्वजनिक मंच से बोलते थे या उस सूचना पर जोकि उनका विभाग चाहता था कि जनता जाने। वास्तव में, शायद यह किसी भी सरकार के हक में जाता है कि वह राज्य में बिगड़ती बाढ़ की परिस्थिति के लिये तटबन्धों को जिम्मेवार ठहराये। इससे उसको दो फायदे होते हैं। एक तो यह कि वर्तमान बाढ़ के लिए तटबंध जिम्मेवार हैं यह सरकार नहीं। और दूसरे यह कि राज्य में जब लगभग सारे के सारे तटबंध तब बने थे जब प्रान्त में दूसरी पार्टियों का शासन था। इसलिए अगर तटबन्धों की वजह से कोई नुकसान पहुँचता है तो इससे लिए वह पार्टियाँ जिम्मेवार हैं। और इतना कह देने के बाद भी प्रायः सभी सरकारें वही काम करने के लिये तत्पर रहती हैं जो कि पिछली सरकारों ने बाढ़ नियंत्रण के नाम पर किया था और असफल हुई थीं। यह एक सुरक्षित तरीका है क्योंकि जब आज नदियों के साथ छेड़-छाड़ के परिणाम सामने आयेंगे तब आज की पूरी राजनीतिज्ञों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की टीम इतिहास के गर्त में समा चुकी होगी और तब इन सवालों का जवाब अगर कोई देगा तो वह दूसरा ही होगा। आज की हमारी सरकारें भी वही कर रही हैं।
तटबन्धों से हाई डैम और नदी जोड़ने की ओर
आधिकारिक रूप से सरकार ऐसा मानती है कि उत्तर बिहार के मैदानों में बाढ़ नियंत्रण तभी हो सकेगा जब यहाँ की नदियों पर नेपाल में वहीं बांध बना दिये जायें जहाँ यह नदियाँ पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं। हम लोग अक्सर कोसी पर बराहक्षेत्र में, बागमती पर नुनथर में और कमला पर शीसापानी में बांध बनाये जाने की बातें सुनते हैं। इसी तरह गंडक, घाघरा और महानन्दा नदियों की सहायक धाराओं पर भी बांध बनाने के प्रस्ताव हैं। 2004 में क्रेन्द्र सरकार ने घोषणा की थी कि अब नेपाल में बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के लिए दफ्रतर खुलेगा और इसके लिये लगभग 30 करोड़ रुपयों का अनुदान भी दिया जायेगा। इस उद्देश्य से नेपाल में विराटनगर, धारान और काठमाण्डू में अब दफ्तर खुल भी गये हैं। नेपाल में बांध निर्माण की दिशा में आजादी के बाद के 59 वर्षों की यही उपलब्धि है। उसके बाद भी अगर नेपाल में बांध बन जाते हैं तो उनसे बाढ़ रुक पायेगी, इस पर अभी से सन्देह व्यक्त किये जा रहे हैं। इसके अलावा 2002 से विस्तृत चर्चा में आई भारत की नदी जोड़ योजना का भी प्रस्ताव आया है। गंगा-ब्रह्मपुत्रा घाटी की नदियों को जोड़ने में नेपाल की रजामन्दी महत्वपूर्ण हो जाती है और शायद इसीलिये इस मसले पर फिलहाल खामोशी है। बाढ़ नियंत्रण के इस पहलू पर हम अलग से चर्चा करेंगे। अगले अध्याय-3 में हम कोसी पर प्रस्तावित तटबन्धों के निर्माण के समय होने वाली दिक्कतों, इस तकनीक के बेजा लचीलेपन और प्रस्तावित तटबन्धों के बीच फंसने वाले लोगों की आंशकाओं और उनके संघर्षों के बारे में बात करेंगे।