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पंचायतनामा, 08-14 अक्टूबर 2012
सुलभ शौचालय के रूप में देश के शहरों और कस्बों को सार्वजनिक शौचालय का बेहतरीन विकल्प पेश करने वाले बिंदेश्वशर पाठक किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्हें इस जनकल्याणकारी योजना को व्यवसाय का रूप दे दिया है। पेश है ग्राणीण स्वच्छता के मुद्दे पर उनसे विशेष बातचीत
एक स्वच्छ शौचालय का मानव जीवन में कितना महत्व है?
स्वच्छ भोजन जीवन के लिए जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी स्वच्छ शौच की व्यवस्था भी है। मल त्याग की अव्यवस्थित व्यवस्था कई तरह की बीमारियों को जन्म देती है। बीमारियों की वजह से न सिर्फ दैहिक नुकसान होता है, बल्कि आर्थिक हानि भी होती है। शौचालय की व्यवस्था होने पर सामाजिक, शारीरिक और आर्थिक तीनों ही रूप में सशक्त होते हैं। इसके साथ ही यह प्रदूषण मुक्ति में भी सहयोगी है। मानव मल खाद बन कर जहां खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में मददगार होता है, वहीं इससे बायोगैस का निर्माण भी होता है।
निर्मल भारत अभियान एवं यात्राएं की जरूरत क्यों पड़ रही है?
इसमें दो बाते हैं, एक तो लोगों के पास इससे होने वाले फायदे-नुकसान के संबंध में जानकारी का अभाव है। साथ ही साथ सामाजिक और सांस्कृतिक सोच की भी बात है। हमारे देश में सदियों से लोगों में खुले में शौच करने की परंपरा है। ये मान्यताएं न सिर्फ दैहिक स्वच्छता से जुड़ी हुई रही है, बल्कि धर्म भी इसमें आ।डे आता है। लोग सोचते हैं कि अगर घर में शौचालय होगा, तो घर का वातावरण अस्वच्छ हो जायेगा। इस सोच को बदलने की जरूरत है। शायद इसी सोच से वशीभूत होकर ग्रामीण भारत मंत्रालय के निर्मल भारत अभियान से जुड़ने वाली फिल्मी नायिका विद्या बालन ने इसके उद्घाटन में ही यह नारा दिया कि जहां सोच, वहां शौचालय। जब तक आपके सोच में शौचालय का महत्व दाखिल नहीं होगा, तब तक परिवर्तन नहीं हो सकता।
शौचालय निर्माण के नाम पर पहले भी काफी पैसे खर्च भी हुए है। कहां कमी रह गयी?
यह बात सही है कि सरकार ने पहले भी इस दिशा में प्रयास किया है। काफी खर्च भी हुए, लेकिन मुझे लगता है कि नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण में समस्या है। सरकार प्रत्येक योजना में बॉटम टू टॉप अप्रोच के आधार पर काम करती है, जबकि इस योजना में टॉप टू बॉटम अप्रोच अपनाने से ज्यादा फायदा होगा। मेरे कहने का मतलब है कि हरेक सरकारी योजना को केवल बीपीएल या एपीएल की दृष्टि से देखने पर कई तरह की समस्या आती है। जिन्हें दो जून खाना नहीं मिल रहा है, उन्हें अगर आप सरकारी योजनाओं के तहत शौचालय बनाने के लिए कुछ पैसे देते हैं, तो फिर बाकी का रकम वह कहां से जुटायेगा। वहीं अगर आप चुनिंदा लोगों पर इस योजना को लागू करते हैं, उन्हें सब्सिडी देते हैं और शौचालय निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं, तो भले ही गांव में ऐसे लोगों की संख्या कम होगी, लेकिन इनके यहां अगर शौचालय सही तरीके से निर्मित होता है, वे अगर इसके रखरखाव पर पर्याप्त ध्यान दे पाते हैं, तो निश्चिेत रूप से अन्य लोग भी इसके लिए प्रेरित होंगे। यही आपके ब्रांड अंबेस्डर बन जायेंगे। रास्ता लंबा है, लेकिन साथ ही टिकाऊ भी है।
निर्मल भारत अभियान में एनजीओ की भूमिका किस तरह से हो सकती है।
सरकार प्रत्येक ब्लॉक में शौचालय निर्माण और रखरखाव के लिए किसी एक एनजीओ को जिम्मेवारी दे। पंचायत पर योजना को सही तरीके से लागू कराने की जिम्मेवारी हो तो इससे काफी फायदा होगा। अब सवाल उठता है कि कोई भी एनजीओ तभी काम करेगा, जब उसे इससे आर्थिक फायदा हो। इसीलिए सरकार को सुलभ की तरफ से सुझाव दिया गया था कि जो भी एनजीओ काम करते हैं, उनके लिए बजट में 15 फीसदी रकम रखी जाये। लेकिन सरकार ने यह सुझाव नहीं माना। मेरा मानना है कि निर्मल भारत अभियान तभी सफल होगा, जब स्वच्छता अभियान को मिशनरी कार्य की तरह लिया जाये, जैसा सुलभ करता आ रहा है। अगर आप अनुभव प्राप्त एनजीओ को जोड़ेगे, तो वह इस काम को ठीक तरीके से निर्वहन करेगा और कई लोगों को आजीविका भी मिलेगी। इस बदलाव आयेगा।
अब शौचालय निर्माण के लिए रकम बढ़ा दी है। क्या यह पर्याप्त है?
राशि तो पर्याप्त नहीं है, लेकिन यह संतोष की बात है कि सरकार ने अब शौचालय निर्माण की राशि 3200 से बढ़ाकर 9900 रुपये कर दिया है। इतनी कीमत में कामचलाऊ शौचालय का निर्माण किया जा सकता है। मैं 1986 से ग्रामीण मंत्रालय में सदस्य की हैसियत से जुड़ा रहा हूं। हमारा हमेशा से मानना रहा है, वन पिट की बजाय टू पिट लैट्रिन निर्माण की व्यवस्था हो। 2008 में जब रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री बने तो उन्होंने हमारे सुझाव को मानते हुए टू पिट लैट्रिन की व्यवस्था की थी। तब से लेकर अब तक यह व्यवस्था चल रही है।
एनबीए में निजी कंपनियां क्या कर सकती है।
मुझे लगता है कि अगर सही तरीके से प्रयास किया जायेगा तो निश्चितत रूप से निजी कंपनियां भी अपनी सामाजिक जवाबदेही को समझते हुए इस दिशा में आगे आयेंगी, और इस कार्य के लिए फंड की कोई कमी नहीं होगी। मेवात में हर मिथिला गांव में रेल टेल कॉरपोरेशन के सहयोग से 15,000 हजार की लागत से शौचालय निर्माण कराया गया है, जो काफी अच्छे तरीके से काम कर रहे हैं। इसी तरह बिहार के वैशाली में स्टील कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया एवं झारखंड में भी एक निजी कंपनी के सहयोग से सुलभ इंटरनेशनल द्वारा शौचालय निर्माण कराया गया है, जो बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं।
एक स्वच्छ शौचालय का मानव जीवन में कितना महत्व है?
स्वच्छ भोजन जीवन के लिए जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी स्वच्छ शौच की व्यवस्था भी है। मल त्याग की अव्यवस्थित व्यवस्था कई तरह की बीमारियों को जन्म देती है। बीमारियों की वजह से न सिर्फ दैहिक नुकसान होता है, बल्कि आर्थिक हानि भी होती है। शौचालय की व्यवस्था होने पर सामाजिक, शारीरिक और आर्थिक तीनों ही रूप में सशक्त होते हैं। इसके साथ ही यह प्रदूषण मुक्ति में भी सहयोगी है। मानव मल खाद बन कर जहां खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में मददगार होता है, वहीं इससे बायोगैस का निर्माण भी होता है।
निर्मल भारत अभियान एवं यात्राएं की जरूरत क्यों पड़ रही है?
इसमें दो बाते हैं, एक तो लोगों के पास इससे होने वाले फायदे-नुकसान के संबंध में जानकारी का अभाव है। साथ ही साथ सामाजिक और सांस्कृतिक सोच की भी बात है। हमारे देश में सदियों से लोगों में खुले में शौच करने की परंपरा है। ये मान्यताएं न सिर्फ दैहिक स्वच्छता से जुड़ी हुई रही है, बल्कि धर्म भी इसमें आ।डे आता है। लोग सोचते हैं कि अगर घर में शौचालय होगा, तो घर का वातावरण अस्वच्छ हो जायेगा। इस सोच को बदलने की जरूरत है। शायद इसी सोच से वशीभूत होकर ग्रामीण भारत मंत्रालय के निर्मल भारत अभियान से जुड़ने वाली फिल्मी नायिका विद्या बालन ने इसके उद्घाटन में ही यह नारा दिया कि जहां सोच, वहां शौचालय। जब तक आपके सोच में शौचालय का महत्व दाखिल नहीं होगा, तब तक परिवर्तन नहीं हो सकता।
शौचालय निर्माण के नाम पर पहले भी काफी पैसे खर्च भी हुए है। कहां कमी रह गयी?
यह बात सही है कि सरकार ने पहले भी इस दिशा में प्रयास किया है। काफी खर्च भी हुए, लेकिन मुझे लगता है कि नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण में समस्या है। सरकार प्रत्येक योजना में बॉटम टू टॉप अप्रोच के आधार पर काम करती है, जबकि इस योजना में टॉप टू बॉटम अप्रोच अपनाने से ज्यादा फायदा होगा। मेरे कहने का मतलब है कि हरेक सरकारी योजना को केवल बीपीएल या एपीएल की दृष्टि से देखने पर कई तरह की समस्या आती है। जिन्हें दो जून खाना नहीं मिल रहा है, उन्हें अगर आप सरकारी योजनाओं के तहत शौचालय बनाने के लिए कुछ पैसे देते हैं, तो फिर बाकी का रकम वह कहां से जुटायेगा। वहीं अगर आप चुनिंदा लोगों पर इस योजना को लागू करते हैं, उन्हें सब्सिडी देते हैं और शौचालय निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं, तो भले ही गांव में ऐसे लोगों की संख्या कम होगी, लेकिन इनके यहां अगर शौचालय सही तरीके से निर्मित होता है, वे अगर इसके रखरखाव पर पर्याप्त ध्यान दे पाते हैं, तो निश्चिेत रूप से अन्य लोग भी इसके लिए प्रेरित होंगे। यही आपके ब्रांड अंबेस्डर बन जायेंगे। रास्ता लंबा है, लेकिन साथ ही टिकाऊ भी है।
निर्मल भारत अभियान में एनजीओ की भूमिका किस तरह से हो सकती है।
सरकार प्रत्येक ब्लॉक में शौचालय निर्माण और रखरखाव के लिए किसी एक एनजीओ को जिम्मेवारी दे। पंचायत पर योजना को सही तरीके से लागू कराने की जिम्मेवारी हो तो इससे काफी फायदा होगा। अब सवाल उठता है कि कोई भी एनजीओ तभी काम करेगा, जब उसे इससे आर्थिक फायदा हो। इसीलिए सरकार को सुलभ की तरफ से सुझाव दिया गया था कि जो भी एनजीओ काम करते हैं, उनके लिए बजट में 15 फीसदी रकम रखी जाये। लेकिन सरकार ने यह सुझाव नहीं माना। मेरा मानना है कि निर्मल भारत अभियान तभी सफल होगा, जब स्वच्छता अभियान को मिशनरी कार्य की तरह लिया जाये, जैसा सुलभ करता आ रहा है। अगर आप अनुभव प्राप्त एनजीओ को जोड़ेगे, तो वह इस काम को ठीक तरीके से निर्वहन करेगा और कई लोगों को आजीविका भी मिलेगी। इस बदलाव आयेगा।
अब शौचालय निर्माण के लिए रकम बढ़ा दी है। क्या यह पर्याप्त है?
राशि तो पर्याप्त नहीं है, लेकिन यह संतोष की बात है कि सरकार ने अब शौचालय निर्माण की राशि 3200 से बढ़ाकर 9900 रुपये कर दिया है। इतनी कीमत में कामचलाऊ शौचालय का निर्माण किया जा सकता है। मैं 1986 से ग्रामीण मंत्रालय में सदस्य की हैसियत से जुड़ा रहा हूं। हमारा हमेशा से मानना रहा है, वन पिट की बजाय टू पिट लैट्रिन निर्माण की व्यवस्था हो। 2008 में जब रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री बने तो उन्होंने हमारे सुझाव को मानते हुए टू पिट लैट्रिन की व्यवस्था की थी। तब से लेकर अब तक यह व्यवस्था चल रही है।
एनबीए में निजी कंपनियां क्या कर सकती है।
मुझे लगता है कि अगर सही तरीके से प्रयास किया जायेगा तो निश्चितत रूप से निजी कंपनियां भी अपनी सामाजिक जवाबदेही को समझते हुए इस दिशा में आगे आयेंगी, और इस कार्य के लिए फंड की कोई कमी नहीं होगी। मेवात में हर मिथिला गांव में रेल टेल कॉरपोरेशन के सहयोग से 15,000 हजार की लागत से शौचालय निर्माण कराया गया है, जो काफी अच्छे तरीके से काम कर रहे हैं। इसी तरह बिहार के वैशाली में स्टील कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया एवं झारखंड में भी एक निजी कंपनी के सहयोग से सुलभ इंटरनेशनल द्वारा शौचालय निर्माण कराया गया है, जो बेहतर तरीके से काम कर रहे हैं।