जल अधिकार का वैकल्पिक संसार

Submitted by Hindi on Mon, 11/08/2010 - 11:46
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दैनिक भास्कर, 9 नवंबर 2010
‘पेयजल एवं स्वच्छता का मानवाधिकार जीवन के समुचित स्तर के अधिकार का ही एक अंग है और यह जीवन एवं मानव गरिमा के अधिकार के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है।’ गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई ने दुनिया में एक नई विसंगति पैदा की है। हमारी एक पृथ्वी पर दो दुनिया बसी हुई हैं- एक में गरीब लोग भुखमरी से बचने के लिए पसीना बहा रहे हैं, जबकि दूसरी में अमीरों को नहीं सूझ रहा है कि वे अपनी धन-दौलत कैसे खर्च करें। फिर भी, एक बात स्पष्ट है कि गरीब, बेरोजगार, भूखी और असंतुष्ट जनता सदैव चुप नहीं बैठेगी। एक पृथ्वी पर दो दुनिया की स्थिति बहुत लंबे समय तक जारी नहीं रह सकती।

जल और स्वच्छता (सेनिटेशन) का संकट विश्व में अरबों लोगों को प्रभावित कर रहा है। इससे प्रतिदिन लगभग 4,000 बच्चों की मौत हो रही है। वर्तमान में, 1,10 अरब लोगों (विश्व की 17 फीसदी आबादी) को स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अस्वच्छ पानी और अस्च्छता के कारण प्रतिवर्ष लाख लोगों की मौत होती है। विश्व में लगभग 2 अरब लोगों की शौचालयों एवं स्वच्छता संबंधी अन्य सुविधाओं तक पहुंच नहीं है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का दूसरा प्रमुख कारण डायरिया है। सब-सहारा अफ्रीका के देशों के अस्पतालों में बिस्तरों पर आधी से ज्यादा संख्या उन मरीजों की है, जो अस्वच्छता और जल से जुड़ी बीमारियों से पीड़ित हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि सिर्फ जल आपूर्ति और स्वच्छता में सुधार के जरिए विश्व का यह संकट 10 फीसदी कम किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् ने अंततः यह मान्यता देकर अच्छा कदम उठाया है कि जल एवं स्वच्छता का अधिकार मौजूदा मानवाधिकार संधियों का अंग होना चाहिए। इससे विश्व के उन नेताओं को एक स्पष्ट संदेश जाएगा, जो अपने नागरिकों को स्वच्छ और सुरक्षित जल प्रदान करने में नाकाम रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने जुलाई, 2010 में घोषणा की थी कि ‘स्वच्छ एवं सुरक्षित पानी और स्वच्छता’ एक मानव अधिकार है, जो जीवन और अन्य सभी मानवधिकारों का आनंद उठाने के लिए बेहद जरूरी है। उसके बाद अब मानवाधिकार परिषद ने अपनी मंजूरी की मुहर लगा दी है। यह ऐतिहासिक फैसला दुनिया के उन करोड़ों-अरबों लोगों की जिंदगी में बदलाव ला सकता है, जिनकी स्वच्छ जल एवं स्वच्छता तक पहुंच नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मौजूदा मानवाधिकार संधियों में जल एवं स्वच्छता का अधिकार शामिल होगा और यह कानून बाध्यकारी होगा। इसे कानूनी बाध्यकारी मानवाधिकार के रूप में शामिल करना राष्ट्रीय सरकारों की जल रणनीतियों में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतिनिधित्व करेगा और दर्शाएगा कि विश्व की बढ़ती आबादी के लिए जल के अभाव का मसला कितना महत्वपूर्ण है।

जुलाई, 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वच्छ जल की उपलब्धता को एक मानव अधिकार बनाने का प्रस्ताव मंजूर किया था। 163 सदस्य देशों में से 122 ने इसके पक्ष में मतदान किया, जबकि 41 सदस्य देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया। विशेष रूप से अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन ने मतदान रोकने की कोशिश की। लेकिन, सितंबर, 2010 में मानवाधिकार परिषद ने आम सहमति से प्रस्ताव पारित कर अभिपुष्टि की, कि जल एवं स्वच्छता मौलिक अधिकार हैं। प्रस्ताव में कहा गया- ‘पेयजल एवं स्वच्छता का मानवाधिकार जीवन के समुचित स्तर के अधिकार का ही एक अंग है और यह जीवन एवं मानव गरिमा के अधिकार के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है।’

पर्यावरण क्षेत्र के टिप्पणीकारों ने जल के बढ़ते अभाव और वनों के रेगिस्तान में तब्दील होने के सिलसिले को स्वीकार करने के बदलाव का स्वागत किया है। यह सिलसिला पहले एशिया और अफ्रीका की समस्या मानी जाती थी, पर अब यूरोप भी इसकी चपेट में आ गया है। दक्षिणी स्पेन में प्रतिवर्ष रेगिस्तान का दायरा एक किलोमीटर बढ़ रहा है। बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र का ताजा फैसला बरसों के अभियान का नतीजा है।

आशा की जानी चाहिए कि यह मानवाधिकार सिर्फ कागज पर न रहे। सभी नागरिकों को स्वच्छ जल सुनिश्चित करने के लिए संसाधन, निवेश, टेक्नोलॉजी और सरकार की पूरी वचनबद्धता जरूरी है। यह तर्क दिया जा सकता है कि जब जल एक मौलिक अधिकार है तो जिस तरह कानून की नियत प्रक्रिया या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पैसा चुकाने की जरूरत नहीं होती, उसी प्रकार इस मानव अधिकार के लिए जनता से उसका मूल्य अदा करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। इसके विपरीत, जल एक संसाधन है, यह एक सच है। यदि हम उन लोगों से पैसा चुकाने को नहीं कहते हैं, जो सक्षम हैं तो फिर सरकार उन करोड़ों-अरबों लोगों को स्वच्छ जल सुलभ कराने के लिए टिकाऊ, लेकिन महंगे तरीके कैसे क्रियान्वित कर सकती है, जिन्हें उसकी वाकई जरूरत है। सरकार उन सभी लोगों को स्वच्छ जल मुहैया कराने के लिए संसाधन जुटाए, जो उसकी कीमत चुकाने में असमर्थ हैं। बाजारवादी समाधान का कोई तुक नहीं है।

लेखक आईएसएस में एसोसिएट डारेक्टर है।

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