इंदिरा खुराना और रिचर्ड महापात्र उन 19.5 करोड़ ग्रामीणों की दुर्दशा की कल्पना करें जिन्हें पीने के लिए पानी तक नसीब नहीं होता और अगर आप इसमें उन लोगों की संख्या जोड दें हैं जिन्हें थोड़ा-बहुत पेयजल मिलता तो है लेकिन पेयजल के स्रोत दूषित हैं तो यह आंकड़ा काफी बडा हो जाएगा. एक ओर 77 करोड भारतीय या तो जल की मात्रा या गुणवत्ता की समस्या झेल रहे हैं तो वहीं स्वच्छता की कहानी भी कुछ भिन्न नहीं है. हर तीन में से दो भारतीय खुले में शौच करते है और इसकी वजह आदत कम और लाचारी अधिक है. इस अपर्याप्त सफाई का बोझ इतना है कि हमारा देश स्वास्थ्य के मुकाबले प्रत्यक्ष स्वच्छता पर अधिक खर्च करता है और हर साल 1.5 लाख बच्चे डायरिया से मर जाते हैं. लेकिन हमें सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता उपलब्ध क्यों नहीं है? क्या यह अस्तित्व का सवाल नहीं है? भौतिक अस्तित्व के साथ ही सभ्य और गरिमामय जीवन के लिए भी जल और स्वच्छता मौलिक अधिकार है. भारतीय संविधान और देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्थाओं ने कई बार जल और स्वच्छता के मौलिक अधिकारों में शामिल होने की व्याख्या की है, मगर इस पक्ष में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है. पेयजल और स्वच्छता का अभाव हमारे देश में मानव अधिकारों के उल्लंघन की सबसे व्यापक और निष्क्रिय किस्म है. सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता का अभाव लोगों को अभावग्रस्त बनाने की श्रृंखला को जन्म देता है. पानी का अभाव का अर्थ गरीबी है और गरीबी का मतलब जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को हासिल करने की क्षमता और गरिमामय जीवन का अभाव है. इसमें सफाई भी शामिल है. गरीब अपनी मेहनत की कमाई को रोग से लडने में खर्च कर देते हैं जिससे वें और गरीब होते जाते हैं. हालांकि गरीब अपने अधिकारों के बारे में कम मुखर होते है, लेकिन ऐसे उदाहरण हैं जहां गरीबों ने अधिकार पाने के लिए कठिन संघर्ष किया है. जल और स्वच्छता के अधिकार की स्पष्ट रूप से पहचान और इसके मानकों को गंभीरता से लागू कराना समग्र मानव विकास के लिए महत्वपूर्ण है. लेकिन यह भी स्वीकार करने की जरूरत है कि अधिकारों के साथ पानी और स्वच्छता के लिए कुछ जिम्मेदारियां भी बनती है.
पेयजल और स्वच्छता के कवरेज की स्थिति |
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पेयजल कवरेज |
स्वच्छता कवरेज |
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ग्रामीण- |
66.4% |
ग्रामीण- |
56% |
शहरी- |
91% |
शहरी- |
83.2% |
भारत का संविधान अच्छे जीवन की गारंटी देता है. अनुच्छेद 21 भारतीय नागरिकों के लिए जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करता है. समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने यह व्याख्या दी है कि जीवन का अधिकार हमारे संविधान में अंतर्निहित है. सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय को गांवों के जल स्रोतों की गुणवत्ता को लेकर नोटिस भेजा था. इस मामले में वादी ने अदालत से पीने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाला पानी उपलब्ध कराने का अनुरोध इस आधार पर किया था कि असुरक्षित जल जीवन के अधिकार का उल्लंघन है. इसके अलावा,भारत ने ऐसे कई अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके मुताबिक पानी और स्वच्छता को अधिकार माना जाता है.इन अदालती घोषणाओं का सार यह है कि संविधान में जीवन का अधिकार का अर्थ जल और स्वच्छता के लिए अधिकार के रूप में माना जा सकता है. न्यायालयों ने न सिर्फ पानी को मौलिक अधिकार की संज्ञा दी है बल्कि इसे 'सामाजिक परिसंपत्ति' के रूप में भी परिभाषित किया है. कुछ महत्वपूर्ण घोषणाओं का जिक्र इस प्रकार हैं: * 1981 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में फैसला सुनाया था: 'जीवन के अधिकार में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है और इसके तहत शामिल हैं- पर्याप्त पोषण, वस्त्र और आवास, पढ़ने-लिखने की सुविधा, विविध प्रकार की अभिव्यक्ति का अधिकार और हर जगह जाने तथा इंसानों के साथ घुलने-मिलने की आज़ादी. हालांकि इस आजादी के विस्तार और तत्व देश के आर्थिक विकास पर निर्भर होंगे, लेकिन किसी भी परिस्थिति में मानवीय जीवन की मूलभूत आवश्यकता और ऐसे क्रियाकलाप को लागू करना अनिवार्य होगा जो इंसानों की मूलभूत अभिव्यक्ति के लिए जरूरी हैं.' * 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को यह कहते हुए वैध करार दिया था कि जीने का अधिकार में पानी का अधिकार अंतर्निहित है. 'मनुष्य के अस्तित्व के लिए पानी एक बुनियादी आवश्यकता है और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित जीने का अधिकार और मानवाधिकार का हिस्सा है और यह तभी संभव हो सकता है जब उन क्षेत्रों में पानी मुहैया कराया जाए जहां यह उपलब्ध नहीं है.' * 1990 में, केरल उच्च न्यायालय ने, लक्षद्वीप के लिए जल आपूर्ति हेतु भूजल निकासी के एक मामले में अपना फैसला सुनाया कि सरकार भूजल का दोहन नहीं कर सकती क्योंकि इससे भविष्य की संभावनाओं पर असर पडता है और यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है. '... प्रशासनिक एजेंसी को इस तरह कार्य करने की छूट नहीं दी जा सकती, क्योंकि इससे अनुच्छेद 21 में शामिल जीने के अधिकार के उल्लंघन का रास्ता साफ होता है. जीवन का अधिकार पशुओं के अस्तित्व के अधिकार से कहीं अधिक होता है और इसकी विशेषताएं विविध होती हैं, जीवन के जैसी ही. इस क्षेत्र में मानवीय जीवन की प्राथमिकताएं और एक नई मूल्य व्यवस्था को पहचानने की आवश्यकता है. मीठे पानी और उन्मुक्त हवा के अधिकार का संबंध जीवन के अधिकार से है, क्योंकि ये वो मूलभूत तत्व हैं जो जीवन का बुनियादी हिस्सा हैं.' * 2004 में दिल्ली में भूजल की तेज गिरावट को लेकर एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यालाय ने कहा कि भूजल एक सामाजिक संपत्ति है. उन्होंने अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए आगे कहा कि लोगों को वायु, जल और पृथ्वी के उपयोग करने का अधिकार है. भूजल के घरेलू और सिंचाई की जरूरतों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. * जीने के अधिकार के रूप में पानी के अधिकार के अलावा अदालत ने जल प्रदूषण से संबंधित कई और मामलों को शामिल किया हैं उनमें नदियां समेत अन्य जल के स्रोतों की सफाई (एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ), समुद्र तट (एस जगन्नाथ बनाम भारतीय संघ) और तालाब और कुएं (हिंच लाल तिवारी बनाम कमला देवी). भूजल प्रदूषण पर चिंता व्यक्त करते हुए अदालत ने इसकी सफाई के लिए भी दिशा-निर्देश जारी किए हैं. * अदालत ने पेयजल स्रोतों को संभावित प्रदूषण से बचाने के लिए 'एहतियाती सिद्धांत' भी लागू किए हैं, खास तौर पर उनके नजदीक में उद्योग स्थापित करने के मामले में (आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम प्रो एमवी नायडू). विभिन्न न्यायिक आदेशों में इसे स्वीकार किया गया है कि पानी एक सामुदायिक स्रोत है और इसे लोगों के हित में राज्य को सौंपा गया है ताकि वह पीढ़ीगत समानता के सिद्धांत का आदर करते हुए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे. * स्वच्छता के मुद्दों पर भी अदालतों ने अनुच्छेद 21 के तहत इसकी व्याख्या करते हुए फैसले सुनाए हैं. 1988 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने जयपुर नगर पालिका से छह महीने के अंदर उचित स्वच्छता उपलब्ध कराने का निर्देश दिया. 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने नगरपालिका परिषद रतलाम, मध्य प्रदेश के मामले में कहा था कि 'शालीनता और गरिमा मानवाधिकारों के अपिरवर्तनीय पहलू रहे हैं और स्थानीय-निकायों के प्रशासन के लिए पहला बदलाव.' एक नीति विश्लेषक रुचि पंत ने भारत में पानी के अधिकार के अपने विश्लेषण के दौरान यह भी पाया कि अनुच्छेद 21 के अलावा कुछ अन्य अनुच्छेद भी जल के अधिकार की रक्षा करते हैं, 'अनुच्छेद 14 की अदालतों ने पीढीगत समानता के अधिकार के रूप में व्याख्या की है, यानि पिछली पीढी आने वाली हर पीढी के लिए प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करे. यह इसलिए आवश्यक है कि जैव विविधता का संरक्षण किया जाए और जल समेत सभी नवीकरणीय और गैर नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों का इस तरह उपयोग करे कि यह भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रहे.' इसके अलावा, अनुच्छेद 15(2) पानी के स्रोतों के समान उपयोग को अधिकार मानता है. इसके मुताबिक किसी को भी कुओं, तालाबों और स्नानागारों के प्रयोग से वंचित नहीं किया जा सकता. संविधान के नीति निर्देशक तत्व भी राज्य से पानी और जंगल जैसे सामुदायिक संसाधनों तक लोगों की बराबर पहुंच सुनिश्चित करने कहते हैं. हालांकि,पिछले अनुभवों से यह पता चलता है कि अगर संविधान में स्पष्ट रूप से अधिकारों का वर्णन न हो तो राज्य स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता के लिए दबाव नहीं बनाया जा सकता. अगर पानी को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया जाता है तो इसे पूरा करने के लिए राज्य का दायित्व भी बढ़ जाएगा और लोग भी सशक्त हो जाएंगे ताकि वे सरकार से इस बुनियादी जरूरत की मांग कर सकें. पानी से संबंधित मानवाधिकार का आयाम राज्य पर तीन मुख्य दायित्व डाल सकता है. 1. सम्मान करना: इस के लिए राज्यों को अपनी उन गतिविधियों पर रोक लगानी पडेगी जो किसी भी तरह से पर्याप्त पानी तक पहुँच को बाधित करते हैं, पारंपरिक पानी के आवंटन और प्रबंधन में मनमाने ढंग से हस्तक्षेप, गैरकानूनी तरीके से जल प्रदूषण को बढावा देते हैं या पानी की सेवाओं और संसाधनों को नष्ट करते हैं. 2. रक्षा करना: इसके लिए कुछ ऐसे कानून और प्रावधान आवश्यक होंगे जो तीसरे पक्ष को पर्याप्त पानी न उपलब्ध कराने, जल संसाधनों को प्रदूषित करने और उसका आवश्यकता से अधिक दोहन करने और बराबर, क्षमता के लायक, पर्याप्त और सुरक्षित जल पर रोक लगाने से प्रतिबंधित करे, जहाँ जल सेवाएं तीसरे पक्ष द्वारा नियंत्रित और संचालित हो रही हो.3. उपलब्ध कराना: यदि पानी को मानवाधिकार के रूप में मान्यता दी जा रही है तो राज्यों को विधायी कार्यान्वयन, राष्ट्रीय जलनीति की स्वीकृति, कार्ययोजना बनाने का दायित्व स्वीकार करना चाहिए खास तौर पर पानी जब तक सस्ती और सर्वसुलभ है.
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं |
प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समझौते/सम्मेलन जो जल और स्वच्छता को मानवाधिकार मानते हैं.
संयुक्त राष्ट्र की सामान्य टिप्पणी 15 (2002), पानी का अधिकार (अनुच्छेद 11 और 12 के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र) के मुताबिक पानी का मानवाधिकार "हर किसी के लिए पर्याप्त, सुरक्षित, स्वीकार्य, सुलभ और सस्ता पानी निजी और घरेलू उपयोगों के लिए उपलब्ध हों." |
जिंहे अधिकार नहीं मिले
एक तरफ जहाँ सारा ध्यान और धन जल और स्वच्छता के लिए केंद्रित हो रहा है, जटिल क्षेत्रों के बारे में कम समझ पैदा हो पाई है, जिसके कारण जल और स्वच्छता के अधिकारों का हनन हो रहा है. 1. सरकार के ताजा आंकडों के मुताबिक ग्रामीण भारत में पेयजल का कवरेज सिकुड़ कर 66.4% रह गया है. यह अभूतपूर्व वापसी है, क्योंकि 2005 में उनका कवरेज 95% था. लगभग 19.5 करोड़ ग्रामीणों के लिए स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है. शहरी क्षेत्रों में ऐसे परिवारों की संख्या लगभग 11% है. 2. सरकारी आंकडों के मुतकबिक ऐसी बस्तियां जहां पेयजल उपलब्ध नहीं है, आंशिक तौर पर उपलब्ध है और पानी के स्रोत के साथ गुणवत्ता की समस्या है के आधार पर 77 करोड लोग वंचित हैं. 3. विश्व जल विकास रिपोर्ट, 2003 के मुताबिक पानी की उपलब्धता के मामले में भारत 180 देशों में 133वें स्थान पर है, जबकि गुणवत्ता के मामले में यह 122 देशों में 120वें स्थान पर है.4. हालांकि स्वच्छता कवरेज में सुधार हो रहा है, लेकिन 2012 तक कुल स्वच्छता का लक्ष्य चुनौतीपूर्ण है: अभी तक 665 लाख लोग खुले में शौच करते हैं. हर छह में एक शहरी परिवार की शौचालय तक पहुंच नहीं है. स्वच्छता का क्षेत्र भी पिछड रहा है और शौचालय का उपयोग न किया जाना इसे नुकसान पहुंचा सकता है.
मानव मूल्य
इस अधिकार उल्लंघन के दुखद मानवीय मूल्य हैं: सालाना पर 37.7 लाख से अधिक भारतीय जिनमें से 75% पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चे हैं विभिन्न जल जनित बीमारियों के कारण मर जाते हैं. लगभग 1.5 लाख बच्चों की मौत सिर्फ अतिसार के कारण होती है. बंगलूरू स्थित सेंटर फॉर इंटरडिसिप्लीनरी स्टडीज इन्वायरनमेंट एंड डेवेलपमेंट की नीति विश्लेषक प्रिया संगमेश्वरन कहती हैं, “इसके लिए पानी के अधिकार को दूसरे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के समतुल्य समझा जाना और इसके लिए संरचना और बजट के स्तर पर सरकार की प्राथमिकता सूची में आना आवश्यक है.”भारत की अनुसूचित जनजाति और जाति (अनुसूचित जनजाति / अनुसूचित जातियां) जो देश के गरीबों का एक बडा हिस्सा हैं, सामाजिक बहिष्कार के कारण गरीबी और हाशिये पर पहुंचने का उदाहरण हैं. पेयजल के मामले में त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम के मुताबिक प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जातियों के लिए न्यूनतम 25% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 10% खर्च अनिवार्य कर दिया गया है. सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि अनुसूचित जातियों के लिए निर्धारित व्यय का औसतन 40% खर्च नहीं हो पाता, इस तथ्य के बावजूद कि आबादी का यह हिस्सा शुद्ध पानी से सबसे अधिक वंचित है. हालांकि अनुच्छेद 17 ने अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया है,मगर सिर पर मैला ढोने वाले समुदाय अभी भी सामाजिक अस्पृश्यता झेल रहे हैं. भारतीय कानूनों के तहत सिर पर मैला ढोना तथा किसी को इसके ऐसे किसी काम के लिए प्रेरित करना गैरकानूनी है. इसके बावजूद भारत में लगभग 3.42 लाख सिर पर मैला ढोने वाले हैं. देर से ही बहुत से लोग यह मानने लगे हैं कि अगर स्वच्छता को अधिकारों में शामिल कर लिया जाएगा तो मैला ढोना खत्म हो जाएगा.
पानी और स्वच्छता के अधिकार को समझना
विश्व जल दिवस एक चेतावनी है: कितने लोग रोगों से मर जाएंगे क्या तब हम पानी और स्वच्छता को अधिकार का दर्जा देंगे? नवंबर 2008 में दिल्ली में आयोजित साउथ एशियन कॉन्फ्रेंस ऑन सैनिटेसन-3(SACOSAN-III), में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जल और स्वच्छता को मानवाधिकार घोषित किया था. यह इस बार के और पिछले सेकोसेन के बीच दो साल के दौरान साउथ एशिया में जलजनित रोगों से मरे 10 लाख बच्चों की सांत्वना थी. 1 अप्रैल 2009 से पेयजल आपूर्ति विभाग, ग्रामीण मंत्रालय ने अपने ग्रामीण पेयजल आपूर्ति कार्यक्रम के लिए नए दिशानिर्देश तय किए हैं जो पानी को एक अधिकार के तौर पर देखता है. यह उम्मीद रखने की एक और वजह है. इसके अलावा यह भी समझने की जरूरत है कि किस तरह मौजूदा कानून और नियम पानी और स्वच्छता के अधिकार को लागू करा सकते हैं. पानी के अधिकार के कई आयाम हैं. पात्रता के मुद्दे, उपयोग की प्राथमिकता, संघर्ष परिहार, उचित स्तर पर कार्रवाई के लिए संस्थागत तंत्र, जवाबदेही और पारदर्शिता, पहुंच और सामर्थ्य आदि उनमें से कुछ हैं.
अधिकार का मतलब जिम्मेदारियां भी
अनुच्छेद 21 पानी के अधिकार की गारंटी देता है, मगर वहाँ अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कुछ विकल्प ही उपलब्ध हैं. नागरिक समाजिक संगठनों के रूप में हमारे लिए दोहरी जिम्मेदारियाँ हैं: जीने के मौलिक अधिकार के रूप में पानी के अधिकार के प्रति जागरुकता फैलाना और उन तरीकों को अपनाना जो इन अधिकारों को सुनिश्चित करते हैं. अधिकार के साथ जिम्मेदारियां भी आती हैं. पेयजल इतनी अधारभूत आवश्यकता है कि इसे सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं छोडा जा सकता. भारत के संविधान में राज्य के साथ-साथ आम लोगों के लिए भी मौलिक कर्तव्यों का प्रावधान किया गया है. अनुच्छेद 51-ए अपने प्रति, राष्ट्र के प्रति और पर्यावरण के प्रति कर्तव्यों का वर्गीकरण करता है. अनुच्छेद 51-ए(जी) में कहा गया है कि 'जंगलों, झीलों, नदियों सहित प्राकृतिक पर्यावरण में सुधार और वन्य जीवन की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य है.' ऐसे में हमें अधिकार और कर्तव्यों के सही मिश्रण को अपनाने और बढ़ावा देने की जरूरत है. जैसा कि अदालतों ने पानी की एक सामाजिक संपत्ति के रूप में व्याख्या की है, यह समुदायों का कर्तव्य है कि पानी की सुरक्षा करे और उसका विवेकपूर्ण उपयोग करे. समुदायिक स्तर पर हम जल और स्वच्छता के क्षेत्र में अपनी जिम्मेदारियों का कैसे सम्मान कर सकते हैं? एक सामाजिक और आम संसाधन होने के नाते इसे विभिन्न समुदायों से जिम्मेदार प्रतिक्रियाओं की जरूरत है. ऐसे उदाहरण हैं जिसमें गांव के लोगों ने जल बजट को अपनाया है. यह पानी के अधिकार को लागू करने के प्रति समुदाय की जिम्मेदारी का एक उदाहरण है. दूसरी तरफ सरकारी कार्यक्रम और नीतियां पानी के अधिकार को अपनी सेवा प्रावधानों का केंद्र माने. पेयजल और स्वच्छता के मामले में नागरिक समाज भी महत्वपूर्ण निभा सकता है. इसमें शामिल होगा (क) समुदाय को उनके अधिकार के बारे में सूचित, प्रोत्साहित और सशक्त बनाना ताकि वे इन अधिकारों को हासिल कर सकें (ख) उन्हें सक्षम बनाना ताकि वे पानी के स्रोतों की रक्षा कर सकें और गुणवत्ता तथा मात्रा में स्थायित्व आए. (ग) उन्हें समझाना ताकि वे स्वच्छ वातावरण के प्रति अपने व्यवहार में बदलाव ला सकें और पानी का विवेकपूर्ण उपयोग कर सकें (घ) सरकारों के साथ अनुभव बांटना (ई) पानी की गुणवत्ता और प्रयोग के लिए स्व संचालित तंत्र का विकास.