जल के सदुपयोग हेतु ड्रिप सिंचाई पद्धति (Drip Irrigation System for Wise Use of Water)

Submitted by Hindi on Sat, 08/05/2017 - 10:10
Source
भगीरथ - जुलाई-सितम्बर 2011, केन्द्रीय जल आयोग, भारत

ड्रिप सिंचाई पद्धति की कठिनाइयों की तुलना में अधिक लाभ है अतः कृषकों के इस पद्धति को अपनाकर लाभ उठाना चाहिए। कम पानी की स्थिति में फसलें उगाई जा सकती हैं और अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इसकी अधिक जानकारी हेतु राज्य बागवानी मिशन/उद्यान विभाग से संपर्क स्थापित किया जा सकता है। इन विभागों द्वारा ड्रिप सिंचाई पद्धति हेतु सब्सिडी का भी प्रावधान है। अतः कृषकों को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

जल प्रत्येक जीव एवं जंतु के जीवन का प्रमुख आधार है। जल पौधों के अंदर होने वाली समस्त चयापचय क्रियाओं के संचालन में नितांत आवश्यक है, क्योंकि यह प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया के लिये आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जल औद्योगिक उत्पादन, ऊर्जा स्रोत एवं यातायात में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विश्व धरातल का 75 प्रतिशत से अधिक भाग जलाच्छादित है। सभी स्रोतों को मिलाकर विश्व में कुल 1384 मिलियन घन कि.मी. जल उपलब्ध है। उक्त जल का लगभग 97.16 प्रतिशत भाग समुद्र के लवणीय जल के रूप में पाया जाता है, जो सिंचाई के लिये अनुपयुक्त है। केवल 2.84 प्रतिशत जल सिंचाई के लिये उपयुक्त है। विश्व के शुद्ध जलस्रोतों का भी मात्र 0.52 प्रतिशत भाग ही सतही स्रोत के रूप में पाया जाता है और सिंचाई के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

भूमिगत जल स्रोत जोकि 8.062 मिलियन घन कि.मी. की मात्रा में उपलब्ध है, जिसकी मात्र 9.86 प्रतिशत भाग ही उपयोग में लाया जा सकता है। विश्व में भारत कृषि जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। लगभग कुल पानी का 70 प्रतिशत उपयोग कृषि में किया जाता है। बढ़ती जनसंख्या एवं आवश्यकताओं के कारण अन्य क्षेत्रों में भी कृषि जल माँग में वृद्धि हो रही है, जिसका परोक्ष प्रभाव कृषि पर पड़ सकता है, इस समस्या से छुटकारा पाने हेतु जर्मनी में सूक्ष्म पद्धति के लिये छिद्रयुक्त नालियों का विकास किया गया है। 1940 में इजरायली वैज्ञानिक सिमचा ब्लेज के द्वारा बूँद सिंचाई पद्धति का विकास किया गया। तत्पश्चात आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका एवं दक्षिणी अमेरिका में इसका विकास हुआ। यद्यपि इसका विकास भारत में 1970 के दशक में हुआ। लेकिन इस पद्धति का महत्त्वपूर्ण विकास 1981 के दशक में हुआ। वर्तमान में भारत में इस सिंचाई पद्धति के द्वारा महाराष्ट्र में सर्वाधिक क्षेत्र सिंचित किया जा रहा है।

भविष्य में आने वाली स्थिति को दृष्टिगोचर करते हुए यह नितांत आवश्यक है कि उपलब्ध जल का अधिकतम सदुपयोग किया जाए अर्थात कृषि जल प्रबंधन में होने वाली हानियों को कम करते हुए प्रति इकाई जल से अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जाए। ड्रिप या ट्रिकल सिंचाई इस दिशा में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस विधि से सिंचाई करने पर 30 से 80 प्रतिशत तक पानी की बचत हो सकती है। साथ ही 20-100 प्रतिशत तक उत्पादकता में वृद्धि और उत्पादन की गुणवत्ता में भी सुधार किया जा सकता है।

ड्रिप सिंचाई पद्धति के द्वारा पौधों की किस्म, उनकी आयु, स्थान विशेष की भूमि एवं जलवायु संबंधी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पौधों की जल मांग के अनुरूप प्लास्टिक की नालियों में लगे हुए उत्सर्जकों के द्वारा जल को पौधों के प्रभावी जड़ क्षेत्र में बूँद-बूँद करके दिया जाता है। इस विधि में पानी की हानि होने की संभावना लगभग नगण्य होती है और पौधे के जड़ क्षेत्र में एक आदर्श नमी स्तर बनाए रखा जा सकता है।

ड्रिप सिंचाई पद्धति के घटक


1. पम्प: जलस्रोत से पानी को उठाने के लिये पम्प का प्रयोग किया जाता है। जलस्रोत से पानी को प्रमुख पाइप से विभागीय पाइपों तक पहुँचाने में पंप द्वारा उचित दबाव का प्रयोग करते हैं।

2. नियंत्रक सिरा: नियंत्रक सिरे में एक वाल्ब लगा रहता है, जो संपूर्ण प्रणाली में जल के प्रवाह एवं दबाव को नियंत्रित करता है साथ ही इसमें एक छलनी (फिल्टर) भी लगी रहती है, जो पानी को साफ करने का कार्य करती है।

3. मुख्य एवं पार्श्विक नलिकाएं: इन नलिकाओं द्वारा पानी को नियंत्रक सिरे से खेत तक पहुँचाया जाता है। ये नलिकाएं मुख्यतः पी.वी.सी. अथवा पोलीइथालीन की बनी होती हैं। सामान्यतः नलिकाएं भूमि में लगभग 60 से.मी. गहराई तक दबाई जाती हैं, ताकि उनमें किसी प्रकार की रुकावट उत्पन्न न हो और सीधे सूर्य के प्रकाश आने पर इनका अपघटन न हो। विभागीय नलिकाओं से आने वाला पानी लैटरल्स के द्वारा पौधों के जड़-क्षेत्र तक पहुँचता है। सामान्यतः लैटरल्स नालियों का व्यास 13-32 मि.मी. के मध्य होता है।

4. उत्सर्जक: लैटरल्स में से आने वाला पानी उत्सर्जक की सहायता से पौधे के जड़ क्षेत्र तक पहुँचता है। फसल की जल मांग को ध्यान में रखकर दो उत्सर्जकों के बीच के अंतर का निर्धारण किया जाता है। एक पौधे के लिये एक या एक से अधिक उत्सर्जकों का उपयोग किया जा सकता है। उदाहरणार्थ फल वृक्षों हेतु पंक्ति में बोई गई फसलों में उत्सर्जकों के बीच का अंतर कम रखते हैं, ताकि पूरी पंक्ति में प्रत्येक स्थान पर समान प्रभाव से पानी मिलता रहे।

ड्रिप सिंचाई हेतु उपयुक्त कृषि क्रियाएँ -


ड्रिप सिंचाई हेतु प्रमुख एवं उपयुक्त कृषि क्रियाओं का उल्लेख नीचे किया गया है:-

उपयुक्त फसलें: परीक्षणों से पता चला है कि ड्रिप सिंचाई पद्धति का उपयोग उच्च मूल्य वाली, अधिक दूरी पर बोई जाने वाली फसलों के लिये अधिक उपयोगी है। यह पद्धति मुख्यतः फसलों, बागानों, गन्ना, कपास व पंक्तियों में बोई जाने वाली सब्जियों के लिये अधिक उपयोगी पाई गई है।

उपयुक्त मृदा का चयन: वैसे तो इस पद्धति का उपयोग प्रत्येक प्रकार की मृदा हेतु किया जा सकता है परंतु यह पद्धति रेतीली एवं उबड़-खाबड़ भूमि के लिये अधिक उपयोगी पाई गई है। लेकिन चिकनी मिट्टी में अपवाह को नियंत्रित करने हेतु पानी धीरे-धीरे देना चाहिए, जबकि रेतीली मृदा में उत्सर्जकों के द्वारा पानी के प्रवाह की दर अधिक होनी चाहिए।

बोने की विधि: इस पद्धति से सिंचाई करने हेतु कभी-कभी फसलों को बोने की विधि में परिवर्तन करना पड़ जाता है। उदाहरणार्थ गन्ने की फसल की ड्रिप सिंचाई करने के लिये कुंडों में बोआई न करके जुड़वां पंक्ति विधि से बोआई की जाती है जिसमें लैटरल्स कम लगते हैं।

ड्रिप विधि का चयन: पृष्ठीय बूँद-बूँद सिंचाई को अधो पृष्ठीय सिंचाई की अपेक्षा अधिक प्राथमितकता दी जाती है, क्योंकि इसमें जल का वाष्पन एवं अपवाह के रूप में हानि कम होती है। इसके अतिरिक्त कृषि क्रियाओं के दौरान एवं निराई गुड़ाई के समय पाइपों की क्षति कम होती है।

जल प्रबंधन: इस पद्धति के द्वारा पानी की काफी बचत की जा सकती है, पानी को प्रतिदिन या 1-2 दिन के अंतराल पर पौधों की मांग के अनुसार दिया जाना चाहिए। सिंचाई करते समय जल आपूर्ति, मृदा में नमी बनाए रखने और उचित वायु-संचार के लिये पर्याप्त होनी चाहिए। प्रत्येक सिंचाई के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जल की मात्रा मृदा की जल धारण क्षमता से अधिक न हो। इसके अतिरिक्त ड्रिप सिंचाई से मृदा में जल का वैरिंग पैटर्न, पौधों के जड़-क्षेत्र तक अवश्य पहुँचना चाहिए।

उर्वरीकरण: उर्वरीकरण के द्वारा न केवल पौधों को उचित मात्रा में समय पर पोषक तत्वों की प्राप्ति होती है, अपितु इससे निक्षालन, स्थिरीकरण के द्वारा होने वाली क्षति से भी बचा जा सकता है। इसके अतिरक्त पोषक तत्वों का वितरण भी समुचित रूप से होता है। उर्वरीकरण हेतु मुख्यतः नाइट्रोजन का उपयोग किया जाता है, हालाँकि इस विधि में फास्फोरस, पोटाश, गंधक, जिंक, लोहा, का भी प्रयोग किया जा सकता है।

ड्रिप सिंचाई के लाभ


1. सतही सिंचाई में पानी खेत तक पहुँचने में 15-20 प्रतिशत तक अनुपयोगी रहता है, जबकि नहरी पानी से क्षति 30-35 प्रतिशत तक बढ़ जाती है और सतह सिंचाई में एक सा पानी नहीं पहुँच पाता है। ड्रिप सिंचाई पद्धति से औसतन 30-80 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है और इस बचे पानी से सिंचित क्षेत्रफल बढ़ाया जा सकता है जिससे उत्पादन भी बढ़ता है।

2. ड्रिप जल पद्धति से उपज में 20 से 100 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। साथ ही फसल के उत्पाद की गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती है।

3. इस पद्धति के द्वारा उर्वरीकरण के माध्यम से उर्वरकों, पोषक तत्वों, एवं दवाओं का समुचित उपयोग हो जाता है साथ ही उर्वरकों की उपयोग क्षमता में 30 प्रतिशत वृद्धि हो जाती है।

4. ड्रिप जल पद्धति में जल का पत्तियों, तने एवं फल से संपर्क न होने के कारण बीमारियों की कम संभावना होती है। कहने का अभिप्राय कि शुद्ध कृषि उत्पादों की प्राप्ति होती है।

5. इस पद्धति में केवल पौधों के जड़ क्षेत्र सिंचित होने के कारण, खेत के अन्य भागों में खरपतवार नहीं पनपते हैं।

6. ड्रिप में भी सिंचाई पद्धति का उबड़-खाबड़ एवं क्षारीय भूमि में भी उपयोग किया जा सकता है।

7. ड्रिप सिंचाई पद्धति से खारे पानी से भी फसलें सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं।

8. इस पद्धति से समय की बचत होने के साथ देखभाल, मजदूरी, रासायनिक खाद एवं अन्य खर्चो में कटौती की जा सकती है।

9. यह पद्धति पौधों के लिये लवणता के दुष्प्रभाव को कम करने में सहायक होती है, क्योंकि निरंतर बूँद-बूँद करके सिंचाई करने से पौधे के जड़ क्षेत्र में एक आदर्श कुल जल विभव बना रहता है, जिससे पौधों पर लवणता का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।

10. इस सिंचाई पद्धति के द्वारा फसल अपेक्षाकृत जल्दी पकती है।

ड्रिप सिंचाई की प्रमुख कठिनाइयाँ :


1. इस सिंचाई पद्धति में अन्य सिंचाई पद्धतियों की तुलना में प्रारंभिक निवेश अधिक होता है।

2. चूहे एवं भूमि कीटों द्वारा प्लास्टिक पाइपों को क्षति पहुँचाई जा सकती है।

3. इस सिंचाई पद्धति में यदि जल उचित प्रकार से नहीं छीना गया है, तो उस स्थिति में कभी-कभी उत्सर्जकों में मृदा कणों, जैविक पदार्थों, शैवालों के कारण अवरोध उत्पन्न हो सकता है।

4. इस विधि में उथली एवं सपाट सिंचाई के कारण जड़ों का समुचित विकास नहीं हो पाता है, जिसके कारण ऊँची बढ़ने वाली फसल जैसे गन्ना आदि में लाजिंग हो जाती है।

5. चूँकि इस विधि में नमी एक विशेष स्थान में ही सीमित रहती है, अतः कीटनाशी एवं उर्वरक पूर्णतया सक्रिय नहीं हो पाते हैं।

6. शुष्क जलवायु क्षेत्रों में जहाँ वर्षा 25 सेमी. से कम होती है, वहाँ लवण पौधों के वैटिंग फ्रंट पर इकट्ठे हो जाते हैं। उस स्थिति में लवणों के निक्षालन के लिये एक अतिरिक्त सिंचाई स्प्रिंकलन/सतह सिंचाई से देनी पड़ सकती है, जिसके कारण फसल लागत में वृद्धि हो सकती है।

7. ड्रिप सिंचाई पद्धति के लिये कुशल श्रमिक एवं अधिक ज्ञान की आवश्यकता होती है।

ड्रिप सिंचाई पद्धति की कठिनाइयों की तुलना में अधिक लाभ है अतः कृषकों के इस पद्धति को अपनाकर लाभ उठाना चाहिए। कम पानी की स्थिति में फसलें उगाई जा सकती हैं और अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इसकी अधिक जानकारी हेतु राज्य बागवानी मिशन/उद्यान विभाग से संपर्क स्थापित किया जा सकता है। इन विभागों द्वारा ड्रिप सिंचाई पद्धति हेतु सब्सिडी का भी प्रावधान है। अतः कृषकों को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

सम्पर्क
कृषि बागवानी सलाहकार, 5 ई-9 बी बंगला प्लाट, फरीदाबाद-121001