जल के वैदिक और पौराणिक लोकाख्यान (भाग 2)

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वसन्त निरगुणे

यूनानी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम् सभ्यताओं में से एक है। जीथस उनका प्रथम यूनानी देवता है। यूनानीयों के अनुसार आरम्भ में केवल रिक्तता थी यानी शून्य था। उस शून्य में से तीन अमर देवों का उदय हुआ। जीया अर्थात भूमि माता, टारटरस अर्थात पाताल लोक का स्वामी और ईरोस अर्थात प्रेम का देवता, जिसने समूची दैवी और सांसारिक सृष्टि के उदय की प्रेरणा दी। जीया के साथ एक अद्भुत संयोग हुआ, उसने बिना पुरुष के यूरेनस को जन्म दिया और उसे पति के रूप में स्वीकार कर लिया। जो आकाश का देवता बन गया था। इससे पहले जीया ने पर्वत (ओरिया) और बाढ़ में जल से भरे समुद्र (कोन्टस) को जन्म दिया। यहीं से जल की कथा शुरू होती है।

बेबिलोनिया में जल के बहुत प्राचीन मिथक मिलते हैं- उनके अनुसार-सृष्टि के प्रारम्भ में केवल जल था- मीठा जल और खारा जल। खारे जल की प्रतीक और शासिका मातृदेवी तियामत थी और मीठे जल का प्रतीक और शासक पितृदेव आप्सू था। आप्सू और तियामत आदिदेव हैं तथा पति पत्नी भी। उनका बेटा था- मम्मू, जो जल पर फैले हुए कुहरे में निवास करता था। यहीं से कथा बहुत आगे बढ़ती है। मरडूक सूर्य तथा सृष्टि की रचना करने वाला देवता बना। इसी मरडूक ने तियामत की खोपड़ी तोड़कर उसके शरीर को चीरकर आधे भाग से आकाश और आधे भाग से पृथ्वी को बनाया। पृथ्वी पर उसके सिर को रखकर पर्वत बनाया और दोनों आँखों से दजला-फरात नदियाँ प्रवाहित कीं।

पृथ्वी के प्रारम्भ में समुद्र औऱ केवल झीलें थीं। नदियाँ नहीं थीं। ऊपर की कथा नदी सभ्यता के विकास के बाद की लगती है। विश्व की प्रथम नदी के रूप में भारतीय पौराणिकता के अनुसार ‘नर्मदा’ को माना जाता है। पृथ्वी पर नर्मदा को संभालने के लिए विश्व के प्रथम पर्वत ‘विन्ध्य’ को देवताओं द्वारा कहा गया तो उन्होंने कहा- मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ। नर्मदा को नहीं सभांल पाऊँगा। आप मेरे पुत्र अमरकंटक को यह उत्तरदायित्व सहर्ष सौंप दें। ऐसा ही हुआ और नर्मदा अमरकंटक की बेटी हो गई। गंगा, जमुना, सरस्वती, कृष्णा, गोदावरी, भीमा आदि भारत की सभी नदियों के अवतरण की अपनी-अपनी कहानियाँ हैं, पौराणिक आख्यान हैं। नदियाँ संस्कृति की जननी हैं। विश्व की अनेक प्रसिद्ध संस्कृतियाँ नदियों अर्थात् जल के किनारे विकसित हुई हैं। सरस्वती नदी के तट पर विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ‘वेद’ रच गये। इसीलिए भारत में नदियों को माता का दर्जा दिया गया है। संसार में मीठा जल नदियों से ही प्राप्त होता है, इसलिए नदियों के जल को पवित्र और उनके तटों को ‘तीर्थ’ कहा गया है।

प्रथम नदी नर्मदा की पुराण कथा देना, इस अर्थ में यहाँ असंगत नहीं होगा कि पृथ्वी पर ऊचास से निचास की ओर बहती अपार जलराशि पहली बार किस तरह अवतरित हो रही थी, जिसका पानी पीने लायक मीठा था। नर्मदा रूद्रांग उद्भूता है। वह शांकरी है, शैवी गंगा है, माहेश्वरी नर्मदा है। रुद्र की कृपा से प्रलय में वह अयोनिजा स्थिर है। उसके तट पर सदाशिव का सदा वास है। जिसके दर्शन मात्र से आदमी पवित्र हो जाता है। पतित पावनी गंगा स्वयं बारह वर्ष में एक बार काली गाय के रूप में नर्मदा में इकट्ठा हुआ कलुष धोने आती हैं और स्नानकर श्वेत होकर लौट जाती है। ऋग्वेद में नर्मदा का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं हैं लेकिन उसे वेदों में अन्तःसलिला कहा गया है। बाद में नर्मदा का परिचय पुराणों में विस्तार से मिलता है। सबसे पहले नर्मदा का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में आता है, फिर रामायण और वायु, मत्स्य, कूर्म, पद्म, ब्रह्म, विष्णु, मार्कण्डेय, शिवपुराण, श्रीमद्भागवत आदि में वर्णन मिलता है। स्कन्ध पुराण का रेवाखण्ड नर्मदा को ही समर्पित है। कई संस्कृत काव्याग्रन्थों में भी नर्मदा का उल्लेख मिलता है।

ताण्डव करते शिव के शरीर से पसीना इतना बहा कि वह एक कुण्ड में इकट्ठा हो गया। इसी कुण्ड में से एक बालिका प्रकट हुई। उसे ही नर्म यानी आनंद दा यानी देने वाली ‘नर्मदा’ कहा गया। भगवान शिव ने उसे लोकहितार्थ नदी बनकर बहने को कहा। वायु पुराण में इस कथा का थोड़ा और विस्तार मिलता है।

सृष्टि के आदि में शंकरजी के ताण्डव नृत्य से उत्पन्न श्रम स्वेद से उद्भूत नर्मदा ब्रह्मलोक में रहने लगी। तब तक पृथ्वी पर कोई नदी नहीं थी। देवताओं ने नर्मदा को पृथ्वी पर भेजने की प्रार्थना शिव से की। शिवजी ने पूछा कि नर्मदा के बेग को कौन धारण करेगा? इस पर विन्ध्य-पुत्र मैकल ने उसके वेग को धारण करना स्वीकार किया। इस तरह नर्मदा का अवतरण पृथ्वी पर हो गया। इस कथा का हार्द्र अभी शेष है। अमरकंटक पर्वत पर तपस्यारत भगवान शंकर के निमिलित नेत्र खुले तो सामने प्रार्थना मुद्रा में सभी देवताओं को देखकर विगलित हो गये। ठीक उसी समय उनके मस्तक पर विराजित चन्द्रकला से एक अमृत बिन्दु पृथ्वी पर गिर पड़ा। पृथ्वी पर गिरते ही वह सोम बिन्दु एक सुन्दर कन्या में बदल गई। उसका स्वरूप देखते ही बनता था-

नीलोत्पलादल श्यामा सर्वावयव सुन्दरी।
सुद्विजा सुमुखी बाला सर्वाभरणभूषिता।


राजर्षि पुरूरवा ने मेकल पर्वत पर कठोर तपस्या करके नर्मदा को स्वर्ग लोक से उतारा। राजर्षि की श्रद्धा भक्ति से प्रभावित होकर नर्मदा सत्यलोक से पृथ्वी पर उतरना चाहती थीं। पर उसकी तेज धारा को धारण करनें में विंध्य और सतपुड़ा दोनों असमर्थ थे। आखिर दोनों ने मिलकर मेकल को इस योग्य समझा। मेकल भगवान शंकर का परम भक्त था। उसने अपने आराध्य देव की स्तुति की। प्रसन्न होकर शंकर ने जटाओं को फैला दिया। नर्मदा शंकर की जटाओं में से निकलती हुई मेकल पर्वत पर बहने लगी। इसी से नर्मदा का एक ‘मेकल कन्या’ हुआ। (संस्कृति स्रोतस्विनी नर्मदा से)

वेदों की प्राचीनता के बारे में प्रायः सभी अध्येता जानते हैं। उनमें जल की महत्ता और स्तुति दोनों मुक्त रूप से की गई है। जल का सम्बन्ध पृथ्वी से हो रहा है। ऋग्वेद में सोम को जल का पिता कहा गया है। रश्मियों के द्वारा सूर्य ने वृष्टि जल की उत्पत्ति की है और पृथ्वी जल से आप्लावित है।

धृतवती भुवनानाम्भिश्रियोर्वी पृथ्वी मधु दुधे सुपेशशा।
द्यावा पृथिवी वरुणस्य धर्मणा विण्कभिते अजेर भूरि रेतसा।।1।।

असश्चन्ती भूरि धारे पयस्वती घृत दुहाते सुकृते शुचिव्रते।
राजन्यी अस्य भुवनस्य रोदसी अस्मे रेतः सिंचत यन्मनुर्हितम्।।2।।

-ऋग्वेद षष्ठम मंडल सुक्त-70


-हे द्यावा पृथिवी! तुम जल वाली हो। सुन्दर रूप वाली, वरुण द्वारा धारण की हुई, नित्य और अनेक कर्म वाली हो। हे द्यावा पृथिवी! श्रेष्ठ कर्म वाले पुरुषों को तुम जल प्रदान करती हो। तुम भुवन अधिश्वरी हो। हमें हितकारी बल प्रदान करो।
–द्यावा पृथ्वी जल द्वारा आच्छादित है और जल का ही आश्रय करती है। वे विस्तीर्ण, जल से ओतप्रोत और जल वृद्धि का विधान करने वाली हैं, जल का दोहन करने वाली यज्ञ, धन, यश, अन्न, बल देने वाली है।

जल के आदि मिथकों में महासागर को जल की माता कहा गया है। ऋग्वेद के सूक्त में इसे वर्णित किया गया है। ‘सिन्धु नदियों की माता है। सरस्वती सप्तमा है, ये सुन्दर धारा वाली नदियाँ अभीष्ट सिद्ध करने वाली हैं। वे अपने जल द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुई नदियाँ एक साथ ही अन्न बनने वाली हो।’ वरुण जल का देवता है, उसी ने अन्तरिक्ष में सूर्य को मार्ग दिया। उसने नदियों को जल दिया। हे वरुण! संसार की आत्मा रुपी वायु जल को सब और भेजता है। सोम आकाश को जल-धारण करने वाला बनाते हैं। अग्नि, सूर्य और इन्द्र वृष्टिकारक देवता हैं। इन्द्र की सत्यवाणी नीचे की ओर जाते हुए जल के समान जाती है। इन्द्र ने जल को रोकने अथवा कब्जा करने वाले वृत्र का वध किया था। हम पर्वत के और जलों के सुखों की इच्छा करते हैं। ऋग्वेद में जल को जीवन का कारक और रक्षक माना है। यह सबसे पुरानी धारणा है।