चेन्नई जब भंयकर जलसंकट से जूझ रहा था और वहाँ लोग एक बाल्टी पानी के लिए आपस में लड़ रहे थे, तब एक-दूसरे से 10 हजार किलोमीटर का फासला रखने वाले और पानी की अलग कमी झेलने वाले दो शहर शान्तिपूर्वक अपने नागरिकों को पानी की आपूर्ति कर रहे थे। मैंने इन दोनों शहरो की यात्रा की है और देखा है कि किस तरह पारम्परिक कोशिशों और अत्याधुनिक तकनीक का गठजोड़ कर सर्वाधिक जलसंकट वाले इलाकों में भी समस्या का निदान किया गया। सवाल उठता है कि उच्च प्रौद्योगिक सम्पन्न भारत के शहरों से उदाहरण प्रस्तुत क्यों नही कर सकते। तथ्य यह है कि बेंगलुरु को झीलों, तालाबों और टैंक में वर्षाजल संचय के बाद बनाया गया था, लेकिन ज्यादातर झीलें और तालाब या तो खत्म हो चुके हैं या फिर प्रदूषित हो चुके हैं, जिन्हें पुनर्जीवित किया जा सकता है।
विंडहोक
सीवेज से पेयजल तैयार करते हुए बीती आधी सदी
नामीबिया की राजधानी विंडहोक में अगस्त 2018 के दौरान मैंने पहली बार डायरेक्ट पीटेवल रीयूल (डीपीआर) का नाम सुना। मतलब है घरेलू सीवेज को पेयजल में तब्दील करना। घरेलू अपशिष्ट (सीवेज) को साफ कर दोबारा पाने लायक बनाते हुए इस शहर को आधी सदी बीत चुकी है। विंडहोक की खासियत यह भी है कि औद्योगिक और अन्य जहरीले अपशिष्ट जल को घरेलू अपशिष्ट जलधारा से अलग रखा जाता है। घरेलू अपशिष्ट जल को पूर्वशोधन के बाद दस चरणों जमावट, फलोकुलेशन (रासायनिक अभिक्रिया), ग्रेविटी फिल्टरेशन (ठोस वर्षा को छानना), सक्रिय कार्बन कणों को छानना, अल्ट्रा-फिल्ट्रेशन, ओजोनीकरण से गुजारा जाता है।
सख्त मानक के अनुरूप
शहर की आबादी तीन लाख। जल आपूर्ति सीमित। सालाना वर्षा 300-400 मिलीमीटर। 1968 में पहली बार रिसाइक्लिंग प्लांट। पुराना प्लांट बंद हो चुका, 2002 में रीक्लेमेशन प्लांट ने जगह ली। नए प्लांट में हर दिन 21 हजार घन मीटर पेयजल तैयार। इस मरु शहर में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति करीब 60 लीटर पानी पहुँचाया जाता है। बुनियादी जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त। इसके बाद जाकर कहीं पेयजल स्विट्जरलैंड की पानी गुणवत्ता मानकों के अनुसार बनता है। यह दुनिया का सबसे जटिल और सख्त पेयजल मानक है। 1968 से रिसाइकल किए गए पानी से सेहत पर दुष्प्रभाव का एक भी मामला सामने नहीं आया।
सिंगापुर
हर बूँद की गिनती से पूरी हो पाती है सबकी जरूरत
सिंगापुर भी एक जलसंकट वाला शहर है। यह मलेशिया से पानी आयात करता है। शहर के लिए पानी एक मात्र स्रोत वर्षाजल है। अब भी यह पारम्परिक तरीकों और आधुनिक तकनीक के सामंजस्य से अपने नागरिकों को 140 लीटर स्वच्छ जल प्रतिदिन आपूर्ति करता है। नार्डेस आई द बे सिंगापुर का मशहूर पर्यटक स्थल है। इसमें तीन वाटरफ्रंट वाले बगीचे है। लेकिन ज्यादातर लोग यह नहीं जानते है कि जिस जलाशय पर ये बगीचे मौजूद हैं, वह सिंगापुर का सबसे बड़ा वर्षाजल संचय का मारियाना जलाशय है। यहाँ पानी की घरेलू माँग के अलावा औद्योगिक माँग बहुत ज्यादा है।
बना ग्लोबल हाइड्रो-हव
वर्षाजल संचयन, सीवेज को रिसाइक्लिंग, आयातित पानी और डीसलाइनेशन प्लांट की संयुक्त व्यवस्था सिंगापुर को आज वाटर सरप्लस वाला शहर बना चुकी है। आज सिंगापुर खुद को ग्लोबल हाइड्रो-हब कहकर बुलाता है। शहर के पास 180 कम्पनियाँ, 20 जल शोध संस्थान हैं जो जल क्षेत्र में आधुनिक तकनीक विकसित कर रहे हैं। वर्षाजल संचय करने के मामले में सिंगापुर दुनिया में शीर्ष पर है। यहाँ सलाना 2400 मिलीलीटर वर्षा होती है। लेकिन इसके पास जमीन का एक छोटा सा हिस्सा ही वर्षाजल संचय के लिए मौजूद है। आज दो तिहाई सिंगापुर में जलसंचय क्षेत्र बनाए गए हैं।
चेन्नई या बेंगलुरु क्यों नहीं?
विडंबना यह है कि ऐसे उदाहरणों का अनुसरण करने के बजाय बेंगलुरु 5500 करोड़ रुपए की कावेरी जल आपूर्ति परियोजना, चरण-पाँच के जरिए अतिरिक्त 77.5 करोड़ लीटर प्रतिदिन हासिल करना तय कर चुका है। क्या हजारों किलोमीटर से पानी लाना टिकाऊ और सस्ता है, या फिर वर्षाजल संचयन और अपशिष्ट जल की रिसाइक्लिंग बेहतर उपाय सिद्ध हो सकते हैं। भारत में मंहगी जलापूर्ति योजना पर कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए, क्योंकि लगातार भारतीय शहरों में विंडहोक से ज्यादा पानी है और सिंगापुर से ज्यादा कैचमेंट क्षेत्र।
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